Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Padma Prakashan

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Page 18
________________ समय में यही संस्कृत टीका अधिक प्रसिद्ध है। हमने जहाँ-जहाँ इसका उपयोग किया है, वहाँ सन्दर्भ में वृत्ति शब्द से उसका संकेत दिया है। इसके अलावा आचार्य श्री घासीलाल जी म. ने इस पर अपनी शैली में भी संस्कृत टीका लिखी है, किन्तु यह हमें उपलब्ध नहीं हुई। हमारे सामने अनुवाद व विवेचन करने के लिए मूल आधार रहा है आगम रत्नाकर आचार्यसम्राट श्री आत्माराम जी म. सा. कृत विस्तृत हिन्दी टीका। आचार्यश्री आगमों व उनकी टीका-भाष्य आदि ग्रन्थों के विशेष गम्भीर ज्ञाता थे। हिन्दी टीका में अपने व्यापक आगमज्ञान का उपयोग करके स्थानांग के संक्षिप्त संकेत सूत्रों पर इतना सुन्दर और प्रामाणिक प्रकाश डाला है कि पढ़ते हुए रोचकता भी बनी म रहती है और आगमकार का मूल आशय भी बहुत स्पष्टता के साथ समझ में आ जाता है। आचार्यश्री ने आगमज्ञान के साथ अपने अन्य ग्रन्थों के विस्तृत ज्ञान का भी इसमें उपयोग किया है, इस कारण यह हिन्दी टीका स्थानांग का हार्द समझने के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होती है। विवेचन में हमने यः इसी का आधार लिया है और उसका सन्दर्भ भी हिन्दी टीका के रूप में स्थान-स्थान पर उल्लेखित 4 किया है। मूल पाठ तथा सूत्र संख्या के लिए हमने श्रमण संघ के युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म. के प्रधान ॥ सम्पादकत्व में प्रकाशित स्थानांगसूत्र का आधार लिया है। जैसा कि मैंने पहले उल्लेख किया है, भिन्न-भिन्न समयों व स्थानों पर आगम वाचना होने के कारण आगमों की सूत्र संख्या में अन्तर आता __रहा है। भिन्न-भिन्न प्रदेशों में वाचना होने के कारण स्थानीय भाषा व उच्चारण का प्रभाव भी उस पर 5 पड़ा है। अतः य, त, ध, ह आदि उच्चारण में अन्तर आया है। दूसरी बात, आगमों के समान पाठ व के एक ही पाठ की बार-बार आवृत्ति होने के कारण पाठ संक्षिप्त करने की शैली प्रचलित थी। 'जाव', 'तहा', 'एव' आदि वाक्यों से पाठों की आवृत्ति संक्षिप्त होती थी, पहले आये पूरे पाठ को दुहराने का फ़ संकेत भी हो जाता है। इससे याद रखने में भी सुविधा रहती तथा हाथ से लिखने में भी समय, श्रम और कागज की बचत हो जाती थी, क्योंकि प्राचीनकाल में शास्त्र लिखने के लिए ताड़पत्र आदि बहुत ॐ दुर्लभ थे। आज जबकि कागज और छपाई के साधन सर्व सुलभ हैं, तब इस शैली में परिवर्तन आना स्वाभाविक है। संक्षिप्त पाठों को पूरा का पूरा विस्तार के साथ देने की शैली प्रचलित है। इससे लाभ यह है कि आगमकार जो कहना चाहते हैं, वह पूरा विषय पाठक वहीं समझ लेता है उसके लिए उसे बार-बार पुराने पाठ (शतक, अध्ययन) आदि पलटने की जरूरत नहीं रहती। इससे आगमकार का फ़ भाव ग्रहण करने में सरलता रहती है। किन्तु चूँकि पुरानी अधिकांश प्रतियों में संक्षिप्त पाठ ही मिलता है, इसलिए नई सम्पादन शैली में उस विस्तृत पाठ को मूल के साथ नहीं जोड़कर दोनों तरफ कोष्ठक 卐 [ ] लगाकर अलग दर्शाया जाता है। इससे पाठक समझ सकता है कि यह विस्तृत पाठ है। इससे ग्रन्थ का कलेवर तो अवश्य बढ़ता है, परन्तु सुबोधता भी बढ़ जाती है। युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म. तथा आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ने इसी शैली को अपनाया है। जबकि आचार्य श्री अभयदेव सूरि जी की वृत्ति में तथा आचार्यसम्राट् श्री आत्माराम जी म. की हिन्दी टीका में प्राचीन शैली का अनुसरण कर (10) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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