Book Title: Anand Pravachan Part 06
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 325
________________ चार दुष्कर कार्य जोगी की कमाई जाय, सिद्ध की सिधाई जाय, बड़े की बड़ाई जाय रूप जाय अंग ते ॥ घर की तो प्रीति जाय लोकों में प्रतीति जाय, त्याग बुद्धि मीत जाय विकल होय अंग ते । संजम का बिहार जाय हानि का उपचार जाय, जन्म सब हार जाय काम के प्रसंग ते ॥ कवि ने कहा है-इस काम-विकार से ज्ञानी का ज्ञान, ध्यानी का ध्यान और प्रतिष्ठित व्यक्तियों का सम्मान नष्ट हो जाता है । यह प्रबल विकार शूरवीर को युद्ध से विमुख करता है, सिद्ध पुरुषों की सिद्धता को मिटाकर उनकी जीवन भर की कमाई समाप्त कर देता है तथा योगियों के योग-बल पर पानी फेर देता है । __महान् और बड़े व्यक्तियों के बड़प्पन को तथा शरीर के अनुपम सौन्दर्य को भी यह नष्ट कर देता है। इतना ही नहीं, इस विकार का शिकार व्यक्ति न तो घर में किसी का प्रेम-भाजन रहता है और न ही बाहर के व्यक्तियों का विश्वास प्राप्त कर सकता है । हम देखते भी हैं कि व्यभिचारी पुरुष के स्वजन, सनेही और मित्रदोस्त भी उसका सर्वथा परित्याग कर देते हैं । इन्द्रिय-संयम एवं ज्ञानादि गुणों के अभाव में विकारी पुरुष का जीवन दुर्गुणों की खान बन जाता है और अपना समग्र जीवन वह दुःखपूर्ण एवं व्यर्थ बना लेता है । संक्षेप में इस दुर्गुण के कारण यह उत्तम मानव जीवन वरदान बनने के बदले घोर अभिशाप बन जाता है। किन्तु प्रत्येक प्राणी इस विकार के समक्ष हथियार डाल ही देता है, यह बात भी नहीं है । इसी संसार में अनेकों भव्य प्राणी ऐसे हुए हैं जो इससे सर्वथा अछते और दूर रहकर अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण अंकुश किये रहे । परिणाम यह हुआ कि ऐसे संयमी प्राणी अपने मन एवं आत्मा को निर्दोष रखकर आत्म-कल्याण कर गये हैं। इसी पृथ्वी पर भीष्म पितामह जैसे अनेकों बालब्रह्मचारी हुए हैं और आज भी अनेक संत-महापुरुष विद्यमान हैं जो कि पूर्ण युवावस्था में भी संयम ग्रहण करके साधना-मार्ग पर चल रहे हैं । यद्यपि जैसा कि गाथा में कहा गया है युवावस्था में इन्द्रियों पर काबू रखना सरल नहीं अपितु महान दुष्कर है और साधारणतया तो यही देखा जाता है कि वृद्धावस्था तक भी अपने मन एवं इन्द्रियों पर संयम नहीं रख पाते । किन्तु जो भव्य पुरुष संसार की असारता को समझ लेते हैं तथा आत्मा का कल्याण या उसकी मुक्ति किस प्रकार संभव है, यह जान लेते हैं वे तो क्षणमात्र में भी संसार से विमुख होकर आत्म-साधना में जुट जाते हैं। अगर ऐसा न होता तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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