Book Title: Anand Pravachan Part 06
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 316
________________ ३०४ आनन्द प्रवचन | छठा भाग भावना रखते थे। रचनाओं के उपलक्ष में इस प्रकार भेंट देने पर श्लोकों की रचनाएँ करने वालों का गौरव भी बढ़ता था तथा उस अर्थ से वे जीवनभर के लिए निश्चित भी हो जाया करते थे । पर राजा भोज का मन्त्री उनके ऐसे दान के कारण कुछ क्षुब्ध रहता था । उसने एक बार भोज के दान को कुछ कम करने की दृष्टि से उनके शयनगृह की दीवार पर कुछ लिख दिया किन्तु भोज ने भी उसका उत्तर बड़े विवेक एवं बुद्धिपूर्वक वहीं लिखवा दिया । मन्त्री ने क्या लिखा और राजा ने क्या उत्तर दिया, यह जानने की आपको उत्सुकता होगी । अतः वह भी कह देता हूँ मन्त्री ने लिखवाया—“ आपदर्थे धनं रक्षेत् ।" उसके उत्तर में राजा ने लिखवा दिया - " श्रीमतामापदः कुतः ?” मन्त्री ने पुनः लिखा - "साचेदपगता लक्ष्मीः ।" इसका राजा ने उत्तर दिया – “ संचितार्थो विनश्यति । " वस्तुतः संचित किया हुआ धन समय पाकर नाश को प्राप्त होता है । विद्वानों धन की तीन गतियाँ बताते हुए कहा है इस धन की गति तीन हैं, दान भोग में ना लगे, तो दान, भोग अरु नाश । निश्चय होय विनास ॥ अगर कृपण व्यक्ति धन का दान नहीं करता और उसका उपभोग भी नहीं करता तो वह धन निश्चय ही नष्ट होता है । साथ ही धन पर उसकी घोर आसक्ति जीवन भर बनी रहती है अतः संसार-सागर में वह अनन्त काल तक डूबा रहता है । किसी कवि ने दाता और कृपण की बड़ी बुद्धिमानी से तुलना करते हुए कहा है संग्रहैकपर: प्राय: समुद्रोऽपि रसातलम् । दाता तु जलदः पश्य, भुवनोपरि गर्जति ॥ कहा गया है कि धन का दान न करने वाला और उसका उपभोग भी न करने वाला कृपण व्यक्ति संसार-सागर के रसातल में जा पहुंचता है, किन्तु धन का दान करते रहने वाला दाता सबसे ऊपर पहुँचकर मेघ के समान गर्जना करता है । Jain Education International कहने का आशय यही है कि दानी व्यक्ति अपनी उदारता और निस्पृहता के कारण उच्च गति को प्राप्त कर लेता है जबकि कृपण व्यक्ति धन में सदा आसक्त और गृद्ध रहने के कारण निम्न गतियों में भटकता रहता है । मुम्मुन सेठ ने कृपणतापूर्वक छप्पन करोड़ रुपया इकट्ठा कर लिया था, किन्तु वह उसके क्या काम आया। ? आज लोग उसके विषय में यही कहते हैं मम्मुन सेठ धन संचियो पूरो छप्पन क्रोड़ | नहि खायो नहि खरचियो, मूवो माथो फोड़ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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