Book Title: Anand Pravachan Part 06
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 346
________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग इसलिए बन्धुओ, जबकि अनेकानेक पुण्यों के फलस्वरूप हमें यह दुर्लभ जीवन मिला है तो इसका लाभ उठाकर हमें अपनी पुण्य की पूंजी को बढ़ा लेना है, उलटे इसे नष्ट नहीं कर देना है । और यह तभी संभव हो सकता है जबकि हम कषायों को कम करें, तृष्णा पर रोक लगायें और इच्छाओं को अल्प से अल्प करते हुए संवर की आराधना करें । इच्छाओं की वृद्धि से मनुष्य संसार में उलझता चला जाता है और आत्मा का रंचमात्र भी कल्याण नहीं कर सकता । इसलिए भगवान ने प्रत्येक मानव और मुनियों को अपनी इच्छाएँ अल्पतर बनाने का आदेश दिया है । ३३४ अब हम पुनः पूर्व में कही हुई उत्तराध्ययन सूत्र की गाथा पर आते हैं । गाथा में मुनि के लिए तीसरी बात यह कही गई है कि वह 'अन्नाएसी' हो । (३) अज्ञातएषणा अन्नाएसी का अर्थ है अज्ञातएषणा करने वाला । साधु को आहार- पानी लेने के लिए अगर जाना है तो इस प्रकार जाना चाहिए कि उनके पहुँचने का किसी गृहस्थ को पता न हो । अगर किसी को यह ज्ञात होगा कि हमारे यहाँ मुनिराज गोचरी के लिए पधारने वाले हैं, तो वहाँ दोष लगने की संभावना रहेगी । साधु को वास्तव में अतिथि होना चाहिए कि वे किस दिन और कब आयेंगे । यह किसी को मालूम न हो । इस प्रकार आहार- पानी लाने पर दोष लगाने की संभावना नहीं रहेगी तथा निर्दोष भिक्षा मिल सकेगी । साधु के लिए निर्दोष आहार - जल लेना आवश्यक है । 'श्री ठाणांग सूत्र' में कहा गया है कि निर्दोष आहार जल लेने से मुनिराज ज्ञान के भागी बनते हैं । इसलिए बिना सूचना के और बिना निमन्त्रण के अज्ञात रूप से पहुँचकर आहार की गवेषणा करना और संयोग मिलने पर ही निर्दोष आहार लेना, यह मुनि का कर्तव्य है । (४) अलोलुपता गाथा में अगला शब्द 'अलोलुए' आया है । इसका अर्थ है - अलोलुपी होना । मुनि यदि खाद्य पदार्थों में लोलुपता रखेगा तो उसे आहार सम्बन्धी दोष लगे बिना नहीं रहेगा । मान लीजिये कोई मुनि किसी गृहस्थ के घर आहार लेने के लिये पहुँच जाए और वह लोलुपी हो तो बाहर से ही पूछ सकता है कि आपके यहाँ किसी प्रकार का संगठा तो नहीं है ?" और यह सुनकर कि संगठा नहीं है, वह आहार ले लेगा । कहने का अभिप्राय यही है कि जब लोलुपता रहेगी तब गवेषणा बराबर नहीं हो सकेगी और साधु 'सक्कार - पुरस्कार' परिषह को नहीं जीत सकेगा । इसलिए मुको संयोग के अनुसार निर्दोष आहार ही लेना चाहिए, भले ही वह रूखा-सूखा या रसहीन हो । अन्यथा वह दोष का भागी बनेगा । रस- लोलुपता से कभी-कभी कितना अनर्थ होता है यह शैलकराज ऋषि की कथा से सहज ही मालूम हो जाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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