________________
आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत'
श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक
'श्रुतस्कन्ध-२ * सूत्र-३५, ३६
उस काल तथा उस समय राजगृह नगर में गुणशील नामक चैत्य में श्रीसुधर्मा स्वामी पधारे । उनकी पर्युपासना में संलग्न रहे हुए श्री जम्बू स्वामी ने प्रश्न किया-प्रभो ! यावत् मोक्षरूप परम स्थिति को संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने यदि दुःखविपाक का यह अर्थ प्रतिपादित किया, तो यावत् सुखविपाक का क्या अर्थ प्रतिपादित किया है ? अनगार श्रीसुधर्मा स्वामी बोले-हे जम्बू ! यावत् निर्वाणप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने सुखविपाक के दस अध्ययन प्रतिपादित किए हैं । वे इस प्रकार हैं- सुबाहु, भद्रनंदी, सुजात, सुवासव, जिनदास, धनपति, महाबल, भद्रनंदी, महचंद्र और वरदत्त ।।
अध्ययन-१- सुबाहुकुमार सूत्र-३७
हे भदन्त ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने यदि सुखविपाक के सुबाहुकुमार आदि दस अध्ययन प्रतिपादित किए हैं तो हे भगवन् ! सुख-विपाक के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कथन किया है ? श्रीसुधर्मा स्वामी ने श्रीजम्बू अनगार के प्रति इस प्रकार कहा-हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में हस्तिशीर्ष नामका एक बड़ा ऋद्ध-भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-स्वचक्र-परचक्र के भय से मुक्त, समृद्ध-धनधान्यादि से परिपूर्ण नगर था । उस नगर के बाहर ईशान कोण में सब ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले फल-पुष्पादि से युक्त पुष्पकरण्डक नाम का एक उद्यान था । उस उद्यान में कृतवनमाल-प्रिय नामक यक्ष का यक्षायतन था । जो दिव्य-प्रधान एवं सुन्दर था । वहाँ अदीनशत्रु राजा था, जो कि राजाओं में हिमालय आदि पर्वतों के समान महान था। अदीनशत्रु नरेश के अन्तःपुर में धारिणीप्रमुख एक हजार रानियाँ थीं।
तदनन्तर एक समय राजकुलउचित वासभवन में शयन करती हई धारिणी देवी ने स्वप्न में सिंह को देखा। मेघकुमार के समान सुबाहु के जन्म आदि का वर्णन भी जान लेना । यावत् सुबाहुकुमार सांसारिक कामभोगों का उपभोग करने में समर्थ हो गया । तब सुबाहकुमार के माता-पिता ने उसे बहत्तर कलाओं में कुशल तथा भोग भोगने में समर्थ हुआ जाना, और उसके माता-पिता जिस प्रकार भूषणों में मुकुट सर्वोत्तम होता है, उसी प्रकार महलों में उत्तम पाँच सौ महलों का निर्माण करवाया जो अत्यन्त ऊंचे, भव्य एवं सुन्दर थे । उन प्रासादों के मध्य में एक विशाल भवन तैयार करवाया, इत्यादि सारा वर्णन महाबल राजा ही की तरह जानना । विशेषता यह किपुष्पचूला प्रमुख पाँच सौ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ एक ही दिन में उसका विवाह कर दिया गया। इसी तरह पाँच सौ का प्रीतिदान उसे दिया गया । तदनन्तर सुबाहकुमार सुन्दर प्रासादों में स्थित, जिसमें मृदंग बजाये जा रहे हैं, ऐसे नाट्यादि से उद्गीयमान होता हुआ मानवोचित मनोज्ञ विषयभोगों का यथारुचि उपभोग करने लगा।
उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान महावीर हस्तिशीर्ष नगर पधारे । परिषद् नीकली, महाराजा कूणिक के समान अदीनशत्रु राजा भी देशनाश्रवण के लिए नीकला । जमालिकुमार की तरह सुबाहुकुमार ने भी भगवान के दर्शनार्थ प्रस्थान किया । यावत् भगवान् ने धर्म का प्रतिपादन किया, परिषद् और राजा धर्मदेशना सूनकर वापस लौट गए । तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर के निकट धर्मकथा श्रवण तथा मनन करके अत्यन्त प्रसन्न हुआ सुबाहुकुमार उठकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दन, नमस्कार करने के अनन्तर कहने लगा'भगवन्! में निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ यावत् जिस तरह आपके श्रीचरणों में अनेकों राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि उपस्थित होकर, मुंडित होकर तथा गृहस्थावस्था से नीकलकर अनगारधर्म में दीक्षित हुए हैं, वैसे में मुंडित होकर घर त्यागकर अनगार अवस्था को धारण करने में समर्थ नहीं हूँ। मैं पाँच अणुव्रतों तथा सात शिक्षाव्रतों का जिसमें विधान है, ऐसे बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को अंगीकार करना चाहता हूँ । भगवान ने कहा'जैसे तमको सख हो वैसा करो, किन्त इसमें देर मत करो ।' ऐसा कहने पर सबाहकमार ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समक्ष पाँच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों वाले बारह प्रकार के गहस्थधर्म को स्वीकार किया।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 43