Book Title: Aagam 04 SAMAVAY Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम
(०४)
“समवाय” - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [९४], -----
-------- मूलं [९४] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४], अंग सूत्र - [०४] “समवाय” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
श्रीसमवा
IR९४-९५
समवाया.
प्रत
यांग
सूत्रांक
[९४]
॥९७||
दीप
निसहनीलवंतियाओ णं जीवाओ चउणउइ जोयणसहस्साई एवं छप्पन्नं जोयणसयं दोनि य एगूणवीसहभागे जोयणस्स आ
यामेणं प०, अजियस्स णं अरहो चउणउइ ओहिनाणिसया होत्था ॥ सूत्र ९४ ॥ श्रीअभया अथ चतुर्नवतिस्थानके किञ्चिद्विविच्यते, 'निसहे त्यादि, इह पादोना संवादगाथा 'चउणउइसहस्साई छप्पण-1 शुचिः शाहियं सयं कला दो य । जीवा निसहस्सेस" [चतुर्नवतिः सहस्राणि पदपश्चाशदधिकं शतं कले द्वे च । जीवा निष
घिस्सैपा] ति ॥ ९४॥
सुपासस्स णं अरहओ पंचाणउइ गणा पंचाणउद्द गणहस होत्था, जम्बुद्दीवस्स णं दीवस्स चरमंताओ चउदिसिं लवणसमुई पंचाणउइ पंचाणउइ जोयणसहस्साई ओगाहित्ता चत्तारि महापायालकलसा प००-वलयामुहे केऊए जूपए ईसरे, लवणसमुइस्स उभओपासंपि पंचाणउयं पंचाण उयं पदेसाओ उब्बेहुस्सेहपरिहाणीए प०, कुंथू णं अरहा पंचाणउद वाससहस्साई परमाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव पहीणे, थेरे. मोरियपुत्ते पंचाणउइवासाई सब्याउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जावप्पहीणे ।।सूर्य ९५॥
अथ पञ्चनवतिस्थानके किञ्चिलिख्यते, लवणसमुद्रस्योभयपार्श्वतोऽपि पञ्चनवतिः प्रदेशा उद्वेधोत्सेधपरिहान्या विषये प्रज्ञप्ताः, अयमत्र भावार्थः-लवणसमुद्रमध्ये दशसाहस्रिकक्षेत्रख समधरणीतलापेक्षया सहस्रमुद्वेधः, उण्डत्वमित्यर्थः, तदनन्तरं पञ्चनवति प्रदेशानतिक्रम्योद्वेधस्य प्रदेशो हीयते, ततोऽपि पञ्चनवर्ति प्रदेशान् गत्या उद्वेधस्य प्रदेशः परिहीयते, एवं पञ्चनवतिरप्रदेशातिक्रमे प्रदेशमात्रस्य प्रदेशमात्रस्योद्वेधस्य हान्या पञ्चनवत्यां योजनसह
अनुक्रम [१७३]
९७॥
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