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आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक आगे मारते हैं तथा चाबुक के प्रहारों से ताड़ित करते हुए वे राजपुरुष करुणाजनक उस पुरुष को उसके शरीर से नीकाले हुए माँस के टुकड़े खिलाते और रुधिर का पान कराते हैं । सूत्र-२०
तदनन्तर भगवान गौतम के हृदय में उस पुरुष को देखकर यह सङ्कल्प उत्पन्न हुआ यावत् पूर्ववत् वे नगर से बाहर नीकले तथा भगवान के पास आकर निवेदन करने लगे । यावत् भगवन् ! वह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? जो इस तरह अपने कर्मों का फल पा रहा है ? इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! उस काल तथा उस समय इस जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में पुरिमताल नामक समृद्धिपूर्ण नगर था । वहाँ उदित नाम का राजा राज्य करता था, जो हिमालय पर्वत की तरह महान था । निर्णय नाम का एक अण्डों का व्यापारी भी रहता था । वह धनी तथा पराभव को न प्राप्त होने वाला, अधर्मी यावत् परम असंतोषी था । निर्णयनामक अण्डवणिक के अनेक दत्तभृतिभक्तवेतन अनेक पुरुष प्रतिदिन कुद्दाल व बाँस की पिटारियों को लेकर पुरिमताल नगर के चारों और अनेक, कौवी के, घूकी के, कबूतरी के, बगुली के, मोरनी के, मुर्गी के, तथा अनेक जलचर, स्थलचर, व खेचर आदि जीवों के अण्डों को लेकर पिटारियों में भरते थे और भरकर निर्णय नामक अण्डों के व्यापारी को अण्डों से भरी हुई वे पिटारियाँ देते थे।
तदनन्तर वह निर्णय नामक अण्डवर्णक के अनेक वेतनभोगी पुरुष बहुत से कौवी यावत् कुकड़ी के अण्डों तथा अन्य जलचर, स्थलचर एवं खेचर आदि पूर्वोक्त जीवों के अण्डों को तवों पर कहाड़ों पर हाथों में एवं अंगारों में तलते थे, भूनते थे, पकाते थे । राजमार्ग की मध्यवर्ती दुकानों पर अण्डों के व्यापार से आजीविका करते हुए समय व्यतीत करते थे । वह निर्णय अण्डवणिक स्वयं भी अनेक कौवी यावत् कुकड़ी के अण्डों के, जो कि पकाये हुए, तले हुए और भुने हुए थे, साथ ही सुरा, मधु, मेरक, जाति तथा सीधु इन पंचविध मदिराओं का आस्वादन करता हआ जीवन-यापन कर रहा था । तदनन्तर वह निर्णय अण्डवणिक इस प्रकार के पापकर्मों का करने वाला अत्यधिक पापकर्मों को उपार्जित करके एक हजार वर्ष की परम आयुष्य को भोगकर, मृत्यु के समय में मृत्यु को प्राप्त करके तीसरी नरक में उत्कृष्ट सात सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। सूत्र-२१
वह निर्णय नामक अण्डवणिक नरक से नीकलकर विजय नामक चोर सेनापति की स्कन्दश्री भार्या के उदर में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ । किसी अन्य समय लगभग तीन मास परिपूर्ण होने पर स्कन्दश्री को यह दोहद उत्पन्न हुआ-वे माताएं धन्य हैं, जो मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धियों और परिजनों की महिलाओं तथा अन्य महिलाओं से परिवृत्त होकर स्नान यावत् अनिष्टोत्पादक स्वप्नादि को निष्फल बनाने के लिए प्रायश्चित्त रूप में माङ्गलिक कृत्यों को करके सर्व प्रकार के अलंकारों से अलंकृत हो, बहुत प्रकार के अशन, पान, खादिम, स्वादिम पदार्थों तथा सुरा, मधु, मेरक, जाति और प्रसन्नादि मदिराओं का आस्वादन, विस्वादन, परिभाजन और परिभोग करती हई विचरती हैं, तथा भोजन के पश्चात जो उचित स्थान पर उपस्थित हई हैं, जिन्होंने पुरुष का वेश पहना हुआ है और जो दृढ़ बन्धनों से बंधे हुए, लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच-लोहमय बख्तर को शरीर पर धारण किये हुए हैं, यावत् आयुध और प्रहरणों से युक्त हैं, तथा वाम हस्त में धारण किये हुए फलक-ढालों से, कोश-म्यान से बाहर नीकली हुई तलवारों से, कन्धे पर रखे हुए तरकशों से ऊंचे किये हुए जालों अथवा शस्त्रविशेषों से, प्रत्यंचा युक्त धनुषों से, सम्यक्तया फेंके जाने वाले बाणों से, लटकती व अवसारित चालित जंघा-घण्टियों के द्वारा तथा क्षिप्रतूर्य बजाने से महान्, उत्कृष्ट-आनन्दमय महाध्वनि से समुद्र की आवाज के समान आकाशमण्डल को शब्दायमान करती हुई शालाटवी नामक चोरपल्ली के चारों ओर अवलोकन तथा चारों तरफ भ्रमण करती हुई अपना दोहद पूर्ण करती हैं । क्या अच्छा हो यदि मैं भी इसी भाँति अपने दोहद को पूर्ण करूँ ? ऐसा विचार करने के पश्चात् वह दोहद के पूर्ण न होने से उदास हुई, दुबली पतली और जमीन पर नजर लगाए आर्तध्यान करने लगी।
तदनन्तर विजय चोर सेनापति ने आर्तध्यान करती हुई स्कन्दश्री को देखकर इस प्रकार पूछा-देवानुप्रिये !
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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