Book Title: Alamkaradappana Author(s): H C Bhayani Publisher: L D Indology AhmedabadPage 50
________________ 4 . अइस(इ)य-उवमा जहा : जोण्हा-भअअ-सरणागअ-तिमिर-समूहेही णिज्जिअ मिअंकं । सेविज्जइ वअणं सास-गंध-लुद्धेही भसलेहिं ॥३६॥ जा सरिसएही बज्झइ सद्देहिं सा हु होइ सुहमिलिआ। एक्काणिक्का विअप्पण-भेएण विअप्पिआ दु-वविहिा ॥३७॥ सुइ-मिलिओवमा जहा : दट्ठण पर-कलत्तं चंदावडिअंमणोहरं कव्वं । खिज्जइ खलो विअंभइ दूसइ दोसं अ-पेच्छंतो ॥३८॥ एक्कत्थ-विअप्पिओवमा जहा : परिभमण-वइ-णिअड्डिअ-संपिंडिअ-बहल-रेणु-नि(णि?)अच्छआ। णहसु (?) अणड-तंसा इव वाआवत्ता मुणिज्जते ॥३९॥ बहुहा-विअप्पिओवमा जहा : सूरम्मि दाव जलणे व्व वोलिए णहअलं वअरसं(?)वयो। पच्छा मसि-णिअरेण व तमेण कसिणीकायं सअलं ॥४०॥ उवमाणेणुवंएस्स जं निरूविज्जए नि(?)रूवणं खु। . दव्व-गुण-सम्मअंतं भणंति इह रूवं कइणो ॥४१॥ [उपमानेनुपमेयस्य यत् निरूप्यते निरूपणं खलु। द्रव्य-गुण-सम्मतं तं भणन्ति इह रूपकं कवयः ॥४१॥] तं चिअ दविहं जाअइ समत्थ-पाअत्थ-विरअणा-जणि। पढमं बिअं एकेक-देस-परिसंठिअं होइ ॥४२॥ तदेव द्विविधं द्वितीयं एकैकदेश-परिसंस्थितं भवति ॥४२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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