Book Title: Aadikal ka Hindi Jain Sahitya
Author(s): Harishankar Sharma
Publisher: Harishankar Sharma

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Page 5
________________ की परम्परा को हम काव्य या साहित्य की कोई धारा नहीं कह सकते डा० पृथ्वीनाथ कमल कुलश्रेष्ठ ने अपने शोध प्रबन्ध "हिन्दी प्रेमाख काव्य में आदिकाल को अन्धकार काल लिखा। इधर शुक्लजी द्वारा उलि अन्थों में से लगभग सभी अप्रामाणिक और उस काल से परे के सिद्ध हो चुके थे। डा० रामकुमार वर्मा ने अपने इतिहास में लिखा है कि-"आज तक सामग्री के सहारे राम्रों को प्रमाणिक ग्रन्थ कहना इतिहास और साहित्य आदर्शों की उपेक्षा करनी है- इन्हीं संकल्पों विकल्पों से मन में आदिका की अप्राप्य सामग्री की शोध करने की प्रेरणा निरन्तर गहरी होती गई अ यह अभाव प्राणी में एक टीबी प्यास बनकर समा गया। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपप्रेस के साहित्य को पुरानी नाम दिया इससे साहस में वृद्धि हुई और अन्त में डा० हजारी प्रसाद दि के प्रन्थ "हिन्दी साहित्य का आदिकाल में उल्लिसित इन विचारों नेसम प्रमों का निराकरण कर ही दियार्थी उपदेश विषयक उन रचनाओं को जिनमें केवल सूखा धर्मोपदेश मात्र लिखा गया है, साहित्यिक विवेचना के योग्य न सपना उचित ही है, परन्तु यहां जिस सामग्री की बची की गई है, उनमें कई रचनाएं ऐसी है जो धार्मिक तो है परन्तु उनमें साहित्यिक सरसता बनाये रखने का पूरा प्रयास है। धर्म वही कवि को केवल प्रेरणा दे रहा है जिस साहित्य में केवल धार्मिक उपदेश हो उससे वह साहित्य निश्चित रूप से है जिसमें धर्म पावना प्रेरक शक्ति के रूप में काम कर रही हो और साथ ई ट्रो हमारी सामान्य मनुष्यता को आन्दोलित, गति और प्रभावित कर हो । इस दृष्टि से अप की कई रचना, जो मूलत: जैन धर्म पावना से प्रे होकर लिही गई है, निस्सदैह उत्तम काव्य है। --- इधर जैन अपत्र वि काव्यों की जो विपुल सामग्री उपलब्ध हुई है वह सिर्फ धार्मिक सम्प्रदाय मुहर लगने मात्र से अलग कर दी जाने योग्य नहीं है। स्वयंपू, तुर्मुख पुष्प

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