Book Title: Agam 11 Vipak Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 8
________________ आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक कहता था कि 'मैंने सूना है।'' इसी प्रकार देखता हुआ, बोलता हुआ, ग्रहण करता हुआ और जानता हुआ भी वह कहता था कि मैंने देखा नहीं, बोला नहीं, ग्रहण किया नहीं और जाना नहीं। इसी प्रकार के वंचना-प्रधान कर्म करने वाला मायाचारों को ही प्रधान कर्तव्य मानने वाला, प्रजा को पीड़ित करने रूप विज्ञान वाला और मनमानी करने को ही सदाचरण मानने वाला, यह प्रान्ताधिपति दुःख के कारणीभूत परम कलुषित पापकर्मों को उपार्जित करता हुआ जीवन-यापन कर रहा था । उसके बाद किसी समय उसके शरीर में एक साथ ही सोलह प्रकार के रोगांतक उत्पन्न हो गए । जैसे कि- श्वास, कास, ज्वर, दाह, कुक्षिशूल, भगन्दर, अर्श, बवासीर, अजीर्ण, दृष्टिशूल, मस्तक-शूल, अरोचक, अक्षिवेदना, कर्णवेदना, खुजली, जलोदर और कुष्टरोग। सूत्र-९ तदनन्तर उक्त सोलह प्रकार के भयंकर रोगों से खेद को प्राप्त वह एकादि नामक प्रान्ताधिपति सेवकों को बुलाकर कहता है-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और विजयवर्द्धमान खेट के शंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, महापथ और साधारण मार्ग पर जाकर अत्यन्त ऊंचे स्वरों से इस तरह घोषणा करो-'हे देवानुप्रियो ! एकादि प्रान्तपति के शरीर में श्वास, कास, यावत् कोढ़ नामक १६ भयङ्कर रोगांतक उत्पन्न हुए हैं । यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, ज्ञायक या ज्ञायक-पुत्र, चिकित्सक या चिकित्सक-पुत्र उन सोलह रोगांतकों में से किसी एक भी रोगांतक को उपशान्त करे तो उसको बहत सा धन प्रदान करेगा। इस प्रकार दो तीन बार उदघोषणा करके मेरी इस आज्ञा के यथार्थ पालन की मुझे सूचना दो ।' उन कौटुम्बिक पुरुषों-सेवकों ने आदेशानुसार कार्य सम्पन्न करके उसे सूचना दी। तदनन्तर उस विजयवर्द्धमान खेट में इस प्रकार की उद्घोषणा को सूनकर तथा अवधारण करके अनेक वैद्य, वैद्यपुत्र, ज्ञायक, ज्ञायकपुत्र, चिकित्सक, चिकित्सकपुत्र अपने अपने शस्त्रकोष को हाथ में लेकर अपने अपने घरों से नीकलकर एकादि प्रान्ताधिपति के घर आते हैं । एकादि राष्ट्रकूट के शरीर का संस्पर्श करते हैं, निदान की पृच्छा करते हैं और एकादि राष्ट्रकूट के इन सोलह रोगांतकों में से किसी एक रोगांतक को शान्त करने के लिए अनेक प्रकार के अभ्यंगन, उद्वर्तन, स्नेहपान, वमन, विरेचन, स्वेदन, अवदहन, अवस्नान, अनुवासन, निरूह, बस्तिकर्म, शिरोवेध, तक्षण, प्रतक्षण, शिरोबस्ति, तर्पण, पुटपाक, छल्ली, मूलकन्द, शिलिका, गुटिका, औषध और भेषज्य आदि के प्रयोग से प्रयत्न करते हैं परन्तु उपर्युक्त अनेक प्रकार के प्रयोगात्मक उपचारों से इन सोलह रोगों में से किसी एक रोग को भी उपशान्त करने में समर्थ न हो सके ! जब उन वैद्यों व वैद्यपुत्रादि से उन १६ रोगान्तकों में से एक भी रोग का उपशमन न हो सका तब वे वैद्य व वैद्यपुत्रादि श्रान्त तान्त, तथा परितान्त से खेदित होकर जिधर से आए थे उधर ही चल दिए। इस प्रकार वैद्यों के द्वारा प्रत्याख्यात होकर सेवकों द्वारा परित्यक्त होकर औषध और भैषज्य से निर्विण्ण विरक्त, सोलह रोगांतकों से परेशान, राज्य, राष्ट्र, यावत् अन्तःपुर-रणवास में मूर्च्छित-आसक्त एवं राज्य व राष्ट्र का आस्वादन, प्रार्थना, स्पृहा और अभिलाषा करता हुआ एकादि प्रान्तपति व्यथित, दुखार्त्त और वशार्त्त होने से परतंत्र न व्यतीत करके २५० वर्ष की सम्पूर्ण आयु को भोगकर यथासमय काल करके इस रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में नारकरूप से उत्पन्न हुआ । तदनन्तर वह एकादि का जीव भवस्थिति संपूर्ण होने पर नरक से नीकलते ही इस मृगाग्राम नगर में विजय क्षत्रिय की मृगादेवी नाम की रानी की कुक्षि में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ । मृगादेवी के उदर में उत्पन्न होने पर मृगादेवी के शरीर में उज्ज्वल यावत् ज्वलन्त व जाज्वल्यमान वेदना उत्पन्न हुई । जिस दिन से मृगापुत्र बालक मृगादेवी के उदर में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ, तबसे लेकर वह मृगादेवी विजय नामक क्षत्रिय को अनिष्ट, अमनोहर, अप्रिय, अमनोज्ञ-असुन्दर और अप्रिय हो गई। तदनन्तर किसी काल में मध्यरात्रि के समय कुटुम्बचिन्ता से जागती हुई उस मृगादेवी के हृदय में यह अध्य-वसाय उत्पन्न हुआ कि मैं पहले तो विजय क्षत्रिय को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और अत्यन्त मनगमती, ध्येय, चिन्तनीय, विश्वसनीय, व सम्माननीय थी परन्तु जबसे मेरी कुक्षि में यह गर्भस्थ जीव गर्भ के रूप में उत्पन्न हुआ तबसे विजय क्षत्रिय को मैं अप्रिय यावत् मन से अग्राह्य हो गई हूँ । इस समय विजय क्षत्रिय मेरे नाम तथा गोत्र को मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 8

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