Book Title: Agam 38 Chhed 05 Jitkalpa Sutra
Author(s): Jinbhadragani Kshamashraman, Punyavijay
Publisher: Babalchand Keshavlal Modi

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Page 213
________________ १९४ स्वोपभाष्ययुत [गाथा जं जीतदाण भणियं, णिव्वीतियमादि अट्ठमं अंते । ततियपडिसेवणाए, पमायसहियस्स एयं तु ॥२२६७॥ दप्पपडिसेवणाए, पुरिमडादी तु होति दायव्वं । अंते दसमं दिज्जा, आउट्टीए उ वोच्छामि ॥२२६८॥ V॥७॥ आउट्टियाए ठाणंतरं व सट्ठाणमेव वा दिज्जा। कप्पेण पडिकमणं, तदुभयमहवा विणिद्दिढें ॥७६॥ आउट्टियावराहे, एक्कासणमादि अंते बारसमं । पाणतिपायवराहे, सहाणं होति मूलं तु ॥२२६९॥ आउट्टिय त्ति गतम् ।। कप्पेण उ सेवाए, तह सुद्धो अहव मिच्छकारं तु । अहवा तदुभयमुत्तं, आलोय पडिकमाहि त्ति ।। २२७०॥ कप्पपडिसेवणा गता ॥ ॥७६॥ आलोयणकालम्मि व, संकेस विसोहि भावतो णातुं। हीणं वा अहियं वा, तम्मत्तं वा वि देज्जाहि॥७॥ आलोयणकालम्मि व, गृहति अहवा वि कुञ्चती किश्चि । सो संकिलिट्ठचित्तो, तस्सऽहितं दिज्ज ऊणं वा ॥२२७१॥ जो पुण आलोएन्तो, काले संवेगमुवगतो जो उ। जिंदगगरहादीहिं, विसुद्धचित्तो तु तस्सऽप्पं ।। २२७२।। जो पुण आलोएन्तो, ण वि गृहति ण वि य णिदए जो तु । सो मज्झिमपरिणामो, तस्स उ देजाहि तम्मत्तं ॥२२७३॥ ॥yा ॥७७॥ इति द्वादिबहुगुणे, गुरुसेवाए य बहुतरं देज्जा। हीणतरे हीणतर, होणतरे जाव झोसो त्ति ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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