Book Title: Agam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Chandapannatti Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text ________________
१०४८
विवंचि-विसुद्धतर
विवंचि (विपञ्ची) ज ३१३१
सू ११२५,४१२,१६॥३,६,१३,१७,२६,३३,३६ विवज्जिय (विजित) उ ३.३६
विसमचारि (विषमचारिन्) ज ७११२।२ विवडिय (निपतित) ज ३११०८ से १११
सू १०६१२६२ विषड्ढ (वि-- वृध) विवड्दति ज ३१६५,१५६ विसमबहुल (विषमबहुल) १११८ विवड्ढेत (विवर्धमान) प ११४८१५२
विसमाउय (विषमायुप्क) प १७:१३ विवण (विवर्ण) उ १२१५,३३९८
विसमेह (विषमेघ) ज २११३१ विवत्थ (विवस्त्र) सू २०१८
विसमोववण्णग (विषमोपपन्नक) प १७/१३ विदर (विवर) ज २१६५ उ ५१५
विसय (विषय) ५२।४८,१२६६११,१५।१११, विवरीत (विपरीत) म २०१६।२
१५१४०,४१,३३११।१ ज २१४;३।१०४,१०५, विवरीय (विपरीत) ज ३।११७११
१०७,११४,१२६।४,५१४६७।१७८ सू१८११ विवाग (विपाक) २३।१३ से २३
विसय (विशद) ज २।४,६५,१२६ विवाह (विवाह) सू २०१७
विसयवासि (विषयासिन्) ज ३।२४।२,३।२६, विविह (विविध) प २।४१,४८ ज ३१२४,११७,
३६,४७,५६,६४,७२,१३११२,१३३.१३८,१४५ १६७।१२,४२७,४६,५॥३८,६७,७११७८
विसयाणपुव्वी (विषयानुदूर्वी) ज ७५० मू १८८ उ ३६३५,११२,१२८
विसह (विषय) जरा६८ विस (विष) उ १८६,६०
विसहरण (विषहरण) ज ३।६५,१५६ विसंधि (विसन्धि) २०१८1५
विसाएमाण (निस्वादयत् ) उ ११३४,४६,७४ विसंधिकप्प (विसन्धिकल्प) सु २०१८
विसायणिज्ज (स्विादनी) ज १८ विसज्जिय (विजित) ज ३१८१
विसारय (विशारद) ज ३१७७,१०६ उ १३१ विसम्पमाण (विसर्पत) ज २११५, ३.५,६,८,१५, विसाल (विशाल) प २१४७२ ज २११५; ३११७८%; १६,३१,५३,६२,७०,७७,८४,६१,१००,११४,
४११५७।२,७१७८ सू२०१८,२०८।८ १४२,१६५,१७३,१८१,१८६,१६६,२१३;
विसाहा (विशाखा) ज १२८,१२६,१३४१३, ५।२१,२७,४१ उ ११२१,४२,३।१३६
१३५३३,१३६,१४०,१४६,१६५,१६६ विसम (चिपा) प १३१२२।२:१६:५२:३६८२११ सु १०।२ से ६,१७,२३,८६,६२,७२,७३,७५,
ज २।३८,१३६,१३३,३१७६,८८,१०६,१२८, ८३,११४,१२०,१३१ से १६३,१२१२१ १५.१,१७०७।११।३ सू१०११२६।३
विसाही (वैशाखी) ज७१४० उ ३१५५
विसिठ (विशिष्ट) ५२।४७७ ज ११३७, २०१५, विसमचउक्कोणसंठित (विषमचतुष्कोणसं स्थित)
२०३१६,३५,१०६,११७ २२१,२२२:५४३; सू श२५:४१२
७१७८ विसमचउरंससंठाणसंठित (विषमचतुरस्रसंस्थान
विसिट्ठतर (विशिष्टतर) सू२०१७ संस्थित) सु ११२५
विसुज्झमाद (विशुधमान) ११३,१२८; विसमचउरंससंठित (विषभचतुरस्रस स्थित) सू ४१२ २३१२००,२०१ ज ३१२२३ विसमचकावालसंठाणसंठित (विषमचक्रवालसंस्थान- विसुद्ध (विशुद्ध) ८ २१६३; १७४१३८,३६६६३,६४ संस्थित) सू १६६
ज २१८,६३१३,१०६५५८ उ ५१४३ विसमचक्कवालसंठित (विषमचक्रवालसंस्थित) विसुद्धतर (विशुद्धतर) ज २०७१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Loading... Page Navigation 1 ... 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390