Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur View full book textPage 7
________________ जंबूदीवपण्णत्ती ग्रंथों में प्रयुक्त विशेष संकेतों व चित्रों सहित गणितकी नाना प्रक्रियाओंके अतिरिक्त उन्होंने जो यूनानी, चीनी आदि लेखोंके साथ इनकी तुलना की है (देखिये गणित लेख पृ. १०, १३ आदि) वह बड़ी महत्त्वपूर्ण है । वर्तमानमें यह कह सकना तो कठिन है कि इस ज्ञानका प्राचीन कालमें क्या कोई आदान प्रदान हुआ था, और कौनने किसे कितना दिया व कितना लिया था । किन्तु यह विषय आग अनुसन्धान करने योग्य है । इस दिशामें प्रोफेसर लक्ष्मीचन्द्रजी प्रयत्नशील भी हैं। इस प्रकाशनके पश्चात् जैन खगोल विषयक दो और ग्रंथ अप्रकाशित रह जाते हैं। वे हैं संस्कृत लोकविभाग और त्रैलोक्य-दीपिका । इन ग्रंथोंको भी इसी ग्रंथमालामें प्रकाशित करानेका प्रयत्न किया जा हमें महान् दुःखके साथ कहना पड़ता है कि जैन संस्कृति संरक्षक संघकी प्रवृत्तियों पर उसके संस्थापक और आजीवन अध्यक्ष ब्रह्मचारी जीवराज भाईके निधनसे बड़ा वज्राघात हुआ है। संघके स्थापन कालसे मृत्युपर्यन्त संघकी साहित्यिक प्रवृत्तियोंके विकासकी ओर उनकी बड़ी तीव्र दृष्टि रहती थी। उसके किसी कार्यक्षेत्रमें वे किसी प्रकारकी ढिलाईको सहन नहीं करते थे । मार्गमें जो कठिनाइयां आतीं उन्हें वे अपने नैतिक बल और भौतिक साधनोंसे तुरंत दूर करनेका भरपूर प्रयत्न करते थे। उनकी मृत्युसे धार्मिक प्रवृत्तियों तथा जैन संस्कृतिकी सेवामें असीम दानशीलताका एक चमत्कारी जीवन समाप्त हो गया । हमारी यही भावना और प्रार्थना है कि उनकी आत्माको खर्गमें शान्ति मिले, तथा उनके आदर्शसे वर्तमान और भविष्यकी धनी पुरुषोंकी पीढियोंको खामित्व रहते अपने धनको सत्कार्यमें लगानेकी प्रेरणा मिलती रहे। हम अपने नये अध्यक्ष श्रीमान् सेठ गुलाबचन्द हीराचन्दका खागत करते हैं। वे पहलेसे ही टूस्ट कमेटीके सदस्यके नाते संघकी प्रवृत्तियोंसे भली भांति परिचित हैं, और उनसे पूर्ण सहानुभूति रखने आये हैं। हमें पूरा भरोसा है कि ट्रस्टके अन्य सदस्योंके सहयोगसे वे अपने महान् पूर्वाध्यक्ष द्वारा स्थापित परम्पराओंके संरक्षणमें कोई प्रयत्न शेष नहीं रखेंगे। वर्तमानमें हम बड़े संकटाकीर्ण और साथ ही आशाजनक कालमें चल रहे हैं। संकटाकीर्ण इसलिये क्योंकि आजकल धार्मिक बातोंमें प्रवृत्तियोंमें क्षीणता, वैयक्तिक दानशीलतामें शुष्कता तथा नवयुवकोंमें तत्त्वज्ञानकी अपेक्षा भौतिक विज्ञान व यंत्रचातुरीकी ओर अधिक आकर्षण दिखाई पड़ता है। और इससे मी ऊपर, सर्वनाशी असशस्त्र आकाशमें मंडरा रहे हैं व समस्त विद्वत्ता और संस्कृतिको एक इंकमें हवा बना कर उड़ा देनेकी धमकी दे रहे हैं। किन्तु फिर भी यह युग आशाजनक इसलिये है क्योंकि पूर्वोक्त कारणोंसे ही, एक ऐसी मी विचारधारा उत्पन्न हो गई है जो उक्त बहावका रुख बदल देना चाहती है। देशके तथा संसारके चिन्तन-शील विद्वान् मानवताके संरक्षण तथा जगत्की शान्ति व समृद्धिके लिये अब अपने चित्तको प्राचीन तत्त्वज्ञानकी ओर फेर. रहे हैं । इस विचारशीलतामें हमारे साहित्यके प्रत्येक पृष्ठ और प्रत्येक पंक्तिसे उद्भूत होनेवाला संदेश बहुत बलदायक सिद्ध हो सकता है । वह संदेश है जीव और प्रकृतिकी अनश्वरशीलता एवं भौतिक लाभोंकी अपेक्षा आध्यात्मिक तत्त्वोंकी परमश्रेष्ठता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 480