Book Title: Agam 17 Upang 06 Chandra Pragnapti Sutra Chandapannatti Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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७. टीका
८. वृत्ति
६. वृत्ति
अज्ञातकर्तृक
गुजराती भाषा में धर्मसीमुनि ने इस पर स्तबक (टब्बा या बालावबोध) भी लिखा है। इन व्याख्या-ग्रन्थों की अधिकता से प्रतीत होता है कि प्रस्तुत आगम बहुत पठनीय रहा है। चन्दपण्णत्ती और सूरपण्णत्ती
१५०००
१८३५२
१. ठाणं, ४११८६
२. कापा ३. नंदी, ७७, ७८
३४
ब्रहामुनि धर्मसागर और वानरऋषि
नाम बोध
स्थानांग में चार अंगबाह्य प्रज्ञप्तियां बतलाई गई हैं । उनमें प्रथम प्रज्ञप्ति का नाम चन्द्रप्रज्ञप्ति और दूसरी का सूरप्रज्ञप्ति है। कषायपाड में भी इसी क्रम से नामोल्लेख मिलता है।' प्रथम प्रज्ञप्ति में चन्द्र की वक्तम्यता है, इसलिए उसका नाम चन्द्रप्रज्ञप्ति है और द्वितीय प्रज्ञप्ति में सूर्य की वक्तव्यता है, इसलिए उसका नाम सूरप्रज्ञप्ति है।
विषय-वस्तु
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आगम की प्राचीन सूचियों से पता चलता है कि चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूरज्ञप्ति दो आगम हैं। 'नन्दी' की आगम सूची में चन्द्रप्रज्ञप्ति को कालिक और सूरप्रज्ञप्ति को उत्कालिक बतलाया गया है ।" इस भेद का हेतु क्या है, यह अभी अन्वेषणीय है। चन्द्रप्रज्ञप्ति वर्तमान में प्रायः उपलब्ध नहीं है। उसका थोड़ा-सा प्रारंभिक भाग मिलता है । यद्यपि कुछ हस्तलिखित आदर्श 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' के नाम से उपलब्ध होते हैं और कुछ आदर्श सूर्यप्रज्ञप्ति के नाम से मिलते हैं, किन्तु प्रारंभिक सूत्र को छोड़कर इनका पाठ एक जैसा है । आचार्य मलयगिरि ने इन दोनों की व्याख्याएं लिखी हैं, उनमें भी प्रायः समानता है। वर्तमान धारणा के अनुसार चन्द्रप्रज्ञप्ति आज उपलब्ध नहीं है जो उपलब्ध है, वह सूरप्रज्ञप्ति है। डा० वाल्टर शुब्रिंग ने एक प्रकल्पना प्रस्तुत की है-- सूरप्रज्ञप्ति के १० वें पाहुड़ से आगे सूर्य की अपेक्षा चन्द्र और ताराओं को अधिक महत्व दिया गया है अतः हम यह अनुमान करते हैं कि दसवे 'पाहुड़' से चन्द्रप्रज्ञप्ति का प्रारम्भ हुआ है। किन्तु चन्द्रप्रज्ञप्ति की समग्र विषयवस्तु की जानकारी के अभाव में शुद्र के निष्कर्ष को सहसा निर्णायक नहीं माना जा सकता। फिर भी उसमें विचार के लिए अवकाश है ।
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व्याख्या ग्रंथ
चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूरप्रज्ञप्ति दोनों पर मलयगिरि-कृत टीकाएं उपलब्ध हैं। दोनों टीकाएं प्राय: समान हैं। उनमें जो अन्तर है, वह परिशिष्ट में दिया हुआ है। 'जिनरत्नकोश' के अनुसार चन्द्रप्रज्ञप्ति की टीका का ग्रन्थाग्र ६५०० तथा सूरप्रज्ञप्ति को टीका का ग्रन्थाग्र ६००० है । भद्रबाहु कृत
Y. Doctrine of the Jains P. 102
५. जिनरत्नकोश, पृ० ११८ ६. वही पृ० ४५२
प्रथम अधिकार, पेज्जदोसविहती, पृ० १३७
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