Book Title: Anand Pravachan Part 06
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 343
________________ साधक के कर्तव्य ३३१ अब हमारे सामने वे तीन बातें भी आती हैं, जिनसे व्यक्ति को कभी सन्तोष नहीं करना है । ये बातें हैं-दान, ज्ञानार्जन एवं कर्म । जो भव्य प्राणी इन बातों के महत्व को समझ लेता है वह संवर-मार्ग पर बड़ी सरलता से बढ़ चलता है । __ दान वही व्यक्ति कर सकता है जो कि धन-दौलत में गृद्धता न रखता हो । वास्तव में धन-वैभव के द्वारा आत्मा का तनिक भी कल्याण नहीं होता। फिर भी मानव माया के लिए नाना कुकर्म करके आत्मा को पाप-कर्मों से जकड़ लेता है। वह धन आदि परिग्रह के लिए अठारह पापों का सेवन करने में भी नहीं हिचकिचाता पर ऐसा होना नहीं चाहिए और मानव को जितना भी हो सके मुक्त हाथ से अभावग्रस्त प्राणियों को दान देते रहना चाहिए। उससे लेने वाले को तो लाभ होगा ही साथ ही स्वयं उसे पुण्य के रूप में अनेक गुना वापिस मिल जाएगा। इसीलिए कहते हैं कि दान देने से कभी सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए तथा अधिक से अधिक देने की प्रवृत्ति रखनी चाहिए। दूसरी बात है ज्ञानार्जन की । आज हम देखते हैं कि थोड़ा-सा पढ़-लिखकर ही व्यक्ति अपने आप को विद्वान या महापण्डित मानकर गर्व से भर जाता है । पर वह यह नहीं समझ पाता कि ज्ञान तो ऐसा अगाध सागर है जिसमें चाहे जीवनभर गोते लगाते रहो, सदा ही कुछ न कुछ हासिल होता रहेगा। फिर थोड़ी सी विद्या हासिल करके ही अपने आपको ज्ञानी मान लेना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? ज्ञान ऐसी वस्तु ही नहीं है जिसे कोई व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से प्राप्त कर ले। उसे तो व्यक्ति ज्यों-ज्यों हासिल करता है, त्यों-त्यों उसके विचारों में सरलता, निष्कलुषता एवं विशालता आती है। जिसके द्वारा भेद-भाव, संकीर्णता एवं क्षुद्रता का नाश होता है। ज्ञान का प्रभाव कहा जाता है कि बंगाल के सुप्रसिद्ध समाज-सुधारक देवेन्द्रनाथ ठाकुर पहले धार्मिक एवं साम्प्रदायिक दृष्टि से बड़े ही संकीर्ण विचारों के थे। अपने धर्म और सम्प्रदाय के समक्ष अन्य धर्मों को वे अत्यन्त हेय और तुच्छ समझते थे। किन्तु ज्योंज्यों उन्होंने ज्ञान हासिल किया त्यों-त्यों उनके हृदय से अन्य धर्मों और सम्प्रदायों के प्रति रही हुई नफरत की भावना लुप्त होती गई। __ इसके कारण जब एक बार ब्रह्म समाज के बड़े भारी विचारक एवं उपदेशक प्रतापचन्द मजूमदार उनके घर गये तो यह देखकर चकित रह गये कि देवेन्द्र ठाकुर के यहाँ सभी धर्मों के उच्च कोटि के ग्रन्थ रखे हुए थे । मजूमदार ने आश्चर्य के मारे पूछ भी लिया—'माई ठाकुर ! तुम तो अपने धर्म के अलावा किसी अन्य धर्म का नाम भी सुनना नहीं चाहते थे, फिर आज तुम्हारे यहाँ इन सब धर्मों का साहित्य मैं कैसे देख रहा हूँ ?" देवेन्द्रनाथ ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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