Book Title: Agam 17 Chandrapragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 12
________________ आगम सूत्र १७, उपांगसूत्र-६, 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' प्राभृत/प्राभृतप्राभृत/सूत्र प्राभृत-२ प्राभृतप्राभृत-१ सूत्र-३५ हे भगवन् ! सूर्य की तिर्की गति कैसी है ? इस विषय में आठ प्रतिपत्तियाँ हैं । (१) पूर्वदिशा के लोकान्त से प्रभातकाल का सूर्य आकाश में उदित होता है वह इस समग्र जगत् को तिर्छा करता है और पश्चिम लोकान्त में संध्या समय में आकाश में अस्त होता है । (२) पूर्वदिशा के लोकान्त से प्रातःकाल में सूर्य आकाश में उदित होता है, तिर्यक्लोक को तिर्छा या प्रकाशीत करके पश्चिमलोकान्त में शाम को अस्त हो जाता है । (३) पूर्वदिशा के लोकान्त से प्रभात समय आकाश में जाकर तिर्यक्लोक को तिर्यक् करता है फिर पश्चिम लोकान्त में शाम को नीचे की ओर परावर्तीत करता है, नीचे आकर पृथ्वी के दूसरे भाग में पूर्व दिशा के लोकान्त से प्रातःकाल में फिर उदित होता है । (४) पूर्वदिशा के लोकान्त से प्रातःकाल में सूर्य पृथ्वीकाय में उदित होता है, इस तिर्यक्लोक को तिर्यक् करके पश्चिम न को पथ्वीकाय में अस्त होता है । (५) पर्व भाग के लोकान्त से प्रातःकाल में सर्य पथ्वीकाय में उदित होता है, वह सूर्य इस मनुष्यलोक को तिर्यक करके पश्चिम दिशा के लोकान्त में शाम को अस्ताचल में प्रवेश करके अधोलोकमें जाता है, फिर वहाँ से आकर पूर्वलोकान्त में प्रातःकालमें सूर्य पृथ्वीकायमें उदित होता है। ___(६) पूर्व दिशावर्ती लोकान्त से सूर्य अप्काय में उदित होता है, वह सूर्य इस मनुष्यलोक को तिर्यक् करके पश्चिम लोकान्त में अप्काय में अदृश्य हो जाता है । (७) पूर्वदिग् लोकान्त से सूर्य प्रातःकाल में समुद्र में उदित होता है, वह सूर्य इस तिर्यक्लोक को तिर्यक करके पश्चिम लोकान्त में शाम को अप्काय में प्रवेश करता है, वहाँ से अधोलोक में जाकर पृथ्वी के दूसरे भाग में पूर्वदिग् लोकान्त में प्रभातकाल में अप्काय में उदित होता है । (८) पूर्व दिशा के लोकान्त से बहुत योजन-सेंकडो-हजारों योजन अत्यन्त दूर तक ऊंचे जाकर प्रभात का सूर्य आकाश में उदित होता है, वह सूर्य इस दक्षिणार्द्ध को प्रकाशित करता है, फिर दक्षिणार्ध में रात्रि होती है, पूर्वदिग् लोकान्त से बहत योजनसेंकड़ों-हजारों योजन ऊंचे जाकर प्रातःकाल में आकाश में उदित होता है। भगवंत कहते हैं कि इस जंबूद्वीप में पूर्व-पश्चिम और उत्तरदक्षिण लम्बी जीवा से १२४ मंडल के विभाग करके दक्षिणपूर्व तथा उत्तरपश्चिम दिशा में मंडल के चतुर्थ भाग में रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसमरमणीय भूभाग से ८०० योजन ऊपर जाकर इस अवकाश प्रदेश में दो सूर्य उदित होते हैं । तब दक्षिणोत्तर में जम्बूद्वीप के भाग को तिर्यक्-प्रकाशित करके पूर्वपश्चिम जंबूद्वीप के दो भागों में रात्रि करता है, और जब पूर्वपश्चिम के भागों को तिर्यक् करते हैं तब दक्षिणउत्तर में रात्रि होती है । इस तरह इस जम्बूद्वीप के दक्षिण-उत्तर एवं पूर्व-पश्चिम दोनों भागों को प्रकाशित करता है, जंबूद्वीप में पूर्व-पश्चिम तथा उत्तर-दक्षिण में १२४ विभाग करके दक्षिण-पूर्व और उत्तर-पश्चिम के चतुर्थ भाग मंडल में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुसमरमणीय भूभाग से ८०० योजन ऊपर जाकर प्रभातकाल में दो सूर्य उदित होते हैं । प्राभृत-२ प्राभृतप्राभृत-२ सूत्र - ३६ हे भगवन् ! एक मंडल से दूसरे मंडल में संक्रमण करता सूर्य कैसे गति करता है ? इस विषय में दो प्रतिपत्तियाँ हैं (१) वह सूर्य भेदघात से संक्रमण करता है । (२) वह कर्णकला से गमन करता है । भगवंत कहते हैं कि जो भेदघात से संक्रमण बताते हैं उसमें यह दोष है कि भेदघात से संक्रमण करता सूर्य जिस अन्तर से एक मंडल से दूसरे मंडल में गमन करता है वह मार्ग में आगे नहीं जा सकता, दूसरे मंडल में पहुंचने से पहले ही उनका भोगकाल न्यून हो जाता है । जो यह कहते हैं कि सूर्य कर्णकला से संक्रमण करता है वह जिस अन्तर से एक मंडल से दूसरे मंडल में गति करता है तब जितनी कर्णकाल को छोड़ता है उतना मार्ग में आगे जाता है, इस मत में यह विशेषता है कि आगे जाता हआ सूर्य मंडलकाल को न्यून नहीं करता । एक मंडल से दूसरे मंडल में संक्रमण करता सूर्य कर्ण-कला से गति करता है यह बात नय गति से जानना । मुनि दीपरत्नसागर कृत्" (चन्द्रप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 12

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