Book Title: Anand Pravachan Part 06
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

View full book text
Previous | Next

Page 311
________________ पौरुष थकेंगे फेरि पीछे कहा करि है ? २६९ हीन गति में नहीं जा सकती । पर यह धारणा सही नही है । भले ही व्यक्ति साधु का बाना पहन ले और सबकी नजरों में पूजनीय बन जाय, किन्तु अगर वह भगवान के आदेशानुसार संयम का पालन नहीं करता है तो ऐसे विराधक साधु के लिए किसी भी गति में रोक नहीं है । अर्थात् साधु के लिए चारों गतियाँ खुली रहती हैं। यह उसकी उत्कृष्ट या निकृष्ट करनी पर निर्भर रहता है कि वह मोक्ष में जाता है या नरक में। भगवान ने फरमाया भी हैएयारिसे पंचकुसलीसं० डे, रूवंधरे मुनिपवराण हेट्टिमे । अयंसि लोए विसमेव गरहिये, न से इहं नेव परत्थ लोए । -उत्तराध्ययन सूत्र १७-२० अर्थात्-जो श्रमण पाँच प्रकार के कुशीलों से युक्त एवं संवर से रहित केवल वेशधारी साधु होता है वह महान् और श्रेष्ठ श्रमणों से नीच मुनि कहलाता है तथा ऐसा मुनि इस लोक में विष के समान निन्दनीय तथा त्याज्य होता है। उसका न तो यह लोक सुधरता है और न परलोक ही सुधर पाता है। तो भले ही कोई व्यक्ति संयम ग्रहण करके साधु बन जाय और पाँच महाव्रत अंगीकार करके साधु के बाने में रहे, किन्तु इन पाँच महाव्रतों का सम्यक् रूप से पालन न करने के कारण और साधु की मर्यादा तथा आचार-विचार में स्थिर न रहने के कारण वह पापी श्रमण कहलाता है और इस लोक में निंदनीय बनता हुआ अपना परलोक भी बिगाड़ कर निम्न गतियों में जाता है। दुर्वासा ऋषि घोर तपस्वी थे किन्तु अपने असीम क्रोधी स्वभाव के कारण आज तक भी लोगों के द्वारा निंदात्मक शब्दों से स्मरण किये जाते हैं। लोग किसी भी क्रोधी व्यक्ति के लिए दुर्वासा ऋषि की उपमा दिया करते हैं। आशय यही है कि मात्र साधु का वेश पहन लेने से ही व्यक्ति साधु नहीं कहलाता, अपितु साधु के योग्य आचरण का पालन करने पर तथा संवर की सम्यक् आराधना करने पर ही वह सच्चा साधु कहलाता सकता है । कीमत वेश की नहीं है वरन् करनी की है ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार म्यान की कीमत न होकर तलवार की कीमत होती है । म्यान बहुत सुन्दर और मजबूत हो पर अगर उस में रही हुई तलबार तीक्ष्ण धार वाली न हो या जंग खाई हुई हो तो उस तलवार से शत्रुओं पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती। इसी प्रकार साधु का वेश उत्तम और साधु के योग्य हो, किन्तु उसका मानस उत्तम आचरण एवं उत्तम भावनाओं से युक्त न हो तो वह अष्ट कर्मरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता, साथ ही इस लोक में भी प्रशंसा का पात्र नहीं बनता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350