Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur View full book textPage 6
________________ सम्पादकीय तिलोय-पण्णचिका सम्पादन पूर्ण होते ही (प्रका. मा. २. १९५१) सम्पादकोंके सन्मुख उसी विषयका एक और अंय उपस्थित रह गया जिसने अभी तक दिनका प्रकाश नहीं देख पाया था । यह था पउभणविकत जंबूदीवपण्णत्ति । सम्पादकोंमेंसे एक (प्रो. ही. ला. जैन) को इस कठिन ग्रंथके सम्पादन व अनुवादका कार्य हाथमें लेनेकी बुद्धिमत्तामें सन्देह था, क्योंकि इसका पाठ अनेक स्थलोंपर अनिश्चित दिखाई देता था और उसकी प्राप्य प्रतियां बहुत दोष पूर्ण पाई जाती थीं । किन्तु अपेक्षा कृत कम वृद्ध सम्पादक (प्रो. आ. ने. उपाध्ये) इन कठिनाइयोंसे डरना नही चाहते थे। अन्ततः इस ग्रंथको मी स्मृतिशेष रह जानेसे बचाना तो अवश्य ही है। और जब यह बात है तो अन्य कौन और कब इस कार्यको करेगा ! अतः दोनों सम्पादक इस निर्णय पर पहुंचे कि वे सदैवके अनुसार इस कार्यको मी कंसे कंधा मिलाकर हाथमें लें, और उपलभ्य सामग्रीका यथाशक्ति सदुपयोग कर इस ग्रंथको मी प्रकाशमें लावें । पं. बालचन्द्रजी शास्त्रीको इसके हिन्दी अनुवादका कार्य सौंपा गया, क्योंकि उन्हें ति. प. के अनुवादका मी अनुभव था। इस सम्मिलित प्रयासका फल प्रस्तुत ग्रंथ पाठकोंके सन्मुख है। वे ही देखकर कह सकेंगे कि सम्पादक कहां तक अपने दीर्घकालीन प्रयासमें सफल हो सके हैं। इस ग्रंयके मूल और अनुवादका मुद्रण सरस्वती प्रेस, अमरावती, में किया गया था। किन्तु प्रो. लक्ष्मीचन्द्रजीके. गणित सम्बंधी महत्वपूर्ण लेखके लिये शेष सामग्रीका मुद्रण रोक रखना पड़ा। जब यह लेख पूरा हुआ तब तक धवलाका कार्यालय अमरावतीसे उठकर बनारस चला गया था । और धवला कार्यालयसे ही इस ग्रंथके मुद्रणकी मी सम्हाल की जाती थी । अतः वह लेख बनारसके ज्योतिषप्रकाश प्रेस ( विश्वेश्वरगंज), में तथा परिशिष्टोंको बनारसके सरला मुद्रणालयमें छपवाना पड़ा। उसमेंके कुछ यूनानी अक्षरों, संकेतों तथा चित्रोंके बनवानेका विशेष प्रयास करना पड़ा जिसमें भी बहुत समय लगा। गणित लेख, तथा परिशिष्टोंका मुद्रण समाप्त होते ही पं. बालचन्द्र शास्त्री बीमार हो गये और वे बनारस छोड़कर अपने घर बीना चले गये । इससे प्रस्तावनादिका शेष भाग बनारसमें न छप सका और उसे निर्णयसागर प्रेस, बम्बई और वर्धमान प्रेस, सोलापूर में छपाना पड़ा । ऐसी परिस्थितिमें यदि पाठकोंको इस प्रथमें कागज व मुद्रण आदिकी बहुरूपता दिखाई दे तो वे कृपाकर क्षमा करेंगे। सम्पादकों और अनुवादकने तिलोयपण्णत्ति और जंबूदीवपण्णत्ति ग्रंथोंके गणित भागको सम्हालनेका अपनी शक्किभर प्रयास किया था। किन्तु उन्हें इस विषयमें अपनी सीमाका भान था । अतएव इन ग्रंथोंके गणित भागका समुचित रीतिसे किसी गणितके अधिकारी विद्वान् द्वारा अध्ययन करानेकी सम्पादकोंको इच्छा हुई। सौभाग्यसे उन्हें ऐसी योग्यता गणितके नवयुवक प्रोफेसर श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन एम. एस्सी. में दिखाई दी। उन्हें इस विषयमें खयं भी रुचि उत्पन्न हुई । अतः उन्होंने विशेषतः तिलोयपण्णत्तिके गणित भागका अध्ययन कर मुद्रित १०४ पृष्ठोंका वह लेख लिखा है जो इस ग्रंथके साथ प्रकाशित है। जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 480