Book Title: Agam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Chandapannatti Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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प्रथम वर्ग में चेटक और कोणिक के भयंकर युद्ध का वर्णन है इसका उल्लेख भगवती और आवश्यक चूर्ण' में भी मिलता है। बौद्ध साहित्य में भी इस युद्ध का उल्लेख मिलता है। यह आश्चर्य का विषय है कि इतिहास में इस युद्ध का कोई उल्लेख नहीं है ।
युद्ध आत्मरक्षा से लिए अनिवार्य हो सकता है। उस हिसा को एक गृहस्थ के लिए आवश्यक कहा जा सकता है । फिर भी हिंसा हिंसा है, उसे अहिंसा नहीं माना जा सकता । प्रस्तुत वर्ग में यह युद्धविरोधी स्वर उभरकर सामने आया है और वह युद्ध को धार्मिक रूप देने के प्रतिपक्ष में एक सशक्त उद्घोष है।
दूसरे वर्ग में धर्म की आराधना करने वाले श्रेणिक के दस पौत्रों की सद्गति का वर्णन है। तीसरे वर्ष में संयम और सभ्यवत्व की आराधना और विराधना का प्रतिपादन है। चौथे वर्ग में पार्श्वनाथ की दश शिष्याओं का निरूपण है। पांचवें वर्ग में वृष्णिवंश के बारह राजकुमारों की चारित्र आराधना और 'सर्वार्थसिद्धि' में उत्पत्ति का निरूपण है।
इस प्रकार इस लघुकाय उपांग या निश्यावलिका तस्कन्ध में अनेक रुचिपूर्ण एवं महत्वपूर्ण विषयों का प्रतिपादन हुआ है ।
रचनाकार और रचनाकाल
प्रस्तुत श्रुतस्कन्ध के रचनाकार और रचनाकाल के बारे में कोई निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं है । यह अंगबाह्य श्रुतस्कन्ध है । इससे यह निश्चित है कि यह किसी स्थविर की रचना है । इसमें भगवती, ज्ञाता, उपासकदशः औपपातिक और राजप्रश्नीय से संबंधित विषयों की चर्चा मिलती है। किन्तु इस आधार पर रचनाकाल का निर्णय नहीं किया जा सकता। आगमसूत्रों के व्यवस्थाकाल में पूर्ववर्ती आगमों में उत्तरवर्ती आगमों के नाम उल्लिखित किए गए हैं, अतः वे रचनाकाल के पौर्वापर्य के निर्णायक नहीं बनते ।
व्याख्या-ग्रन्थ
प्रस्तुत श्रुतस्कन्ध पर एक संस्कृत व्याख्या उपलब्ध है। विक्रम संवत् १२२८ में श्री चन्द्रसूरि ने इसकी व्याख्या लिखी थी। वह बहुत संक्षिप्त है। मुनि धर्मसी (धर्मसिंह) ने इस पर गुजराती में एक टब्बा (स्तक) लिखा था।
कार्य संपूति
प्रस्तुत ग्रन्थ के संपादन का बहुत कुछ श्रेय युवाचार्य महाप्रज्ञ को है, क्योंकि इस कार्य में अहर्निश वे जिस मनोयोग से लगे हैं, उसी से यह कार्य संपन्न हो सका है, अन्यथा यह गुस्तर कार्य बड़ा दुरूह होता । इनकी वृत्ति मूलतः योगनिष्ठ होने से मन की एकाग्रता सहज बनी रहती है। सहज ही आगम का कार्य करते-करते अन्तर्रहस्य पकड़ने में इनकी मेधा काफी पैनी हो गई है। विनयशीलता, श्रमपरायणता, और गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण भाव ने इनकी प्रगति में बड़ा सहयोग दिया है। यह वृत्ति इनकी बचपन से ही है। जब से मेरे पास आए, मैंने इनकी इस वृत्ति में क्रमशः वर्धमानता ही पाई है। इनकी कार्यक्षमता और कर्तव्यपरता ने मुझे बहुत संतोष दिया है।
१. भगवती ७११७३. २१०
२. आवश्यकचूणि, भाग २, पृ० १७४
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