Book Title: Agam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Author(s): Samaysundar, Haribhadrasuri,
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
View full book text
________________
७१५
-----
--
अथ दशवैकालिकसूत्रपातः । इहलोगपारत्तहिश्र, जेणं गच्छई सुग्गई ॥ बहुस्सुअं पङ्गुबासिजा, पुच्छिजलविणिच्छयं ॥ ४ ॥ हवं पायं च कायं च, पणिहाय जिदिए ॥ अहीणगुत्तो निसिए, सगासे गुरुणो मुणी ॥१५॥ न परक न पुर, नेव किच्चाण पि ॥ न य जरुं समासिजा, चिब्जिा गुरुणं तिए ॥ ४६॥ अपुचि न नासिजा, नासमाणस्स अंतरा ॥ विधिमंसं न खाईजा, मायामोसं विवजए ॥ ७॥ अप्पति जेण सिआ, आसु कपिज वा परो ॥ सबसो तं न नासिजा, नासं अहिअगामिणिं ॥ ४ ॥ दि निलं असंदिवं, पडिपुन्नं विशं जिरं ॥ अयंपिरमणुबिग्गं, नासं निसिर अत्तवं ॥धए॥ आयारपन्नत्तिघरं, दिग्विायमहिजगं ॥ वायविरकलिशं नच्चा, न तं उवहसे मुणी ॥ ५० ॥ नरकत्तं सुमिणं जोगं, निमित्तं मंतनेसजं ॥ गिरिणो तं न आईके, नूआहिगरणं पयं ॥५१॥ अन्न पगडं लयणं, नई सयणासणं ॥ उच्चार जूमिसंपन्नं, ईबीपसुविवजिअं ॥ ॥ विवित्ता अ नवे सिजा, नारीणं न लवे कहं ॥ गिरिसंथवं न कुजा, कुजा साहूहिं संथवं ॥ ५३ ॥ जहां कुक्कडपोअस्स, निच्चं कुलवनयं ॥ एवं ख बनयारिस्स, बीविग्गहनयं ॥ ५४॥ चित्तमित्तिं न निनाए, नारिं वा सुअलंकिअं ॥जरकर पिव दवूणं, दिहिं परिसमाहरे ॥ ५५॥ हबपायपलिच्छिन्नं, कन्ननास विगप्पियं॥ अवि वाससयं नारिं, बंजयारी विवजाए ॥५६॥ विनूसा इविसंसग्गो, पणीअं रसनोअणं ॥ नरस्सत्त गवेसिस्स, विसं ताल जहा ॥ १७ ॥
अंगपञ्चंगसंगणं, आरुह्यविअपेहियं ॥श्लीएं तं न निनाए, कामरागविवqणं ॥ ५ ॥ विसएसु मणुन्नेसु, पेम नानिनिवेसए ॥ अणिचं तेसिं विनाय, परिणामं पुग्गलाण य ॥ ५ ॥ पोग्गलाणं परीणाम, तेसिं नच्चा जहा तहा ॥ विणीअतिएहो विहरे, सीनूएण अप्पणा ॥ ६ ॥ जाइ सघाइ निरकंतो, परिआयाणमुत्तमं ॥ तमेव अणुपालिका, गुणे आयरिअसंमए ॥ ६१॥
तवं चिमं संजमजोगयं च, सप्नायजोगं च सया अहिहिए ॥ सुरे व सेणा समत्तमाउहे, अलमप्पणो होश् अलं परेसिं ॥ ६ ॥ सप्लायसनाणरयस्स ताणो, अपावन्नावस्स तवे रयस्स ॥ विसुन जं सि मलं करे कडं, समीरिअं रुप्पमलं व जोणा ॥ ६३ ॥ से तारिसे उरकसदे जिदिए, सुएण जुत्ते अममे अकिंचणे ॥ विरायश् कम्मघणंमि अवगए, कसिणनपुडावगमे व चंदिमि ॥ तिमि ॥ ६ ॥
॥इति आयारपणिही णाम अनयणं संमत्तं ॥७॥ ॥अथ विनयसमाधिनामकनवमाध्ययने प्रथमोद्देशकः ।। थंना व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिरके ॥ सो चेव उ तस्स अजूझजावो, फलं व कीअस्स वहाय हो ॥१॥ जे आवि मंदित्ति गुरुं वश्त्ता, डहरे इमे अप्पसुअत्ति नच्चा ॥ हीलंति मित्यं पडिवङमाणा, करंति आसायण ते गुरूणं ॥२॥ पग मंदा वि नवंति एगे, महरा वि अ जे सुअवुयोववेया ॥ आयारमंतो गुणसुध्अिप्पा, जे हीलिया सिहिरिव लास कुजा ॥ ३ ॥ जे आवि नागं महरं ति नच्चा, आसायए से अहियाय हो । एवायरिश्रपि दु हीलयंतो, नियत्र जाइपहं खु मंदो ॥४॥ आसिविसो वा वि परं सुरुको, किं जीवनासाउ परं नु कुजा ॥ आयरिअपाया पुण अणसन्ना, अवोहियासायण नस्थि मुरको ॥ ५ ॥

Page Navigation
1 ... 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771