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नि:स्पृह संत आचार्य श्री हीरसूरि का राजनीतिक अवदान
मुनि विमल सागर धर्म और राजनीति संसार के दो ध्रुव हैं. जब भी ये मिलते हैं, एक-दूसरे पर हावी होने की चेष्टा करते हैं. मनुष्य के चित्त को राजनीति ही प्रभावित नहीं करती, धर्म भी गहराई से परिवर्तित करने की क्षमता रखता है. सामान्यतया यह देखा जाता है कि या तो राजनीति को धर्म मार्गदर्शित करता है अथवा धर्म में राजनीति पैठ जाती है, इतिहास साक्षी है कि जब भी धर्म ने राजनीति का पथप्रदर्शन किया तो कई क्रान्तिकारी व युगान्तरकारी परिवर्तन जगत ने देखे और मानवता को नई रोशनी मिली. किन्तु जब भी धर्म में राजनीति ने अपने वर्चस्व को दिखाने की कुचेष्टा की तब-तब न सिर्फ धर्म की अस्मिता खण्डित हुई बल्कि मानवता को कलंकित होना पड़ा और इतिहास में काला अध्याय लिखा गया. यह ध्रुव सत्य है कि धर्म में राजनीति का पैठना कभी कल्याणकारी नहीं होता, परन्तु मानव समाज के हित में यह भी उतना ही आवश्यक है कि धर्म राजनीति का मार्गदर्शन करे.
भारत के इतिहास का यह उज्ज्वल पहलू है कि यहाँ समय-समय पर विभिन्न साधु-संतों और ऋषि-मुनियों ने धर्म के आधार पर राजनीति को नियंत्रित कर समाज को उपकृत किया. संसार के भोग-सुखों से अलिप्त उन धर्म-अधिनायकों के आत्मबल व साधना के समक्ष सत्ता व शासक नतमस्तक हुए
और संसार में धर्म की सर्वोपरिता सिद्ध हुई. ___अखण्ड भारत के इतिहास में मुगलकाल धर्म में राजनीति के हस्तक्षेप का ही नहीं, बल्कि अतिक्रमण का अध्याय है. इस दौरान भारतीय धर्म और संस्कृति पर कई ज्यादतियां हुईं. रजवाड़ों में बिखरी यहाँ की शासनव्यवस्था मुगलों की सत्ता को सफल होने से रोक नहीं सकी. इस दौर में आज से ४७२ वर्ष पूर्व विक्रम संवत् १५८३ के मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी को गुजरात के पालनपुर नगर की धन्य धर्मधरा पर हीरजी के नाम से एक युगपुरूष ने जन्म लिया, जो आगे चलकर महान जैनाचार्य हीरविजयसूरि के नाम से जगद्विख्यात हुए. ___ पिता 'कुरां' और माता 'नाथीबाई' के इस स्वनामधन्य सपूत के बहुमुखी व्यक्तित्व की निर्मल आभा ने तत्कालीन समाज व राजनीति को नई दिशा दी. कभी-कभी एक व्यक्ति की प्रतिभा और साधना समग्र परिवेश को अलंकृत कर देती है. आचार्य हीरविजयसूरि के जीवनकाल से ऐसा ही फलित हुआ. अपनी तप-साधना, सांस्कृतिक निष्ठा, गहरे आत्मबल, अनेकान्तवादी उदार दृष्टिकोण और स्वाभाविक सज्जनता के आधार पर वे अपने युग के पर्याय के रूप में उभरे. उनका समय जैन धर्म व गुर्जर इतिहास में 'हीर युग' के नाम से स्थापित हुआ. ऐसे अनेक अवसर आए जब तत्कालीन राजनीति हीरसूरि के विराट व्यक्तित्व के समक्ष नगण्य बन गई.
हीरविजयसूरि का उद्भव काल हिन्दू संस्कृति का संक्रमण कालं था. इस कालखण्ड में अखण्ड-भारत वर्ष और उसकी प्रजा ने कई उतार-चढ़ाव देखे. एक ओर दिल्ली की राजगद्दी पर मुगल बादशाह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर का शासन था तो शौर्यभूमि मेवाड़ में हिन्दू सूर्य महाराणा प्रताप अपने हक और धर्म की रक्षा के लिए सब-कुछ, न्योछावर कर रहे थे. उधर महाराव सुरताण सिरोही स्टेट के अधिपति थे. संयोग से हीरविजयसूरि इस त्रिकोणीय राजनीति के केन्द्रबिन्दु हो गए थे.
अपने दरबार के रत्न सेठ थानमल की माता चंपाबाई के निरंतर १८० दिन के उपवास की तप-साधना से प्रभावित होकर अकबर ने ई.स. १५८२ के लगभग काबुल से लौटने के बाद गुजरात के शासक शहाबद्दीन अहमदखान के पास फरमान भेजकर आचार्य हीरविजयसरि को आगरा दरबार में। निमंत्रण दिया. आचार्य गुजरात के गंधार नगर से पैदल चलकर आगरा आए शहर से १९ कि.मी. दूर फतेहपुर-सीकरी में ६ लाख लोगों के साथ स्वयं मुगल बादशाह अकबर ने नंगे पाँव चलकर जब आचार्य का
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