Book Title: Agam 17 Chandrapragnapti Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 50
________________ आगम सूत्र १७, उपांगसूत्र-६, 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' प्राभृत/प्राभृतप्राभृत/सूत्र उत्कृष्ट से बयालीस मास में चंद्र को अडतालीस मास में सूर्य को ग्रसित करता है। सूत्र - २०१ हे भगवन् ! चंद्र को शशी क्युं कहते हैं ? ज्योतिषेन्द्र ज्योतिषराज चंद्र के मृग चिन्हवाले विमान में कान्त-देव, कान्तदेवीयाँ, कान्त आसन, शयन, स्तम्भ, उपकरण आदि होते हैं, चंद्र स्वयं सुरूप आकृतिवाला, कांतिवान् लावण्ययुक्त और सौभाग्य पूर्ण होता है इसलिए चंद्र-शशी ऐसा कहा जाता है। हे भगवन् ! सूर्य को आदित्य क्युं कहा जाता है ? सूर्य की आदि के काल से समय, आवलिका, स्तोक यावत् उत्सर्पिणी अवसर्पिणी की गणना होती है इसलिए सूर्य-आदित्य कहलाता है। सूत्र-२०२ ___ ज्योतिषेन्द्र ज्योतिष राज चंद्र की कितनी अग्रमहिषीयाँ है ? चार-चंद्रप्रभा, ज्योत्स्नाभा, अर्चिमाली, प्रभंकरा इत्यादि कथन पूर्ववत् जान लेना । सूर्य का कथन भी पूर्ववत् । वह चंद्र-सूर्य कैसे कामभोग को अनुभवते हुए विचरण करते हैं ? कोई पुरुष यौवन के आरम्भकाल वाले बल से युक्त, सदृश पत्नी के साथ तुर्त में विवाहीत हुआ हो, धन का अर्थी वह पुरुष सोलह साल परदेश गमन करके धन प्राप्त करके अपने घर में लौटा हो, उसके बाद बलिकर्म-कौतुकमंगल-प्रायश्चित्त आदि करके शुद्ध वस्त्र, अल्प लेकिन मूल्यवान् आभरण को धारण किये हुए, अट्ठारह प्रकार के व्यंजन से युक्त, स्थालीपाक शुद्ध भोजन करके, उत्तम ऐसे मूल्यवान् वासगृह में प्रवेश करता है; वहाँ उत्तमोत्तम धूप-सुगंध मघमघायमान हो, शय्या भी कोमल और दोनों तरफ से उन्नत हो इत्यादि, अपनी सुन्दर पत्नी के साथ शृंगार आदि से युक्त होकर हास्य-विलास-चेष्टा-आलाप-संलाप-विलास इत्यादि सहित अनुरक्त होकर, अविरत मनोनुकूल होकर, अन्यत्र कहीं पर मन न लगाते हुए, केवल इष्ट शब्दादि पंचविध ऐसे मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का अनुभव करता हुआ विचरता है, उस समय जो सुखशाता का अनुभव करता है, उनसे अनंतगुण विशिष्टतर व्यंतर देवों के कामभोग होते हैं। व्यंतरदेवो के कामभोग से अनंतगुण विशिष्टतर असुरेन्द्र को छोड़कर शेष भवनपतिदेवों के काम भोग होते हैं, भवनवासी देवों से अनंतगुण विशिष्टतर असुरकुमार इन्द्ररूप देवों के कामभोग होते हैं, उनसे अनंतगुण विशिष्टतर ग्रहगण-नक्षत्र और तारारूप देवों के कामभोग होते हैं, उनसे विशिष्टतर चंद्र-सूर्य देवों के कामभोग होते हैं । इस प्रकार के कामभोगों का चंद्र-सूर्य ज्योतिषेन्द्र अनुभव करके विचरण करते हैं। सूत्र-२०३ निश्चय से यह अठासी महाग्रह कहे हैं अंगारक, विकालक, लोहिताक्ष, शनैश्चर, आधुनिक, प्राधूणिक, कण, कणक, कणकणक, कणवितानक, कणसंताणक, सोम, सहित, आश्वासन, कायोपग, कर्बटक, अजकरक, दुन्दुभक, शंख, शंखनाभ, कंस, कंसनाभ, कंसवर्णाभ, नील, नीलावभास, रूप्य, रूप्यभास, भस्म, भस्मराशी, तिल, तिलपुष्पवर्ण, दक, दकवर्ण, काक, काकन्ध, इन्द्राग्नि, धूमकेतु हरि, पिंगलक, बुध, शुक्र, बृहस्पति, राहु, अगस्ती, माणवक, काश, स्पर्श, धूर, प्रमुख, विकट, विसन्धिल्प, निजल्ल, प्रजल्ल, जटितायल, अरुण, अग्निल, काल, महाकाल, स्वस्तिक, सौवस्तिक, वर्धमानक, प्रलम्ब, नित्यालोक, नित्युद्योत, स्वयंप्रभ, अवभास, श्रेयस्कर, क्षेमंकर, आभंकर, प्रभंकर, अरज, विरज, अशोक, वितशोक, विमल, वितप्त, विवस्र, विशाल, शाल, सुव्रत, अनिवर्ति, एकजटी, दुजटी, करकरिक, राजर्गल, पुष्पकेतु और भावकेतु। सूत्र - २०४ से २११ यह संग्रहणी गाथाएं हैं । इन गाथाओं में पूर्वोक्त अठ्ठासी महाग्रहों के नाम-अंगारक यावत् पुष्पकेतु तक बताये हैं । इसीलिए इन गाथाओं के अर्थ प्रगट न करके हमने पुनरुक्तिका त्याग किया है। प्राभृत-२०-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत्" (चन्द्रप्रज्ञप्ति) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 50

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