Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Samaysundar, Haribhadrasuri, 
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 733
________________ दशवैका लिकसूत्रपाठः तहा कोलमपुस्सिन्नं, वेलु कासवनालिकां ॥ तिलपप्परुगं नीमं, आमगं परिवए ॥ २१ ॥ तव चाखलं पिछं, विकामं वा तित्तनिबुडं ॥ तिलपिपूर पिन्नागं, मगं परिवए ॥ २२ ॥ कवि मालिंगं च, मूलगं मूलगत्ति ॥ मंत्र सत्यपरिणयं, मासा वि न पच ॥ २३ ॥ तदेव फलमंथू, बीमंथूणि जाणि ॥ बिहेलगं पियालं मं परिवऊए ॥ २४ ॥ समुत्राणं चरे चिकू, कुलमुच्चावयं सया ॥ नीयं कुलमइक्कम्मं, उसढुं नानिधारए ॥ २५ ॥ दीप वित्तिमेसिका, न विसी पंडिए ॥ अमुवि जोसि, मायणे एसणारए ॥ २६ ॥ बहु पर, विविदं खाइमसाइमं ॥ न तत्थ पंमि कुप्पे, या दिऊ परो न वा ॥ २७ ॥ सयणासणवत्थं वा, नत्तं पाएं व संजए ॥ दितस्स न कुप्पिका, पच्चरके वि दीस ॥ २८ ॥ इत्थ पुरिसं वावि, डहरं वा महल्लगं ॥ वंदमाणं न जाइका, नो फरुसं वए ॥ २९ ॥ जेन वंदे न से कुप्पे, वंदिर्ज न समुक्कसे ॥ एवमन्नेसमाणस्स, सामणमणुचि ॥ ३० ॥ सिग लडु, लोनेए विणिगूहइ ॥ मामेयं दाइयं संतं, दहुणं सयमायए ॥ ३१ ॥ त्ता गुरु लुक, बहुं पावं पकुवइ ॥ उत्तोस सो होइ, निवाणं च न ग ॥ ३२ ॥ सिया एगइ लड्डु, विविहं पानोणं ॥ द्दगं जुच्चा, विवन्नं विरसमाहरे ॥ ३३ ॥ जाणं तुता इमे समणा, आययही अयं मुणी ॥ संतुको सेवए पंतं, लूहवित्ती सुतोस ॥ ३४ ॥ जसोकामी, माणसम्माणकामए ॥ बहु पसाई पावं, मायासनं च कुबइ ॥ ३५ ॥ सुरं वा मेरगंवावि, अन्नं वा मगं रसं ॥ ससरकं न पिबे निरकू, जसं साररकमप्पणो ॥ ३६ ॥ पिre एग तेो न मे कोइ विचार || तस्स पस्सह दोसाइ, निडिं च सुह मे ॥ ३७ ॥ वढ्ढ सुमिया तस्स, मायामोसं च निरकुणो ॥ यसो निवाएं, सययं च सा ॥ ३८ ॥ निच्चुविग्गो जहा तेणो, कम्मेहिं कुम्मइ ॥ ता रिसो मरणंते वि, न राहेहि संवरं ॥ ३ए ॥ आयरिए नारादेश, समावि तारिसी || गिहत्थाविणं गरिहंति, जेण जाति तारिसं ॥ ४० ॥ एवं तु गुप्पेही, गुणाणं श्र विवजए | तारिसी मरणंते वि, ण राहेहि संवरं ॥ ४१ ॥ तवं कु मेहावी, पणीचं वजए रसं ॥ मऊप्पमायविर, तवस्सी कसो ॥ ४२ ॥ तस्स पस्सह कलाएं, अगसाहुपू || विजलं अत्यसंत्तं, कित्तइस्सं सुह मे ॥ ४३ ॥ एवं तु गुप्पेही, गुणाएं च विवकए । तारिसी मरणंते वि, आदेश संवरं ॥ ४४ ॥ आयरिए आराहेइ; समवि तारिसी ॥ गिहत्था वि संपूयंति, जेण जाणंति तारिसं ॥ ४५ ॥ तवतेणे वयतेणे, रुवते जे नरे ॥ यारजावतेणे का, कुछ देव किचिसं ॥ ४६ ॥ द्दगं वि देवदत्तं जवन्नो देवकिब्बिसे | तत्था वि से न यागाइ, किं मे किच्चा इमं फलं ॥ ४७ ॥ तत्तो वि से चत्ताणं, लनिही एलमूयं ॥ नरगं तिरिरकयोणिं वा, वोही जत्थ सुल्लहा ॥ ४८ ॥ एच दोसं दणं, नायपुत्ते नासि ॥ श्रणुमायं पि मेहावी, मायामोसं विवए ॥ ४९ ॥ सिरिकऊण ‘निरकेसणसोहिं, संजयाण बुझाए समासे ॥ तत्थ भिकू सुप्पणिहिदिए, तिबलजगुणवं विहरितासि ॥ त्तिवेमि ॥ ५० ॥ ॥ संमत्तंपिंडेपणानामयणं पंचमं ॥ १०. ॥ अथ महाचारकथाख्यं षष्टमध्ययनम् ||६|| नाणदंसणसंपन्नं, संजमे तवे रयं ॥ गणिमागमसंपन्नं, उाणम्मि समोसढुं ॥ १ ॥ रायण रायमच्चाय, माहणा अवखत्तिया । पुत्रंति निदुप्पाणो, कहं ने यायारगोयरो ॥ २ ॥ सिं सो निहु दंतो, सब सुहावहो । सिरकाए सुसमाउत्तो, आय रक विरको ॥ ३ ॥

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