Book Title: Agam 11 Vipak Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 10
________________ आगम सूत्र ११, अंगसूत्र-१, 'विपाकश्रुत' श्रुतस्कन्ध/अध्ययन/ सूत्रांक सीधा पक्षी-योनि में उत्पन्न होगा । वहाँ से सात सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले तीसरे नरक में उत्पन्न होगा। वहाँ से सिंह की योनि में उत्पन्न होगा । वहाँ वह बडा अधर्मी, दर-दर तक प्रसिद्ध शर एवं गहरा प्रहार करने वाला होगा। वहाँ से चौथी नरकभूमि में जन्म लेगा । चौथे नरक से नीकलकर सर्प बनेगा । वहाँ से पाँचवे नरक में उत्पन्न होगा । वहाँ से स्त्रीरूप में उत्पन्न होगा । स्त्री पर्याय से काल करके छठे नरक में उत्पन्न होगा । वहाँ से पुरुष होगा। वहाँ से सबसे निकृष्ट सातवीं नरक में उत्पन्न होगा । वहाँ से जो ये पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों में मच्छ, कच्छप, ग्राह, मगर, सुंसुमार आदि जलचर पञ्चेन्द्रिय जाति में योनियाँ, एवं कुलकोटियों में, जिनकी संख्या साढ़े बारह लाख है, उनके एक एक योनि-भेद में लाखों बार उत्पन्न होकर पुनः पुनः उत्पन्न होकर मरता रहेगा । तत्पश्चात् चतुष्पदों में उरपरिसर्प, भुज-परिसर्प, खेचर, एवं चार इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और दो इन्द्रिय वाले प्राणियों में तथा वनस्पति कट वक्षों में, कट दग्धवाली अर्कादि वनस्पतियों में, वायकाय, तेजस्काय, अप्काय व पथ्वीकाय में लाखों-लाखों बार जन्म मरण करेगा। तदनन्तर वहाँ से नीकलकर सुप्रतिष्ठपुर नामक नगर में वृषभ के पर्याय में उत्पन्न होगा। जब वह बाल्यावस्था को त्याग करके युवावस्था में प्रवेश करेगा तब किसी समय, वर्षाऋतु के आरम्भ-काल में गंगा नामक महानदी के किनारे पर स्थित मिट्टी को खोदता हुआ नदी के किनारे पर गिर जाने से पीड़ित होता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा । मृत्यु के अनन्तर उसी सुप्रतिष्ठपुर नामक नगर में किसी श्रेष्ठि के घर में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहाँ पर वह बालभाव को परित्याग कर युवावस्था को प्राप्त होने पर तथारूप-साधुजनोचित गुणों को धारण करने वाले स्थविर-वृद्ध जैन साधुओं के पास धर्म को सूनकर, मनन कर तदनन्तर मुण्डित होकर अगारवृत्ति का परित्याग कर अनगारधर्म को प्राप्त करेगा । अनगारधर्म में ईयासमिति युक्त यावत् ब्रह्मचारी होगा । वह बहुत वर्षों तक यथाविधि श्रामण्य-पर्याय का पालन करके आलोचना व प्रतिक्रमण से आत्मशुद्धि करता हुआ समाधि को प्राप्त कर समय आने पर कालमास में काल प्राप्त करके सौधर्म नाम के प्रथम देव-लोक में देवरूप में उत्पन्न होगा । तदनन्तर देवभव की स्थिति पूरी हो जाने पर वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में जो आढ्य कुल हैं;-उनमें उत्पन्न होगा । वहाँ उसका कलाभ्यास, प्रव्रज्याग्रहण यावत् मोक्षगमन रूप वक्तव्यता दृढ़प्रतिज्ञ की भाँति ही समझ लेनी चाहिए । हे जम्बू ! इस प्रकार से निश्चय ही श्रमण भगवान महावीर ने, जो कि मोक्ष को प्राप्त हो चूके हैं; दुःखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है । जिस प्रकार मैंने प्रभु से साक्षात् सूना है; उसी प्रकार हे जम्बू ! मैं तुमसे कहता हूँ। अध्ययन-१-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (विपाकश्रुत) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद" Page 10

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