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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक तुम उदास हुई क्यों आर्तध्यान कर रही हो ? स्कन्दश्री ने विजय चोर सेनापति से कहा-देवानुप्रिय ! मुझे गर्भ धारण किये हुए तीन मास हो चूके हैं । मुझे पूर्वोक्त दोहद हुआ, उसकी पूर्ति न होने से आर्तध्यान कर रही हूँ। तब विजय चोर सेनापति ने अपनी स्कन्दश्री भार्या का यह कथन सून और समझ कर कहा-हे सुभगे ! तुम इस दोहद की अपनी ईच्छा के अनुकूल पूर्ति कर सकती हो, इसकी चित्ता न करो । तदनन्तर वह स्कन्दश्री पति के वचनों को सूनकर अत्यन्त प्रसन्न हुई । हर्षातिरेक से बहुत सहचारियों व चोरमहिलाओं को साथ में लेकर स्नानादि से निवृत्त हो, अलंकृत होकर विपुल अशन, पान, व सुरा मदिरा आदि का आस्वादन, विस्वादन करने लगी । इस तरह सबके साथ भोजन करने के पश्चात् उचित स्थान पर एकत्रित होकर पुरुषवेश को धारण कर तथा दृढ़ बन्धनों से बंधे हुए लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को शरीर पर धारण करके यावत् भ्रमण करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती है । दोहद के सम्पूर्ण होने, सम्मानित होने, विनीत होने, तथा सम्पन्न होने पर अपने उस गर्भ को परमसुखपूर्वक धारण करती हुई रहने लगी।
तदनन्तर उस चोर सेनापति की पत्नी स्कन्दश्री ने नौ मास के परिपूर्ण होन पर पुत्र को जन्म दिया। विजय चोर सेनापति ने भी दश दिन पर्यन्त महान वैभव के साथ स्थिति-पतित कुलक्रमागत उत्सव मनाया । उसके बाद बालक के जन्म के ग्यारहवे दिन विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराया । मित्र, ज्ञाति, स्वजनों आदि को आमन्त्रित किया, जिमाया और उनके सामने इस प्रकार कहा, 'जिस समय यह बालक गर्भ में आया था, उस समय इसकी माता को एक दोहद उत्पन्न हुआ था, अतः माता को जो दोहद उत्पन्न हुआ वह अभग्न रहा तथा निर्विघ्न सम्पन्न हुआ । इसलिए इस बालक का अभग्नसेन' यह नामकरण किया जाता है। तदनन्तर यह अभग्नसेन बालक क्षीरधात्री आदि पाँच धायमाताओं के द्वारा सँभाला जाता हआ वृद्धि को प्राप्त होने लगा। सूत्र -२२
अनुक्रम से कुमार अभग्नसेन ने बाल्यावस्था को पार करके युवावस्था में प्रवेश किया । आठ कन्याओं के साथ उसका विवाह हआ । विवाह में उसके माता-पिता ने आठ-आठ प्रकार की वस्तुएं प्रीतिदान में दी और वह ऊंचे प्रासादों में रहकर मनुष्य सम्बन्धी भोगों का उपभोग करने लगा। तत्पश्चात किसी समय वह विजय चोर सेनापति कालधर्म को प्राप्त हो गया । उसकी मृत्यु पर कुमार अभग्नसेन ने पाँच सौ चोरों के साथ रोते हए, आक्रन्दन करते हुए और विलाप करते हुए अत्यन्त ठाठ के साथ एवं सत्कार सम्मान के साथ विजय चोर सेनापति का नीहरण किया । बहुत से लौकिक मृतककृत्य किए । थोड़े समय के पश्चात् अभग्नसेन शोक रहित हो गया।
तदनन्तर उन पाँच सौ चोरों से बड़े महोत्सव के साथ अभग्नसेन को शालाटवी नामक चोरपल्ली में चोर सेनापति के पद पर प्रस्थापित किया । सेनापति के पद पर नियुक्त हुआ वह अभग्नसेन, अधार्मिक, अधर्मनिष्ठ, अधर्मदर्शी एवं अधर्म का आचरण करता हुआ यावत् राजदेय कर-महसूल को भी ग्रहण करने लगा । तदनन्तर अभग्नसेन चोर सेनापति के द्वारा बहुत ग्रामों के विनाश से सन्तप्त हुए उस देश के लोगों ने एक दूसरे को बुलाकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! चोर सेनापति अभग्नसेन पुरिमताल नगर के उत्तरदिशा के बहुत से ग्रामों का विनाश करके वहाँ के लोगों को धन-धान्यादि से रहित कर रहा है । इसलिए हे देवानुप्रियो ! पुरिमताल नगर के महाबल राजा को इस बात से संसूचित करना अपने लिए श्रेयस्कर है । तदनन्तर देश के एकत्रित सभी जनों जहाँ
महाबल राजा था, वहाँ महार्थ, महार्ध, महार्ह व राजा के योग्य भेंट लेकर आए और दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके महाराज को वह मूल्यवान भेंट अर्पण की । अर्पण करके महाबल राजा से बोले- 'हे स्वामिन् ! शालाटवी नामक चोरपल्ली का चोर सेनापति अभग्नसेन ग्रामघात तथा नगरघात आदि करके यावत हमें निर्धन बनाता है। हम चाहते हैं कि आपकी भुजाओं की छाया से संरक्षित होते हए निर्भय और उपसर्ग रहित होकर हम सुखपूर्वक निवास करें । इस प्रकार कहकर, पैरों में पड़कर तथा दोनों हाथ जोड़कर उन प्रान्तीय पुरुषों ने महाबल नरेश से विज्ञप्ति की।
महाबल नरेश उन जनपदवासियों के पास से उक्त वृत्तान्त को सूनकर रुष्ट, कुपित और क्रोध से तमतमा
मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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