Book Title: Agam 36 Vyavahara Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 8
________________ आगम सूत्र ३६, छेदसूत्र-३, 'व्यवहार' उद्देशक/सूत्र उद्देशक-२ सूत्र-३६-३७ एक सामाचारी वाले और साधु के साथ विचरते हो तब उसमें से एक अकृत्य स्थानक को यानि दोष सेवन करे फिर आलोचना करे तब उसे प्रायश्चित्त स्थान में स्थापित करना और दूसरे को वैयावच्च करना, लेकिन यदि दोनों अकृत्य स्थानक का सेवन करे तो एक की वडील की तरह स्थापना करके दूसरे को परिहार तप में रखना, उसका तप पूरा होने पर से वडील की तरह स्थापित करके और पहले को परिहार तप में स्थापित करना। सूत्र-३८-३९ एक सामाचारी वाले कईं साधु साथ में विचरते हो और उसमें से एक दोष का सेवन करे, फिर आलोचना करे तो उसे परिहार तप के लिए स्थापित करना और दूसरे उसकी वैयावच्च करे, यदि सभी साधु ने दोष का सेवन किया हो तो एक को वडील रूप में वैयावच्च के लिए स्थापित करे और अन्य परिहार तप करे । वो पूरा होने पर वैयावच्च करनेवाले साधु परिहार तप करे और जिन्होंने तप पूरा किया है उनमें से कोई उसकी वैयावच्च करे । सूत्र-४० परिहार तप सेवन करके साधु बीमार हो जाए, दूसरे किसी दोष-स्थान का सेवन करके आलोचना करे तब यदि वो परिहार तप कर सके तो उन्हें तप में रखे और दूसरों को उसकी वैयावच्च करना, यदि वो तप वहन कर सके ऐसे न हो तो अनुपरिहारी उसकी वैयावच्च करे, लेकिन यदि वो समर्थ होने के बावजूद अनुपरिहारी से वैयावच्च करवाए तो उसे सम्पूर्ण प्रायश्चित्त में रख दो । सूत्र-४१-४३ परिहार कल्पस्थित साधु बीमार हो जाए तब उस को गणावच्छेदक निर्यामणा करना न कल्पे, अग्लान होवे तो उसकी वैयावच्च जब तक वो रोगमुक्त होवे तब तक करनी चाहिए, बाद में उसे 'यथालघुसक' नामक व्यवहार में स्थापित करे । 'अनवस्थाप्य' साधु के लिए एवं 'पारंचित' साधु के लिए भी उपरोक्त कथन ही जानना । सूत्र - ४४-५२ व्यग्रचित्त या चित्तभ्रम होनेवाला, हर्ष के अतिरेक से पागल होनेवाला, भूत-प्रेत आदि वळगाडवाले, उन्मादवाले, उपसर्ग से ग्लान बने, क्रोध-कलह से बीमार, काफी प्रायश्चित्त आने से भयभ्रान्त बने, अनसन करके बने, धन के लोभ से चित्तभ्रम होकर बीमार बने, किसी भी साधु गणावच्छेदक के पास आए तो उसे बाहर नीकालना न कल्पे । लेकिन नीरोगी साधु को वो बीमारी से मुक्त न हो तब तक उसकी वैयावच्च करनी चाहिए । वो रोगमक्त हो उसके बाद ही उसे प्रायश्चित्त में स्थापित करना चाहिए। सूत्र-५३-५८ ___अनवस्थाप्य या पारंचित प्रायश्चित्त को वहन कर रहे साधु को गृहस्थ वेश दिए बिना गणावच्छेदक को पुनः संयम में स्थापित करना न कल्पे, गृहस्थ का (या उसके जैसे) निशानीवाला करके स्थापित करना कल्पे, लेकिन यदि उसके गण को (गच्छ या श्रमणसंघ को) प्रतीति हो यानि कि योग्य लगे तो गणावच्छेदक को वो दोनों तरह के साधु को गृहस्थवेश देकर या दिए बिना संयम में स्थापित करे । सूत्र-५९ समान सामाचारीवाले दो साधु साथ में विचरते हो, उसमें से कोई एक अन्य को आरोप लगाने को अकृत्य (दोष) स्थान का सेवन करे, फिर आलोचना करे कि मैंने अमुक साधु को आरोप लगाने के लिए दोष स्थानक सेवन किया । तब (आचार्य) दूसरे साधु को पूछे-हे आर्य ! तुमने कुछ दोष का सेवन किया है या नहीं? यदि वो कहे कि दोषसेवन किया है तो उसे प्रायश्चित्त दे और कहे कि मैंने दोष सेवन नहीं किया तो प्रायश्चित्त न दे । जो प्रमाणभूत कहे इस प्रकार (आचार्य) व्यवहार करे । अब यहाँ शिष्य पूछता है कि भगवन्त ऐसा क्यों कहा? तब उत्तर दे कि मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(व्यवहार)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 8

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