Book Title: Agam 11 Vipak Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक के आठों अङ्गों का ज्ञाता था । आयुर्वेद के आठों अङ्गों का नाम इस प्रकार है-कौमारमृत्यु, शालाक्य, शाल्यहत्य, कायचिकित्सा, जांगुल, भूतविद्या, रसायन, वाजीकरण । वह धन्वन्तरि वैद्य शिवहस्त, शुभहस्त व लघुहस्त था। वह धन्वन्तरि वैद्य विजयपुर नगर के महाराज कनकरथ के अन्तःपुर में निवास करने वाली रानियों को तथा अन्य बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाहों को तथा इसी तरह अन्य बहुत से दुर्बल, ग्लान, रोगी, व्याधित या बाधित, रुग्ण व्यक्तियों को एवं सनाथों, अनाथों, श्रमणों-ब्राह्मणों, भिक्षुकों, कापालिकों, कार्पटिकों, अथवा भिखमंगों और आतुरों की चिकित्सा किया करता था । उनमें से कितने को मत्स्यमाँस खाने का, कछुओं के माँस का, ग्राह के माँस का, मगरों के माँस का, सुंसुमारों के माँस का, बकरा के माँस खाने का उपदेश दिया करता था। इसी प्रकार भेड़ों, गवयों, शूकरों, मृगों, शशकों, गौओं और महिषों का माँस खाने का भी उपदेश करता था । कितनों को तित्तरों के माँस का, बटेरों, लावकों, कबूतरों, कक्कटों, व मयरों के माँस का उपदेश देता । इसी भाँति अन्य बहत से जलचरों, स्थलचरों तथा खेचरों आदि के माँस का उपदेश करता था। यही नहीं, वह धन्वन्तरि वैद्य स्वयं भी उन अनेकविध मत्स्यमाँसों, मयूरमाँसों तथा अन्य बहुत से जलचर, स्थलचर व खेचर जीवों के माँसों से तथा मत्स्यरसों व मयूररसों से पकाये हए, तले हुए, भूने हए माँसों के साथ पाँच प्रकार की मदिराओं का आस्वादन व विस्वादन, परिभाजन एवं बार-बार उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करता था । तदनन्तर वह धन्वन्तरि वैद्य इन्हीं पापकर्मों वाला इसी प्रकार की विद्या वाला और ऐसा ही आचरण बनाये हए, अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके ३२ सौ वर्ष की परम आयु को भोगकर काल मास में काल करके छट्टी नरकपृथ्वी में २२ सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। उस समय सागरदत्त की गङ्गदत्ता भार्या जातनिन्दुका थी । अत एव उसके बालक उत्पन्न होने के साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे । एक बार मध्यरात्रि में कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ता से जागती उस गंगदत्ता सार्थवाही के मन में संकल्प उत्पन्न हुआ, मैं चिरकाल से सागरदत्त सार्थवाह के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार-प्रधान कामभोगों का उपभोग करती आ रही हूँ परन्तु मैंने आज तक जीवित रहने वाले एक भी बालक अथवा बालिका को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त नहीं किया है । वे माताएं धन्य हैं, कृतपुण्य हैं, उन्हीं का वैभव सार्थक है और उन्होंने ही मनुष्य सम्बन्धी जन्म और जीवन को सफल किया है, जिनके स्तनगत दूध में लुब्ध, मधुर भाषण से युक्त, व्यक्त तथा स्खलित-तुतलाते वचन वाले, स्तनमूल प्रदेश से कांख तक अभिसरणशील नितान्त सरल, कमल के समान कोमल सुकुमार हाथों से पकड़कर गोद में स्थापित किये जाने वाले व पुनः पुनः सुमधुर कोमल-मंजुल वचनों को बोलने वाले अपने ही कुक्षि-उदर से उत्पन्न हुए बालक या बालिकाएं हैं । उन माताओं को मैं धन्य मानती हूँ । उनका जन्म भी सफल और जीवन भी सफल है।। मैं अधन्या हूँ, पुण्यहीन हूँ, मैंने पुण्योपार्जन नहीं किया है, क्योंकि, मैं इन बालसुलभ चेष्टाओं वाले एक सन्तान को भी उपलब्ध न कर सकी । अब मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि मैं प्रातःकाल, सूर्य उदय होते ही, सागरदत्त सार्थवाह से पूछकर विविध प्रकार के पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और अलङ्कार लेकर बहुत से ज्ञातिजनों, मित्रों, निजकों, स्वजनों, सम्बन्धीजनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिखण्ड नगर से नीकलकर बाहर उद्यान में, जहाँ उम्बरदत्त यक्ष का यक्षायतन है, वहाँ जाकर उम्बरदत्त यक्ष की महार्ह पुष्पार्चना करके और उसके चरणों में नतमस्तक हो, इस प्रकार प्रार्थनापूर्ण याचना करूँ-'हे देवानुप्रिय ! यदि मैं अब जीवित रहने वाले बालिका या बालक को जन्म दूँ तो मैं तुम्हारे याग, दान, भाग, व देव भंडार में वृद्धि करूँगी।' इस प्रकार ईप्सित वस्तु की प्रार्थना के लिए उसने निश्चय किया । प्रातःकाल सूर्योदय होने के साथ ही जहाँ पर सागरदत्त सार्थवाह था, वहाँ पर आकर सागरदत्त सार्थवाह से कहने लगी- हे स्वामिन् ! मैंने आपके साथ मनुष्य सम्बन्धी सांसारिक सुखों का पर्याप्त उपभोग करते हुए आजतक एक भी जीवित रहने वाले बालक या बालिका को प्राप्त नहीं किया । अतः मैं चाहती हूँ किय दि आप आज्ञा दे तो मैं अपने मित्रों, ज्ञातिजनों, निजकों, स्वजनों, सम्बन्धीजनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिखण्ड नगर से बाहर उद्यान में उम्बरदत्त यक्ष की महार्ह पुष्पार्चना कर पुत्रोपलब्धि के मुनि दीपरत्नसागर कृत् ' (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 31

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52