Book Title: Shrutsagar Ank 2000 01 010
Author(s): Manoj Jain, Balaji Ganorkar
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र का मुखपत्र श्रत सागर आशीर्वाद : राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. अंक : १०, माघ वि. सं. २०५६ जनवरी २००० : संपादक : डॉ. बालाजी गणोरकर मनोज जैन S 90SBBODARA ज्ञानमन्दिर की मुख्य शाखा के उद्घाटन के मंगलमय प्रसंगपर विराजमान पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरि म. __ अहमदाबाद में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर __की जैन पुस्तकालय शाखा का उद्घाटन अहमदाबाद के जैन बहुल क्षेत्र पालडी विस्तार में सत्याग्रह आश्रम के समीप आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर की मुख्य शाखा का उद्घाटन १९ नवम्बर, १९९९ को सम्पन्न हुआ. इस मंगलमय प्रसंग को राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. तथा आचार्य श्री विजयप्रद्युम्नसूरीश्वरजी म.सा. आदिठाणा ने अपनी निश्रा देकर अविस्मरणीय एवं पावन बना दिया. इस अवसर पर विभिन्न जैन संघों के पदाधिकारी एवं नगरजन सहित सरदार सरोवर नर्मदा निगम के अध्यक्ष श्री भूपेन्द्र सिंह चूडासमा उपस्थित थे. माननीय श्री चूडासमाजी ने दीप प्रज्ज्वलित कर पुस्तकालय का उद्घाटन किया एवं प्रासंगिक उद्बोधन कर इसके निरंतर प्रगति की कामना की. प.पू. राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरि म.सा. एवं आचार्य श्री विजयप्रद्युम्नसूरि म.सा. ने प्रसंगोचित प्रवचन में श्रमण एवं श्रावकवर्ग की ज्ञानाराधना हेतु इस केन्द्र द्वारा होने वाले प्रयासों को अपना शुभाशीर्वाद दिया तथा कामना की कि इस केन्द्र द्वारा आगामी For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शताब्दी में जैन धर्म की उपयोगिता तथा प्रचार-प्रसार हेतु उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हो. इस अवसर पर ज्ञानमन्दिर के सहनिदेशक डॉ. बालाजी गणोरकर ने प्रशान्तमूर्ति श्रुतभक्त प.पू. मुनिराज श्री अजयसागरजी म.सा. की निश्रा में आचार्य श्री कैलाससागरसरि ज्ञानमन्दिर का परिचय देते हुए ग्रंथालय सचना विज्ञान के क्षेत्र में हासिल हई उपलब्धियों से श्रोताओं को परिचित कराया. श्री विजयभाई शाह ने जैन पुस्तकालय द्वारा की जाने वाली गतिविधियों पर प्रकाश डाला. कार्यक्रम का संचालन श्री हितेन्द्रभाई मारफतिया ने किया तथा अन्त में श्री किरीटभाई कोबावाला ने धन्यवाद ज्ञापन किया. वाचकों को यह बताते हुए हमें आनन्द हो रहा है कि श्री विजयभाई हठीसिंग शाह ने शाह इन्टरप्राईज़ के सौजन्य से इस जैन पुस्तकालय के लिए अगली योग्य व्यवस्था होने तक दो वर्षों के लिए निःशुल्क भवन व्यवस्था उपलब्ध कराकर जिन शासन की अनुमोदनीय सेवा की है. उनके इस उदार सहयोग का श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र तथा जैन समाज अनुमोदना करता है. श्रुतसरिता (पुस्तक विक्रय केन्द्र) का उद्घाटन : * विगत २५ नवम्बर १९९९ के दिन श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा में नवनिर्मित भवन में पुस्तक विक्रय केन्द्र का उद्घाटन प.पू. गुरुदेव आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. की निश्रा में गुजरात खनिज विकास निगम लि. के चेयरमेन श्री मुकेशभाई झवेरी के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुआ. इस अवसर पर गुजरात खनिज विकास निगम के निदेशक श्री सुनीलभाई सिंगी भी उपस्थित थे. * परम पूज्य शासनप्रभावक राष्ट्रसंत आचार्य प्रवर श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. आदिठाणा का साबरमती जैन संघ में अनेकविध धर्म आराधनामय चातुर्मास व्यतीत हुआ. आपकी निश्रा में श्री रामनगरसाबरमती जैन संघ में विविध जप-तप, धार्मिक अनुष्ठान, युवा-बाल शिबिर एवं प्रवचनमाला से शासन प्रभावना के सुकृत कार्य सम्पन्न हुएँ. पर्वाधिराज पर्युषण में मासक्षमण, अट्ठाई, अट्टम आदि तपश्चर्या हुई. आपश्री के ६५वें जन्मदिन एवं जगद्गुरु आचार्य श्री हीरविजयसूरीश्वरजी महाराज की पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में एक विशाल अनुमोदन सभा का आयोजन हुआ. इस कार्यक्रम के अन्तर्गत साधर्मिक भक्ति व बहुमान का विशेष आयोजन किया गया जिससे अनेक मध्यमवर्गीय परिवारों को जीवन-यापन की भरपूर सामग्रियाँ उपलब्ध कराई गईं. पूज्यश्री ने सम्राट अकबर प्रतिबोधक जगद्गुरु हीरविजयसूरिजी के द्वारा हुए धार्मिक सामाजिक उपकारों का ताजा बयान दिया. उन महापुरुष के प्रति सभा स्थित हजारों व्यक्तिओं ने अपने कर्तव्यता के पालन द्वारा भावांजलि समर्पित की एवं पूज्य गुरुदेवश्री के संयम पर्याय के अगणित सत्कार्यों की अनुमोदना की. पूज्य गुरुदेव की निश्रा में आसो मास की शाश्वती ओली की आराधना भी उल्लास पूर्वक सम्पन्न हुई. आपकी निश्रा में साबरमती जैन संघ द्वारा नवनिर्मित तीन मंजिले उपाश्रय के नामकरण हेतु आदेश दिये गये. श्रावकों की विशाल सभा में खुब ही अनुमोदनीय चढावे हुए.. * पूज्यपाद राष्ट्रसन्त आचार्यश्री के सान्निध्य में दि.२१-११-९९ के दिन मोटेरा क्रिकेट स्टेडियम-साबरमती में जैन डॉक्टर्स फेडरेशन द्वारा आयोजित प्रथम वार्षिक संमेलन (JDCON'99) का कार्यक्रम आयोजित किया गया. इस विशाल संमेलन का बहुआयामी उद्देश्य सर्वजनोपयोगी होने के साथ-साथ जैन संघ के लिये बहुपयोगी रहा. इस अधिवेशन में निम्नलिखित मुद्दों पर चर्चा हुई. १. अहिंसा में श्रद्धा रखनेवाले को अहिंसक ट्रिटमेन्ट किस प्रकार मिल सके. इस हेतु क्रूरता से निर्मित अभक्ष्य दवाइयों का पता लगाकर विकल्प ढूंढने तथा प्रसारित करना. २. जैन संघ में परस्पर भातृ-भावना जागृत करना. ३. समाज में प्रदूषित व्यसनों को मिटाकर आहार और जैन धर्म वैज्ञानिक अभिगम प्रचारित करना. For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४. जैन आवश्यक क्रियाओं का वैज्ञानिक अभिगम तैयार करना. ५. अहिंसा, पर्यावरण और जैन धर्म के संदर्भ में तथ्यों को उजागर करना. ६. चतुर्विध संघ के अवसर पड़ने पर सुश्रुषा (भक्ति) हेतु आवश्यक infra structure बनाना. जिसके अन्तर्गत Blood Bank, Drug Bank और साधर्मिकों हेतु मेडीकल सेवाएं उपलब्ध हो सकें. ७. महाजन परंपरा के अनुरुप लोगों में सद्भाव बढे तदर्थ मेडीकल केम्प आदि का समय-समय पर आयोजन करना. ८. व्यक्तिगत संपर्क और साहित्य की मदद से वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करना. ९. साधु-साध्वी श्रावक श्राविकाओं के लिये खास रोगों हेतु रिसर्च एवं उपाय करने. १०.जैनों में धर्म के प्रति भावना वृद्धिगत हो उसमें जैन डॉक्टरों का योगदान व सामायिक, योग, ध्यान, प्रार्थना व प्रभुभक्ति आदि अभ्यन्तर उपायों की प्रेरणा देना इत्यादि. इस कार्यक्रम में जैन धर्म के जानेमाने विद्वान गुरु भगवन्तों, जैन समाज तथा डॉक्टरो आलम के • ख्यातनाम विद्वान आगेवानों एवं तत्त्वचिन्तकों द्वारा जैन धर्म और मेडीकल सायन्स के विषय में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से चर्चा की गई.. ___* प.पू. गुरुदेव आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. अपने शिष्य-प्रशिष्यवृन्द के साथ गोवा की ओर सुखशाता पूर्वक विहार कर रहें हैं. आगामी १८ फरवरी २००० के दिन मडगांव, गोवा में अंजनशलाका, प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न कराकर ८ मार्च को विहार कर रत्नागिरि, पूना आदि होते हुए चातुर्मास हेतु मोतीशा जैन श्वे. मू. संघ, भायखला, मुम्बई में दि. ९-७-२००० के शुभ दिन प्रवेश करेंगे. ___* अहमदाबाद के वाचकों को आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर, कोबा में उपलब्ध पुस्तकों के विषय में online सूचनायें पालडी स्थित पुस्तकालय में भी प्राप्त हो रही है. सभी पूज्य श्रमण-श्रमणियों एवं ज्ञानेच्छुकों का यहाँ पर स्वागत है. श्रुतसरिता (पुस्तक विक्रय केन्द्र) के उद्घाटन प्रसंग पर लिए गए अविस्मरणीय क्षणों की दुर्लभ झलकियाँ For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनि नि:स्पृह संत आचार्य श्री हीरसूरि का राजनीतिक अवदान मुनि विमल सागर धर्म और राजनीति संसार के दो ध्रुव हैं. जब भी ये मिलते हैं, एक-दूसरे पर हावी होने की चेष्टा करते हैं. मनुष्य के चित्त को राजनीति ही प्रभावित नहीं करती, धर्म भी गहराई से परिवर्तित करने की क्षमता रखता है. सामान्यतया यह देखा जाता है कि या तो राजनीति को धर्म मार्गदर्शित करता है अथवा धर्म में राजनीति पैठ जाती है, इतिहास साक्षी है कि जब भी धर्म ने राजनीति का पथप्रदर्शन किया तो कई क्रान्तिकारी व युगान्तरकारी परिवर्तन जगत ने देखे और मानवता को नई रोशनी मिली. किन्तु जब भी धर्म में राजनीति ने अपने वर्चस्व को दिखाने की कुचेष्टा की तब-तब न सिर्फ धर्म की अस्मिता खण्डित हुई बल्कि मानवता को कलंकित होना पड़ा और इतिहास में काला अध्याय लिखा गया. यह ध्रुव सत्य है कि धर्म में राजनीति का पैठना कभी कल्याणकारी नहीं होता, परन्तु मानव समाज के हित में यह भी उतना ही आवश्यक है कि धर्म राजनीति का मार्गदर्शन करे. भारत के इतिहास का यह उज्ज्वल पहलू है कि यहाँ समय-समय पर विभिन्न साधु-संतों और ऋषि-मुनियों ने धर्म के आधार पर राजनीति को नियंत्रित कर समाज को उपकृत किया. संसार के भोग-सुखों से अलिप्त उन धर्म-अधिनायकों के आत्मबल व साधना के समक्ष सत्ता व शासक नतमस्तक हुए और संसार में धर्म की सर्वोपरिता सिद्ध हुई. ___अखण्ड भारत के इतिहास में मुगलकाल धर्म में राजनीति के हस्तक्षेप का ही नहीं, बल्कि अतिक्रमण का अध्याय है. इस दौरान भारतीय धर्म और संस्कृति पर कई ज्यादतियां हुईं. रजवाड़ों में बिखरी यहाँ की शासनव्यवस्था मुगलों की सत्ता को सफल होने से रोक नहीं सकी. इस दौर में आज से ४७२ वर्ष पूर्व विक्रम संवत् १५८३ के मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी को गुजरात के पालनपुर नगर की धन्य धर्मधरा पर हीरजी के नाम से एक युगपुरूष ने जन्म लिया, जो आगे चलकर महान जैनाचार्य हीरविजयसूरि के नाम से जगद्विख्यात हुए. ___ पिता 'कुरां' और माता 'नाथीबाई' के इस स्वनामधन्य सपूत के बहुमुखी व्यक्तित्व की निर्मल आभा ने तत्कालीन समाज व राजनीति को नई दिशा दी. कभी-कभी एक व्यक्ति की प्रतिभा और साधना समग्र परिवेश को अलंकृत कर देती है. आचार्य हीरविजयसूरि के जीवनकाल से ऐसा ही फलित हुआ. अपनी तप-साधना, सांस्कृतिक निष्ठा, गहरे आत्मबल, अनेकान्तवादी उदार दृष्टिकोण और स्वाभाविक सज्जनता के आधार पर वे अपने युग के पर्याय के रूप में उभरे. उनका समय जैन धर्म व गुर्जर इतिहास में 'हीर युग' के नाम से स्थापित हुआ. ऐसे अनेक अवसर आए जब तत्कालीन राजनीति हीरसूरि के विराट व्यक्तित्व के समक्ष नगण्य बन गई. हीरविजयसूरि का उद्भव काल हिन्दू संस्कृति का संक्रमण कालं था. इस कालखण्ड में अखण्ड-भारत वर्ष और उसकी प्रजा ने कई उतार-चढ़ाव देखे. एक ओर दिल्ली की राजगद्दी पर मुगल बादशाह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर का शासन था तो शौर्यभूमि मेवाड़ में हिन्दू सूर्य महाराणा प्रताप अपने हक और धर्म की रक्षा के लिए सब-कुछ, न्योछावर कर रहे थे. उधर महाराव सुरताण सिरोही स्टेट के अधिपति थे. संयोग से हीरविजयसूरि इस त्रिकोणीय राजनीति के केन्द्रबिन्दु हो गए थे. अपने दरबार के रत्न सेठ थानमल की माता चंपाबाई के निरंतर १८० दिन के उपवास की तप-साधना से प्रभावित होकर अकबर ने ई.स. १५८२ के लगभग काबुल से लौटने के बाद गुजरात के शासक शहाबद्दीन अहमदखान के पास फरमान भेजकर आचार्य हीरविजयसरि को आगरा दरबार में। निमंत्रण दिया. आचार्य गुजरात के गंधार नगर से पैदल चलकर आगरा आए शहर से १९ कि.मी. दूर फतेहपुर-सीकरी में ६ लाख लोगों के साथ स्वयं मुगल बादशाह अकबर ने नंगे पाँव चलकर जब आचार्य का For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाही स्वागत किया तो राज्यशासन के समक्ष धर्मशासन की महत्ता सिद्ध हुई. बस, यहीं से एक ओर मुगल शासन की व्यवस्था में महत्वपूर्ण बदलाव की शुरूआत हुई तो दूसरी ओर हिंदू-संस्कृति की गरिमा और हीरविजयसूरि की यशःकीर्ति ने ऊँची छलाँग भरी. इतिहास साक्षी है कि बादशाह अकबर का सबसे अधिक सार्थक उपयोग हीरविजयसूरि ने किया. वे अहिंसा और शांति के भारतीय संस्कृति के दूत के रूप में वहाँ प्रस्तुत हुए. उनके प्रभाव व प्रतिबोध ने अकबर की हीन व हिंसक मानसिकता को चमत्कारिक ढंग से परिवर्तित किया. आचार्य के अनुरोध पर बादशाह ने जैन परंपरा के पर्युषण पर्व व वैदिक परंपरा के विभिन्न पर्व-त्योहारों के निमित्त प्रतिवर्ष कुल ६ माह पर्यन्त जीवहत्या पर रोक लगाई. स्वयं अकबर ने पर्युषण पर्व के दिनों में शिकार न करने की प्रतिज्ञा की. खम्भात की खाड़ी में मछलियों के शिकार पर भी प्रतिबंध लगाया गया. जैन व वैदिक परंपरा के सभी तीर्थों को कर मुक्त किया गया. प्रतिदिन ५०० चिड़ियों की जिह्वा का मांसभक्षण करने वाले इस शासक ने हीरविजयसूरि के परिचय के बाद फिर कभी ऐसा न करने का संकल्प लिया. उस काल में हिन्दू बने रहने के लिए दिया जाता 'जजिया' नामक कर आचार्यश्री के कहने से अकबर ने बंद कर दिया. यह गौरवपूर्ण तथ्य है कि आचार्यश्री के साथ वार्तालाप के पश्चात अकबर सर्वत्र गोरक्षा का प्रचार करने के लिए सहमत हो गया. इस प्रकार मुगल काल में पहली बार हिन्दू प्रजा को अपने आत्मसम्मान की अनुभूति हुई. आचार्य हीरविजयसूरि के मुगल बादशाह पर बढ़ते प्रभाव से कट्टरपंथी मुल्लाओं में हड़कंप मच गया था. जून ई.स. १५८४ में अकबर ने हीरविजयसूरि को 'जगद्गुरु' की उपाधि देकर उनका राज-सम्मान किया. ई.स. १५८२ से १५८६ तक आचार्यश्री ने फतेहपुर सीकरी व आगरा के आसपास ही विचरण कर शहेनशाह अकबर को बार-बार प्रतिबोधित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया. जैन परंपरा के ऐतिहासिक ग्रन्थ तो इन प्रसंगों का उल्लेख करते ही हैं, अकबर की सभा के उद्भट विद्वान अबुल फ़जल ने भी इन बातों का विस्तार से वर्णन किया है. उसके अनुसार अकबर को हीरविजयसूरि ने सर्वाधिक प्रभावित किया. विन्सेण्ट स्मिथ ने अपनी कृति अकबर में इन सारी बातों का प्रतिपादन किया है. आईने अकबरी नामक मुगलकालीन ऐतिहासिक ग्रन्थ भी उपरोक्त सारे तथ्यों की पुष्टि करता है. अकबर के इन अहिंसक कार्यों का उल्लेख अल बदाऊनी ने भी किए है. १५८५ ईस्वी में पुर्तगाली पादरी पिन्हेरो ने भी इनमें से अधिकांश बातों का समर्थन किया है. लोकश्रुति के अनुसार हीरविजयसूरि के जीवन-प्रसंगों के साथ बादशाह अकबर को प्रभावित कर देने वाली कई चमत्कारिक घटनाएं संबद्ध हैं पर उनका कोई प्रामाणिक आधार उपलब्ध नहीं है. ऐतिहासिक तौर पर यह उल्लेखनीय है कि एक वर्ष ईद के समय हीरविजयसूरि अकबर के पास ही थे. ईद से एक दिन पहले उन्होनें सम्राट् से कहा कि अब वे यहां नहीं ठहरेंगे, क्योंकि अगले दिन ईद के उपलक्ष्य में अनेक पशु मारे जायेंगे. उन्होंने कुरान की आयतों से सिद्ध कर दिखाया कि कुर्बानी का मांस और खून खुदा को नहीं पहुंचता, वह इस हिंसा से खुश नहीं होता, बल्कि परहेजगारी से खुश होता है. अन्य अनेक मुसलमान ग्रन्थों से भी उन्होंने बादशाह और उनके दरबारियों के समक्ष यह सिद्ध किया और बादशाह से घोषणा करा दी कि इस ईद पर किसी प्रकार का वध न किया जाय. प्राप्त उल्लेखों के अनुसार अपनी वृद्धावस्था में हीरविजयसूरि ने गुजरात लौटने से पहले धर्म-बोध देने के लिए प्रारंभ में अपने शिष्य उपाध्याय शांतिचन्द्रजी को तथा उनके पश्चात् उपाध्याय भानुचंद्रजी को अकबर के दरबार में छोड़ा था. अकबर ने अपने दो शाहजादों सलीम और दर्रेदानियाल की शिक्षा भानुचंद्रगणि के अधीन की थी. अब्बुल फ़जल को भी उपाध्याय भानुचन्द्रजी ने भारतीय दर्शन पढ़ाया था. इन तथ्यों के समर्थन में बहुत सामग्री उपलब्ध होती है. अकबर ने आगरा का अपना बहुमूल्य साहित्य-भण्डार हीरविजयसूरि को समर्पित कर दिया था. बाद में आगरा के जैन संघ ने उसे संभाला. मेवाड़ के गौरव ५ For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिन्दूसूर्य महाराणा प्रताप ने आचार्य हीरविजयसूरि के व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रभावित होकर उन्हें पत्र लिखा था और आगरा से लौटते वक्त मेवाड़ पधारने का अनुरोध किया था. मेवाड़ी भाषा में लिखे गए डेढ़ पष्ठ के पत्र के अन्त में प्रवानगी पचोली गोरो- समत १६३५ रा वर्षे आसोज सुद ५, गुरूवार आलेखित है. महाराणा के निवेदन पर हीरसूरि मेवाड़ की यात्रा पर आये थे. एक बार उन्होंने ससंघ खंभात से चित्तौड़गढ़ की यात्रा भी की थी. सिरोही स्टेट व उसके शासक महाराव सुरताण आचार्यश्री के विशेष प्रिय थे. १३ वर्ष की उम्र में ईस्वी सन् १५४० मे गुजरात के पाटण शहर में दीक्षित हुए हीरविजयजी को २७ वर्ष की युवावस्था में सन् १५५४ में सिरोही में ही आचार्य पद से विभूषित किया गया था. अपने गुरू के इस विशेष समारोह को सफल बनाने के लिए सिरोही दरबार ने कई प्रबंध किये थे. महाराव सुरताण हीरविजयसूरि को सिरोही का सुरक्षा-कवच मानते थे. सिरोही के साथ हुए दत्ताणी के ऐतिहासिक युद्ध में मुगलों का पराभव हुआ था तथापि हीरविजयसूरि के निर्देश पर अकबर ने अपने गुरू की इस विचरण-भूमि को शान्ति-क्षेत्र मानकर युद्ध, उत्पीड़न और प्रतिशोध से मुक्त कर दिया था. स्व-पराजय के दाह की उपेक्षा आचार्यश्री के प्रति अकबर के सम्मान की द्योतक है. युद्ध के बाद का शान्ति-काल सिरोही के लिए स्वर्णयुग सिद्ध हुआ. ६९ वर्ष की आयु में सन् १५९६ में गुजरात के 'ऊना' ग्राम में हीरविजयसूरि ने अन्तिम सांस ली. अकबर ने उनके अग्निसंस्कार हेतु १०० बीघा भूमि प्रदान कर संत की मिली सौभाग्यशाली सन्निधि को याद किया. व्यवहार-कुशल व मधुरभाषी आचार्यश्री को अपने जीवन में 'राजाओं के गुरू व लोकसंत' के रूप में अपार ख्याति मिली. उनका जीवन अनेक ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी रहा. राजाओं और राजनीतिज्ञों के सन्निकट रहते हुए भी वे राजनीति से सदैव अलिप्त रहे. श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परंपरा के सबसे बड़े समुदाय 'तपागच्छ' के आप अकेले आचार्य थे. हजारों साधु-साध्वियों का आपने नेतृत्व किया. (एक गच्छ में एक आचार्य की परंपरा आपके जाने के बाद 'तपागच्छ' में अटूट नहीं रह सकी.) आचार्य हीरविजयसूरि पर विभिन्न रूपों में अनेक ग्रन्थों की रचना भी हुई. उद्गार Excellent pioneer work. For the new millenium Jain Shasan has lot to offer and this institution will surely be a measure contributor. Ms. Rashmi & Kusum R. Shah, 1401,P.V. Est Calif- 90274 "... its computerization is verygood opportunity for the research scholars." Mr. S. C. Choudhary, C.G.M., Gujarat Telecom Amazing collection and excellent upkeep of everything. The heritage will be handed down for generations for which Jains and Indians will be extreemely proud of and indebted to Parama Pujya Gurubhagwant Padmasagarasuriji Saheb Mr. Samveg Lalbhai, Shalimar, Shahibaugh, Ahmedabad Remarkable collection and thought for making Jainism widely known and inspirational to many generations. Mr. Siddharth Dudhoria, Azimganj House, Calcutta 17. Precious Experience. Miss. Kazako Tsunematsu, Osaka, Japan For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रंथालय-सूचना के क्षेत्र में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर की अद्वितीय उपलब्धियाँ डॉ. बालाजी गणोरकर - राष्ट्रसंत आचार्यदेव श्रीपदमसागरसूरीश्वरजी म.सा. की प्रेरणा से स्थापित श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र में स्थित आचार्यश्री कैलाससागरसरि ज्ञानमंदिर वर्तमानकाल के एक विशिष्ट एवं विलक्षण जैन ज्ञानभंडार के रूप में ख्याति प्राप्त कर रहा है. इस ज्ञानभंडार में २,५०,००० से ज्यादा प्राचीन हस्तप्रतें सुरक्षित हैं. इनमें ३००० से ज्यादा ताडपत्रीय ग्रंथ हैं. छोटे-छोटे गाँवों में अस्त-व्यस्त पड़े और नष्टप्राय स्थिति को प्राप्त इस दुर्लभ संग्रह को प. पू. राष्ट्रसंत शासन-प्रभावक आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. ने अपने अब तक के ८०,००० किलोमीटर से ज्यादा लम्बे विहार के दौरान एकत्रित करवा कर भारत में ही सुरक्षित एवं संरक्षित करने का अनुपम प्रयास किया है, जो समुचित ध्यान न दिये जाने पर नष्ट होने अथवा विदेशों में स्थानान्तरित होने का भय था. साथ ही यहाँ ८५,००० से ज्यादा मुद्रित पुस्तकें भी हैं. आचार्य श्री कैलाससागरसरि ज्ञानमंदिर में एक सुन्दर व समृद्ध संग्रहालय भी है. जिसमें जैन एवं आर्य संस्कृति की बहुमूल्य निधिरूप प्राचीन प्रतिमायें, शिल्प, कला-हस्तकला से युक्त विविध वस्तुएँ एवं सचित्र हस्तप्रतें संगृहित की गईं हैं.. ज्ञानमन्दिर के इस विशिष्ट रूप से संगृहित जैन धर्म एवं भारतीय संस्कृति के इतने विशालकाय सुन्दर संग्रह का व्यवस्थापन वस्तुतः एक बहुत बड़ी चुनौती है. लेकिन कम्प्यूटर की सहायता से इस कार्य को बहुत ही आसान बना दिया गया है. यह उल्लेखनीय है कि इन सभी ग्रंथों की सूक्ष्मतम जानकारी खास विकसित की गई सूचीकरण प्रणाली के द्वारा सर्वप्रथम बार कम्प्यूटर में भरी जा रही है. जैन साहित्य एवं साहित्यकार कोश के अन्तर्गत शक्य सभी जैन ग्रंथों एवं उनमें अन्तर्निहित कृतियों का कम्प्यूटराइजेशन यहाँ का एक बहुत बड़ा महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है. इस कार्य को १९ कम्प्यूटरों के उपयोग से नौ पंडितों (जो कम्प्यूटर के उपयोग के लिये विशेष रूप से प्रशिक्षित किए गए हैं) एवं अन्य अनेक सह कर्मचारियों के सहयोग से किया जा रहा है. इस ग्रंथालय की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ पर ग्रंथों की सचना पद्धति कि जो अन्य सभी ग्रंथालयों में द्विस्तरीय पद्धति (यह प्रकाशन एवं पुस्तक इन दो पर ही आधारित होती है) के स्थान पर त्रिस्तरीय सूचना पद्धति (कृति, प्रकाशन एवं पुस्तक इन तीन भागों में विभक्त कर) बहुआयामी दिशाओं में विकसित की गई है. ग्रंथालय सूचना पद्धति में कृति की यह विभावना अपने-आपमें अनूठी एवं बहूपयोगी सिद्ध हुई है. कम्प्यूटर की सहायता से हम किसी भी पुस्तक का प्रकाशन नाम, संपादक, संशेधक, ग्रंथमाला ब्लिकेशन सीरिज), प्रकाशक, प्रकाशन स्थल, प्रकाशन वर्ष आदि मुद्दों के आधार पर कुछ ही क्षणों में ना प्राप्त कर सकते हैं जो रजिस्टरों अथवा कार्डों द्वारा प्राप्त नहीं हो सकती. इसकी अनुपम विशिष्टता यह है कि उपर्युक्त मुद्दों/मदों के अन्तर्गत आने वाले प्रारम्भिक अक्षरों पर कम्प्यूटर अनुक्रमणिका तैयार करता ही है साथ ही इन नामों के प्रारम्भिक अक्षर ज्ञात न होने पर भी नाम में कहीं भी आने वाले अक्षरों के छोटे से छोटे समूह (कम से कम दो अक्षर) की जानकारी होने पर पुरा ना जानकारी के साथ स्क्रीन पर प्रदर्शित हो जाता है. जैसे : १. किसी वाचक को प्रकाशन नाम के अन्तर्गत दीक्षा शब्द ही याद है तो ऐसी स्थिति में एक विशेष प्रोग्राम के अन्तर्गत क्वेरी रन करने पर किसी भी प्रकाशन या कृति नाम में कहीं भी दीक्षा शब्द आया हो तो उनकी सम्पूर्ण सूची विस्तृत सूचनाओं के साथ उपलब्ध हो जाती है. सम्पू For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २. इसी प्रकार एक उदाहरण रूप में कल्पसूत्र की प्रदीपिका टीका की आवयकता है. इसे उपलब्ध करना किसी के लिए बहुत बड़ी समस्या हो सकती है किन्तु यहाँ पर प्रदीपिका टीका की खोज करने पर स्वतः इस कृति का मूल व संलग्न प्रकाशन नाम या हस्तप्रत का नाम एवं अन्य सूचनायें पलक झपकते मिल सकती है. ३. सभी नामों के शक्य एकाधिक अपर नाम प्रविष्ट किये गये हैं जिसके परिणामस्वरूप जिस वाचक को जो भी नाम स्मरण हो वाञ्छित सूचनायें प्राप्त की जा सकती है. जैसे बारसासूत्र, कप्पसूत्त या कल्पसूत्र कोई भी कम्प्यूटर पर देने पर वाञ्छित सूचनायें प्राप्त की जा सकती है. ४. किसी भी प्रकाशक विशेष द्वारा प्रकशित एवं निश्चित विद्वान द्वारा संपादित कृति विशेष की शोध करनी हो तो संलग्न प्रकाशन एवं विस्तृत सूचनायें सरलता से प्राप्त की जा सकती है ५. किसी प्रकाशक द्वारा प्रकाशित सभी प्रकाशनों की सूचना प्राप्त की जा सकती है. जैसे किसी को देवचंद्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड से प्रकाशित पुस्तकों की सूची चाहिए तो सभी संलग्न सूचनाओं के साथ स्क्रीन पर उपलब्ध होने के साथ ही इसकी प्रिन्ट भी तुरन्त मिल सकती है. ६. इसी प्रकार किसी ग्रंथमाला से संलग्न सभी प्रकाशनों की जानकारी उपलब्ध हो सकती है. उदाहरण के लिए किसी को यदि आत्मानन्द जैन ग्रंथ माला का प्रकाशन चाहिए और कोई एक प्रकाशन नाम उसे स्मरण नहीं है तब ग्रंथमाला से संलग्न प्रकाशनों की सूची देखकर तुरन्त वाञ्छित प्रकाशन की शोध की जा सकती है. ७. किसी एक कृति का पूरा परिवार अर्थात् मूल कृति पर पुत्र-पौत्र-प्रपौत्रादि के स्तर पर रहे हुए टीका, विवरण, अनुवाद, सारांश, अध्ययन आदि के विषय में विस्तृत सूचना तथा इन सभी कृतियों से संलग्न प्रकाशनों तथा अन्य सूचनाओं की जानकारी प्राप्त की जा सकती है. उदाहरण के लिए आवश्यकसूत्र का हिस्सा प्रथम अध्ययन, इसकी नियुक्ति, नियुक्ति का भाष्य, भाष्य का हिस्सा गणधरवाद, गणधरवाद का (सं.) विवेचन, विवेचन का (हिन्दी) अनुवाद. एक दूसरे उदाहरण में कल्पसूत्र (मूल), इसकी सुबोधिका टीका, सुबोधिका टीका की वृत्ति, वृति का (गु.) अनुवाद, (गु.) अनुवाद का (हिन्दी) अनुवाद या मूल तथा टीका का (अं.) विवेचन. इन दोनो उदाहरणों में मूल कृति के सम्पूर्ण परिवार की विस्तृत सूचनायें यथा- एकाधिक अपर नाम, एकाधिक आदिवाक्य, परिमाण, भाषा, अध्याय, एकाधिक कर्ता, रचना वर्ष, रचना स्थल तथा इन सभी कृतियों के प्रकाशन नाम, प्रकाशक, वर्ष, पृष्ठ, संपादकादि एवं पुस्तक संख्या आदि का विवरण प्राप्त हो जाता है. ८. कर्ता एवं संपादक से सम्बद्ध कृतियों एवं प्रकाशनों की जानकारी प्राप्त हो सकती है. जैसे सम्पादक के रूप में प. पू. मुनिराज श्री जम्बूविजयजी तथा प्रकाशक के रूप में महावीर जैन विद्यालय, मुम्बई का प्रकाशन या कृति खोजनी हो इतनी जानकारी सरलता से प्राप्त हो सकती है. इस उदाहरण में श्री जम्बूविजयजी के सारे प्रकाशन या श्री महावीर जैन विद्यालय की पूरी सूची देखने की आवश्कता नहीं रहेगी. ऐसी स्थिति में श्री जम्बूविजयजी की मात्र श्री महावीर जैन विद्यालय से प्रकाशित कृति या प्रकाशन मिलेंगे अन्य नहीं. इससे श्रम एवं समय की पर्याप्त बचत होगी. ९. लायब्रेरी प्रोग्राम में एक और क्रान्तिकारी सुविधा उपलब्ध की गई है जिसके अन्तर्गत प्रत्येक प्रकाशन की कृति से स्वतंत्र उसकी स्वयं की लाक्षणिकताओं के सूचक लगभग १०० शब्दों/संकेतों का संकलन किया गया है. प्रत्येक प्रकाशन को वाचक की उपयोगिता एवं आवयकता तथा प्रकाशन के स्वरूप, सामग्री, माध्यम, कलेवर आदि को दृष्टिगत रखते हुए लाक्षणिकतासूचक शब्दों के साथ संयोजित किया जा रहा है. लाक्षणिकता की सूची में अभिनन्दन ग्रंथ, स्मृति ग्रंथ, स्मारिका, पद संग्रह, सुभाषित संग्रह, शोध ग्रंथ. For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षित ग्रंथ पाठ, स्वाध्याय पोथी, चित्र कथा, चित्र सम्पुट, स्तवन संग्रह, पत्र संग्रह, लेख संग्रह, शिलाछाप, मोटे अक्षर, एक ही ओर छपा, मोटा कागज इत्यादि शब्द हैं. इन शब्दों पर से संलग्न प्रकाशन सरलता से खोजा जा सकता है. जैसे किसी को स्तुति संग्रह से सम्बन्धित प्रकाशन देखने हो और प्रकाशन का नाम ज्ञात नहीं है, वैसी स्थिति में भी स्तुति संग्रह शब्द से सम्बन्धित प्रकाशनों को देखने पर सहजता से जानकारी प्राप्त की जा सकती है. १०. पुस्तकों की शोध में समय की बचत के लिए वाचकों की १२ श्रेणियाँ की गई है. जैसे बालक, जिज्ञासु, महिला, विद्यार्थी सामान्य, विद्यार्थी माध्यमिक, विद्यार्थी उच्चतर, संशोधक आदि, इन श्रेणियों को प्रत्येक प्रकाशन के संलग्न करने का कार्य चल रहा है. इस पद्धति के अन्तर्गत यदि बालक हेतु पुस्तकों की खोज करनी है तो मात्र बालक वाले प्रकाशनों को शीघ्रता से प्रस्तुत किया जा सकता है. बालक को चित्रकथा वाले प्रकाशन चाहिए तो इनकी सूची तत्काल प्राप्त की जा सकती है. इनसे वाचकों को सन्दर्भ सेवा में पहले से ज्यादा तीव्र गति आई है तथा ऐसे प्रकाशन जिन्हें सम्भवतः उनके नाम से खोजना असम्भव हो उन्हें भी औसत सामान्य लाक्षणिकता के आधार पर आसानी से खोजा जा सकता है. ११. कृतिनाम, कृति स्वरूप (मूल, टीका, अनुवादादि), कर्ता, टीकाकार, अनुवादक, कृति के आदिवाक्य, अध्याय नाम आदि के आधार पर सम्बन्धित कृति तथा प्रकाशन की सूचना अविलम्ब प्राप्त की जा सकती है. १२. कर्त्ता की गुरु परम्परा की सूचना एकत्रित करनी भी इस प्रोजेक्ट का एक विशेष भाग है. इसके अन्तर्गत विद्वान के एकाधिक अपर नाम, गुरु परम्परा, गच्छ, शिष्य-परम्परा, समय, इतिहास, उनके द्वारा निर्मित कृतियाँ, लिखित हस्तप्रतें या संपादित/संशोधित प्रकाशन आदि के विषय में विस्तार से जानकारी एकत्र की जा सकती है. जैसे यदि किसी वाचक को श्री विजयहीरसूरि का इतिहास जानना हो तो उनकी समस्त कृतियों, प्रतिलेखनों, गुरु परम्परा एवं आज तक उनकी परम्परा में हुए शिष्यों का विवरण प्राप्त किया जा सकता है. १३. कभी-कभी एक पुस्तक में कई परस्पर असम्बद्ध एवं स्वतंत्र कृतियाँ भी प्रकाशित होती है. इनके विषय में परम्परागत केटलॉगिंग अथवा रजिस्टर द्वारा बहुत कम ही ज्ञात हो पाता है किन्तु यहाँ पर इस प्रकार की रचनाओं को पेटा अंक (पेटांक, Peta card/Sub-card no.) दिये जाते हैं. इससे इनके नाम, कर्ता, टीकाकार, अनुवादकादि तथा आदिवाक्य इत्यादि के आधार पर कम्प्यूटर इन्हें खोज लेता है कि ऐसी कृति किस प्रकाशन में किस पृष्ठ पर प्रकाशित हुई है. जैसे किसी वाचक को उपाध्याय यशोविजयजी की स्तुति चाहिए तो वह सम्भवतः स्वतंत्र प्रकाशन के रूप में कहीं नहीं मिल सकती किन्तु आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर की कम्प्यूटरीकृत सूचना-पद्धति द्वारा तुरन्त प्राप्त की जा सकती है और आपको आश्चर्य होगा कि यह ९ लोकों की कृति भद्रंकर साहित्य संदोह नामक प्रकाशन के पृष्ठ संख्या २३६-२३७ पर छपी है तथा इसके रचयिता आचार्य श्री भद्रंकरसूरि हैं तथा आदिवाक्य- वंदे यशोविजयवाचकवर्य धुर्यं.. है, इत्यादि अनेकानेक सूचनायें उपलब्ध हो सकती है. इस प्रकार एक-एक प्रकाशन में सामान्यतः एकाधिक (अर्थात् २ से १००० से भी ज्यादा कभी-कभी) कृतियाँ होती हैं. १४. प्रत्येक कृति की विषयवस्तु की पहचान कर विषय कोडिंग का भगीरथ कार्य भी प्रारम्भ किया गया है. विषय कोडिंग के अन्तर्गत वाचक को उदाहरण के लिए यदि महावीर स्वामी के अतिशयों से सम्बन्धित कृतियों की जानकारी चाहिए तो ऐसी सभी कृतियों की सूची संलग्न अध्यायों की सूचना के साथ मिल सकती है. इस अद्भुत कार्य में पर्याप्त समय तथा अधिकारी विद्वानों का श्रम अपेक्षित है. निस्सन्देह यह कार्य बहुत उपयोगी सिद्ध होगा किन्तु पर्याप्त धन के अभाव में इसे सम्पन्न करना असम्भव है. For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १५. कृति की सूचनाओं के साथ ही प्राचीन हस्तलिखित प्रत के लेखक, लेखनस्थल, लेखनवर्ष, उसकी शुद्धता, हस्तप्रत की दशा आदि एवं अन्य ढेर सारी लाक्षणिकताओं के आधार पर विद्वान योग्य हस्तप्रत का संशोधन आदि के कार्य हेतु शीघ्रता व सुगमता से चयन कर सकते हैं. यथा- किसी विद्वान को विक्रम संवत् १५०० के पहले की लिखित भगवतीसूत्र की चूर्णि की हस्तप्रत चाहिए जो कि संशोधित हो व टिप्पणियों से युक्त हो एवं उसकी दशा जीर्ण न हो तो उन्हें इस तरह की इच्छित हस्प्रतों की सूची मिल सकती है. चाहे वह किसी भी ज्ञानभण्डार / ग्रंथालय में क्यों न हो. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६. यह तो एक झलक मात्र है. इनके अलावा भी अन्य अनेकानेक तरीकों से बहुविध सूचनाएँ आसानी से प्राप्त की जा सकती है. साथ ही और भी अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराने के प्रयास किए जा रहें हैं जैसे कि किसी वर्ष में प्रकाशित किसी सामयिक / Periodical की सूचना या उसमें प्रकाशित / समीक्षित किसी कृति की सूचना आदि. अभी तक लगभग ५४,९०२ हस्तलिखित ग्रंथों की प्रविष्टि कम्प्यूटर पर हो चुकी है तथा ३८,२०५ प्रतों के साथ ७२,८०० कृतियों की सूचना कम्प्यूटर पर उपलब्ध की जा चुकी है. इसी प्रकार ८६,००० पुस्तकों की सूचनायें कम्प्यूटर पर एन्ट्री की जा चुकी है. इनके व्यवस्थापन एवं रखरखाव के लिए उपयोगितानुसार २५ विभाग बनाये गये हैं. सभी हस्तलिखित ग्रंथों एवं मुद्रित पुस्तकों की सुरक्षा के लिए उनके फ्यूमिगेशन करने की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है. जिससे कीटादि तथा वातावरणजन्य दोष से इस बहुमूल्य निधि की रक्षा हो सके. ग्रंथ संग्रहण एवं संशोधनयुक्त इस विशालकाय जटिल कम्प्यूटरीकरण के कार्य को आगे चल कर बृहत् जैन साहित्य एवं साहित्यकार कोश के रूप में विकसित करने की योजना है. इसी के तहत जैसलमेर, पाटण, खंभात एवं लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर - अहमदाबाद, भाण्डारकर प्राच्यविद्या मन्दिर-पूना आदि के ताड़पत्रीय व अन्य विशिष्ट ग्रंथों की विस्तृत सूची कम्प्यूटर पर ली जा चुकी है (हमारे लिये गौरव का विषय है कि जैसलमेर भंडार संबंधी यहाँ उपलब्ध सूचनाओं का उपयोग पूज्य मुनिराज श्री जंबूविजयजी ने भी जैसलमेर भंडार को व्यवस्थित करते समय एवं स्केनिंग के कार्य के समय किया था. ) एवं अन्य विशिष्ट भंडारों की सूची भी कम्प्यूटर पर लेने का कार्य क्रमशः जारी है. साथ ही अनेक भंडारों के विशिष्ट ग्रंथों की माइक्रो-फिल्म एवं जेरॉक्स नकलें भी यहाँ पर एकत्र की गई हैं. इस कार्य के पूरा होते ही प्रायः समग्र उपलब्ध जैन साहित्य एवं साहित्यकारों की सूचनाएँ एक ही जगह से उपलब्ध हो सकेगी. वैसे आज भी जैन साहित्य एवं साहित्यकारों के विषय में इस संस्था में जितनी सूचनाएँ उपलब्ध हैं वे अन्यत्र कहीं भी नहीं है. चूँकि यह ज्ञानमंदिर जैनों की नगरी अहमदाबाद के एकदम समीप स्थित हैं अतः पूज्य साधु-साध्वीजी म. सा., विद्वद्वर्ग एवं सामान्य श्रद्धालुजन भी इन सूचनाओं का महत्तम मात्रा में उपयोग कर रहें है. भारत के सुदूर क्षेत्रों के साथ ही विदेशों से भी विद्वानों एवं संशोधकों का यहाँ तांता लगा रहता है. साथ ही यह प्रयास भी किया जा रहा है कि और भी ज्यादा लोग यहाँ की सूचनाओं / सुविधाओं का उपयोग करें. विदेशी भारतीयों हेतु महत्वपूर्ण उपलब्ध सूचनाओं का संकलन कर इन्टरनेट पर रखने की भी योजना है. अपनी इस प्राचीन धरोहर को सुसंरक्षित करने का यह कार्य अत्यंत ही श्रमसाध्य है एवं इस कार्य के वर्षों तक जारी रहने की संभावना है. उदाहरण के लिए अस्त-व्यस्त हो चुके बिखरे पन्नों वाले ग्रंथों के पत्रों का परस्पर मिलान कर के उन्हें पुनः इकट्ठा करने का प्राथमिक कार्य ही पंडितो का बहुत सा समय एवं श्रम मांग लेता है. इसके बाद संशुद्ध रूप से सूचीकरण हेतु हस्तप्रत प्रोजेक्ट से संबद्ध लगभग आठ विविध प्रक्रियाएँ होती है. इतने विशाल पैमाने पर इस तरह का बहूपयोगी कार्य सर्वप्रथम बार ही हो रहा है. यह कार्य ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता जाएगा, त्यों-त्यों जैन साहित्य के संशोधन एवं अभ्यास के क्षेत्र में एक नए युग का उदय होता जाएगा. १० For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पृष्ठ १६ का शेष ] भरुच से प्राप्त जिन धातु प्रतिमाएँ दूसरी छोर पर देवी अंबिका है. पीठिका के दोनों छोर पर निकले स्तंभ पर चामरधारियों के अंकन हैं. पीठिका के ऊपर मध्य में धर्मचक्र एवं हिरन के अंकन है जो घिस चुके हैं एवं एक छोर पर चार और दूसरी छोर पर पाँच ग्रहों को अंकित किया गया हैं. तीर्थंकर के ऊपर त्रिछत्र, दोनों ओर आकाशचारी मालाधर एवं स्तूपी के दोनों ओर अशोक पत्र व परिकर को अलंकृत करने हेतु रेखांकन आदि किया गया है. प्रतिमा के पीछे अग्रलिखित लेख अंकित है सं. ११४३ वरदेव वराईक सुत का. प्र. नाप (से.मी.) ऊँचाई १६.५ लंबाई ११.५ चौड़ाई ५.५ २. तीर्थंकर पार्श्वनाथ पंचतीर्थी प्रतिमा प्रायः वि. सं. १०-११वीं शताब्दी (परिग्रहण क्र. ७४) मुख्य तीर्थंकर के रूप में पार्श्वनाथ मध्य में पद्मासनस्थ मुद्रा में बिराजमान हैं. दोनों ओर कायोत्सर्ग मुद्रा में दो तीर्थंकर पीठिका से निकले कमलासन पर खड़े हैं. ऊपर छत्रांकन है, और इस के ऊपर पद्मासनस्थ दो तीर्थंकर के अंकन हैं. मुख्य त्रिछत्र के दोनों ओर मालाधर के अंकन हैं. तीर्थंकर के सिंहासन के नीचे प्रथम की तरह दो नाग चक्र के बीच कुंभ जैसा अंकन लग रहा है. पीठिका के मध्य में दांडीयुक्त धर्मचक्र व हिरनों के अंकन है. दोनों ओर एक तरफ चार व दूसरी ओर पाँच कुल नवग्रहों के अंकन है. पीठिका के दोनों छोर से निकले कमलासन पर एक ओर सर्वानुभूति और दूसरी ओर शिशु युक्त देवी अंबिका वीरासन में स्थित है. प्रतिमा पर पूजाविधि होने के कारण अंकनों के मुख आदि भाग नष्ट हो चुके हैं. प्रतिमा के पीछे मात्र विहिल अंकित किया गया है. नाप (से.मी.) ऊँचाई - १५ लंबाई - ११.५ चौड़ाई - १४ ३. पार्श्वनाथ त्रितीर्थी प्रतिमा विक्रम संवत ११७८ (परिग्रहण क्र. ११) अष्ट प्रतिहार युक्त तीर्थंकर पार्श्वनाथ के सिंहासन में दो चक्र के अंकन हैं. जिनमें से प्रतिमा के दाईं ओर का चक्र खंडित है. मुख्य तीर्थंकर के दोनों ओर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े दो तीर्थंकर के अंकन हैं. पीठिका के दोनों छोर से निकले कमलासन पर चामरधारी के अंकन है. नीचे सिंहासन के दोनों ओर सर्वानुभूति यक्ष एवं यक्षी अंबिका के अंकन है. पीठिका के मध्य में धर्मचक्र व नवग्रह एवं दोनों छोर पर श्रावक-श्राविका के अंकन है. परिकर के अर्ध गोलाकार भाग में ताँबे की दो परतों के बीच चाँदी की परत, नाग छत्र के भीतर चाँदी की परत, कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े तीर्थंकर की कमर पर, चामरधारी की कमर पर एवं तीर्थंकर की गादी व सिंहासन के ऊपरी छोर पर चाँदी - ताँबे की परत जड़ी हुई है. प्रतिमा के पीछे अग्रलिखित लेख है. ९० संवत ११७८ पोस वदी ११ शुक्रे श्री हाईकपुरीय गच्छे श्री गुणसेनाचार्च संताने सवणी ट्ठलट्ठमे ठ. जगणोग सुतनवीलेन भा. जयदेवि समन्वितेन देव श्री पार्श्वनाथ प्रतिमा उभय श्रेयार्थे कारिता प्र. - टिप्पणी : हाईकपुरीय गच्छ के नाप (से.मी.) ऊँचाई - २३.५ ४. पार्श्वनाथ एकतीर्थी प्रतिमा लेख अत्यल्प मात्रा में मिले हैं. लंबाई- १७.५ चौड़ाई - ९.५ विक्रम संवत १२१५ (परिग्रहण क्र. ३४) अष्टप्रतिहार्य सहित तीर्थंकर पार्श्वनाथ की गद्दी के नीचे उनके लांछन चिह्न के रूप में सर्प का रेखांकन है. दोनों ओर सिंहाकृति, सिंहासन के दोनों छोर पर यक्ष-यक्षी, पीठिका के मध्य में धर्मचक्र, हिरन, नवग्रह व दोनों छोर पर श्रावक-श्राविका के अंकन किए गए है. परीकर के ऊपरी भाग में स्तूपी किंवा कलश के दोनों ओर अशोकपत्र का अंकन किया गया हैं. प्रतिमा के पीछे निम्मांकित लेख है ११ For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सं. १२१५ वैशाख स १२ श्री थारागच्छे हीमकस्थाने जसधर पत्र जसधवलेन जसदेवी श्रेयसे कारिता. थारागच्छ के कुछ लेख पहले प्राप्त हो चुके हैं शायद इससे थाराप्रद-गच्छ अभिप्रेत हो. नाप (से.मी.) ऊँचाई - १८ लंबाई - ११ चौड़ाई - ७ ५. तीर्थंकर शांतिनाथ - एकतीर्थी प्रतिमा - विक्रम संवत १२१८ (परिग्रहण क्र. १४) . पद्मासनस्थ मुद्रा में विराजित तीर्थंकर के सिंहासन के मध्य में उनका लांछन हिरण का रेखांकन प्रायः नष्ट हो चुका है. दोनों ओर सिंहाकृति, यक्ष-यक्षिणी, तीर्थंकर के दोनों ओर चामरधारी, सिर के दोनों ओर उड्डुयमान मालाधर एवं पीछे अलंकृत प्रभामंडल का रेखांकन, त्रिछत्र के दोनों ओर नृत्यमुद्रा में गांधर्व, पीठिका के दोनों छोर पर आराधक रूप में श्रावक-श्राविका, मध्य में धर्मचक्र, हिरन व नवग्रह और परिकर के ऊपरी भाग में स्तूपी के दोनों ओर अशोकपत्र के अंकन किए गए हैं. अर्धगोलाकार परिकर में, तीर्थंकर की आँखों में, श्रीवत्स व गद्दी के मध्य भाग में चाँदी की परत जड़ित है. प्रतिमा के पीछे लेख इस प्रकार है सं. १२१८ वैशाख वदि ५ शनौ श्री भावदेवाचार्य गच्छे जसधवल पुत्रि कया सह जिया स्वात्म श्रेयार्थे श्री शांतिजिन कारितं. मध्ययुग में भावदेवाचार्य का एक प्रसिद्ध चैत्यवासी गच्छ था जो कभी कभी भावडाचार्य गच्छ के नाम से भी पहचाना जाता था. इस गच्छ के अनेक प्रतिमा लेख प्राप्त हो चुके हैं. नाप (से.मी.) ऊंचाई -२२ लंबाई - १३५ चौडाई - ८ ६. तीर्थंकर पार्श्वनाथ की एकतीर्थी प्रतिमा - विक्रम संवत १२२५ (परिग्रहण क्र. २५९) अंग रचना युक्त तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा में सिंहासन के मध्य में सर्प लांछन का रेखांकन है. लांछन के दोनों ओर की सिंहाकृति खंडित हो चुकी है. नागफणा विस्तृत है. फणों के दोनों ओर खेचर मालाधर एवं नृत्य करते हुए गांधर्व, तीर्थंकर के दोनों ओर चामरधारी, जिनमें से प्रतिमा के बाई ओर के चामरधारी घुटने से नीचे तक खंडित है. सिंहासन के दोनों ओर यक्ष-यक्षिणी, धर्मचक्र, नवग्रह आदि के अंकन पूर्वोक्त प्रतिमाओं की तरह ही है. प्रतिमा के पीछे अग्रलिखित लेख है ९० संवत् १२२५ ज्येष्ठ सुदि ८ ग्रे(गु). अंपिग(ण) पल्या रूपिणीकया लखमण पाल्हण देल्हण सगेतया पार्श्वनाथ बिंब कारितं श्री परमानंद. श्री परमानंद से यहाँ प्रतिष्ठितं श्री परमानंद सूरि ऐसा विवक्षित हो. इस नाम के सूरि के काल के लेख पूर्व में भी मिले है. नाप (से.मी.) ऊँचाई - २३.५ लंबाई - १५ चौड़ाई - ९ ७. महावीरस्वामी की एकतीर्थी प्रतिमा - विक्रम संवत १२३४ (परिग्रहण क्र. १३) अन्य प्रतिमाओं की तरह यह प्रतिमा भी अष्ट प्रतिहार युक्त है. तीर्थंकर गद्दी के नीचे मध्य में वीरासन मुद्रा में शांतिदेवी का अंकन पश्चिम भारतीय शैली की विशेषता है जो अन्यत्र देखने में नहीं आती है. जिनपीठिका पर मध्य में धर्मचक्र एवं हिरनों का स्पष्ट अंकन, दोनों छोर पर गोलाकार आधार पर वीरासन एवं आराधक की मुद्रा में श्रावक-श्राविका अंकित किए गए है. १ सं. १२३४ मार्ग सुदि १५ शुक्रे ऊोह कालिज(जे) श्री महावीर प्रत्यामा कारापिता गुणदेव्या आत्मश्रेयार्थ प्रतिष्ठित श्री चंद्रप्रभाचार्येः ।। नाप (से.मी.) ऊँचाई - २१ लंबाई - १४.५ चौड़ाई - ९.५ ८. जिन प्रतिमा - एकतीर्थी - विक्रम संवत १२३९ (परिग्रहण क्र. २२) For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अष्ट प्रतिहार युक्त इस प्रतिमा की पहचान संभव नहीं है क्योंकि पूजाविधि से प्रतिमा की ऊपरी परत एवं लांछन नष्टप्राय है पर यह प्रतिमा तीर्थंकर मल्लिनाथ की होने की संभावना है क्योंकि लेख में श्री मल अस्पष्ट रूप से वाच्य है. अन्य प्रतिमाओं की तरह ही इस प्रतिमा में चामरधारी, यक्ष-यक्षिणी, धर्मचक्र एवं नवग्रह, श्रावक-श्राविका आदि शोभायमान हैं. संवत १२३९ कार्तिक सुदि १ भ्रातृ रंरालेन_. सर्वदेवसूरिभिः नाप (से.मी.) ऊँचाई १८ लंबाई- १३.५ चौड़ाई - ८ ९. तीर्थंकर पार्श्वनाथ की एकतीर्थी प्रतिमा - विक्रम संवत १२ - - www.kobatirth.org ( परिग्रहण क्र. २०) तीर्थंकर पार्श्वनाथ की इस प्रतिमा में भी प्रथम की तरह प्रतिमा की ऊपरी परत एवं लेख नष्टप्राय है. सिर्फ़ संवत १२२३ वर्षे इतना ही वाच्य है बाकी हिस्सा वाच्य नहीं है. नाप (से.मी.) ऊँचाई २० लंबाई १३ चौड़ाई - ७.५ - १०. तीर्थंकर पार्श्वनाथ त्रितीर्थी प्रतिमा संवत १३०१ (१३१०) (परिग्रहण क्र. ६६ ) - मध्य में तीर्थंकर पार्श्वनाथ, ऊपर सप्त नागफणा, शरीर के बाक़ी हिस्से का रेखांकन तीर्थंकर की पीठिका तक किया गया हैं. दोनों ओर चामरधारी, यक्ष-यक्षिणी, सिंहासन के मध्य भाग में सर्प लांछन का स्पष्ट रेखांकन, पीठिका पर धर्मचक्र, नवग्रह एवं आराधक स्त्री-पुरूष आदि अष्टप्रतिहार्यों के अंकनों के साथ ही परिकर को भी अलंकृत किया गया है. इस प्रतिमा पर निम्नलिखित लेख अंकित है ९० ।। संवत १३१ वर्षे फागुण वदि ५ स (श) नौ श्री प्रागवाटत्वये (प्राग्वाटान्वये) पो. तिहुणपाल पालक ( त्र, त्व) तूतये श्रेयसे प्रा. क्षीमसीहेन भा._ यकया सहितेन श्री पार्श्वनाथ प्रतिमा कारिता प्र. श्री यशोदेवसूरिभि. नाप (से.मी.) ऊँचाई १७.५ लंबाई- ११.५ चौड़ाई - ७.५ ११. आदिनाथ एकतीर्थी प्रतिमा विक्रम संवत १३२७ (परिग्रहण क्र. ३८ ) विशिष्ट प्रकार के परिकर युक्त तीर्थंकर आदिनाथ की यह प्रतिमा अष्ट प्रतिहार्य युक्त है. प्रतिमा में नज़र आ रही लालिमा ताँबे के अधिकतर प्रयोग से है. द्विपीठिका युक्त इस प्रतिमा की प्रथम पीठिका पर यक्ष-यक्षिणी, धर्मचक्र एवं नवग्रह के अंकन हैं और द्वितीय पीठिका के दोनों छोर पर श्रावक-श्राविका के अंकन है. इस प्रतिमा पर निम्नलिखित लेख पढ़ा जा सकता है - मातृ प्रियम श्री मल_ - - - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - (सा) त् कुवार भार्या ठ. जयतू परमानंद सूरिभिः ||ठ|| कारिता प्रतिष्ठता श्री ९ सं. १३२७ माह सुदि ५ श्रीमाल ज्ञातिय शांतान्वये भांडा राजा सुत भांडा. नाग (गे) न्द्र भायाँ व ( ब ) उलदेवि तयोः सुत राणाकेन पित्रोः श्रेयार्थे श्री आदिनाथ बिंब कारितं प्रतिष्ठितं भावडार गच्छे श्री भावदेवसूरिभिः ठ ।। - यह गच्छ ऊपर कथित भावदेवाचार्य गच्छ का ही नामांतर है. नाप ( से.मी.) ऊँचाई १६.५ लंबाई १२ चौड़ाई - ६.५ १२. चंद्रप्रभस्वामी की एकतीर्थी प्रतिमा विक्रम संवत १३२६ (परिग्रहण क्र. ३५ ) अष्टप्रतिहार्य समेत इस प्रतिमा में भी अन्य प्रतिमाओं की तरह चामरधारी, धर्मचक्र, नवग्रह, यक्ष-यक्षिणी आदि अंकित हैं. प्रतिमा पर लेख इस प्रकार है- ९० ।। संवत १३२६ वर्षे माघ वदि २ रवौ मोढ ज्ञातिय श्रेयार्थे ठ आहडेन श्री चंद्रप्रभबिंब कारितं प्रतिष्ठितं श्री १३ For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस प्रतिमा को बनवानेवाला मोढ ज्ञातीय होने से लेख ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है. नाप (से.मी.) ऊँचाई - १७ लंबाई - १२ चौड़ाई - ६.५ १३. आदिनाथ - एकतीर्थी प्रतिमा - विक्रम संवत १३३१ (परिग्रहण क्र. १६) आदिनाथ की अष्टप्रतिहार्य युक्त इस प्रतिमा में अन्य प्रतिमाओं से अलग कुछ नई विशेषताएँ है जिनमें प्रतिमा की पीठिका के दोनों छोर पर बने लंब चतुष्कोण आधार पर अंकित अष्टग्रह, सिंहासन के दोनों छोर पर यक्ष-यक्षिणी के अंकन नहीं है पर उनके स्थान पर दो चतुष्कोण के अंकन किए गए हैं. जिन पर सूर्य जैसा रेखांकन किया गया है. प्रतिमा के पीछे दंडधारी सेवक का अंकन महत्वपूर्ण है जो किसी विशेष गच्छ या स्थान की विशिष्टता है. प्रतिमा लेख में किसी गच्छ या स्थान का नाम अंकित नहीं किया गया है. संवत १३३१ वैशाख सुदि १ सोमै श्री प्राग्वाट ज्ञातीय महं. रूपासुत महं. साग(म)न्देन श्री आदिनाथ बिंब कारितं प्रतिष्ठितं. नाप (से.मी.) ऊँचाई - २१ लंबाई - १४ चौड़ाई - ८.५ १४. तीर्थंकर पार्श्वनाथ - पंचतीर्थी प्रतिमा - विक्रम संवत १३५३ (परिग्रहण क्र. ७७) तीर्थंकर पार्श्वनाथ की यह प्रतिमा अन्य प्रतिमाओं से विशेष है. इस प्रतिमा में एक-दो प्रतिहार्य को छोड़कर अन्य प्रतिहार्य एवं किन्नर-गांधर्व आदि के अंकनों का अभाव है जो इस काल की अन्य प्रतिमाओं में होते है. दो नागफणा के आधार पर पद्मासनस्थ मुद्रा में तीर्थंकर विराजित है, घुटने थोड़े नीचे की ओर झुके हुए हैं. तीर्थंकर के दोनों ओर कायोत्सर्ग मुद्रा में दो तीर्थंकर छत्र युक्त, सप्तफणों के दोनों ओर पद्मासनस्थ मुद्रा में दो तीर्थंकर, पीठिका के मध्य में नवग्रह एवं दोनों छोर पर दो यक्षिणियों के अंकन किए गए हैं. परिकर के ऊपरी भाग में स्तूपी पी खंडित हो चुकी है. सं. १३५३ वै. सु. १३ __ श्री पार्श्व बिंब कारितं श्री __ ग्रा. गच्छे श्री श्री चंद्रसूरिभिः । प्रतिष्ठितं. नाप (से.मी.) ऊँचाई - ८ लंबाई - ८ चौड़ाई -३ १५. पार्श्वनाथ की एकतीर्थी प्रतिमा - विक्रम संवत १३७४ (परिग्रहण क्र. ४६) द्विपीठिका पर आसीन तीर्थंकर पार्श्वनाथ अष्टप्रतिहार्य युक्त है. प्रथम पीठिका पर सिंहासन के दोनों छोर पर यक्ष-यक्षिणी, द्वितीय पीठिका पर मध्य में धर्मचक्र एवं दोनों ओर नवग्रह व पीठिका के भूतल पर मध्य में लांछन सर्प का अंकन किया गया है. संवत १३७४ वर्षे माघ सुदि १० गुरौ उकेसीय वंशे साधु तिहुण सुत भीमसीह भा. डाकेनबाई खे(षे)न्द्र श्रेयसे श्री पार्श्वनाथ बिंब का. प्रतिष्ठितं श्री परमानंदसूरिभिः नाप (से.मी.) ऊँचाई - १४ लंबाई - ९ चौड़ाई - ५.५ १६. आदिनाथ की एकतीर्थी प्रतिमा (परिग्रहण क्र. ९१) तीर्थंकर आदिनाथ अष्टप्रतिहार्य एवं द्विपीठिका युक्त, प्रथम पीठिका पर धर्मचक्र, नवग्रह एवं यक्ष-यक्षिणी, द्वितीय पीठिका के दोनों छोर पर श्रावक-श्राविका आदि का अंकन है. इस पर सं. १३९१ वर्षे प्रा. ज्ञा. श्रे. केलण भा. भोपल पु. _ _ उभादेन _ लजी_ _पित्रो श्रेयसे श्री _ दि. बि. का. प्र. श्री सर्वदेवसूरिभिः लेख अंकित है. ___ नाप (से.मी.) ऊँचाई - ११ लंबाई - ६.५ चौड़ाई - ४ श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र परिसर में स्थित सम्राट संप्रति संग्रहालय में जैन धर्म एवं भारतीय संस्कृति के गौरवमय भव्य अतीत का दर्शन कर भविष्य को संवारने जिज्ञासुओं को आमंत्रण है. १४ For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org तदा ते परमं सुखं * अनुवाद : मनोज जैन यदेदं निःस्पृहं भूत्त्वा परित्यज्य बहिर्धमम् स्थिरं सम्पत्स्यते चित्तं तदा ते परमं सुखम् ।। हे जीवात्मा ! निःस्पृही बनके बाह्य जगत के परिभ्रमण को छोड़ कर जब तेरा चित्त (आत्मा में) स्थिर बनेगा तब तुम्हें परम सुख होगा. पहले कभी नहीं मिलनेवाला मानसिक सुख प्राप्त होगा. भक्ते स्तोतरि कोपान्धे, निंदा कर्तरिचोत्थिते। यदा समं भवेच्चित्तं, तदा ते परमं सुखम् ।। जब अनुरागी व्यक्ति स्तुति करता हो या कोपान्ध व्यक्ति निंदा करने के लिये उपस्थित हुआ हो, जब दोनों के प्रति समान भाववाला चित्त बनेगा तब तुझे परम सुख होगा. स्वजने स्नेहसम्बद्धे, रिपुवर्गेऽपकारिणी । स्यात् तुल्यं ते यदा चित्तं, तदा ते परमं सुखम् ।। मीठे मधुरे स्नेह युक्त स्वजन हो या अपना अहित करनेवाला दुश्मन इन दोनों के प्रति जब तुम्हारा चित्त समान वृत्ति रखने लगेगा तब तुम्हें उत्कृष्ट मानसिक सुख होगा. शब्दादिविषयग्रामे, सुन्दरेऽसुन्दरेऽपि च । एकाकारं यदा चित्तं, तदा ते परमं सुखम् ।। मधुर शब्द हो या कटुवाक्य हो, षड्रस भोजन में और अरुचिकर पदार्थ में, आँखों को सुख देने वाला सुंदर रूप अथवा कुरूप सामने आ जाय, घ्राणेन्द्रिय को प्रसन्न करने वाली सुरभिगन्ध हो या नाक सिकुड़ाने वाली दुर्गंध आ रही हो, स्पर्शद्रिय को भानेवाला कोमल स्पर्श हो या अप्रिय कर्कश स्पर्श हो इन सभी द्वन्द्वों में जब एक जैसा चित्त होगा तब तुम्हे उत्कृष्ट मानसिक सुख मिलेगा. गोशीर्षचन्दनालेपि, वासीच्छेदकयोर्यदा। अभिन्नचित्तवृत्तिः स्यात्, तदा ते परमं सुखम् ।। गोशीर्ष चंदन से भक्ति करनेवाले भक्त के उपर और तलवार से शिरच्छेद करनेवाले दुष्ट के उपर जब अभिन्न चित्त वृत्ति होगी तब तुम्हे परमसुख की प्राप्ति होगी. सांसारिकपदार्थेषु, जल कल्पेषु ते यदा। अश्लिष्टं चित्तपद्मं स्यात्, तदा ते परमं सुखम् ।। जल जैसे संसार के सभी पदार्थों के प्रति तेरा मन रुपी कमल अश्लिष्ट (अलिप्त) रहने लगे तब तुम्हें परम सुख होगा. दृष्टेषूद्दामलावण्यबंधुरङ्गेषु योषिताम् । निर्विकारं यदा चित्तं, तदा ते परमं सुखम् ।। उद्दाम रुप-लावण्य से युक्त सुंदर अंगोंवाली ललनाओं को देखने पर भी यदि तेरा मन निर्विकार दशा में रहे तब तुम्हारे चित्त में अकल्प्य सुखानुभूति अर्थात् विकल्प रहित सुख उत्पन्न होगा. यदा सत्त्वैकसारत्वादर्थकामपराङ्मुखम्। धर्मे रतं भवेच्चित्तं, तदा ते परमं सुखम् ।। अर्थलोभ एवं कामासक्ति से पराङ्मुख होकर जब (एक धर्म ही मनुष्य जन्म का सार है ऐसा समझ कर) तुम धर्म में रमण करने लगोगे तब तुम्हें वास्तविक सुखं का अनुभव करने मिलेगा. * विद्वद् शिरोमणि श्री सिद्धर्षि महाराजा विरचित 'उपमितिभवप्रपंचकथा' से संकलित - मन को सुखानुभव करवाने के परम-उपाय. १५ For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर स्थित सम्राट संप्रति संग्रहालय में संरक्षित भरुच से प्राप्त जिन धातु प्रतिमाएँ आसित शाह भरूच गुजरात का प्रसिद्ध नगर है. नर्मदा नदी पर स्थित यह नगर प्राचीन काल में भृगु कच्छ के नाम से प्रचलित था. यहाँ स्थित जिन मंदिर के पास कुछ वर्ष पूर्व खुदाई में 78 धातु निर्मित जिन प्रतिमाएँ प्राप्त हुई थीं, जिनमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की 31, शांतिनाथ की 8, आदिनाथ की 7, अर्हत महावीर की 4, चंद्रप्रभ की 2. विमलनाथ की 1, कुंथुनाथ की 1 एवं 24 अज्ञात जिन प्रतिमाओं का समावेश होता हैं. इनमें से कुछ प्रतिमाएँ परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज की प्रेरणा से एवं श्री भरूच जैन संघ की उदारता से आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के सम्राट् संप्रति संग्रहालय में संगृहीत की गई हैं. सलेख प्रतिमाएँ वि. सं. 1143 से 1391 के बीच की हैं. प्रतिमाओं के पीछे अंकित ज़्यादातर लेख नष्टप्राय है या घिस चुके हैं. फिर भी इनमें से 16 प्रतिमाओं के वाच्य लेखों को यहाँ पर प्रकाशित किया जा रहा है. 1. तीर्थंकर पार्श्वनाथ - त्रितीर्थी जिन प्रतिमा - विक्रम संवत 1143. (परिग्रहण क्र. 67) सप्तफणों से युक्त तीर्थंकर पार्श्वनाथ सिंहासन पर मध्य में पद्मासनस्थ मुद्रा में विराजित हैं. दोनों ओर कायोत्सर्ग मुद्रा में अन्य दो तीर्थकर खड़े हैं, जिनकी पहचान संभव नहीं हैं. सिंहासन के नीचे दो नागचक्र के बीच कुंभ का अंकन है. पीठिका के ऊपर, सिंहासन के एक छोर पर सर्वानुभूति यक्ष एवं [शेष पृ. 11 पर SHES Book Post/Printed Matter प्रेषक : सेवा में संपादक, श्रुत सागर आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर 382 009 (INDIA) फोन: (02712) 76252,76204,76205 फेक्स :91-2712-76249 प्रकाशक : सचिव, श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा, गांधीनगर 382 009. 16 For Private and Personal Use Only