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दसवेआलियं (दशवकालिक)
दस पूर्वी या ६-१० पूर्वी के बाद देवद्धिगणी क्षमाश्रमण का एक पूर्वी के रूप में उल्लेख हुआ है। प्रश्न होता है कि क्या ६, ८,७,६ आदि पूर्वी भी हुए हैं या नहीं ? इस प्रश्न का समुचित समाधान उल्लिखित नहीं मिलता । परन्तु यत्र-तत्र के विकीर्ण उल्लेखों से यह संभाव्य है कि ८, ७, ६ आदि पूर्वो के धारक अवश्य रहे हैं । जीतकल्प सूत्र की वृत्ति में ऐसा उल्लेख है कि आचार प्रकल्प से आठ पूर्व तक के धारक को श्रुत-व्यवहारी कहा है। इससे संभव है कि आठ पूर्व तक के धारक अवश्य थे। इसके अतिरिक्त कई चूणियों के कर्ता पूर्व धर थे।
___"आर्य रक्षित, नन्दिलक्ष्मण, नागहस्ति, रेवतिनक्षत्र, सिंहमूरि-ये साढ़े नौ और उससे अल्प-अल्प पूर्व के ज्ञान वाले थे। स्कन्दिलाचार्य, श्री हिमवन्त क्षमाश्रमण, नागार्जुनसरिये सभी समकालीन पूर्ववित् थे। श्री गोविन्दवाचक, संयमविष्णु, भूतदिन्न, लोहित्य सूरि, दुष्यग णि और देववाचक--ये ११ अंग तथा १ पूर्व से अधिक के ज्ञाता थे।"
भगवती (२०.८) में यह उल्लेख है कि तीर्थङ्कर सुविधिनाथ से तीर्थङ्कर शान्तिनाथ तक के आठ तीर्थङ्करों के सात अन्तरों में कालिक सूत्र का व्यवच्छेद हुआ। शेष तीर्थङ्करों के नहीं। दृष्टिवाद का विच्छेद महावीर से पूर्व-तीर्थङ्करों के समय में होता रहा है।
___ इसी प्रकरण में यह भी कहा गया है कि महावीर के निर्वाण के बाद एक हजार वर्ष में पूर्वगत का विच्छेद हुआ और एक पूर्व को पूरा जानने वाला कोई नहीं बचा।
यह भी माना जाता है कि देवद्धिगणी के उत्तरवर्ती आचार्यों में पूर्व-ज्ञान का कुछ अंश अवश्य था । इसकी पुष्टि स्थान-स्थान पर उल्लिखित पूर्वो की पंक्तियों तथा विषय-निरूपण से होती है।'
प्रथम संहनन- वज्रऋषभनाराच, प्रथम संस्थान-समचतुरस्र और अन्तर् मुहूर्त में चौदह पूर्वो को सीखने का सामर्थ्य - ये तीनों स्थूलिभद्र के साथ-साथ व्युच्छिन्न हो गए।
अर्द्धनाराच संहनन और दस पूर्वो का ज्ञान वज्रस्वामी के साथ-साथ विच्छिन्न हो गया।
वज्रस्वामी के बाद तथा शीलांकसूरि से पूर्व आचारांग के 'महापरिज्ञा' अध्ययन का ह्रास हुआ। यह भी कहा जाता हैं कि इसी अध्ययन के आधार पर दूसरे श्रुतस्कंध की रचना हुई।
स्थानांग में वर्णित प्रश्न व्याकरण का स्वरूप उपलब्ध प्रश्न व्याकरण से अत्यन्त भिन्न है। उस मूल स्वरूप का कब, कैसे ह्रास हुआ, यह अज्ञात है।
इसी प्रकार ज्ञाताधर्मकथा की अनेक उपाख्यायिकाओं का सर्वथा लोप हुआ है। इस प्रकार द्वादशांगी के ह्रास और विच्छेद का यह संक्षिप्त चित्र है।
उपलब्ध आगम
आगमों की संख्या के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं। उनमें तीन मुख्य हैं(१) ८४ आगम (२) ४५ आगम (३) ३२ आगम
१. सिद्धचक्र, वर्ष ४, अंक १२, पृ० २८४ । २. जैन सत्य प्रकाश (वर्ष १, अंक १, पृ० १५) । ३. आव०नि० पत्र ५६६ । ४. आव. नि. द्वितीय भाग पत्र ३६५ । ५. आ०नि० द्वितीय भाग पत्र ३९६ : तम्मि य भयवं ते अद्धनारायं दस पुध्वा य वोच्छिन्ना।
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