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पर जहां दृष्टि जागृत हुई---घट की खुली, तहां यही मानव जीवन कर्त्तव्य पूर्ण दिखाई दिया ।
इस का अर्थ यह है कि कर्त्तव्य के कारण मानवी चरित्र महत्व का होजाता है । हम अपने प्राच न पुरुषों, ऋपियों और महात्माओं के विषय में विचार करते हुये कहते हैं प्राचीन समय में सत्तयुग था- वह स्वर्ण का था और उस काल में देव तुल्य महात्मा होते थे पर हमारे जमाने के लिये वे दिन गये" पर वास्तव में सत्य क्या है ? इसका विचार करने पर ज्ञात होता है कि काल सर्वदा वहीं रहता है। जो समय पहिले था, वह अब भो है । पूर्व काल जो उनका था वह हमारा भी है। केवल अन्तर इतनाही है कि इस काल में वैसे कर्तव्य परायण परिश्रमी पुरुष पैदा नहीं हुए, इसलिये इस काल का महत्व घटगया और वह तुच्छ मालूम होने लगा । प्रति दिन सहस्र रश्मि सूर्य तेज सहित पूर्वदिशा में उदय होता है पश्चात् दिन भर भूमि को प्रकाशित करके सायंकाल के समय पश्चिम दिशा में अस्त होजाता है । रात्रि के समय आकाश असंख्य तेज पुंज ताराओं से प्रकाशमान रहता है । चन्द्र ज्योति का रमणीय साम्राज्य शुक्ल पक्ष में स्थिर रहता है । और कृष्ण पक्ष में अंधकार अपनी सत्ता प्राजमाता है । ग्रीष्म में सूर्य का तेज प्रबल अर्थात् गर्म होता है और शरद ऋतु में प्रकाश ठंढा रहता है । वर्षा काल में श्राकाश से बृष्टि होती है और शरद ऋतु में पवन मंदता से चलती है । इस सब का कहने का सारांश यह है कि काल की जो गति होती है वह अब भी है। वर्तमान काल तथा पूर्व काल में यदि कुछ अन्तर होसकता • है तो थोड़ा बहुत स्थितमंतर है। पूर्व काल में सोने की वर्षा
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