Book Title: Agam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 15
________________ कर्त्तव्य कर्म का स्वरूप प्रावश्यसूत्र में प्रतिपादित है / इस सूत्र में जीवनव्यवहार में जिन दोषों की उत्पत्ति होने की संभावना है उनका संक्षिप्त कथन, सभी आसानी से समझ सकें ऐसी खुबी से किया है। लेकिन श्रमणसूत्र के विषय में कुछ विचारणीय है। यथा शंका (1)- श्रमण नाम साधु का है, इसलिये श्रमणसूत्र साधु को ही पढ़ना उचित है या श्रावक को भी? समाधान (१)--श्रमण साधु का ही नाम है ऐसा संकुचित अर्थ शास्त्रसम्मत नहीं है। व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र के 20 वे शतक के 8 वें उद्देशक में कहा है -'तित्थं पुण चाउवण्णाइग्णे समणसंघे, तंजहा"समणा, समणीग्रो, साक्गा, सावियायो।' अर्थात् साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका, इन चारों को श्रमणसंघ कहते हैं / यद्यपि व्यवहार में श्रमण साधु का ही नाम है, तथापि भगवान् ने तो चारों तीर्थों को ही श्रमणसंघ के रूप में कहा है / इस प्राप्तवाक्य को प्रत्येक मुमुक्ष को मानना चाहिए। __ शंका (२)–श्रमणसूत्र में साधु के प्राचार का ही कथन है, इसलिए साधु को ही पढ़ना उचित है, श्रावक के लिये उसका क्या उपयोग है ? समाधान (२)-श्रावक कृत अनेक धर्मक्रियाओं में श्रमणसूत्र के पाठ परम उपयोगी होते हैं। उदाहरण के लिए (1) जब श्रावक पौषधव्रत में या संवर में निद्राग्रस्त होते हैं, तब निद्रा में लगे हुए दोषों से निवृत्त होने के लिये प्रथम मार्गशुद्धि (इरियावहियं का पाठ), कायोत्सर्ग (तस्स उत्तरी) का पाठ बोलने के बाद दो लोगस्स के पाठ का कायोत्सर्ग करके प्रकट में एक लोगस्स कहे, इसके बाद श्रमणसूत्र का प्रथम पाठ "इच्छामि पडिक्कमिउं पगामसिज्जाए" का पाठ कहना चाहिए / निद्रा के दोषों से निवृत्त होने का अन्य कोई पाठ नहीं है / (2) एकादशम (ग्यारहवीं) पडिमाधारी श्रावक भिक्षोपजीवी ही होते हैं तथा कई स्थानों पर दयावत के पालन करने वाले (दशवें व्रत के धारक) श्रावक भी गोचरी करते हैं। उसमें लगे हुए दोषों की निवत्ति करने के लिए दूसरा पाठ "पडिक्कमामि गोयरगरिया" का पाठ कहना पड़ता है। (3) श्री उत्तराध्ययनसूत्र के 21 वें अध्ययन में कहा है, 'निग्गंथे पाक्यणे सावए से विकोविए" अर्थात् पालित श्रावक निग्रंथप्रवचन (शास्त्र) में कोविद (पंडित) था, इस पाठ से श्रावक और २२वें अध्ययन में "सीलवंता बहुस्सुया" अर्थात दीक्षा लेने के समय श्री राजमतीजी बहुत सूत्र पढ़ी हुई थीं, इससे श्राविका शास्त्र की पाठिका सिद्ध होती है। इस प्रकार उन्होंने सामायिक, पौषधव्रत में मुहपत्ति तथा वस्त्र, पूजनी आदि का प्रतिलेखन नहीं किया हो तो उस दोष की निवृत्ति करने के लिए तीसरा पाठ "पडिक्कमामि चउकालं सज्झायस्स प्रकरणयाए" को कहना चाहिये। (4) चौथे पाठ में “एक बोल से लगाकर तेतीस बोल तक कहे हैं। वे सब ही ज्ञेय (जानने योग्य) हैं। कुछ हेय (छोड़ने योग्य) और कुछ उपादेय (स्वीकारने योग्य) पदार्थों के दर्शक हैं। प्रत्येक कार्य बड़े उपयोगी हैं। अतः उनका ज्ञान भी श्रावकों के लिये आवश्यक है। (5) पांचवां पाठ "निर्ग्रन्थ प्रवचन" (नमो चउव्वीसाए) का है, जिसमें जिनप्रवचन (शास्त्र) की एवं जैनमत की महिमा है तथा पाठ बोलों में हेय-उपादेय का कथन है। वह भी श्रावकों के लिये परमोपयोगी है। इस प्रकार श्रमणसूत्र में एक भी विषय या पाठ ऐसा नहीं है जो कि श्रावक के लिए अनुपयोगी हो। शंका (३)-श्रावक की तरह साधु को भी श्रावकसूत्र प्रतिक्रमण में कहना चाहिए, क्योंकि उसमें भी ज्ञेय, हेय, उपादेय प्रादि तीनों प्रकार के पदार्थों का कथन है। [13] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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