Book Title: Agam 38 Chhed 05 Jitkalpa Sutra
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Punyavijay
Publisher: Babalchand Keshavlal Modi

View full book text
Previous | Next

Page 206
________________ १७ ७२ ] जीतकल्पसूत्रम् । अववाए उस्सग्ग, आसायण दीहसंसारो ॥२१८५॥ अह उस्सग्गेऽववायं, आयरमाणो विराहओ होति । अववाए पुण पत्ते, उस्सग्गणिसेवओ भइओ ॥२१८६।। कह होती भतियव्यो ?, संघयणधितिजुतो समग्गो तु । एरिसतो अववाए, उस्सगणिसेवओ सुद्धो ॥२१८७॥ इयरो उ विराहेई, असमत्थो जेण परिसहे सहितुं । धितिसंघतणेहिं तू , एगतरेणं व सो हीणो ॥२१८८॥ इति सामाइयमादी, छबिह कप्पहिती समक्खाया । दारं । विरियं दारं अहुणा, इणमो वोच्छं समासेणं ॥२१८९॥ परिणत गीतत्था तू , विपक्खभूया अपरिणया होति । कडजोगी कयजोगी, चतुस्थमादीहिं णायव्वा ॥२१९०॥ अकडज्जोग्गा जोग्गवियचतुत्थादीहिं होन्ति णायया । घितिसंघयणादीहिं, तरमाणा होंति णायव्वा ॥२१९१॥ धितिसंघयणेणं तू , एगयरजुया उ होति अतरा उ । अहवा दोहि वि जुत्ता, अतरगपुरिसा मुणेयव्वा ॥२१९२॥ एतेषां कल्पस्थितादीनाम् ॥ ॥७॥ॐ१।। ज जह सत्तो बहुतरगुणो ब्व तस्साहियं पि देज्जाहि हीणतरे हीणयरं, झोसेज्ज व सबहीणस्स ॥७२॥ कप्पट्ठियमातीण, पुरिसाणं जाव उभयहा अतरो। जो जह सत्तो उ भवे, तस्स तहा होति दायव्वं ॥२१९३॥ बहुतरगुणसमगो तू, धितिसंघतणादि जो तु संपण्णो । परिणय कडजोगी वा, अहवा वि हवेज्ज उभयतरो ॥२१९४|| एयगुणसमग्गस्स तु, जीयमया अहियगं पि देज्जाहि । होणस्स तु हीणतरं, मुंज्ज व सबहीणस्स ॥२१९६॥ ॥७२॥ २॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243