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Korolaoicolorsmaal
oskomaOLORDoorna Magneta || श्री॥
॥श्री वीतगगायनमः ॥
मिवीरचंद राघवजी गांधी
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का - जीवन चरित्र श्री जैन श्वेतांबर कान्फरेंस हैरल्ड में प्रकाशित गुजराती लेग्व का हिन्दी अनुवाद
__ अनुवादक श्याम लाल वैश्य मुरार
प्रकाशक श्री अत्मानन्द जैन सभा अम्बाला शहर । श्रीवीर निर्वाण सं० २४४५ श्री आत्म सं० २४ । विक्रम सं०. १६७६ ईस्वी सन १६१६ प्रथमावृत्ति १०००] मूल्य ।)
जैनीलाल प्रेस सहारनपुर में छपा
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इस पुस्तक के छपाने में लाला दौलतराम जी के सुपुत्र लाला हरीचन्द इन्द्रसैन अंबाला शहर निवासी ने रु. ७०) की सहायता दी है इसलिये सभा की तर्फ से उपरोक्त प्रहानुभावों को धन्यवाद दियाजाता है।
निवेदकः --
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१) श्रीवीतरागायनमः ।। * आमका*
मनुष्य जीवन को आदर्श बनाने के लिये, उसे कर्तव्यवान बनाने के लिये ऐसे ग्रन्थों की आवश्यकता है जिनसे हमें आगे बढ़ने के लिये मार्ग मिले । महात्माओं के कर्त्तव्यशाली पुरुषों के जीवन की घटनाएं मनुप्य को इस योग्य बनाती हैं। महात्माओं के चरितों सेही भविष्य जीवन का संगठन होता है पूज्य पुरुषों और महात्माओं के चरितों के अनुकरण करने सही हम आगे बढ़ सकते हैं। जीवन को कर्तव्यशाली, महान् और पूज्य बनाने का इस से सरल और कोई दूसरा साधन नहीं है। शिवाजी, गारफिल्ड और लिंकन आदि महात्मा भी चरितों के पढ़नेसे ही ऐसे प्रसिद्ध महात्या हुये। बालकों के ऊपर जीवन चरित्रों का बड़ा प्रभाव पड़ता है।
हिन्दी में जीवन चरित्रों का प्रायः अभावसाही है। देशोत्थान के लिय राष्ट भाषा होनेवाली हिन्दी में ऐसे ग्रन्थों का बाहुल्य होनाचाहिये जिससे देशका वास्तविक उपकार हो और भविष्य संतान अपने पितामहों के आदर्श पर चले तथा उनके अपूर्ण रहे हुये कार्यों को पूर्ण करें। पुस्तक प्रकाशकों को अवश्य इस ओर ध्यान देना चाहिये।
संसार में अनेकों महापुरुप होगये हैं जिन्हों ने अपना सारा जीवन मनुष्य समाज की सेवा में ही बिताया है। क्षण
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( ख ) भर भी वे सेवा से विरत नहीं हुये । वास्तव में ऐसे मनुष्यों का जन्म संसार में स्वर्ग बनाने के लिये हुआ था। इन्हीं के परिश्रम का फल है कि उन के यत्न से आज संसार की मनुष्य जाति अनेकों प्रकार के सुख भोग रही है । ऐसे महापुरुषों की गुणगरिमा संसार में उस समय तक बनी रहेगी जिस समय तक मनुष्य जाति का नाम रहेगा। - ऐसेही महापुरुषों में मिस्टर गांधी का जन्म हुआ था।
जैन जाति को इस पर अभिमान है कि वर्तमान काल में उस जाति में ऐसे कर्मवीर ने जन्म लिया। मिस्टर गांधी ने अपना. सारा जीवन लोकोपकार में बिता दिया । वे मस्ते समय तक मनुष्य समाज की सेवा के लिये कटिवद्ध रहे। जैन धर्म और जैन जाति का तो उन्हों ने बड़ा उपकार कियाही है पर उन्हों ने साब जनिक कामों में भी खूब योग दिया है। वे पक्क देश भक्त थे। केवल जैनियों के उत्थान के लिये उन्होंने परिश्रम नहीं किया बल्कि अपने देश और देश भ्राताओं के लिये कुछ उठा नहीं रखा। काल में मरिका से अन्न का भरा हुआ जहाज भिजवाना
शिक्षा के प्रचार के लिये मिशन स्थापित करना, उनकी देश भक्ति को उत्कट प्रमाण हैं। अमेरिका में भारत वासियों की
ति रीति के विषय में किम्बदन्तियां फैल रही थीं। उनको ५. सरोका श्रेय मिस्टर गांधी कोही है। हम स्वयं कुछ
माह का प्रातः स्मरणीय महात्मा महादेव गोविन्द रानाडे
दी हुई स्पीच को पढ़ने की प्रार्थना करते हैं। उसका सारांश जीवन चरित के अंत में दियागया है। - जैन समाज के नवयुवको, उठो, अपने इस बंधु का अनु. करण करो । देश और समाज सेवा में अपने जीवन को अर्पण
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(ग ) करके मनुष्य योनि सार्थक करो । अपने हृदय पर नीचे लिखी कविता लिखलो और गांधी के आदेश को सामने रखकर आगे बढ़ो
" जिस को न निज गौरव तथा, निज देश का अभिमान है। ... वह नर नहीं, वह पशु निरा है, और मृतक समान है ।।
सेवकः
मुरार ( गवालियर होलिका पौर्णिमा
श्याम लाल वैश्य सम्पादक 'नारद,
तथा भू. पू. सम्पादक 'मुनि'
।
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स्वर्गीय वीरचन्द गांधी।
genius begins great works;
labour alone finishes them. महान कार्यों का आरंभ प्रतिभाशाली पुरुष करते हैं; पर उसका अंत श्रमशील मनुष्य ही करते हैं।
॥ प्रस्तावना ।। कर्तव्यशाली महापुरुषों का जीवन सामान्यता माननीय और अनुकरणीय होता है । इस संसार में करोड़ों मनुष्य पैदा होगये, हो रहे हैं और भविष्य में होंगे, परन्तु ज्ञान सम्पादन करके जिन्हों ने राष्ट्रोन्नति के लिये, समाजोन्नति के लिये परोपकार के लिये, और धर्म के निमित्त अपना स्वकर्तव्य समझ कर जिस महात्मा ने अनेक काम किये हों, कर रहे हो
और भविष्य में करेंगे, वही महात्मा वंदनीय हैं। कर्त्तव्य के सहारे मनुष्य इस भूलोक को भी स्वर्ग बना सकता है और स्वयं मानव देव बन सकता है। पूर्व पुरुषों के महत्व का कारण उनकी कर्तव्य परायणता ही है । उसी कर्तव्य परायणता के उपासक पूर्व पुरुषों की स्तुति स्रोत गाये जाते हैं । कर्तव्य एक अजब और अमूल्य शक्ति है जिसकी साधना से देश, धर्म, और समाज उन्नति के शिखर पर चढ़ सकता है। कर्त्तव्य की प्रशंसा में एक अंग्रेज़ कवि का कथन है कि -
I slept and dreamt that life was Beauty,
I woke and found that life was Duty: स्वप्न दृष्टि में मानव जीवन सौन्दर्य में लिप्त दिखाई दिया,
I woke and roamt that life w
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पर जहां दृष्टि जागृत हुई---घट की खुली, तहां यही मानव जीवन कर्त्तव्य पूर्ण दिखाई दिया ।
इस का अर्थ यह है कि कर्त्तव्य के कारण मानवी चरित्र महत्व का होजाता है । हम अपने प्राच न पुरुषों, ऋपियों और महात्माओं के विषय में विचार करते हुये कहते हैं प्राचीन समय में सत्तयुग था- वह स्वर्ण का था और उस काल में देव तुल्य महात्मा होते थे पर हमारे जमाने के लिये वे दिन गये" पर वास्तव में सत्य क्या है ? इसका विचार करने पर ज्ञात होता है कि काल सर्वदा वहीं रहता है। जो समय पहिले था, वह अब भो है । पूर्व काल जो उनका था वह हमारा भी है। केवल अन्तर इतनाही है कि इस काल में वैसे कर्तव्य परायण परिश्रमी पुरुष पैदा नहीं हुए, इसलिये इस काल का महत्व घटगया और वह तुच्छ मालूम होने लगा । प्रति दिन सहस्र रश्मि सूर्य तेज सहित पूर्वदिशा में उदय होता है पश्चात् दिन भर भूमि को प्रकाशित करके सायंकाल के समय पश्चिम दिशा में अस्त होजाता है । रात्रि के समय आकाश असंख्य तेज पुंज ताराओं से प्रकाशमान रहता है । चन्द्र ज्योति का रमणीय साम्राज्य शुक्ल पक्ष में स्थिर रहता है । और कृष्ण पक्ष में अंधकार अपनी सत्ता प्राजमाता है । ग्रीष्म में सूर्य का तेज प्रबल अर्थात् गर्म होता है और शरद ऋतु में प्रकाश ठंढा रहता है । वर्षा काल में श्राकाश से बृष्टि होती है और शरद ऋतु में पवन मंदता से चलती है । इस सब का कहने का सारांश यह है कि काल की जो गति होती है वह अब भी है। वर्तमान काल तथा पूर्व काल में यदि कुछ अन्तर होसकता • है तो थोड़ा बहुत स्थितमंतर है। पूर्व काल में सोने की वर्षा
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होतो थी, अब नहीं होती, ऐसी स्थित न कभी होसकती है और न थी । प्रत्येक काल में कर्त्तव्य शाली पुरुष अवश्य थे। जिस देश में, जिस धर्म में, और जिस समाज में कर्तव्यवान पुरुषों का जन्म होता है, वह देश, वह धर्म, और वह समाज इस पृथवी पर स्वर्ग तुल्य संचार करता है। अरे भारतवर्ष । अरे जैन समाज । तू कर्तव्य परायण पुरुषों का जन्म किसी एकही काल में नहीं वरन् सदेव देता रह ? प्राचीन काल की संपादित उन्नति को पनः इस भूमंडल पर विस्तारित करदें ?
ओ अविनाशी काल ! सैकड़ो नहीं तो नहीं किन्तु थोड़ी संख्या में ही कर्तव्य शाली नर रत्नों को हमारे समाज में उत्पन्न कर और उनके द्वाग जैन धर्म का प्रकाश भूमंडल पर डाल !
प्रिय वाचक, भूमंडल पर जैन धर्म का प्रकाश डालने वाले एक महात्मा के अमूल्य चरित्र का आज मैं आप को परिचय कराता हूँ। वीरचन्द भाई का जीवन मुशिक्षित और जैनधर्मोन्नति के इच्छुक युवकों के लिये अनुकरणीय है। जैन धर्म पृथवी पर बसने वाले समस्त प्राणियों का धर्म है। जिन धर्म अपनी आत्मा का जो धर्म वह जिन धर्म है । जिन प्रणीत धर्म का पाश्चात्य देशमें प्रसार करने के लिये सुशिक्षित और उत्साही बीरचन्द ने कैसा उद्योग किया । बीरचन्द के चरित्र से इसके लिये शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये । जैन धर्म के ऊपर अन्य समाजों में दिये हुए भाषण, और कार्य करने की अपूर्व शक्ति आदि से आपकी कर्तव्य दक्षता सिद्ध होती । इसी लिये श्रापका चरित्र इतना बोध प्रद है । जो जन्म लेता है वह अवश्य मरेगा यह प्रकृति का अटत नियम है। कोई भी अमर होने का
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(४)
नहीं लिखा लाया। किसी न किसी दिन काल के गाल जाना ही पडेगा । परन्तु जिसने कर्तव्य निष्ट होकर संसार कठिनाइयों को परवाह न करके बड़े बड़े कठिन अवसरों पार कर के मृत्यु पाई वह महापुरुष मरकर भी अमर हैं। का प्रशंसनीय चरित्र लोगों के हृदयों पर अंकित रहता हैं।
जिनको वास्तविक अपना मानव जीवन कृतार्थ करने के लिये निर्वाह करना है उनको यह भली प्रकार से समझ लेना चाहिये कि इस स्थूल शरीर को त्यागने सेही महान् पुरुषों की मृत्यु नहीं होती, उनका अक्षर देह कीर्ति रूप में अमर रहता है। जो इस क्षण भंगुर संसार यात्रा में अपने अमूल्य मानवो जीयन का मूल्य बिलकुल नहीं जानते । क्या उनका जीवन खंटे अगाड़ी पिछाड़ी से बंधे हुए घोड़ के समान नहीं है ? मनष्य में और पश में अन्तर ही क्या हैं ? दोनों का आहारविहार समान हैं। दोनों आनन्द उड़ाते हैं । परन्तु जो मनुष्य अपना जीवन परमार्थ में बिताकर कर्तव्य परायण रहता है, उसी का पानवी जीवन सफल है। श्रीमंतों के पास कुबेर का खजाना हो तो क्या ? जिस धन में से भोग विलास के सिवा अन्य किसी परमार्थ श्रादि में एक कौड़ी भी खर्चन हुनाहो तो उसके पास धन होतो क्या और न होतो क्या ? सांप के फन में रहने वाली. मणि और हाथी के मस्तक में रहनेवाला मोती भी धन है ! हम को हमारे पूर्व पुण्य के उदय से धन मिला है ५ समझ कर जो श्रीमंतलोकोपकार के लिये अपना धन खर्च करते हैं, वही धन प्रयोजनीय है; दूसरे धन से क्या लाभ । ऐसे ही धनवान प्रशंसनीय है। कहने का सारांश यह है कि मनुष्य जीवन के हेतु कलव्य तत्परता व्यक्त करवाना है ।
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कर्तव्य कर्म के भक्त महात्मा श्रीयुत वीरचन्द राघव जी गांधी का अल्प किन्तु महत्वपूर्ण चरित्र रूपी श्रादर्श निवेदन किया जाता है।
॥जन्म ॥ जैन धर्मीय श्वेताम्बर सम्प्रदाय में काठियावाड़ प्रदेश के भावनगर शहर के निकट बर्ती ग्राम महुवा में आपका जन्म हुआ था । तारीख २५ अगस्त सन् १८६४ को वीरचन्द गांधी ने गरीब पर उत्तम कुल में जन्म लिया । आप के पिता का नाम राघव जी भाई था । राघव नी भाई जवाहरात का काम करते थे। इस व्यवसाय में बड़े ही प्रवीण थे। साथही धर्म में भी आप की बड़ी रुचि थी । धर्मानुरक्त और धर्म कथा में आप एक दक्षपुरुष थे । जिसे आज कल शिक्षा कहते हैं उस प्रकार की उन्हों ने शिक्षा न पाई थी। पर वे अपने समय के अच्छे सुधारक थे। उस समय की निरुपयोगी, अप्रस्तुत और अज्ञान युक्त प्रचलित रिवाजों के सुधार में उन्हों ने समाज के लिये बड़ा परिश्रम किया था । मृत्यु के पीछे माथा कूटने का बुरा रिवाज गुजरात और काठियावाड़ में बाहुल्यता से और बड़े जोश से प्रचलित था । चरित नायक के पिता ने इसे बुरा समझ कर अपने ही घर से इस रिवाज को हटाकर अपूर्व धैर्य प्रदर्शित किया था । और समाज के सामने आदर्श स्थापन कर दिया था। सुधारक पिता के वीरचन्द जैसा सुधारक बेटा होना स्वभाविक ही है।
शिक्षा बचपन में वीरचन्द गुजराती शाला में पढ़ने के लिये भेजे
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( ६ )
गये। वहां की शिक्षा समाप्त करके वे भावनगर के अंग्रेजी स्कूल में अंग्रेजी पढ़ने के लिये गये । वीरचन्द अपने दरजे में बडे दक्ष और बुद्धिमान विद्यार्थी थे । आप ने केवल १६ वर्ष की ही अवस्था में सन् १८८० ईस्वी में मेट्रिकुलेशन परीक्षा पास कर ली। पश्चात राबवजी भाई ने उच्च शिक्षा दिलाने के अभिप्राय से उन्हें बम्बई के एलफिस्टन कालेज में भरती करा दिया। वहां वीरचन्द मन लगाकर पड़ने लगे और प्रति वर्ष परीक्षा में पास होते चले गये । सन् १८८४ में बी० ए० परीक्षा में द्वितीय श्रेणी में बडेमान से पास हुए। श्वेतांवर समाज में वीरचन्द ही पहिले पहिल बी० ए हुए थे, इस लिए सारे समाज की ओर से आप को अभिनन्दन मिला । समाज हितैषी अगुवाओं को आप के बी० ए० होने पर बड़ा आनन्द मिला ।। आप का मंत्रित्व
सन् १८८२ में श्वेतांबर जैनियों की ओर से * जैन
* इस भारत वर्षीय जैन समाज के उद्देश्य ये थे :( १ ) समस्त हिन्दुस्तान में भिन्न २ भागों में बसने वाले सर्व जैन भाईयों में मित्रभाव का प्रचार करना ||
( २ ) समस्त भारत में भिन्न २ भागों में बसने वाले जैन भाइयों की सामाजिक, नैतिक, और मानसिक उन्नति हो । ऐसा सहयोग स्थापित करना और जैन समाज में शिक्षा, नीति और सद्गुणों का प्रसार ( वृद्धि) करना ।
( ३ ) जैन धर्म के ट्रस्ट फंड और धर्म खातों के कैमर देख रेख रखना ।
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ऐसोसियेशन आफ इंडिया नामक संस्थाकी स्थापना हुई। इसके सेक्रेटरीका पद सम्मानपूर्वक और गौरव सहित श्रीवीरचंद को सं० १६४१ में सौंपागया । जबसे सार्वजनिक कार्य करने की शक्ति तीक्षण हुई और मि० पीरचन्द की कर्तत्वशक्ति के कारण संस्था को यश प्राप्त हुअा (सं. १६४१ जैन मंडल में एक्यता होने का विवरण तथा सुधार और सं. १६४२ में हुकूम मुनि और तत्सम्बन्धी विचार,
+शत्रुञ्जय तीर्थ संवन्धी खुशकारक वृतांत तथा जैन भाइयों में होने योग्य सांसारिक धार्मिक और राजकीय सुधार
आदि विषयों पर जो भाषण चरितनायक ने दिये हैं वे ऐसो सियेशन से प्रकाशित होनेवाले भाषण संग्रह में है। ... (४) जानबरों की हत्या न होने देना ऐसा उपाय करना तथा जीव दया का पोषण करना और करवाना।
(५)भिन्न २ स्थानों तथा तीर्थो की यात्रा करने वाले यात्रियों को सुगमता पड़, कोई अड़चन न हो, ऐसा उपाय करना साथही जैन भाई संसारिक धार्मिक और राजकीय सुधारों में अगवा हो ऐसा उपाय करना।
+शत्रुञ्जय पर्वत के पास मुरजकुन्ड के नजदीक श्रीऋषभदेव भगवान की पादुका स्थापित थीं। ता० ७ जून १८८५ को मालूम हुग कि कोई उसे खोद गया । ता. १६ जून को वह खोगई। वहां के ब्राह्मणों के गुरू दत्तात्रय थे। उन्हों ने यह फरयाद की ( कि कोई कहता है कराई गई ) कि श्रापकोनही पादुका खो दी हैं और गुम कीहै । इस पर श्रावकों के रखेहुये नौकरों को मारपीट के साथ पकड़ लिया । इस सम्बन्ध में
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रा० वीरचन्द पृथक पृथक उपयोगी और समाज हित कारक कार्य संस्था से पास कराने की योजना करते गये और इस लिये इस संस्था का हिन्दुस्तान में प्रभाव बढ़तागया। पहला कार्य जैन समाज और पालीताणा के ठाकर सूरजसिंह के बीच पैदा होने वाले बंधान के विषय में था। ____ यह सब को विदित है कि शत्रुञ्जय पर्वत अकबर बादशाह
और नगर सेठ शान्तिदास के समय से ही चताम्बर जैनों के अधिकारमें था उसी वादशाह तथा उसके पीछे गीपर बैठने वाले जहांगीर शाहनशाह आदि बादशाहों के समय में ताम्र पट्ट पर खुदे हुये फरमान का उपयोग न होन के कारण उसकी हुकूमत गवर्नर के पास दो बार तार दिये गय । ता० १८ जुलाई को पूना में गवर्नर लार्डरे ने जैन डेप्यूटेशन से मुलाकात की। पीछे सोनागढ़ के असिस्टेन्ट पोलिटिकल एजन्ट कप्तान फोरडायस ने एक तर्फी ( एक पक्षी ) खोज की। पश्चात् सरकार की ओर से यह निश्चय हुआ कि पालीताणा दरबार ने जैन नौकरों के ऊपर जो अत्याचार किया है उसका निर्णय करने के लिये सोनागढ़ में खोज की है और पालीलाणा कोर्ट में जैन नौकरों के सम्बन्धी केस को असिस्टेन्ट पो० ओ० नीकी कोर्ट में ले जाओ । इस पर पालीताणा दरबार महावलेश्वर के गवर्नर पर अज करने गया। और वीरचन्द और दूसरे जैन अगुआ भी गवर्नर के पास गये । इधर कार्तिक बदी ३ सं० १६४२ में ठाकुर सूरजसिंह की मृत्यु होगई। यों यह मामला बन्द होगया पश्चात गद्दी पर ठाकुर मानसिंह बैठे । इस के पश्चात् उन से शतनामा ही होगया।
(अनुवादक)
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( ६ )
पालीताणा राज्य कर्ता के पास चली गई । इस समय वहां जाने वाले श्वेताम्बर यात्रियों पर कर लगाने के सम्बन्ध में निश्चय हुआ । यह कर बड़ा त्रास दायक था । पर्वत की रक्षा के बहाने यह कर वसूल कियाजाता था पर्वत का संरक्षण करने को प्रत्येक यात्री पर दो रुपया कर वसूल किया जाने लगा इस से बड़ी गड़बड़ फैली । इसके लिये मि० वीरचन्द उपाय खोजने लगे ।
रक्षण करने का समाधान
इस समय काठियावाड़ के पोलिटीक न एजन्ट ( जो वर्तमान समय में एजन्ट टू दी गवर्नर कहे जाते हैं ) कर्नल वाटसन थे और बम्बई के गवर्नर प्रसिद्ध लार्ड रे थे। कर्नल वाटसन ने श्रावकों के प्रतिनिधियों को पालीताणा बुलावाया, इस समय प्रतिनिधियों की ओर से मि० वीरचन्द ने सारी हकीकत निवेदन की । महान प्रयास से ठाकुर साहब मानसिंह और जैन समुदाय की बीच यह शर्तनामा करार पाया कि ( १ ) दो रुपये का कर उठा दियो जायगा, उसके बदले में जैनी लोग ठाकुर साहेब को पंद्रह हजार रुपया देवेंगे । ( २ ) यह शर्तनामा सन् १८८६ के अप्रैल मास से चालीस वर्ष तक रहेगा । ( ३ ) इन चालीस वर्ष के बाद रकम में फेर फार करने का दोनों को अधिकार है। दोनों स्वतंत्र हैं। दोनों ओर की दलीलों को ध्यान में लाने के पश्चात् फेर फार को मंजूर अथवा ना मंजूर करने का अधिकार ब्रिटिश सरकार अपने हाथ में रखेगी । इस प्रकार वीरचन्द ने अपनी प्रभावशाली कर्तृत्व शक्ति से सब जैनियों को अंजित कर सर्वत्र आनन्द फैला दिया |
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(१०)
लाड रे को मान पत्र गवर्नर साहब काठियावाड़ गये थे। उस समय शत्रुञ्जय तीर्थ की भेंट करते समय उनको १५ वीं दिसम्बर १८८६ई. को तीर्थ स्थान पर मान पत्र समर्पित किया गया।
व्यवसाय इसके पीछे कोई स्थायी व्यवसाय करने की ओर श्री वीरचन्द काध्यान गया। सोलिसिटरी नामक उच्च परिक्षा पास करने की ओर उनका लक्ष्य गया । सोलिसिटरी का पेशा बड़ाही श्रम दायक होता है। साथही उसमें समयभी नहीं मिलता। दिन रात श्रम करते रहने और फरसत न पाने के लिये यह पेशा ऐसा बुरा है कि वर्णन नहीं होसक्ता परन्तु इसके साथही यह बड़ी इज्जत ओर अधिक रु० पैदा करन का व्यवसाय है, जिसके कारण इसके उपरोक्त दो कष्ट नहीं खटकते । इस कथन से यह न समझ लेना चाहिये कि उच्च, नीतिवान और धर्मिष्ट पुरुषों को इस व्यवसाय में ही नहीं पड़ना चाहिये क्योंकि बहुत से इस व्यवसाय को करते हुए भी सार्वजनिक सेवा करने को सबसे अधिक समय लगाते हैं। सरकारी सोलिसिटर बनगे की इच्छा से श्री वीरचन्द " लिटिल रौंड कम्पनी" में सन् १८८६ में आर्टिकिल्ड क्लार्क होगये। औ वहां वे सोलिसिटरी परीक्षा के लिये आवश्यक ज्ञान सम्पादन करने लगे । अहमदावाद और धम्बई के जैनी अभी इन्हे भले न थे। जैन समाज के लिये अभीतक जो जो उत्तम कार्य उन्हों ने किये थे वे सब वहां के जैनियों के हृदयों पर अंकित थे। अतएव
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उन्होंने मि वीरचन्द को इस समय द्रव्य से सहायता देकर बड़ा अच्छा किया था। इस व्यवसाय में फस जाने के कारण श्रीवीरचन्द ने जैन समाज के हित और आवश्यक कार्यों के प्रति दुर्लक्ष नहीं दिया । ऐसी समय जैन समाज को दुख पहुंचाने बाली, हृदय द्रावक घटना घटी, उसके दूर करने के लिये जैनियों की उंगली कर्तव्य निष्ट वीरचन्द गांधी कीही ओर उठी।
शिखर जी पर अत्याचार यह घटना थी शिखर जी पर अत्याचार । सन् १८६१ ई० में मि० बेडम नामी अंग्रज ने जैनियों के पवित्र क्षेत्र सम्मंद शिखर पर जिसे अंग्रज पारसनाथ हिल कहते हैं, चरबी बनानका कारखाना और पशु हत्याग्रह खोलना चाहा था। इस सूचना से सारा जैन समाज प्रक्षुब्ध हो गया और अंगरजी कारखाने के विरुद्ध कलकत्सा में नीचे की कोर्ट में फर्याद पेश की। वहां से जैनियों के विरुद्ध फैसला मिला इसपर उसकी अपील हाईकोर्ट में कीगई। इसी के लिए मि. गांधी की आवश्यकता पड़ी और वे कलकत में पाए । वहांपर रह कर उन्हों ने बंगाली भाषा को सीखा और फिर देशी भाषा में जो जो कागज मकदमे के लिये उपयोगी थे उन सब का अंग्रेजी में अनुवाद करक सबूत के लिये हाई कोर्ट में पेश किये । इसी प्रकार फितनं ही शिला लेख, ताम्र पत्र, और प्राचीन लेखों की सहायता से कोर्ट में शिखर जी पर्वत पर जैनियों का अधिकार प्रमाणित कर दिया । दीर्घ उद्योग तथा उत्साह के साथ हाईकोर्ट
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. (१७) में ऐसी सुन्दरता और स्पष्टता से पैरवी की गई कि नीचे की अदालत का फैसला रद होकर जैनियों के पक्ष में फैसला मिला इस प्रकार पवित्र तीर्थ क्षेत्र की इस अत्याचार से रक्षा हुई। इस बार भी मि० गांधी के हाथ में लिए हुये कार्य की विजय हुई । यह मि० बोरचन्द की. दूसरी बिजय थी इस समय से बीरचन्द सब की दृष्टि में आदर से देखे जाने लगे । और सब ने इन के प्रति कृतज्ञता प्रगट की।
चिकागो विश्व धर्म परिषद इसी समय अमेरिका के चिकागो नामक शहर में पाश्चात्य विद्वानों ने संसार भर के सब धर्मों की महासभा बैठाने का उद्योग किया था। प्रत्येक धर्म के प्रतिनिधियों को आमंत्रण दिया गया था। हिन्दुस्तान से भी प्रत्येक धर्म के अलग अलग प्रतिनिधि गये थे । जैन धर्म का भी एक प्रतिनिधि भजने के लिये श्वेताम्बर जैनाचार्य श्री विनयानन्दनी सूरे (आत्माराम जी) के पास निमन्त्रण आया था जैन शास्त्रों के अनुसार साधुओं को सामान्यता समुद्र यात्रा का निषेध है। अतएवं
आचार्य जी ने प्रतिनिधि भंजने का पश्न जैन ऐसोसियेशन पर डाल दिया । ऐसोसियेशन ने जब इस प्रश्न पर विचार किया तो प्रतिनिधि होने के लिये 'बीरचन्दः ही उपयुक्त समझ गये
और वे ही प्रतिनिधि निर्वाचित किये गये। जैन धर्म के तत्वमय स्वरूप को समझना कठिन हैं फिर भी उनके लिये और भी कठिन था । अतएष मि० वीरचन्द जैन धर्म और जैन तत्व का ज्ञान संपादन करने के लिये श्री मद विजयानन्द 'सरि ( स्वामी आत्माराम जी) के पास गये और उन से पढ़ने लगे
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( १८ ) पश्चात् जलयात्रा द्वारा वे अमेरिका को गये । जाते समय बम्बई बन्दर पर "यशस्वी हों। इस ध्वनि और आशीर्बाद की दृष्टि होने लगी। हिन्दुधर्म मंडल की ओर से स्वामी विवेकानन्द श्रादि भी इस विश्व धर्म परिषद में सम्मिलित थे। मि० गांधी जैसे तरुण पुरुष ने ऐसे महत्व के कार्य को उत्साह के साथ स्वीकार किया, इस से मि० गांधी की असामान्य विद्वत्ता और बुद्धिमत्ता भलीपकार से सूचित होती है । कारण, यह परिषद् धर्म विषयक ही नहीं था। किन्तु उस गढ़ समय में श्रेष्ठ और अच्छे धार्मिक तत्व जानने की इच्छा से बडे २ विद्वान अधिक संख्या में एकत्रित हुए थे । इस जग विख्यात और अपूर्व प्रसंग पर जैन धर्म की प्रतेष्ठता प्रकाशित करने में एक जैन युवक का मनोबल किस प्रकार से काम करगया, यह जैनियों के वर्तमान इतिहास में चिरस्मणीय रहेगी।
अमेरिका में किये हुये कार्य सितम्बर सन् १८८३ से अमेरिका के चिकागो शहर में इस प्रचण्ड सार्व धर्म परिषद् का प्रारम्भ हुवा । और सत्तर दिनतक रही । इसमें पृथक पथक देश के पृथक २ धर्म प्रतिनिधियों ने अपने अपने धर्म का स्वरूप प्रकाशित किया। मि० वीरचन्द ने जैन धर्म का स्वरूप नीति और तत्वज्ञान मय ऐसी उत्तमता से प्रकाशित किया कि सबका ध्यान आकृष्ट होगया हम अपनी ओर से कुछभी न कह कर नीचे एक प्रसिद्ध श्रमे रिकन समाचार पत्रकी सम्मति देते हैं।
"A number of distinguished Hindu schalars, philoso. phers, and Religous teachers attended and addressed the Parliament, some of them taking rank wich the highest
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(१६)
pf any race for learning eloquence and piety. But it is wife to say that no one of the pricental scholars was listened to with greater intrest than was the young lay man of the Jain community as he declared the Ethics and Philosophy of his people." इसका हिन्दी अनुवाद यह हुवा कि:
पारलिया मेंट (परिषद) में प्रतिष्ठित हिन्दू विद्वान तत्व ज्ञानी धर्मोपदेशक उपस्थित थे और उन्होंने भाषण भी दिये थे। जिनमें से कितने ही अपनी जातिकी विद्वत्ता, वक्तृत्व कला
और धर्म भक्ति के पण्डित थे । पर यह बात निर्भयता से कही नासक्ती है कि पौर्वाल पंडितों में जैन समाज के युवक नावक ने अपने वर्गकी नीति और तत्व ज्ञान के सम्बन्ध में तो भाषण दिये थे उनमें जो रस था और वे जिस प्रेम से श्रोताओं ने सुने थे वे किसी दूसरे के नहीं सुने उनकी समता कोई भी भाषण नहीं करसक्त" . .
इसके प्रथम विदेशों में जैन धर्म का प्रचार करने के लिये कोई नहीं गया था विदेशियों को जैन धर्म का परिचय कराने के लिये सब से प्रथम सम्मान इसी श्रावक को प्राप्त हुवा ।
बम्बई का व्याख्यान ___ सन् १८६५ के जून में ये बम्बई आए । बम्बई आने के पश्चात मि. गांधी ने जैनतस्त्र ज्ञान का अभ्यास विशेषरूप से प्रारम्भ किया । संसार के दूसरे धर्मों का निरीक्षण करके उनकी तुलना जैन धर्म से की । पश्चात् जैन धर्म के तत्वज्ञान की शिक्षा देने के लिये बम्बई में मि. गांधी ने "हेमचन्द्राचार्य अभ्यासवर्ग स्थापित किया । इस संस्था में कर्म सिद्धांत ( Doctrine of Karmas ) पुनर्जन्म, जड़ और चैतन्य सामान्य
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(२०) तत्व आदि विषयों पर मि० गांधी के उपयुक्त व्याख्यान हुये तब से मि. गांधी की विद्वता का परिचय जैनेत्तर विद्वान मण्डल में भी होगया और लोग जानने लगे कि जैन धर्म अज्ञात परन्तु उत्कृष्ट धर्म है । बम्बईकी बुद्धिवर्धकसभा, आर्यसमाज थियोसाफिकल सोसाइटी आदि संस्थाओं में भी मि. गांधी ने जैन धर्म पर व्याख्यान दिये ॥ .
अमेरिका से फिर आमन्त्रण इधर इस प्रकार स्वदेश में देशबंधुओं को जैन धर्म का परिचय कराने का पवित्र कार्य चल रहाथा । उधर मि० गांधी को अमेरिकावालों की ओर से एक पर एक मंत्रण आरहे थे कि वे अमेरिका जाकर वहां के निवासियों को जैन धर्म का विशेष परिचय करावें । स्वधर्म के परिचय कराने की तीव्र इच्छा रखते हुए, जेनों के तत्वज्ञान के प्रति रुचिको तृप्त करन का आमंत्रण कौनसा धर्माभिमानी पुरुष अस्वीकार करेगा ? तुरन्त ही मि० बीरचन्द सन् १८६६ में पुनः दूसरीबार अमेरिका को गये। इस वार जाते समय २० अगस्त को मांगरोल जैन सांगीत मंडली की ओर से मान पत्र दिया गया था। इसका मूल (अंग्रेजी) और अनुबाद अन्यत्र प्रकाशित है। - इस समय अमेरिका में कुछ महीने रहकर और कुछ महीने इंगलैंड में रहकर अपने व्याख्यान दिये थे । साथही साथ बैरिस्टरी का अध्ययन भी करने लगे इस प्रकार धर्म प्रचार का उद्योग चल रहा था कि इनको फिर जैन बंधुओं ने हिन्दुस्तान बुलालिया । बुलाने का यह कारण था कि जैन समाज के हित के लिये ( सेव्रोटरी आफ स्टेट भारत मन्त्री) के यहां एक अपील करनी थी। मि. गांधी की योजना सब को पसन्द आई।
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( २१ )
इस लिये यह १२ वीं अगस्त सन् १८६८ को भारत बापस आगये। यहां पर तीन सप्ताह रहकर अपील के सम्बन्ध का पूरा परिचय प्राप्त करके २४ बी सितम्बर १०६८ को अपने पुत्र सहित फिर विलायत चले गये। आपने वहां सेक्रेटरी आफस्टेट के यहां ऐसी योग्यता से अपील की कि कार्य सिद्ध हो गया इस प्रकार इस कार्य में भी यशस्वी होकर यह भारत लौट आए ।
तीसरी बार जब यह अमेरिका गये थे तब मांगरोल जैन सांगीत मंडली के उद्योग से स्वर्गीय न्यायमूर्ती महादेव गोविन्द राना की अध्यक्षता में एक सार्वजनिक महासभा हुई । और मि० गांधी को मान पत्र दिया गया । इसकी अंग्रेजी नकल हिन्दी अनुवाद सहित आगे छपी है ।
हमारे चरित नायक ने जैन धर्म सम्बन्धी तत्व ज्ञान: विषयक जो भाषण सार्वधर्म परिषद में दिया था उस का उस परिषद के उत्पादक और एकत्रित विद्वन्मण्डल पर ऐसा उत्कृष्ट प्रभाव पड़ा कि उन्होंने चरित नायक को एक रौप्य पदक प्रदान कर सम्मानित किया । इस सभा के भाषण को सब लोग जान जांय तथा जैन धर्म के तत्वों की उत्तमता को सबलोग समझ जायें इसलिये इन्होंने अमेरिका के प्रसिद्ध २ शहर वोस्टन न्यूयार्क, वाशिंगटन आदि शहरों में जैन धर्म पर व्याख्यान दिये । जैन धर्म का रहस्य, उसकी व्यापकता, और सुन्दरता श्रोताओं को समझाई। कासाडोग नामक शहर के सब निवासी इनके जैन धर्म सम्बन्धी भाषण. से ऐसे संतुष्ट हुये कि उन्होंने मि गांधी को एक स्वर्ण पदक समर्पण किया । ये भाषण जैन धर्म क्या है? ( what is Jainism ) जैनियों का तत्व ज्ञान और मानस शास्त्र'
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(२२) Philosophy and Bycbology of.the Jains जौनयों का स्वार्थ त्यांगका गढ़, धर्म ( The Occult law of sacrifice ) जीवन के सत्य सिद्धांत ( The true laws of life ) और जैनियों का विश्वसे सम्बन्ध ( Jains Relation to the Univrse ) थे इनके सिवाय और भी अनेक भाषण अमेरिका में दिये थे। इस के पश्चात अमेरिकन लोगों को जैन तत्व ज्ञान का परिचय होता रहे. इस उद्देश्य से आपने वहां “गांधी फिलासफिकल सोसायटी नामक संस्था भी स्थापित करदी। इस प्रकार उद्दिष्ट कार्य में यश प्राप्त करके मि० गांधी ने इंगलैंड में प्रवेश किया
इंगलेंड के कार्य लन्दन आदि प्रसिद्ध प्रसिद्ध नगरों के विद्वानों की मंडलियों में जैन धर्म के मूलभूत तत्वोंपर मि० गांधीने कितने ही भाषण दिये । इस समय बम्बई के भूत पूर्व गवर्नर लाई रे भी इङ्गलेंड में ही थे। मि. गांधी का पहिले से ही उनसे परिचय था। अतएव इन्हें अपने कार्यों में उक्त लार्ड साहब से भी बड़ी सहायता मिली । इङ्गलेण्ड में गांधी के कार्यों का यह परिणाम हुआ कि बहुत से जिज्ञासुओं ने जैन धर्म. सीखने की प्रबल
नोट-इनके अंगरेजी व्याख्यानों की पुस्तकें मेघ जी हीर नी बुकसेलर पायधुनी, बम्बई; शेठ देवचन्द लाल भाई पुस्तकोद्धार फंड झवेरी बाजार, बम्बई अथवा जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग बम्बई से मिल सकती हैं। उन्हें पढ़कर लाभ उठाना चाहिये । पुस्तकों के माम और कीमत इस प्रकार है :
Jain Philosophy Rs. 1/8/-, Yog Philosophy dg five te Kayma Philosophy -15/
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( २३ )
इच्छा प्रगट की । उनमें से एक का नाम मि० वारन था । परधर्मी ईसाई धर्मानुयायी जैन धर्म की शिक्षा लेने के लिये तैयार होगये, यह क्या मि० गांधी की कर्तत्व शक्ति के लिये कम धन्यवाद की बात थी । आपने ऐसी शिक्षा देने की व्यवस्था की और एक शिक्षण वर्ग स्थापित कर दिया। इसका विजयी परिणाम निकलने के पहले ही शरीर की प्रकृति अनुकूल न रहने के कारण स्वदेश को लौटना पड़ा बम्बई आते ही बड़े सम्मान से आप को लोगों ने लिया ।
स्वर्ग वास
स्वदेश के जैन समाजोन्नति के विचारों ने मित्र गांधी के हृदय में स्थान कर लिया था और इस क्षेत्र में उन्होंने कार्य भी प्रारंभ कर दिया था परन्तु यदि मनुष्य की इच्छा सेही इस संसार में सब सूत्र चलते तो काल का महत्व ही कोई क्यों मानता और क्यों बड़े बड़े सार्व भौम, विद्वान और कवियों के लिये "कालाय तस्मै नमः" कहने का अवसर आता । काल के समीप सबकी गति कुंठित है; संसार में ऐसी कोई भी वस्त नहीं है जो काल के वश में न हो फिर मि० गांधी की हकीकत ही क्या थी ? अपने आरम्भ किये हुये व्यवस य को छोड़कर एक दम स्वर्ग बास करना पडेगा, यह मि० गांधी को स्वप्न में भी ध्यान न था । विलायत से आए सप्ताहही हुए थे कि ७ अगस्त सन् १६०१ को मि० गांधी सव को शोक सागर में डुबा स्वर्ग को सिधार गये । कितनो ही का कथन है कि स्वदेश में मि० गांधी मरने के लिये ही आये थे । ठीक । जैन समाज का एक कर्तव्य शाली हीरा यों नष्ट हो गया । भारतीय जैन समाज के भूषण श्रीमान् वीरचन्द्र की आत्मा को सद्गति मिले
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( २४ )
उपसंहार
मि० गांधी में विशाल बुद्धिमत्ता होते भी वे बड़े मिलनसार थे, उनका स्वभाव बड़ा नम्रथा । उनकी वक्तृत्व शक्ति न्याय युक्त और बलवान थी। दिन रात काम करते रहने की उनकी पद्धति थी । अवकाश में भी वे विश्रांति नहीं लेते थे । अविश्रांति परिश्रम से कार्य करते रहने के कारण उनका स्वास्थ ठीक न रहता था और इस लिए उनकी अकालमृत्यु होगई, यदि यह कहा जाय तो अयुक्त न होगा। अपने धर्म की उन्नति के लिय संसार में मि. गांधी अल्प आयुही में चले गये परन्तु अन्य मनुष्यों के सम्मुख ज्वलंत दृष्टांत रख गये कि यह तुच्छ जीवन किस प्रकार अत्यन्त पूर्ण बनाया जा सकता है। पूर्वसमय में तीर्थंकर अथवा दूसरे मुनि भारत खंड के बाहर धर्मोपदेश किया करते थे परन्तु कितनी ही शताब्दियोंसे आर्यावर्त्त में ही जैनधर्म का नामावशेष रूपरहगया है। वर्तमान में उसको बाहर उज्ज्वल रूप में प्रकाशित करने का श्रेय मि० गांधी ने ही सम्पादन किया। मि० गांधी ने जो जो कार्य हाथ में लिये उन सबमें उन्हें यश प्राप्त हुआ । श्रीयुत स्वर्गस्थ मि बीरचन्द भाई की मृत्यु से जैन समाज की बड़ी हानि हुई ऐसा बीर पुरुष आज न तो दिगम्बर अथवा श्वेताम्बरों में कोई है और न भविष्य में होने की आशा है ।
( २ )
श्रीमान् गांधी जी जब दूसरी बार सकुटुम्ब अमेरिका को गये, तब मांगरोल सांगीत मंडली की ओर से अंगरेजी और गुजराती भाषा में कर्मबीर स्वर्गीय संठ प्रेमचन्द रायचन्द के सभापतित्व में जो मान पत्र उन को दिया गया था । उसकी नकल पाठकों के अवलोकनार्थ नीचे देते हैं ।
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(24)
To
VIR CHAND RAGHAVJI GANDHI, ESQR., B.A.,
Member of the Royal Asiatic Society, Secretary to the Jain Association of India, President of the Hemchandra Charyn,
Study Class, &c, dog
Bombay. DEAR SIR, ... We, the Members of the Mangrol Juin Sangit Mandli, are assembled here to day to give expression in public to the bigh esteem and ardent numiration with which we all regard you for the incalculable. benifits you have conferred upon cur assembly by useful ser. vices and timely suggestions, as well is on the whole community, on religious matters, arid many important and intricate questions connected with the affairs of our sacred Places. ... We avail ourselves of this occasion, #specially because only to-morrow you will be on your way to thụt lanit where you went in 1893, as an accredited Delegute of the Jain ('ommunity, to represent the views on the Ethics and Philosophy of our Religion in the Parliament of Religions at Chica yo. It was a matter of joy and satistaction for us all that out of a few Indian Delegates of light and learning, who could compete with and hold their own aguinst the foremost tbinkers of Europe and America, you were the only person who was heard with rapt attention and accorded due praise.
Your real work may be said to have commenced with the tormiuation of the sittings of that grand Assembly, for it was then that invitations from persons of diverse sview and various positions, coupled with the earnest solicitations of Associations, Quions, and Clubs, began to pour in, wbich induced you to prolony
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Yo )
your stay, there. This brief sojourn you turned to the best account, by delivering mâny public lectures on the idea and aim of Jain Philosophy-nny-when on certain occasions the duty of representing the whole India devol. ved upon you, you discoursed on Indian Philosophy in general, and succeeded to a great extent in dispelling doubts and misconceptions about the History, Morality, and Religion of the Hindus, and thus lifted up the veil which screened real things from their gaze. Here, also, after your arrival you did not fail to embrace every opportunity to enlighten us on the manners, customs and the educational systems of America, and your unremitted exertions have resulted in creating a zealous study of our Religion and Philosophy and the formation of the Hemchandra charya study class.
Rejoicing as we do at your second visit, we cannot but feel profvund sorrow at the idea of seperation froru a person of your knowledge, ability, and simplicity, we however console ourselves with the fact that what is loss to us is a substeutinl gain to our American Bretberen.
Those of our Bretleren on tbe other side of tbe Mississipi who being far removed from the centres of activity, could not share the pleasures of your company und adresses, will have now ample time to satisfy themselves. It will also be a boon and blessing to the enthusiastic students of occult Philosophy, who paid you a well merited inen, of honour by founding a society of Philosophic Investigations in your name. We feel pride and pleasure to kuow that you will be accompanied by your devoted wife, who will be a source of great help and comfort to you, and will afford our American sisters, a good opportunity to form a correct idea of the nature, virtuts aud responsibilities of an Aryav Lady..
In conclusion, sir, we leartily wish you a lion voyage and pray that blessings inay be strewn accross your path, and that your efforts in propounding and propagating the bigb principles of our noble religion may
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(२७)
be crowned with success, and hope that the revival of the glorious Past of the noble land of tbe East, which was bailed with favour in a dim and prophetic vision, by that illustrious French writer Victor Hiugo is destined to take place in the sail of America, which have been already brought into contact by material civilization, will through our spritual thoughts be united in more enduring and permanent bonds of Fratervity. : As for curselves, we shall be longingly looking forward for that day, when after mastering the great problem of the free education of the masses, you will return hore and work for its introduction, for it is upon the solution of this problem alone that the future happiness of our country depends.
. We beg to remain,..
Dear Sir, Bomboay,
Your Friends and well wishers, 20th August 1896.
Prem Chand Roy Chand, Amer Chand
President of the meeting, . Tilok Chand
Moti Chand Debi Chapd, Honourary Secretary,
. President, for members of the Mangrol
Jain Sangit Mandli.
___ऊपर के मानपत्र का हिन्दी अनुवाद.
___मि० वीरचन्द राघवजी गांधी बी० ए०
___ मेम्बर आफदी रायल एशाटिक सोसाइटी, सेक्रेटरी जैन एसोसिएशन आफ इण्डिया प्रादि बाई मियबन्धु,
श्रीमांगरोल जैन सांगीत मंडली के हम सब प्रभासद आज आपकी उपयुक्त सेवा, प्रासंगिक सूचनाओं तथा समस्त
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.. (२८) समाज धर्म संबन्धी विषयों में, पवित्र तीर्थों से सम्बन्ध रखने वाले कठिन और महत्व के प्रश्नों के विषय में जो आपने असंख्य लाभ पहुंचाये हैं, उसके लिये हम प्रत्यक्ष रूप से आपका आभार भानते हैं । आपके प्रति उच्चमान तथा प्रेम प्रदर्शित करने के लिये हम सब यहां एकत्रित हुये हैं। . इस प्रसंम को जल्दी लाने का मुख्य कारण यह है कि फत ही आप उसदेश (अमेरिका) को प्रस्थान करजाओगे जहां
आप सन् १८६३ ई० में चिकागो की धर्म परिषद में हमारे धर्म के तत्वों और रहस्य को प्रदर्शित करने के लिये जैनों के प्रतिनिधि बनकर गयेथे । यरुप और अमेरिका के श्रेष्ठ तत्व ज्ञानियों
और अच्छे विद्वानों की समता करने हिन्दुस्तान के अच्छे विद्वान गये थे। पर हमें यह जान कर बड़ा हर्ष और संतोष हुआ कि आपके व्याख्यान बड़े ध्यान से सुने गये और आप के व्याख्यानों को प्रशंसा कीगई।
उस महा समाज की बैठक पूरी होतेही आपके वास्तविक कार्यों का प्रारम्भ हुवा क्योंकि तभी से भिन्न भिन्न विचार वाले और भिन्न भिन्न स्थिति के मनुष्यों ने आपको आमन्त्रणों से और अनेक मंडलियों, सभाओं और क्लबों की प्रार्थनाओं से प्रेरित होने पर आपको वहां कुछ समय के लिये ठहरना पड़ा। विविध विषयों पर व्याख्यान और भाषण देकरही
आपने इस समय का सदुपयोग किया । यही नहीं, किन्तु भारतवर्ष के प्रतिनिधि होने के कर्तव्य को भी निबाहा । क्यों कि सारे भारतवर्ष के प्रतिनिधि के कर्तव्य का भार आप के सिर पर था । अतएव आपने भारतीय तत्वज्ञान के विषय में भी अपने विचार प्रगट किये थे। वहां के निवासियों के दिमाग में
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( २६ )
भारतीय इतिहास, नीति और धर्म के प्रति जो जो भूलें घर
कर रही थीं उन्हें दूर करने में आपने बड़ी सफलता माप्तकी और उन्हें उनके विषय में सत्य बातें बतलाकर उनका भ्रम दूर किया। यहां अने पर आपने अमेरिका के उपयोगी रीति रिवाज और विद्या प्रचार के बहु मूल्य संदेश हमें सुनाये | धर्म की ओर रुचि उत्पन्न करनेका आपका यह बड़ा प्रयत्न भी सफल हुवा और हेमचन्द्राचार्य अभ्यास वर्ग की स्थापना हुई
.
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आपकी दूसरी मुसाफिरी के समय हम खुशी मना रहे हैं पर साथही याप जैसे ज्ञानवान, शक्तिवान, और नम्र गृहस्थ के वियोग का हमें बड़ा दुख है । पर आप के वियोग से हमारी जो भारी हानि होगी उसके बदले हमारे अमेरिकन भाई और बहनों को अमूल्य लाभ होगा यही विचार कर हमें खुशी होती है।
मिसिसिप नदी की दूसरी ओर बसने वाले अमेरिकन भाइयों ने आपके व्याख्यानों से लाभ प्राप्त कर नहीं पाया था इसलिये अब वह अपनी इच्छा को पूर्ण करसकेंगे । तत्व ज्ञान के जिज्ञासु विद्वानों के लिये भी जिन्होंने आपके गुणों और ज्ञान पर मुग्ध होकर आपके नाम से तत्व शोधक मंडल स्थापित किया है आपकी यह यात्रा बड़ े हर्ष और आशीर्वाद का कारण होगी। हमें यह जानकर और भी हर्ष हुवा कि इस यात्रा में आप के साथ आपकी सह धर्मिणी भी रहेगी, जिनसे आपको पूरी सहायता और आराम मिलेगा; साथही वे अमेरिकन बहिनों को आर्य महिलाओं के कर्तव्य, गुण और स्वभाव का ज्ञान करावेंगी ।
अन्त में हम अन्तःकरण से इच्छा करते हैं कि भाप की
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यात्रा आनन्द से समाप्त हो । जहां जहां आप जायें, वहां वहां आशीर्वचनों की बृष्टि हो, हमारे धर्म के महान सिद्धान्तों के समझाने में और प्रसार करने में भापको सफलता हो, यही हम प्रार्थना करते हैं । पूर्वीय दंशकी दिव्य भूमि की भूत पूर्व उज्वल स्थितिके पुनरुद्धार यशस्वी फच लेखक मि० हयुगोये को आशा थी। कि वह पुनरुद्धार अमेरिका में जाकर हुआ। भारत और अमेरिका का भौतिक सुधारों से जो थोडासा परस्पर संबन्ध हुवा है उसके द्वारा हमारे अध्यात्म ज्ञान के
और प्रसार की तथा स्थायी भ्रातृभाव की प्राशा है। - हम उस दिनकी प्रतीक्षा बड़ी उत्सुकतासे कर रहे हैं जिस दिन भाप जन समाज की अनिवार्य और निःशुक्ल शिक्षा के महान सिद्धांत में निपुणता प्राप्त करके यहां वापिस लौटेंगे
और उसके प्रचार के लिये आप कार्य करेंगे । इसी प्रश्न पर हमारे देश का भविष्य सुख निर्भर है।
भवदीय बम्बई
प्रेमचन्द रायचन्द सा. २० अगस्त १८६६ मीटिंग के प्रेसीडेंट अमरचन्द तिलकचन्द मोतीचन्द देवचन्द प्रेसीडेंट आनरेरी सेक्रेटरी श्रीमांगरोल जैनसांगीतमंडली
• To.
Vir Chand Raghavji Gandhi Esqr. B.A.MRA, Dear Brother,
We, your friends and admirers, have assembled here to day to give expressions to our sentiments of deep gratitude andh igh admiration, which we so şircerely
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cherish for you, in due appreciation of the invaluable and innumerable services which you have so creditably rendered to the members of your community and to the people of India in general, by fostering brotherly feelings in the hearts of the kind and courteous Americans, for the people of our renowned India.
We feel much satisfaction aud pride repeat tbat we find in you, only a representative of the Jain Religion at the Parliament of Religions, held at Chicago, but at the same time we find in you a most energetic and competent advocate of the cause of Indian Pbilosopby: Disregarding the unavoidable incoaveniences, which present themselves to an Orthodox Hindu travollar scru. pulously following the prescriptions of religion, while prosecuting noble work, which you have so cheerfully undertaken, you visited different parts of America and preached in lotty tones from public and private pulpits the religion and Philosophical tenets of Hinduism; and we are extremely glad to endorse the opinion of the American public and press, that you have succeeded all with all the moral triumph of a conscientious preacher, in awakening American interest and symputbies for the religion and philosophy of India which has beun gloricusly hailed by the foreigners from times immemorial, as the mother of Religions and the Cradle of Civilizi tion. This, in itself is a sign, prophesying good for the orient and the Occident.
. . But your mission did not end here, you next con. centrated all your energies in a pitched battle against the grant of darkuess assuming various forms and specially against lock of education amoúg the wmen of this country, which is one of the saddest and most deplorable condition of Indian society, we are much pleased to hear, has sent three of our Fliidu sister's to America, with the offer to maintain and educate them, for three -years at the expense of the socioty, so that they may be enabled to practicallý study bow to become proper
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help-mates to their husbands and pioneers in the work of reforming our society. We respectully solicit your favour to convey to our best sympathies and choisest blessings in their noble mission of patronizing female education in India.
Equally precious are your services, during the recent famine in India, when you got enlisted with your characteristic promptness, the sympathy of the kind herated Americans for the poorer masses, who were starving to death for want of sufficient food aud sent a ship to India, laden with American maize for free distribution among the famine stricken people. These services and these touches of your philauthrophic disposition, we assuse you, our dear brother, have rightly earned for you our lasting admiration and gratitde.
The cause of Vegetarianism is equally comman ding our admiration your numerous addresses so vividly portraying the excruciating pains and heart-rendering agonies of the poor animals, writhing under the knives of the heartless butchers, have reclaimed many flesh eaters to the pure hindu vegetarian diet and have taught them to respect the feel'ngs even of the lower creation an object lesson of spritual life which India bas still to preach and to teach most of the civilized nations of the world.
Your strong protest against the misrepresentations by the American missionaries of the Indian life and morals, your valuable advice, for the introduction of the American system of practical education in Indian schools, your genuine desire to see our Indian students in England paying particular attention to English Arts and manufacteres with the object of improving and promoting Indian Industries, your contributions to the Indian press for drawing the attention of our educated youths to commercial fields that are open for them in Enland and America, these are some of the meltifarious subjects that have held us in unspeakable wouder,
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( ३३ )
and speak volumes for your sound Judgment and comprehensive abilities,
This large and influential gathering rejoices to see that you are the first Hindu among the whole Hindu community of India, to take your wife to America and to give practical illustration of the life of an Indian Hindu woman to our sisters of the Western Hemispere A. short stay of nearly two years of your son Master Moban in America, and his training in an American educational institution, give us every hope that he will be a second Gandhi after you to pickup, with the greatest zeal and interest, the work which you have commenced so successfully of implanting "India in America.".
In conclusion, we wish you a hearty bon Voyaga to England and America and a happy return to our dear country after fulfilling your noble mission of preaching Oriental Philosophy.
On behalf of the Friends and admirers assembled in a public meeting held at Novelty Theatre,
Bombay,
President, M. G. RANADE.
Dated 23rd Sept., 1889.
मि० बीरचन्द राघव जी गांधी बी० ए०, एम० आर० ए० एस०
प्रति दयालु भ्रातृभाव का
प्रिय बंधु, जग प्रसिद्ध श्रार्य भूमि के लोगों के और बिनयवान अमेरिकन लोगों के हृदयों में जन्म दे कर आपने अपनी जाति भाइयोंही की नहीं बल्कि सारे भारतवर्ष की जो अमूल्य सेवा की है उसके श्राभार मानने के लिए तथा प्रेम दर्शाने के लिये हम सब यहां पर एकत्रित हुये हैं।
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( ३४ )
fart की धर्म परिषद में जैन प्रतिनिधि की भांतिही नहीं, परन्तु भारतीय अध्यात्म विद्या के पक्के पोषक की भांति आपने कार्य किया, हमें यह कहते हुये संतोष तथा अभिमान होता हैं। हिन्दु धर्म की रीति रिवाजों के अनुसार समुद्र यात्रा का निषेध है। उसपर भी कठिनाइयों की परवा न करके आपने अमेरिका की यात्रा की। वहां जाकर अमेरिका के भिन्न २ भागों में प्रवास किया और अमेरिकन लोगों को आर्य धर्म तथा तत्वज्ञान के बहुमूल्य उपदेशों का बोध कराया। अमेरिकन लोगों ने आपके मत का अनुमोदन किया यह जानकर हम बड़ आनन्दित हैं । अमेरिकन लोगों का हिंदू धर्म तथा तस्व 1 ज्ञान के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करने में आपने अच्छी सफलता प्राप्त की है ।
उसके पश्चात् भारतवर्ष की स्त्रियों की अज्ञानावस्था की और अमेरिकन बहनों का ध्यान आकर्षित किया और भारतीय स्त्रियों की विद्या बृद्धि के लिये आपने अमेरिकन स्त्रियों की एक मंडली स्थापित की। उस मंडली की ओर से तीन भारतीय विदुषियों को वहां रहने और शिक्षा लाभ करने के लिये आमंत्रण मिला | तीन साल तक उस मंडल के व्यय संही वे विदुषियें वहां रहीं और शिक्षा प्राप्त की । उस दयालु श्रमंत्रण के लिये भारतीय स्त्रिये अमेरिकन बहनों का बड़ा आभार मानती हैं, यह आप उन्हें सूचित करदें ।
आपके काम यहांही समाप्त नहीं होते । इसके पश्चात् जब भारत में दुष्काल पड़ा तब आप ने इस ओर भी अमेरिकन लोगों का ध्यान आकर्षित किया और अन्न का एक स्टीमर भिजवाया। आप की यह सेवायें और यह देश प्रेम प्रशंसनीय
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है। इसी कारण, प्यारे वंधु, हमारे हृदयों में आपके प्रति पान और भाभार ने स्थायी स्थान प्राप्त कर लिया है।
मांसाहारियों को आपने बनस्पति भोजन के लाभ बता कर हिन्दुभोजन की ओर प्रकृति की, उसके लिये भी हम भाप का आभार मानते हैं। साथही पड़ी उत्तमता से आपने "अहिंसा परमोधर्मः" के महान तत्व का प्रचार किया। भारत की रीति और नीति के विषय में अमेरिकन मिसिनरियों द्वारा फैलाई हुई घणित किम्बदन्तियों का आपने खंडन किया, भारत में भमेरिका की शिक्षा पद्धति की योजना का यत्न किया, इंगलेंड को पढ़ने जाने वाले हिन्दुभ्राताओं को आपने सिखाया कि वे अपने देश में अंगरेजी आविष्कारों का हुनरोंका प्रचार कर के भारतीय उद्योग धंधों की उन्नति करने का यत्न करें, पत्रों में आपने लेखों द्वारा आन्दोलन करके हमारे युवाओं और विद्वानों का ध्यान इंगलैंड और अमेरिका के उद्योग धंधे सीख कर और इस देश में प्रचार करने के लिये उनका ध्यान आकर्षित किया। इस प्रकार भारत को जो बहुमूल्य सेवा आपने की है, उसके लिये हम अपने शुद्ध अन्तःकरण से आभार मानते हैं. . यह एकत्रित समूह इस बात को सोच कर बड़ा आनन्दित होता है कि आपही भारतीय हिन्दु समाज के प्रथम हिन्दू है जिसने अपनी स्त्रीसहित यात्रा की और पश्चिमीय संसार को भारतीय हिन्दु स्त्री के जीवन का उदाहरण बताया आपके पुत्र मास्टर मोहन जो दो वर्ष अमेरिका ठहरे और वहां के विद्यालय में शिक्षा पाई, हमें आशा दिलाते हैं कि आपके पश्चात दूसरे गांधी चनने का अवसर देंगे। मापके शुभ कार्य बढ़ी
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(३६) खुशी तया सफलता से पूर्ण होंगे क्योंकि आप हिन्दु धर्म के कुशल प्रतिनिधि हैं।
हा प्रार
अन्त में हम चाहते हैं कि आप की यात्रा सफल हो। और श्राप के कार्यों में विजयहो । अमेरिका में आर्य धर्म का पष्ट वृत्त बोकर आनंद सहित भारत को वापिस लौटो ।
भवदीय मित्र और कार्यों के अनुमोदकः
बम्बई । सभापति मा० २३ सितम्बर१८८६ महादेव गोविन्द रानाडे ।
इसके पश्चात् सभापति आनरेबल मिस्टर रानाडे ने खड़े होकर कहना प्रारम्भ किया। उनके खड़ा होने पर सभा में तालियां बजीं। आपने कहा कि मिस्टर गांधी ने हिन्दुस्तानकी सेवा अमेरिका में की है, उसके लिये वे धन्यवाद के पात्र हैं। अपने हिन्दुधर्म को इंगलैंड और अमेरिका में फैलाने के लिये मि० गांधी एक आदर्श ( Model ) हैं मि. गांधी ने जो परिश्रम किया है उसका फल वे अथवा हमको प्राप्त नहीं होगा। इस परिश्रम के उत्तम फल का लाभ हिन्दु धर्मको प्रसार होने पर
आगे की संतान उठायेगी । मि. गांधी जैसे उत्साही युवा गृहस्थ जैन जाति में हैं इससे जैन जाति का गौरव और भी बढ़ गया है। मि० गांधी की और उनके अनुकरण करनेवाले दूसरे गृहस्थों की मैं विजय कामना करता हूं। उन्हों ने हमारे लिये जो परिश्रम किया है उसके लिये मैं उनका उपकार मानता ॥
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( ३७ )
नं०३ स्वामी विवेकानन्द और वीरचन्दकी तुलना ..महात्मा विवेकानन्द प्रार्य तत्व ज्ञान की वेदान्त फिलास्फी समझाने के लिये चिकागो की धर्म परिषद में गये वे ४० वर्ष की अवस्था मेंही सन १६०२ में मृत्यु को प्राप्त हुये उस समय अमेरिका के प्रसिद्ध पत्र "बैनर श्राफ लाइट" ने तुलना करते हुये लिखा था।
जैन तत्व ज्ञानी बीरचन्द की लेखन शक्ति एवम् वक्तत्व शक्ति में जो विचारों की नूतनता थी वह विवेकानन्द में न थी
स्वामी विवेकानन्द मांसाहारी थे पर वीरचन्द धार्मिक जैन की भांति जीवन व्यतीत करनेवाले निर्दोष वनस्पत्याहारीथे
भारत के दोनो उत्तम रत्नों के लिये नीचे लिखी बातें कही जासकती हैं। ... (१) विविध धर्मों की चरचा करने के लिये सन १८६३. में भरने वाली चिकागो की धर्म परिषद में गये और प्रशंसा पाप्त की।
(२) दोनों लोक प्रिय व्याख्यान कार थे । अमेरिका के श्रोताओं की ओर से उनके सम्बन्ध में स्तुति वचन सुनाई पड़ते हैं।
(३) जिन लोगों ने इनके भाषणों को सुना उन उन ने उनके सिद्धांतों की प्रीति पूर्वक स्वीकार किया और जिन्होंने उनके सिद्धांतों का यथार्थ निर्णय करने के लिये विचार किया उनके मन के ऊपर इनके विचारों की छाप अद्यापि पर्यन्तरहीहै ... (४) दोनों ने थोड़ी उम्र पाई विवेकानन्द ४० वर्ष की भायु में और दीरचन्द ३७ वर्ष की आयु में स्वर्गस्थ हुये।
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( ३८ ) यदि अधिक समय तक जीते रहले तो हमारा भविष्य कुछ और मुधर जाता ॥
(५) दोनों ने पवित्र भारत भूमि मेंही आकर प्राण त्याग किये. विवेका नन्द ने सन् १६०२ में बेवर मठमें और वीर चन्द ने सन् १९०१ में बम्बई में।
(६) स्वामी विवेकानन्द के प्रबल विचारों के लिये उनके शिष्य मंडल ( अभेदानन्द प्रादि ) ने राम कृष्ण सोसाइटी
आदि अनेक संस्थायें स्थापित की । परन्तु शोक कि वीरचन्द के प्रवल विचारों के असर से कोई जैन संस्था स्थापित न रहसकी, यह बात नहीं है बल्कि वीरचन्द के स्मणार्थ कोई संस्था स्थापित करने का प्रयत्नही नहीं किया गया । ... श्रीमद्भवीरचन्द प्रत्येक सज्जन के हृदय में अभीतक स्थित हैं उनका शरीर नष्ट होगया परन्तु वे नष्ट नहीं हुये हैं । उनका यश रूपी शरीर अमृत और अमर है । अंग्रेजी कहावत है To live in hearts we leave behind; is not death अर्थात हृदय में रहना मृत्यु नहीं है । तीर्थादि कार्यों में विजय प्राप्त करने में, जैन धर्म के प्रसार करने में, जड़वादियों के हहयों पर जैन संस्कारों की छाप डालने में श्रीवीरचन्द ने अपने मन वचन और शरीर से जो प्रात्म त्याग किया है, उसके लिये सारा जैन समाज उनका ऋणी है । इस ऋण से स्वस्थ होने के हित के लिये नहीं बल्कि अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिये भी जैन समाज ने अपना कर्तव्य किस प्रकार पूरा किया। इसका विचार प्रातही समाज की स्थिति और उसके अध: पतन का दृश्य नाचने लगता है।
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( ३६ )
We shall do so much in the years to come.
But what have we done today? We shall give our gold in a princely sum. But what did we give today?
We shall life the heart and dry the tear,
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We shall plant a hope in the place of fear. We shall speak with the words of love and cheer. But what have we done today?
Nixon water man.
विशेष क्या लिखें | अपनाही अवगुण विशेष क्या प्रकाशित करें। श्रीमद्रबीरचन्द्र के जीवन और कार्यों के बोध का स्मरण हमारी कृति में रहे यही बस है । अंग्रेजी कविने कहा है
Think truly and thy thoughts shall the world's famine feed ;
Speak truly and each word of thine shall be a fruitful seed;
Live truly and thy life shall be.. A great and noble creed
Bonar.
सद्विचार करो, वे संसार के विचारों के दुष्कालों की पूर पायेंगे; सत्य बचन बोलो, जिससे तुम्हारे प्रत्येक शब्द रूपी बीज से कल्पद्रुम प्राप्त होंगे, शुद्ध जीवन व्यतीत करो तब तुम्हारा जीवन महान् उच्च धर्म संस्था बनेगी। जिसका अनुसरण अनेक मनुष्य करेंगे ।
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नियमावली श्री आत्मानन्द जैन ट्रेक्ट सोसायटी अम्बाला शहर १-इस का मेम्बर हरएक होसकता है। २- इसका चन्दा कम से कम १) वार्षिक है । अधिक देने का
हरएक को अधिकार है। जो महाशय एक साथ ५०) रु.
इस ट्रैक्टसोसायटी को देंगे वह इस के लाइफ मेम्बर । समझे जावेंगे। उनसे वार्षिक चन्दा कुछनहीं लिया जावेगा ३- इस सोसायटी का वर्ष १ जनवरी से प्रारंभ होता है।
जो महाशय मेंबर होंगे वे चाहे किसी महीने में मेंबर हों किन्तु चन्दा उनसे ता० १ जनवरी से ३१ दिसम्बर तक
का लिया जावेगा। ४-जो महाशय अपने खर्च से कोई टैक्ट इस सोसायटी द्वारा
प्रकाशित कगकर बिना मूल्य वितीर्ण करना चाहें, उनका
नाम टू क्ट पर छपवाया जायगा। ५-- जो ट्रक्ट यह सोसायटी छपवाया करेगी वे हरएक मेम्बर के पास विना मूल्य भेजे जाया करेंगे ।
निवेदक:
सेक्रेटरी
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