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समीक्षित ग्रंथ पाठ, स्वाध्याय पोथी, चित्र कथा, चित्र सम्पुट, स्तवन संग्रह, पत्र संग्रह, लेख संग्रह, शिलाछाप, मोटे अक्षर, एक ही ओर छपा, मोटा कागज इत्यादि शब्द हैं. इन शब्दों पर से संलग्न प्रकाशन सरलता से खोजा जा सकता है. जैसे किसी को स्तुति संग्रह से सम्बन्धित प्रकाशन देखने हो और प्रकाशन का नाम ज्ञात नहीं है, वैसी स्थिति में भी स्तुति संग्रह शब्द से सम्बन्धित प्रकाशनों को देखने पर सहजता से जानकारी प्राप्त की जा सकती है.
१०. पुस्तकों की शोध में समय की बचत के लिए वाचकों की १२ श्रेणियाँ की गई है. जैसे बालक, जिज्ञासु, महिला, विद्यार्थी सामान्य, विद्यार्थी माध्यमिक, विद्यार्थी उच्चतर, संशोधक आदि, इन श्रेणियों को प्रत्येक प्रकाशन के संलग्न करने का कार्य चल रहा है. इस पद्धति के अन्तर्गत यदि बालक हेतु पुस्तकों की खोज करनी है तो मात्र बालक वाले प्रकाशनों को शीघ्रता से प्रस्तुत किया जा सकता है. बालक को चित्रकथा वाले प्रकाशन चाहिए तो इनकी सूची तत्काल प्राप्त की जा सकती है. इनसे वाचकों को सन्दर्भ सेवा में पहले से ज्यादा तीव्र गति आई है तथा ऐसे प्रकाशन जिन्हें सम्भवतः उनके नाम से खोजना असम्भव हो उन्हें भी औसत सामान्य लाक्षणिकता के आधार पर आसानी से खोजा जा सकता है.
११. कृतिनाम, कृति स्वरूप (मूल, टीका, अनुवादादि), कर्ता, टीकाकार, अनुवादक, कृति के आदिवाक्य, अध्याय नाम आदि के आधार पर सम्बन्धित कृति तथा प्रकाशन की सूचना अविलम्ब प्राप्त की जा सकती है.
१२. कर्त्ता की गुरु परम्परा की सूचना एकत्रित करनी भी इस प्रोजेक्ट का एक विशेष भाग है. इसके
अन्तर्गत विद्वान के एकाधिक अपर नाम, गुरु परम्परा, गच्छ, शिष्य-परम्परा, समय, इतिहास, उनके द्वारा निर्मित कृतियाँ, लिखित हस्तप्रतें या संपादित/संशोधित प्रकाशन आदि के विषय में विस्तार से जानकारी एकत्र की जा सकती है. जैसे यदि किसी वाचक को श्री विजयहीरसूरि का इतिहास जानना हो तो उनकी समस्त कृतियों, प्रतिलेखनों, गुरु परम्परा एवं आज तक उनकी परम्परा में हुए शिष्यों का विवरण प्राप्त किया जा सकता है.
१३. कभी-कभी एक पुस्तक में कई परस्पर असम्बद्ध एवं स्वतंत्र कृतियाँ भी प्रकाशित होती है. इनके विषय में परम्परागत केटलॉगिंग अथवा रजिस्टर द्वारा बहुत कम ही ज्ञात हो पाता है किन्तु यहाँ पर इस प्रकार की रचनाओं को पेटा अंक (पेटांक, Peta card/Sub-card no.) दिये जाते हैं. इससे इनके नाम, कर्ता, टीकाकार, अनुवादकादि तथा आदिवाक्य इत्यादि के आधार पर कम्प्यूटर इन्हें खोज लेता है कि ऐसी कृति किस प्रकाशन में किस पृष्ठ पर प्रकाशित हुई है. जैसे किसी वाचक को उपाध्याय यशोविजयजी की स्तुति चाहिए तो वह सम्भवतः स्वतंत्र प्रकाशन के रूप में कहीं नहीं मिल सकती किन्तु आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर की कम्प्यूटरीकृत सूचना-पद्धति द्वारा तुरन्त प्राप्त की जा सकती है और आपको आश्चर्य होगा कि यह ९ लोकों की कृति भद्रंकर साहित्य संदोह नामक प्रकाशन के पृष्ठ संख्या २३६-२३७ पर छपी है तथा इसके रचयिता आचार्य श्री भद्रंकरसूरि हैं तथा आदिवाक्य- वंदे यशोविजयवाचकवर्य धुर्यं.. है, इत्यादि अनेकानेक सूचनायें उपलब्ध हो सकती है. इस प्रकार एक-एक प्रकाशन में सामान्यतः एकाधिक (अर्थात् २ से १००० से भी ज्यादा कभी-कभी) कृतियाँ होती हैं.
१४. प्रत्येक कृति की विषयवस्तु की पहचान कर विषय कोडिंग का भगीरथ कार्य भी प्रारम्भ किया गया है. विषय कोडिंग के अन्तर्गत वाचक को उदाहरण के लिए यदि महावीर स्वामी के अतिशयों से सम्बन्धित कृतियों की जानकारी चाहिए तो ऐसी सभी कृतियों की सूची संलग्न अध्यायों की सूचना के साथ मिल सकती है. इस अद्भुत कार्य में पर्याप्त समय तथा अधिकारी विद्वानों का श्रम अपेक्षित है. निस्सन्देह यह कार्य बहुत उपयोगी सिद्ध होगा किन्तु पर्याप्त धन के अभाव में इसे सम्पन्न करना असम्भव है.
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