Book Title: Aayurvediya Kosh Part 03
Author(s): Ramjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
Publisher: Vishveshvar Dayaluji Vaidyaraj

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Page 3
________________ विज्ञप्ति उस जगत्पिता परमात्मा की असीम कृपा से आयुर्वेदीय विश्वकोष का यह तीसरा भाग हम आपके कर कमलों में समर्पित कर रहे हैं इसकी हमें बड़ी प्रसन्नता है, इस भीषण परिवर्तनकारी समय में जब कि बड़े शहरों के बड़े २ कारखाने स्थानान्तरि हो चुकेहैं जिनसे हम अपने लिये आवश्यक सामान खरीदने थे । अतः एक २ के चार २ देने पर भी मनोनुकूल सामिग्री का मिलना नितान्त ही कष्ट कर एवं संभव हो रहा है, और की क्या कहें कागज की ऐसी भीषण तेजी जब कि कागज का दाम साधारणतया छः गुना हो रहा है और इतने पर भी इच्छित प्राप्त की संभावना है। सभी सामान असौकर्य इस पर भी हमने अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार प्रत्येक जिल्द ८०० पृष्ठ अर्थात १०० फार्म देने की थी, उसी के अनुरूप विषयकी कमी बढ़ीके अनुसार किसी में कम और किसी में ज्यादा पृष्ठ कर तीनों भागों की पृष्ट संख्या २४३८ करके प्रत्येक भाग के ८०० पृष्ट पूरे कर ही दिये गये हैं। और वही पुरानी भेष भूषा व कीमत रखी गई है, जो समय को देखते हुये अत्यधिक कम है और हमें अत्यधिक घाटे में डाल रही है, परंतु सेवाभाव और पुस्तक प्रकाशन को पूर्ण करने की प्रतिज्ञा में वृद्ध होकर हम इसकी परवाह नहीं कर रहे हैं, यह कमी भगवान ही पूर्ण करेंगे या आप लोग ही । हमें दुःख तो सिर्फ यही है कि हम इतने बड़े उपयोगी कार्य को लेकर जिस आशा से वैद्य समाज के सन्मुख आये थे उस प्रकार आपने उसका स्वागत नहीं किया. हमने सोचा था कि इसके ग्राहक हमारे वैद्यबन्धु बहुत बड़ी तादाद में बन जावेंगे और कोष हाथों हाथ निकल जावेगा। परन्तु वह आशा बादल के पुष्पवत ही बेकार हुई और कोष के इतने भी ग्राहक न हुये कि लागत मात्र भी व्यय वसूल हो जाता । इस प्रकार प्रत्येक भाग में अनुमानिक ५००० हजार की रकम बट्टे खाते में ही पड़ती रही इससे प्रकाशक लेखकों को भी संतुष्ट न कर सका जिससे वह भी बड़ी मन्दगति से कार्य उत्साह रहित हो करने लगे और प्रकाशक भी मूलधन को गमाकर द्रव्य की आशा में ही चातकवत टकटकी लगाये रहा। कार्य तो लाभार्थ किया गया था पर गमाया मूलधन भी ? ऐसी स्थिति में अन्य कोई भी प्रकाशक होता तो वह ऐसे जटिल कार्य को सदैव के लिये ही छोड़ देता परन्तु यहां तो विचित्र ही गतिविधि है वह है केवल जीवन में श्रायुर्वेद की सेवा उसकी बिछुड़ी हुई साहित्य को पूर्णकर उसकी प्रतिष्ठा की धाक जमाना अपने वैद्य बन्धुओं को पूर्ण चिकित्सक बना संसार का कल्याण करने के लिये पूर्ण रूप से ज्ञानान्वित करना, इसी उद्देश्य को लेकर इतने भीषण प्रहार पर भी हम अपनी प्रतिज्ञानुसार इसे प्रकाशित ही किये जा रहे हैं। हां ? द्रव्य संचय के लिये समय अधिक लग रहा है जब इतना प्रकाशन योग्य द्रव्य बच रहता है तब हम शन की तरफ दौड़ते हैं और लेखकों को उत्साहित करते हैं तब वह मेटर तयार कर हमें देते हैं और ह भी अपना कार्य चलाते हुये इसे छापकर आपके पास पहुँचाते हैं इस प्रकार सन् १६३४ में इस कोष का प्रथम भाग प्रकाशित किया गया था और दूसरा भाग १६३७ में यह तीसरा भाग १६४० में प्रकाशित हो रहा है इसके प्रकाशन में पूरे पांच वर्ष का समय चला गया अर्थात् ६ साल केवल ती भाग ही निकल सके इतने समय में सम्पूर्ण कोष निकल जाता परन्तु क्या करें हम द्रव्य स विवश द्रव्य भी निकल आता तो हमें कोई चिन्ततं फार्म १०० दिन में रोष ४ महीने में सकता है इस प्रकार प्रत्येक वर्ष में एक भाग के ग्राहक इतने भी बन जाते कि कोष का लागत भर • कोष का ही काम होता रहता १०० १० फार्मा मेटर प्रेस योग्य ६ मास में बन मिल सकता है।

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