Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 16
________________ में हुआ। इन चारों सम्मेलनों में जो श्रुत-संकलना हुई वह भी केवल स्मृति के आधार पर चलता आया शास्त्र ज्ञान था। तब तक आगमों को लिपिबद्ध करने का कोई सार्थक प्रयास नहीं हुआ था। पहलीज वाचना पाटलिपुत्र बिहार में, दूसरी उड़ीसा में, तीसरी उत्तर भारत और चौथी पश्चिम भारत में हुई। इस कारण इनमें भाषा का ध्वन्यात्मक अन्तर रहना और स्मृति-दोष के कारण पाठान्तर आदि रहना * स्वाभाविक ही था। आज आगम-पाठों में जो पाठान्तर तथा भाषा में त, द, य, ध, ह आदि उच्चारणों का भेद (जैसे-कोह-कोध, अह-अध, इई-इति) मिलता है, इसका भी यही कारण प्रतीत होता है। __ इसके पश्चात् वीर निर्वाण की दशवीं शताब्दी (९८० से ९९३ ईस्वी सन् ४५४-४६७) के मध्य पुनः वल्लभी में आचार्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में श्रमण सम्मेलन हुआ। अब तक स्मृति के आधार पर चले आये आगम पाठों का लिपिकरण प्रथम बार हुआ। तब से आगम पाठ हाथ से लिखी पुस्तकों में पुस्तकारूढ़ हुआ माना जाता है। ___ काल के इतने लम्बे दुःस्सह झंझावातों के पश्चात् जो आगमज्ञान बचा था, वह आचार्य देवर्द्धिगणि के समय जिस रूप में पुस्तकारूढ़ किया गया, वही आगम पाठ आज हमारे समक्ष विद्यमान है। इस कारण प्रत्येक अंग के मूल स्वरूप एवं उसके परिमाण आदि में काफी अन्तर पड़ गया। यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है। स्थानांगसूत्र का आज जो रूप उपलब्ध है, वह भगवान महावीर के पश्चात् एक हजार वर्ष के समय में जिस रूप में विद्यमान रहा, वही रूप आज उपलब्ध है। अतः यह माना जाता है कि इस अवधि में जो-जो ऐतिहासिक घटनाएँ हुईं उनका संकलन भी इस सूत्र में होता गया। यही कारण है कि इसमें भगवान महावीर के ५००-६०० वर्ष बाद हुए निन्हवों आदि का उल्लेख भी विद्यमान है। किन्तु इन सबके बावजूद यह परम्परागत सुदृढ़ धारणा है कि आगमों के मूल तात्त्विक विषयों में कहीं कोई परिवर्तन या परिवर्धन नहीं हुआ है और पाठ संकलन करने वाले आगमज्ञ मुनियों ने जैसा पाठ स्मृति में चल रहा था, उसे बिना कुछ घटाये-बढ़ाये एक जगह सुरक्षित स्थापित कर दिया। इसलिए उनकी प्रामाणिकता में कहीं भी सन्देह या शंका की कोई गुंजाइश नहीं है। अस्तु स्थानांग की निरूपण शैली हमारे मान्य ३२ आगमों में स्थानांग तथा समवायांगसूत्र की निरूपण शैली अन्य सूत्रों से बिल्कुल । ही भिन्न और नवीन प्रकार की है। स्थानांगसूत्र में एक से लेकर दस तक की संख्या वाले विषयों का ॥ वर्गीकरण/संकलन है। इसलिए इसके दस स्थान हैं। अन्य सूत्रों में अध्ययन, शतक, पद आदि के रूप में उनका विभाग है, तो इसमें अध्ययन के स्थान पर 'स्थान' शब्द प्रयुक्त हुआ है। स्थानांग में सैकड़ों प्रकार के विषय हैं। दर्शन से सम्बन्धित गहन विषय है तो तत्त्वज्ञान और इतिहास के भी विविध तथ्य इसमें संकलित हैं। धर्म, नीति, आयुर्वेद, इतिहास, ज्ञान-मनोविज्ञान, 卐 कर्मशास्त्र, प्राणि विज्ञान, पुद्गल, वनस्पति विज्ञान, ज्योतिष्क और पृथ्वी, नदी, पर्वत, समुद्र आदि के उल्लेख भी संख्या व गणना प्रधान दृष्टि से यहाँ संकलित हैं। 白听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 5 5555555555555555听听听听听听听听听。 (8) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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