Book Title: Shrutsagar Ank 1999 01 008
Author(s): Manoj Jain, Balaji Ganorkar
Publisher: Shree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र एवं आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर का मुखपत्र श्रुत सागर आशीर्वाद : राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्रीपद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. वर्ष ३, अंक ८, माघ २०५५, जनवरी १९९९ सम्पादक डॉ. बालाजी गणोरकर मनोज जैन वृत्तान्त सागर राष्ट्र सन्त आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरि महाराज का भव्य चातुर्मास सम्पन्न प.पू. शासन प्रभावक आचार्य श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. का श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा तीर्थ में वर्षावास व्यतीत हुआ. आपके सान्निध्य में अनेक आराधनाएँ सम्पन्न हुई. आपने ओजस्वी वाणी के माध्यम से हजारों लोगों को सन्मार्ग दिखाया है. धर्मबिन्दु प्रकरण के उपर प्रत्येक रविवार को जाहिर प्रवचन प्रभावकारी सिद्ध हुए हैं. भाविकों ने इन प्रवचनों से जीवन को मधुर एवं धार्मिक बनाने की कला हस्तगत की है. आचार्यश्री की पावन निश्रा में पर्व पर्युषण की सुन्दरतम तप एवं आराधनायें सम्पन्न हुईं. उपवास, छठ्ठ-अट्ठम के साथ चौसठ प्रहरी पौषध अट्ठाईयाँ इत्यादि करके आराधकों ने आत्मशुद्धि का प्रकाश पाया. पूज्यश्री के श्रीमुख से पर्व पर्युषण के दिनों में हजारों लोगों ने प्रवचन श्रवण का अनमोल लाभ लिया. देवद्रव्यादि की सुन्दर उपज हुई तथा परमात्मा की आठों दिन सुन्दर अंगरचना के साथ भक्ति भावनामय वातावरण बना रहा. For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, माघ २०५५ ६ सितम्बर १९९८ को जगदगुरु श्री विजयहीरसूरीश्वरजी महाराज के ५०२वीं स्वर्गारोहण तिथि निमित्त एवं राष्ट्रसंत जैनाचार्य श्री पद्मसागरसरीश्वरजी म.सा. के ६४वें जन्मदिन के शुभ अवसर पर समारोह आयोजित किया गया. पूज्यश्री को जन्मदिन की शुभ कामना अर्पित करने के लिये इन्द्रप्रस्थ एवं हरियाणा के सिद्धदाता पीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित जगद्गुरु श्रीमत् सुदर्शनाचार्यजी महाराज पधारे, आपने सस्नेह पूज्यश्री को कम्बल बहोराकर हार्दिक शुभकामना व्यक्त की. आपने मंगल प्रवचन में बताया कि इस जगत में सन्तों का जन्म लेना ही सार्थक है. दुनियावाले जन्मदिन मनाते है यह तो विडम्बना है. जब कि संसार को अपना सर्वस्व देकर भी कुछ लेते नहीं है, ऐसे सन्तों का परोपकारमय जीवन ही पूजनीय है. उन्हीं का जन्मदिन शुभ है बाकि तो व्यर्थ में ही जनम गँवाकर जीवन को समाप्त करते हैं. पूज्य आचार्यश्री ने शुभाशीर्वचन देते हुए कहा कि जिनके पवित्र जीवन से सम्राट अकबर ने प्रेरणा पाई थी और उनके द्वारा पूरे भारतवर्ष में जीवदया का पालन करवाया था ऐसे जगद्गुरु हीरसूरिमहाराज के उपकार भुलाये नहीं जा सकते. जजिया कर से पूरे हिन्दू और जैन समाज को मुक्त कराया था. ५०२ वर्ष बाद भी वे आज अपने सत्कार्यों से जीवित हैं. गणिवर्य श्री देवेन्द्रसागरजी म. ने इस अवसर पर प्रासंगिक उदबोधन किया. इस समारोह में मुख्य अतिथि के रुप में गुजरात के मुख्यमन्त्री श्री केशुभाई पटेल ने पूज्य गुरुदेव के चरणों में श्रद्धासुमन अर्पित किये. आपने पूज्य गुरुदेव के समाजोपयोगी बहुमूल्य कर्तव्यों की अनेकशः अनुमोदना की और गुजरात के मुख्य मन्त्री होने के नाते अपना सहयोग हर तरह से करने की विनती की. समारोह में उपस्थित अन्य नेतागण सर्वश्री बुटासिंहजी (भू. पू. सांसद), गुलाबचन्दजी कटारीया (शिक्षा मन्त्री, राजस्थान). बिमलभाई शाह (परिवहन मन्त्री, गुजरात) आदि तथा अनेक शहरों से पधारे अतिथियोंने पूज्यश्री के चरणों में हार्दिक वंदना सह शुभकामनायें अर्पित की. जीवदया हेतु दो लाख से उपर चंदा इकठ्ठा कर सुखाग्रस्त प्रदेशों में अबोल पशुओं के घास-चारे के लिये भिजवाया गया. समारोह के अन्त में साधर्मिक वात्सल्य से पधारे हुए सभी महेमानों की सुन्दर भक्ति की गई. सम्पूर्ण चातुर्मास में देश-विदेश के अतिथियों का तांता लगा हुआ था. *राष्ट्र सन्त पू. आचार्य श्री की पावन निश्रा में पूज्य उपाध्याय श्री धरणेन्द्रसागरजी म. सा. के सामाधिमय कालधर्म निमित्त श्री नारणपुरा जैन संघ द्वारा ३६ छोड के उद्यापन सहित प्रभु भक्ति स्वरूप अष्टाह्निका महोत्सव एवं विशाल रूप से गुणानुवाद सभा का आयोजन किया गया. पूज्य आचार्य श्री के अगले चातुर्मास हेतु साबरमती जैन संघ के आगेवानों ने मिलकर आग्रह पूर्ण विनती की एवं पूज्य श्री ने उन्हें सम्मति देकर अनुग्रहित किया. *कडी नगर में प.प. राष्ट्रसंत शासन प्रभावक आचार्य श्रीमत पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा आदि मुनिवरों की निश्रा में दि. २६.१२.९८ से ३०.१२.९८ तक जिनभक्ति महोत्सव मनाया गया. श्री कडी जैन संघ के सभी परिवारों ने मिलकर सुन्दर आयोजन किया. पू. मुनिवर्य श्री प्रशान्तसागरजी म.सा. एवं मुनिवर्य श्री पद्मरत्नसागरजी म.सा. की जन्मभूमि होने के नाते उनका दीक्षा के बाद यहाँ प्रथम बार पधारना हुआ. श्रीसंघ ने बहुत हर्षोल्लास से अगवानी की. महोत्सव दरम्यान देवद्रव्य-साधारण द्रव्य की आशातीत उपज हुई. पाँचों दिवस तीनों टाइम का साधर्मिक भक्ति के साथ बाहर से पधारें सभी महेमानों की विशिष्ट भक्ति की गई. श्री अर्हद महापूजन, शान्तिस्नात्र महापूजन में लोंगो ने तन-मन-धन से उदारता पूर्वक प्रभु भक्ति का लाहा लिया. महोत्सव का भरपूर लाभ उठाने वाले श्रीसंघ ने अश्रुपूर्ण नयनों से बिदाई वेला में गुरूभक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण पेश किया. २३ जनवरी ९९ के दिन श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र- कोबा में भीनमाल जैन संघ के २०० आगेवानों का पधारना हुआ. शेठ श्री घेवरचंदजी नाहर द्वारा भीनमाल में निर्मित नूतन जिन मंदिर की प्रतिष आचार्यश्री को विनती करने आए श्री भीनमाल जैन संघ के श्रेष्ठियों का श्री महावीर जैन केन्द्र में हार्दिक स्वागत किया गया. पूज्यश्री ने ज्येष्ठ सुदि ग्यारस के दिन प्रतिष्ठा का शुभ मुहूर्त प्रदान कर उन्हें अनुग्रहित किया. प्रौढ़ प्रभावी व्यक्तित्व के धनी आचार्यश्री के दो शब्दों से प्रेरित हो श्रेष्ठियों ने [शेष पृष्ठ १२ पर For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, माघ २०५५ श्री महावीरालय : एक परिचय पं. मनोज जैन श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र- कोबा तीर्थ के श्री महावीरस्वामी जिन प्रासाद को हम श्री महावीरालय के नाम से जानते हैं. इस जिनालय में मूलनायक प्रभु महावीरदेव की प्रतिमा प्रतिष्ठित है. अतीव मनोहर और दर्शनीय वीर प्रभु की यह प्रतिमा दर्शन करने वालों का मन मोह लेती है. महावीरालय का शिल्प स्थापत्य भारतवर्ष के नूतन जिनमंदिरों में एक श्रेष्ठतम उदाहरण माना जाता है. देवविमान तुल्य शोभायमान यह जिनप्रासाद यूं देखा जाय तो एक फूलगुलाबी रंग लिये सुन्दर दहेरासर नजर आता है. हजारों-लाखों लोगों का वर्षभर में यहां दर्शनार्थ आवागमन होता है. भगवान महावीरदेव की अलौकिक मूर्ति के दर्शन कर भक्तजन आत्मिक आनन्द का अनुभव करते हैं. विषय कषाय के त्रिविध ताप को शान्त करके भक्तजनों के तन-मन को अपूर्व शान्ति का अनुदान करने वाला यह महावीरालय अपनी अनेक विशिष्ट खुबियों से परिपूर्ण है. कभी फुरसद की पलों में आप इस मंदिर में निरीक्षण करेंगे तो अवश्य आपको यहां धर्म, कला और विज्ञान का समन्वय देखने को मिलेगा. आज से ठीक बारह साल पहले निर्मित श्री महावीरालय में ज्योतिष की दृष्टि से अद्भुत संगणना की गई है. इस केन्द्र के स्वप्न दृष्टा महान जैनाचार्य गच्छाधिपति श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी महाराजा के कालधर्मदिन की स्मृति में श्रद्धाञ्जलि के रुप में प्रतिवर्ष २२, मई के दिन दुपहर में दो बजकर सात मिनट पर (आचार्यश्री के अग्नि संस्कार के समय को लक्षित कर) सूर्य की किरणें शिखर से होकर मूलनायक भगवान महावीर के भाल तिलक को देदीप्यमान करती हैं. इस प्रसंग पर हजारों श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं. ___ पुरातन काल से ही हमारे ऋषि मुनियोंने ज्योतिषशास्त्र को बहुत महत्त्व दिया है और इस विज्ञान का यहाँ अभूतपूर्व विकास हुआ है. जिस प्रकार कोई भवन नीचे की भूमि को प्रभावित करता है उसी प्रकार आकाश में रहे ज्योतिषचक्र के नीचे पृथ्वी और तद्गत जीव जन्तुओं का प्रभावित होना स्वाभाविक है. वृक्ष के नीचे भूमि पर जो छाया गिरती है. वह वृक्ष की प्रकृति के अनुरूप ही होगी, छाया में भी वही गुण दिखेंगे तथा छाया से प्रभावित वस्तु में भी वैसे ही गुणों का प्रभाव पड़ेगा. इसी प्रकार ज्योतिषीय ग्रहों का प्रभाव जीव सृष्टि उपर होता है. जैन ग्रन्थों में ग्रह नक्षत्र ताराओं का विस्तृत वर्णन सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, क्षेत्रसमास, लोकप्रकाश आदि में मिलता है. श्री महावीरालय में ग्रहों के प्रभाव को ध्यान में लेकर ज्योतिर्विज्ञान का रहस्यमय समन्वय किया गया है. नौ ग्रहों की संकलना तीर्थंकर परमात्मा की मूर्तियों से जुड़ी है. जैन शास्त्रों में कहा गया है कि तीर्थंकर परमात्माओं के जन्म समय में सभी ग्रह उच्च स्थिति में रहते हैं. वे सभी ग्रहों के अधिष्ठायक देवता अपने परिवार सहित भगवान के प्रति सेवक की भांति रहते हैं और इतना ही नहीं परंतु इन तीर्थंकर प्रभु के दर्शन, वंदन, पूजन करनेवाले भक्तजनों को भी शुभत्त्व प्रदान करते हैं . अशुभ प्रभाव को नष्ट कर शुभकारक बन जाते हैं. दर्शनार्थियों को इन नौ ग्रहों का अनुकूल प्रभाव मिले इसलिये उन उन ग्रहों के आधिपत्यवाले तीर्थंकरों की मूर्तियां यहाँ प्रतिष्ठित की गयी है. भावभक्ति से इन प्रतिमाओं के दर्शन, पूजन करनेवाले भव्यजीवों के सभी आधि, व्याधि एवं उपाधियों का सहज ही निवारण हो जाता है. बशर्त श्रद्धा प्राण तत्त्व है. श्री महावीरालय में भूतल स्थित गर्भगृह में विराजमान प्रभु आदिनाथ की अचिन्त्य प्रभावयुक्त मूर्ति के दर्शन वंदन से भव्य जीवों के दुरित दूर होते देखा गया है. इस प्रतिमा को स्वरुप बदलते कई बार श्रद्धालुओंने अनुभव किया है. घण्टों सामने बैठकर भी जी नहीं करता कि सामने से हटा जाय, यही तो उनके चमत्कार का प्रत्यक्ष प्रभाव है. महावीरालय के भूतल स्थित में एक देरी में विराजमान श्री माणिभद्रवीर देव की मूर्ति अनन्य प्रभावशाली है. प्रति गुरुवार को यहाँ सुखड़ी का प्रसाद चढाया जाता है. मनोकामना सिद्धि के लिये भक्तजनों का यहाँ For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, माघ २०५५ सुखड़ी का प्रसाद चढ़ाने हेतु तांता लगता है. उसी तरह भगवती पद्मावती देवी की नयनाभिरम्य प्रतिमा सबको दर्शन के लिये लालायित करती है. माताजी को चुनरी चढाने हेतु दूर-दूर से आये दर्शनार्थियों की भीड़ लगी रहती है. यहां के श्री महावीरालय जिनमंदिर का दर्शन वंदन पूजन करना भी जीवन में एक लाहा लेना है. एक बार दर्शन करनेवाला बार-बार यहां आने के लिये हमेशा उत्सुक रहता है. यही तो है श्री महावीरालय की श्रद्धा का बेनमुन उदाहरण. प्रिय वाचक ! आप इस मंदिर में कई खुबियों का विहंगावलोकन कर सकते हैं. लकड़ी के दरवाजों पर दक्षिण शैली में भगवान श्री महावीरस्वामी के भवों का हुबहु चित्रण किया गया है. तदुपरांत भगवान श्री आदिनाथ एवं भगवानश्री पार्श्वनाथ के मुख्य प्रसंगों का शिल्प देखने को मिलता है. रंग मंडप में एवं स्तंभों पर जैन शिल्पकला के सुंदर नमुने बनाये गये हैं. इसके अतिरिक्त गुरुमंदिर, रत्नमंदिर, ज्ञानमंदिर, पौषधशाला सभी स्थानों की बेनमुन वास्तुकला से युक्त निर्मिति एवं भव्यता, सूचकज्ञानगर्भितता सचमुच में जैन धर्म का हार्द समझने में उपयोगी सिद्ध हुई है." पृष्ठ १६ का शेष] श्रुतभक्त उपाध्याय श्री धरणेन्द्रसागरजी म.सा. उपाध्यायजी का व्यक्तित्व सरल, आकर्षक एवं सदैव प्रसन्नचित्त मुख उनके अन्तेवासियों एवं भक्तों को सदैव स्मरण कराता रहेगा. उन्हें सभी जीवों से प्रेम था. उनमें गजब की समता एवं सहनशीलता की भावना थी. अन्तिम दिनों से कुछ ही सप्ताह पूर्व डॉक्टरों ने उन्हें जानलेवा कैन्सर होने की पुष्टि की. इस जानकारी से वे विह्वल नहीं हुए. इस बातको उपाध्यायजी ने बड़ी ही सहजता के साथ लिया और कहा मैं मौत से नहीं डरता, मैं तैयार हैं. उन्होंने अपने शरीर और आत्मा को अलग कर दिया था. यही कारण था अपने अन्तिम २७ दिनों के अस्पतालवास के दौरान उन्होंने अपने चिकित्सकों सहित सभी को आश्चर्यान्वित कर दिया था. मृत्यु का उन्होंने जिस प्रकार स्वागत किया वह प्रशंसनीय एवं अनुपम उदाहरण है. डॉक्टरों द्वारा घोषित उनके जीवन काल से अधिक उन्होंने अपनी इच्छाशक्ति एवं तपबल से पूर्ण जीवन जी कर नवकार महामन्त्र का स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक कालधर्म प्राप्त किया. बड़े-बड़े डॉक्टर्स भी इस घटना से आश्चर्यान्वित तथा धार्मिकता के रस से ओतप्रोत हयें, उनके लिए ऐसा पहला अवसर था. उनका अन्तिम चातुर्मास अहमदाबाद स्थित नारणपुरा में था. इसी दौरान कैन्सर होने की बात प्रकाश में आई. इस घड़ी में समस्त संघ ने तत्परता के साथ जो कुछ हो सकता था किया किन्तु काल के उपर किसका वश है? उनके अवसान से जैन संघ को अपूरणीय क्षति हुई है. दिवंगत उपाध्याय श्री धरणेन्द्रसागरजी के प्रति मैं कामना करता हूँ कि उनकी आत्मा को मोक्षाभिमुख परम सामग्री उत्तरोत्तर मिलती रहे तथा यह धरती ऐसे वीरपत्रों से सदा भरी रहे... उद्गार "શ્રી મહાવીર જૈન આરાધના કેન્દ્રમાં પૂ. ગુરુજીએ મને પોતે સાથે આવીને પુસ્તકોનું સંગ્રહાલય અને પૌરાણિક મર્તિઓ અને હસ્તલિખિત તાડપત્રો અને અનેક દુર્લભ વસ્તુઓ બતાવી. આ અદૂભુત સંગ્રહાલય અને પુસ્તકાલય છે. મારા જ્ઞાનમાં આવી વસ્તુઓ હયાત હશે એવી કલ્પનાજ નહોતી. આ કાર્યને હું બિરદાવું છું. પૂ. ગુરુદેવે સમાજ માટે કરેલું આ કાર્ય અતિ વિરલ છે તેમને મારા શત શત પ્રણામ..." કેશુભાઈ પટેલ, મુખ્ય મંત્રી, ગુજરાત રાજ્ય "This is the first religious institution which I have seen where there is an ideal mixture of religion, knowledge, history and modern technology. A very impressinve place, where one can not only learn a lot about Jainism but also the rich history and heritage of India. The wealth of information one can gather by spending a couple of hours here is worth more than visiting number of other institutions." R. C. Choudhury, IAS, Director General, NIRD, Hyderabad For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, माघ २०५५ जैन साहित्य - ७ सूत्रकृताग (गत अंक में आपको सूत्रकृताङ्ग का प्राथमिक परिचय कराया गया था. इस अंक में अब सूत्रकृताङ्ग का विस्तार से परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है.] सूत्रकृताङ् की वाचना में स्वमत तथा परमत की चर्चा प्रथम श्रुतस्कंध में संक्षेप में की गई है जब कि द्वितीय श्रुतस्कंध में यह स्पष्ट रूप से उपलब्ध होती है. इस आगम में जीवविषयक स्पष्ट निरूपण भी है. नवदीक्षितों के लिए उपदेशप्रद बोधवचन उपलब्ध वाचनाओं में मिलते हैं. इनमें ३६३ पाखण्ड मतों की चर्चा के लिए पूरा एक अध्ययन है. इसके अतिरिक्त दूसरे स्थानों पर भी पाखण्ड, भूतवादी, स्कंधवादी, एकात्मवादी, नियतिवादी आदि मतावलम्बियों की चर्चा हुई है. सष्टि की उत्पत्ति के विविध वादों की चर्चा तथा मोक्षमार्ग का निरूपण सूत्रकृताङ्ग की वाचनाओं में सुन्दर रूप में हुआ है. इनमें ज्ञान, आस्रव, पुण्य-पाप आदि का प्रेरणास्पद विवेचन दृष्टिगत होता है. सूत्रकृताङ्ग का प्रथम श्रुतस्कंध : सूत्रकृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन का नाम समय है. इसमें स्वसिद्धान्त का निरूपण और पर सिद्धान्त का निरसन की दृष्टि से निरूपण किया गया है. इसमें पंचमहाभूतिकवाद आदि के स्वरूपों की जानकारी मिलती है. यहाँ परधर्मियों की मान्यताओं एवं आचार-विचार का वर्णन होने के साथ ही जैन दर्शन के स्याद्वाद शैली से इनके मिथ्यात्व को सिद्ध कर सर्वज्ञ तीर्थंकर प्ररूपित धर्म की सत्यता का प्रतिपादन किया गया है. द्वितीय अध्ययन का नाम वैतालीय अध्ययन है. इस अध्ययन में कर्मरूपी लकड़ी के नाश हेतु वैराग्य आदि साधनों का उपयोग बताया गया है. इसकी टीका में भगवान ऋषभदेव का एक प्रकरण है जिसमें राज्याभिलाषी उनके ९८ पुत्रों को उन्होंने प्रतिबोध देते हुए वास्तविक आत्मिक राज्य को समझा कर निर्मल संयम का साधक बनने के लिए उपदेश दिया है. वे कहते हैं कि कामभोग से वासना बढ़ती ही जाती है, इसलिए अचल वैराग्य भाव से संयम की साधना कर मुक्ति का अव्याबाध सुख प्राप्त करो. इस प्रकार आत्महितकारी और अहिंसादि साधनों का विस्तार से वर्णन करता है, जिससे यह अध्ययन बहुत ही प्रेरणास्पद और हृदयस्पर्शी है. उपसर्गपरिज्ञा नामक तीसरे अध्ययन में मोक्षमार्ग के आराधक भव्य जीवों हेतु उपसर्गों की दशा में धैर्य बना रहे ऐसे उपदेश दिये गये हैं. उपसर्गों के प्रसंग में इन्हें कर्म निर्जरा के अपूर्व साधन मानकर इन्हें सहन करने, आत्मधर्म से न चूकने, शीत-उष्ण, अपमान इत्यादि सहन करने, स्नेह-ममता का त्याग करने, प्रत्युत्तर शान्ति से और स्पष्ट रूप में देने, वस्तु स्वरूप समझने, कुशास्त्रवचनों को सुनकर स्वधर्म की आराधना में संकोच न करने आदि हकीकतों का समुचित उपदेशपरक विवेचन किया गया है. स्त्रीपरिज्ञा नामक चौथे अध्ययन में स्त्री के संसर्ग से होने वाली हानि आत्महितसाधक पुण्यात्माओं के लिए त्याज्य बताई गई है. उन्हें शील धर्म की अखंड आराधना करनी चाहिए, ऐसा स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है. नरकविभक्ति नाम पांचवे अध्ययन में विषयकषायादि सेवन करने वाले जीवों की नरक में होने वाली परिस्थिति का वर्णन है. स्वधर्म से चूकने वाले जीवों का हाल देखकर स्वधर्म की सिद्धि का सुख प्राप्त करने के उपाय बताये गये हैं. महावीर स्तुति नामक छठे अध्ययन में प्रभु महावीर की गम्भीरता, तप, समता, सहनशीलता, वैराग्य, ज्ञान, शील इत्यादि गुणों का योग्य उपभाओं का प्रयोग कर स्तवन किया गया है. For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, माघ २०५५ सातवें कुशील परिभाषित अध्ययन में कुशील का अर्थ बताया गया है. अज्ञानवश यज्ञ इत्यादि करने से मोक्ष मिलेगा मानने वालों को कुशील कहा है. उनके अयोग्य वचनों और मान्यताओं का मिथ्यात्व सिद्ध करने वाले अध्ययन को कुशील परिभाषित कहा गया है. इसमें कहा गया है कि सम्यक दर्शनादि मोक्षमार्गों की साधना करने से ही मोक्ष मिलेगा, ऐसा जिनशासन का फरमान सर्वांश में घटित होता है. वीर्याध्ययन नामक आठवें अध्ययन में जिनधर्म की आराधना करने में आत्मिक वीर्य को फोड़ने की बातें कही गईं हैं. इसमें बताया गया है कि बालवीर्य में अज्ञान की प्रधानता होने से कर्मकी निर्जरा नहीं हो सकती किन्तु पण्डित वीर्य कर्मनिर्जरा एवं मोक्ष का कारण होता है. इसमें तप करने की विधि बताते हुए कहा गया है कि यह मान-सम्मान, यश-कीर्ति, परलोक में इन्द्रपद इत्यादि आकांक्षाओं के लिए नहीं करना चाहिए. धर्माध्ययन नामक नवें अध्ययन में वैराग्य समता, विवेक आदि गुणों को धारण कर मुनियों को सद्गुरु की सेवा, सच्चा त्यागी बनकर आस्रवों का त्याग, विरेचनादि का परिहार, आहारादि के उपयोग में नियमितता के साथ लोलुपता न रखने कायिक प्रवृत्तियों का निरोध, आवश्यक वाणी ही बोलने, इत्यादि आत्मधर्म स्पष्ट रूप से वर्णित हैं. इसी कारण इसे धर्माध्ययन नाम दिया गया है. समाधि अध्ययन दसवां अध्ययन है. इसमें चितशुद्धि, एकाग्रता, स्वस्थता होने पर आत्मा समाधि में जाती है ऐसा बताया गया है. समाधि अर्थात् मन की स्वस्थता. मुनियों के लिए इसमें कहा गया है कि वे सभी पर समभाव रखें. मोक्षमार्गाध्ययन नामक ग्यारहवें अध्ययन में मोक्षमार्ग के स्वरूप का वर्णन है. मोक्ष के अव्याबाध सुख की प्राप्ति के साधनों तथा भिक्षा सम्बन्धित विवेचन के साथ ही अहिंसा के तात्त्विक स्वरूप का भी वर्णन इसमें है. समवसरणाध्ययन नामक बारहवें अध्ययन में ३६३ पाखण्डी मतों का वर्णन कर जैन दृष्टि से उनके मिथ्यात्व का विवेचन है. प्रसंगोपात विविध प्रकार से जैन दर्शन के सिद्धान्तों एवं मान्यताओं का विशद वर्णन टीकाकारों ने किया है. ___ याथातथ्य नामक तेरहवें अध्ययन में धर्म के यथार्थ स्वरूप का विवेचन है. इस अध्ययन में मुनियों को तप, बुद्धि, कुल, इत्यादि का मद न करने, दूसरों से प्रशंसा न कराने तथा ऐसी चाह न रखने, विभाव का परिहार और स्वधर्म को स्वीकारना आदि धर्म बतायें हैं. ग्रंथाध्ययन नामक चौदहवें अध्ययन में परिग्रह का स्वरूप बताकर मुनियों के लिए हितशिक्षा बताई है. मुनि को स्वच्छंदी न हो कर गुरु के साथ रहने, विनय के साथ सीखने, विनय के साथ धर्म का यथार्थ स्वरूप समझ हृदय में प्रस्थापित कर तदनुसार वर्तन करने के लिए कहा गया है. स्याद्वाद के रहस्य को समझकर तदनुसार आचरण की अपेक्षा रखी गई है. यमकीय नामक पंद्रहवें अध्ययन में यमक श्लोक बहुतायत में हैं. प्रभु श्री महावीर द्वारा कथित संयम धर्म का विस्तार से वर्णन है. प्रभु वीर सर्वज्ञ, सत्य सम्पन्न थे. सभी जीवों के लिए उनका मैत्री भाव था. उनके पूर्व के तीर्थंकरों द्वारा यही धर्म कहा गया है तथा भावी तीर्थंकरों द्वारा भी यही धर्म कहा जाएगा. इस एकरूपता का प्रतिपादन करते हुए इस अध्ययन में कहा गया है कि महादुर्लभ मनुष्यावतार को सफल करने के लिए आत्माराधना के साधनों का सेवन कर आत्महित करना चाहिए. गाथाध्ययन नामक सोलहवें अध्ययन में पूर्वोक्त १५ अध्ययनों के वर्णनों का प्रारूप संक्षेप में है. इस अध्ययन की रचना सामुद्रक छंद में होने के कारण तथा सामुद्रक का दूसरा नाम गाथा होने से इसका नाम गाथाध्ययन रखा गया है. इसमें माहण, श्रमण, भिक्षु, निग्रंथ शब्दों का स्वरूप विस्तार से कहा गया है. जो इन्द्रियों का वशीकरण करें, शरीरादि से मोह न करें, मोक्ष को ही साध्य माने, संयम की ही साधना करे वह माहण है. श्रमण, भिक्ष व निग्रंथ भी वही है. क्रमशः For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, माघ २०५५ इतिहास के झरोखे से अनुपम दानी : जगडुशाह कच्छ के भद्रेसर नामक गांव मे सोलक नामक सेठ और लक्ष्मी नामक सेठानी रहते थे. उनको तीन लड़के थे. पहले का नाम जगड़ दूसरे का नाम राज और तीसरे का नाम पद्म था. ये तीनों भाई बड़े साहसी, बहादुर और चतुर थे. युवा होने पर तीनों का विवाह अच्छे घराने की कन्याओं के साथ कर दिया गया. जगड़ की पत्नी का नाम यशोमति, राज की पत्नी का नाम राजलदे और पद्म की पत्नी का नाम पद्मा था। इन तीनों की औसत अवस्था २० वर्ष के आसपास रही होगी कि उनके पिता सोलक का देहान्त हो गया. इससे इन्हें बहुत दुःख हुआ. फिर भी धैर्य के साथ जगड़ ने घर का सारा कामकाज सम्हाल लिया. जगड़ बहुत ही चतुर था. उसका हृदय विशाल और प्रेम से सराबोर था. दान करने में उसका कोई जोड़ीदार नहीं था. कोई भी दीन-दुःखी अथवा याचक उसके द्वार से निराश नहीं जाता था. जगड़ इस बातको जानता था कि धन आज है कल नहीं रहेगा. इसलिए जहाँ तक हो सके लाभ उठा लेना चाहिए. धीरे-धीरे धन कम होने लगा. जगड़ को चिन्ता होने लगी कि 'क्या कभी ऐसा भी सभय आ सकता है कि मेरे दरवाजे से किसी याचक को खाली हाथ जाना पड़े?' वह बारबार प्रार्थना करता था कि ऐसा समय कभी न आए कि कोई याचक खाली हाथ वापस लौटे. उसकी इस चिन्ता के रहते एक दिन भाग्य ने अपना कमाल किया. नगरद्वार पर उसने बकरियों का एक झण्ड देखा जिसमें एक बकरी के गले में मणि बँधी हई थी. यह मणि बड़ी मुल्यवान थी. चरवाहे को इस बात का पता नहीं था. उसने काँच समझकर बकरी के गले में बाँध रखी थी. जगड़ ने विचार किया कि यदि यह मणि उसे मिल जाय तो वह अपने सारे इच्छित कार्य सरलता से पूरा कर सकेगा. उसने वह बकरी खरीद ली. उसके बाद उसे धन की कोई कमी न रही. उसने देश-विदेश के साथ व्यापार करना प्रारम्भ कर दिया. उसका व्यापार दिन दुना रात चौगुना बढ़ने लगा. समुद्री व्यापार में भी उसका वर्चस्व हो गया. एक बार जगडू का जयंतसिंह नामक मुनीम इरान के होर्मज नामके बन्दरगाह पर गया. वहाँ उसने समुद्र के किनारे एक बड़ी बखारी किराये पर ली. उसके पास की बखारी खम्भात के एक मुसलमान व्यापारी ने ली. कुछ दिनों के बाद इन दोनों बखारियों के बीच से एक सुन्दर पत्थर निकला. इस पत्थर के लिए मुसलमान और मुनीम के बीच झगड़ा हो गया. दोनों ने अपना-अपना दावा किया. मुनीम ने अपने स्वामी जगडू के लिए तीन लाख दीनार में वह पत्थर ले लिया और जहाज में डाल कर भद्रेश्वर ले आया. जगड़ के पास यह समाचार पहुँचा. जगडू खुश होगया कि उसके मुनीम ने उसकी इज्जत बढ़ाई. उसने मुनीम को बड़ी धूम-धाम से जयन्तसिंह और पत्थर को अपने घर ले आया. जयन्तसिंह ने सारी कथा सुनाई और अन्त में कहा कि 'आपकी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए ही मैंने इतना रूपया खर्च कर डाला है. अब आपको जो दण्ड देना हो दे सकते हैं.' . ___ जगडू बोला 'तुम पागल तो नहीं हुए हो? तुमने मेरी प्रतिष्ठा में वृद्धि की है. इसलिए तुम्हें दण्ड नहीं पुरस्कार देना है. ऐसा कह कर उसने एक मूल्यवान पगड़ी और मोतियों की माला पुरस्कार में उसे दे दी. बाद में उसने वह पत्थर अपने घर के आंगन में जड़वा दिया. एक दिन एक भिक्षुक आया. उसने जगडू को कहा कि इस पत्थर में अनेक मूल्यवान रत्न हैं इसलिए इसे तोड़कर प्राप्त कर लो. भिक्षुक की बात मानकर जगडू ने उस पत्थर को तोड़ा तो सचमुच ही उसमें से अनेक रत्न निकलें. परिणामतः उसकी धन के कम हो जाने की चिन्ता तत्क्षण गायब हो गई और वह पहले से ज्यादा समृद्ध हो गया. For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, माघ २०५५ सम्पूर्ण वैभव के बाद भी जगडू के पुत्र नहीं था एक कन्या हुई थी जो विवाह के बाद तुरन्त विधवा हो गई थी. इससे वह बहुत दुःखी था. किन्तु इसका रोना न रोकर वह धार्मिक कार्यों में तल्लीन हो गया था. जिससे उसकी आत्मा को भी शान्ति मिल रही थी. एक बार पारदेश के पीठदेव नामक राजा ने भद्रेश्वर पर आक्रमण कर नगर को तहस-नहस कर दिया. लूट-पाट कर वह अपने देश चला गया. यह देखकर जगडू ने पुनः भद्रेश्वर का किला बनाना प्रारम्भ किया. अहंकारी पीठदेव ने यह समाचार सुना तो यह संदेश जगडू को भिजवाया- 'यदि गधे के सिर पर सींग आया तभी तुम यह किला पुनः बना सकोगे नहीं तो कभी नहीं.' जगड़ ने उत्तर दिया कि गधे के सिर पर सींग उगाने के बाद ही वह किले को बनाएगा. उसने पीठदेव की परवाह किये बिना ही किले का काम चालू रखा तथा किले की दीवार में एक गधा खुदवाया जिसके सिर पर सोने के दो सींग रखवाए. पीठदेव जैसे वैरी से बचकर रहना चाहिए यह समझ कर उसने गुजरात के राज विमलदेव से मुलाकात की और सब बताया. विमलदेव ने अपनी सेना तुरन्त भद्रेश्वर भेजी. सेना आते ही पीठदेव को विवश होकर जगड़ से सन्धि करनी पड़ी. जगडू के पास अपार धन, वैभव व सम्पदा के साथ प्रचुर यश एवं कीर्ति थी फिर भी उसे अभिमान नहीं था. प्रभु पूजा एवं गुरुभक्ति भी उसका बहुत बड़ा गुण था. एक बार एक जैन साधु भगवन्त ने उसको कहा कि तीन वर्ष का अकाल पड़ने वाला है इसलिए तुम अपने धन का अधिकाधिक सदुपयोग करना. जगड़ के लिए इतना कहना ही पर्याप्त था. उसने देश-विदेश से अनाज खरीद कर कोठे भरवा दिए और उनपर लिखवा दिया- गरीबों के लिए. संवत १३१३ के प्रारम्भ होते ही अकाल पड़ा और लोग त्राहि माम कह प्रकार उठे. यह अकाल तीन वर्ष चला और १३१५ में तो चरम सीमा पर पहुँच गया. इस अकाल के बारे में ऐसा कहा जाता है कि चार आने के तेरह चने मिलते थे तथा लोग अपने बच्चों तक को मार डालते थे. महंगाई चरम सीमा पर थी. वैसा अकाल फिर नहीं पड़ा. ऐसे विकट समय में जगड़ ने देश-देश के राजाओं को उधार दिया. कहा जाता है कि ९ लाख ९९ हजार बोरी अनाज उसने राजाओं को उधार दिया. उसने ११२ सदावर्त शालाएँ खोली जिनमें पाँच लाख मनुष्य भोजन करते थे. उसने इस समय इतना दान किया कि लोग उसे कुबेर कहने लगे. वास्तव में जगड़ की उदारता अद्वितीय, धन्य और अनुकरणीय है. उसकी उदारता ने समूचे जैन समाज का गौरव बढ़ाया. उसके कार्यों से लोगों को महसूस हुआ कि जैन शब्द का वास्तविक अर्थ है- जगत् भर की दया पालने वाला. उसने तीन बार बड़े-बड़े संघ निकाल कर पवित्र तीर्थ धाम शत्रुजय की यात्राएँ की. भद्रेश्वर में बड़ा मन्दिर बनवाया तथा अन्य अनेकों मन्दिरों का निर्माण करवाया. अनुश्रुत्यानुसार उसने १०८ मन्दिर बनवाये थे. उसने खीमली में एक मस्जिद भी बनवाई. मस्जिद बनवाने से उसके यहाँ आने वाले देश-विदेश के व्यापारियों की तकलीफ दूर हो गई और सभी के साथ उसके प्रेम भरे सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध बने. जरात के कुबेर जगड़शाह इस प्रकार अनेक लोकोपकारी कार्य कर जब परलोक को प्राप्त हुए तब सारे देश में दुःख छा गया. राजा लोग भी उसके देहान्त के बाद रोये. उसके समान दान-वीर कोई नहीं हुआ. जैन समाज में ऐसी मान्यता है कि धन मिले तो जगडूशाह के समान ही सात्विक भावनायें भी मिले.. पष्ठ ९ का शेष अवशेष भी दर्शनीय है. पञ्चधात से बनी हुई जटायुक्त तथा रेडियम जैसी आँखोंवाले श्री शान्तिनाथ प्रभु तथा श्री अजितनाथ भगवान की कायोत्सर्ग मुद्रा की प्रतिमायें भी अवश्यमेव दर्शनीय है. आचार्य बुद्धिसागरसूरि महाराज यहीं बैठकर ध्यान करते थे. यह तीर्थ इतना चमत्कारी है कि यहाँ श्रद्धा-भक्ति से आने वाले प्रत्येक व्यक्ति की मनोकामना अवश्य पूरी होती है.. For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, माघ २०५५ हमारे जैन तीर्थ - २ श्री घण्टाकर्ण महावीर का तीर्थ क्षेत्र महुडी संकलन: पं. रामप्रकाश झा श्री महडी (मधुपुरी) तीर्थ जैन एवं जैनेतरों दोनों के लिए श्रद्धा-भक्ति का केन्द्र है. यहाँ प्रत्येक दर्शनार्थी की मनोवांछित कामना पूरी करने वाले श्री घण्टाकर्ण महावीर देव की चमत्कारिक प्रतिमा प्रतिष्ठत है. इस प्रतिमाका श्रद्धा-भक्ति से दर्शन करने वाले व्यक्ति की मनोकामना कभी निष्फल नहीं होती. अहमदाबाद से लगभग ८० कि. मी. दूर बीजापुर के पास अवस्थित यह तीर्थक्षेत्र लगभग २००० वर्ष पुराना है. वर्तमान देरासर की प्रतिष्ठा वि.१९७४ तथा घण्टाकर्ण महावीर स्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा वि.१९८० में हुई है. जैन शासन में ५२ वीर हैं, जिनमें तीसवें वीर का नाम श्री घण्टाकर्ण महावीर ज्ञात होता है. श्री सकलचंद्रजी म.सा. की प्रतिष्ठाकल्पविधि में अंजनशलाका विधि में सम्यक्त्वी श्री घण्टाकर्ण महावीर की स्थापना का विशेष विधान है. इस विशिष्ट क्रिया के पश्चात् ही अंजन की विधियाँ प्रारम्भ होती है. ऐसा कहा जाता है कि जम्बूद्वीप के आर्यक्षेत्र में तुंगभद्र नामक एक क्षत्रिय राजा था, जिसने लुटेरे तथा जंगली जानवरों से अपनी धार्मिक प्रजा की रक्षा करने में अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर दिया. तीर कमान तथा ढाल गदा उसके प्रमुख शस्त्र थे. वे अतिथि सत्कार किया करते थे. मृत्यु के पश्चात् वे देव हुए तथा बावन वीरों में तीसवे वीर के रूप में घण्टाकर्ण महावीर नाम से उनकी प्रसिद्धि हुई. पूर्व जन्म में क्षत्रिय राजा होने के कारण उनके हाथ में धनुष बाण सुशोभित है. पूर्व जन्म में उन्हें सुखडी बहुत प्रिय थी. अतः श्रद्धालु उनको सुखडी का भोग लगाते हैं. सुविशुद्ध चारित्र संपन्न मुनिराज श्री रविसागरजी म.सा. ने अपने होनहार शिष्य श्री बहेचरदास (पू. बुद्धिसागरजी) को गुरूपरंपरा से चली आ रही आम्नायं सहित सम्यग्दृष्टि श्री घंटाकर्ण महावीर देव की आराधना हेतु मंत्र दीक्षा दी. जिसका उल्लेख स्वयं श्रीमद्जी ने अपनी डायरी में किया है. योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद्बुद्धिसागरसूरीश्वरजी गृहस्थावस्था से ही घण्टाकर्ण वीर के उपासक थे. वे वि.१९७५ में श्रीपद्मप्रभस्वामी की प्रतिष्ठा कराने के लिए महुडी आए हुए थे. वहाँ उन्होंने अट्ठम तप की उग्र उपासना कर घण्टाकर्ण महावीर का प्रत्यक्ष दर्शन किया और उनसे वचन ले लिया कि जैन-जैनेतर कोई भी भक्त उनकी भक्ति करके जो कुछ याचना करे, वे उसे प्रदान करेंगे. तत्क्षण उन्होंने दीवाल पर कोयले से घण्टाकर्ण महावीर का चित्र बना डाला. उसके बाद पोरबन्दर से शिल्पी बुलवाकर मात्र बारह दिनों में ही उस चित्र के आधार पर सुन्दर मूर्ति निर्माण करवाया तथा वि.सं. १९८० मागसर सुद तृतीया के दिन वर्तमान गर्भगृह में सर्वसिद्धिकारक घण्टाकर्ण महावीरदेव की प्रतिष्ठा करायीं. पीछे के भाग में घण्टाकर्ण देव का मूल यन्त्र अंकित किया गया. उसके साथ ही मन्त्र अंकित घण्टा स्थापित कर ध्वजदण्ड लहराया गया. वि.सं. २०२४ में प.पू. गच्छाधिपति गुरुदेव आचार्य श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. के सदुपदेश से नवीन सत्तावीस जिनालय की प्रतिष्ठा हुई तथा सभी सुविधाओं से सम्पन्न सुन्दर धर्मशाला, भोजनशाला आदि निर्मित किये गये. तब से दिन-प्रतिदिन निरन्तर इस तीर्थ का विकास हो रहा है. यह एकमात्र ऐसा धर्मस्थान है जहाँ सुखडी का नैवेद्य चढ़ाकर मन्दिर से बाहर नहीं ले जाया जाता बल्कि मन्दिर के प्रांगण में ही उसे वितरित कर देने की परम्परा है. इस मूर्ति की दैनिक पूजा नहीं होती, बल्कि वर्ष में एकबार आश्विन सुद चौदस को दुपहर में १२.३९ पर हवन होता है तथा केशर से उनकी पूजा होती है. इस अवसर पर हजारों श्रद्धालु यहाँ एकत्र होते हैं. प्रति वर्ष देश-विदेश से लाखों श्रद्धाल इस तीर्थ का दर्शन कर पण्यप्राप्ति करते हैं. समीप ही कोट्यार्क मन्दिर में प्राचीन कलापूर्ण प्रतिमाओं तथा अन्य शेष पृष्ठ ८ पर For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुत सागर, माघ २०५५ * संस्था को मिला आत्मीय स्पर्श : www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० उदार जिनशासन सेवक : रसिकभाई अचरतलाल शाह स्व. रसिकभाई का जन्म अहमदाबाद स्थित सरसपुर में वासणशेरी में हुआ था. बाल्यावस्था में ही उनकी माता का देहावसान हो गया. उनका सामान्य आर्थिक परिस्थितियों में संघर्षशील पालन-पोषण हुआ. उनमें व्यावहारिक सूझ-बूझ, बुद्धि और आत्मबल पर्याप्त था. शिक्षा के बाद अरुण मिल, अहमदाबाद में कुछ समय उन्होंने नौकरी की किन्तु स्वाभिमान, व्यवसायकुशलता, बुद्धिमत्ता के कारण स्वावलम्बी बनने की भावना से उन्होंने नौकरी छोड़ दी तथा स्वयं का व्यवसाय प्रारम्भ किया जिसमें उन्हें आशातीत सफलता प्राप्त हुई. उन्होंने पेन्सिल की फैक्टरी तथा पावरलूम के क्षेत्र में खुद का स्थान अपने कठोर परिश्रम से बनाया. स्व. रसिकभाई के श्वसूर स्व. हरिभाई बहुत दयालु, परोपकारी एवं धार्मिक थे. उनकी प्रेरणा से ई. १९६५ में स्व. रसिकभाई ने कोबा में मन्दिर बनाने का निश्चय किया था. उस समय कोबा में जंगल था. ई. १९७२ में श्री हरिभाई का देहान्त हो गया और बाद में प.पू. गच्छाधिपति आचार्य श्रीमत् कैलाससागरसूरि म.सा. की निश्रा में ई. १९८० में यहाँ मन्दिर बनना तय हुआ. प.पू. आचार्यदेव के साथ स्व. रसिकभाई का सम्पर्क महेसाणा तीर्थ में हुआ. उनको गुरुदेव के साथ तीन मास रहने का लाभ भी प्राप्त हुआ. प. पू. गच्छाधिपति आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. की प्रेरणा तथा प.पू. राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के सदुपदेश से श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा हेतु १६,००० यार्ड जमीन बिनशरती प्रदान की. इस पर देरासर, गुरुमन्दिर, उपाश्रय, आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर तथा मुमुक्षु कुटीर आदि का निर्माण किया गया है. उन्होंने श्रीमद् राजचंद्र आश्रम कोबा हेतु भी जमीन प्रदान की थी. श्री रसिकभाई धर्मप्रिय व सत्यप्रिय इन्सान थें. उनमें सद्गुणों का भण्डार था. उनके जीवन में समता का भाव मात्र उनके परिवार तक ही सीमित नहीं था बल्कि सभी प्राणी मात्र के लिए उन्हें प्रेम था. वे सभी को खमाते थे. चातुर्मास में वे मात्र १५ द्रव्यों का ही सेवन करते थें प्रतिदिन सुबह जल्दी उठकर काउस्सग्ग पूर्वक सामयिक करना, प्रतिक्रमण तथा तीन सामयिक करना उनका नियम था. नवपदजी की ओली उन्होंने पूरी की. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र स्थित देरासर में मूलनायक भगवान श्री महावीरस्वामी के साथ प्रस्थापित श्री आदीश्वर भगवान की मूर्ति भराने में आपका सहयोग प्राप्त हुआ था. इसके अतिरिक्त आपने तन-मन-धन से भी यहाँ अपना अभूतपूर्व सहयोग दिया था. देवद्रव्य की वृद्धि के लिए उन्होंने जो कुछ वे कर सकते थे बहुत प्रयास किया. १९९२ में उन्हें कैंसर हुआ तथा वे इससे जरा भी नहीं घबराये इतनी भयानक बीमारी के बावजूद समता से समस्त दुःख सहन किया. अन्तिम समय तक उनके अन्दर सभी के लिए अपार प्रेम और मैत्री भावना बरकरार थी. २१ नवम्बर १९९६ को वे पञ्चत्व में लीन हो गए. For Private and Personal Use Only स्व. रसिक भाई अपनी पत्नी श्राविका कान्ताबेन, दो पुत्र श्री उदयनभाई तथा श्री श्रीपालभाई एवं चि. जैनी, जय हेता, जूई नामक पोते-पोतियों का भरा-पूरा परिवार छोड़ गए हैं. उनकी धर्मपत्नी सुश्राविका श्रीमती कान्ताबेन धर्मपरायण एवं संवेदनशील महिला है. परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. का आपके परिवार हेतु अमी दृष्टिपूर्वक आशीर्वाद रहा है. जैन समाज एवं श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र उनके कृतित्व तथा उदार बहुमूल्य सहयोग को कभी भूल नहीं सकेगा. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, माघ २०५५ - ૧૧ મહાન શાસન પ્રભાવક, યુગદ્રષ્ટા, સુમધુર પ્રવચન-પ્રભાકર, રાષ્ટ્રસંત જૈનાચાર્ય આચાર્ય શ્રી પદ્મસાગરસૂરીશ્વરજી મ.સા.નું જીવન વૃત્તાન્ત. કનુભાઈ શાહ ગતાંકથી ચાલુ) આચાર્યશ્રીના જીવનની રજતજયંતીના મહોત્સવ પ્રસંગે તે સમયના રાષ્ટ્રપતિ શ્રી નીલમ સંજીવ રેડ્ડીએ મુંબઈના રાજભવનના વિશાળ દરબાર હોલમાં આચાર્યશ્રીનો અભિનંદન સમારોહ કર્યો હતો. આચાર્યશ્રીનું બહુમાન એ એમની જિનશાસનની સાધુતાની મહાનતાનું બહુમાન હતું. દક્ષિણ ભારતની યાત્રા : દક્ષિણ ભારતની ઐતિહાસિક યાત્રા દરમિયાન આચાર્યશ્રીએ લોકકલ્યાણ અને ધર્મચિંતનનું કામ કર્યું; લોકોમાં આધ્યાત્મિક ચેતનાને જગાડવાનું અભૂતપૂર્વ કામ કર્યું. સમાજના ધાર્મિક-સામાજિક વિકાસનાં કાર્યોમાં આ રાષ્ટ્રસંતે નવો પ્રાણ પૂર્યો છે. દક્ષિણ ભારતને અનેક મહાન સાધુ-સંતોનો સમાગમ થયો છે. પરંતુ પૂ. પદ્મસાગરસૂરીશ્વરજીના આગમન અને સમાગમ થી દક્ષિણ ભારતને નવી દિશા મળી છે અને જૈન સંઘોની ચેતનાને સંકોરાઈ છે. આચાર્યશ્રીની વાણીથી ત્યાંના જૈન સંઘોમાં શિસ્તબદ્ધતાનો જન્મ થયો છે. ઘણાં વર્ષો પછી દક્ષિણ ભારતના લોકોના જીવનક્રમમાં જિનશાસનને અનુકૂળ અનેક ગતિવિધિઓનો સંચાર થયો છે. જ્ઞાનપિપાસુઓની જિજ્ઞાસાને વધુ પ્રજ્જવલિત કરી તેમને જ્ઞાનરૂપી અમૃતધારાનું પાન કરાવવામાં આચાર્યશ્રીનું મહામૂલું પ્રદાન છે. અમર અને અનોખું એતિહાસિક સર્જનઃ રાષ્ટ્રસંત પૂ. પદ્મસાગરસૂરીશ્વરે પોતાના દાદાગુરુ પ.પૂ. ગચ્છાધિપતિ આચાર્યશ્રી કૈલાસસાગરસૂરીશ્વરજી મ. સાહેબની સ્મૃતિને અમરતા બક્ષે તેવું કલ્પનાતીત અને અવર્ણનીય સર્જન કર્યું છે. સાધુ ભગવંતો તીર્થોનું સર્જન કરે, ગુરુ મંદિરોનું સર્જન કરે; ધર્મસ્થાનોનું સર્જન કરે, પરંતુ અમદાવાદ-ગાંધીનગર હાઈવે ઉપર કોબાની સમીપમાં તીર્થ, ગુરુમંદિર, ધર્મસ્થાનકનું સર્જન કર્યું તો છે જ, પરંતુ તેથી વધુ યશસ્વી કામ જ થયું હોય તો તે છે, આચાર્ય શ્રી કેલાસસાગરસૂરિ જ્ઞાનમંદિરનું. આ જ્ઞાનમંદિર સાધુ-સાધ્વી ભગવંતો. શ્રાવક-શ્રાવિકાઓ, વિદ્વાનો અને મુમુક્ષુઓ માટે જ્ઞાનપ્રાપ્તિનો એક વિશાળ સાગર છે. વિદ્વાનો અને મુમુક્ષુઓ માટે નિવાસસ્થાન અને ભોજનશાળાનો ઉત્તમ પ્રબંધ છે; વળી સાધુ-સાધ્વી ભગવંતોની જ્ઞાનારાધના માટે અહીં ઉપાશ્રયો પણ છે. જ્ઞાનમંદિરમાં ગ્રંથાલય અને સમ્રાટ સંપ્રતિ સંગ્રહાલય છે. આ જ્ઞાનમંદિરના ગ્રંથાલય વિભાગમાં ૮૦ હજાર પુસ્તકો છે. આયુર્વેદ, જ્યોતિષ, આગમ, ન્યાય, દર્શન, યોગ, વ્યાકરણ જેવા અનેક વિષયોનો તેમાં સમાવેશ થયેલો છે. આ પુસ્તકોની માહિતી કમ્યુટર દ્વારા ઉપલબ્ધ બનાવાઈ છે. ઇન્ફોર્મેશન ટેક્નોલૉજીના અદ્યતન સાધનો વડે આ પુસ્તકોની માહિતી દરેક જિજ્ઞાસુને ત્વરિત મળી શકે છે. ૮૦,૦૦૦ પુસ્તકો ઉપરાંત ૨,૫૦,૦૦૦ જેટલી પ્રાચીન હસ્તપ્રતોનો અદ્ભુત સંગ્રહ અહીં છે. આ ઉપરાંત ૨,૫૦૦ જેટલી પ્રાચીન અને અમુલ્ય તાડપત્રીય હસ્તપ્રતો છે. અનેક હસ્તપ્રતો ચિત્રયુક્ત તેમ જ સુવર્ણાક્ષરે લખાયેલી છે. સમ્રાટ સંપ્રતિ સંગ્રહાલયમાં પુરાતત્ત્વના જિજ્ઞાસુઓના અભ્યાસ અને દર્શન માટે પ્રાચીન-અર્વાચીન નાની મોટી પ્રતિમાઓ. ચિત્રો, કલાકૃતિઓ, ચિત્રમય સુવર્ણાક્ષરી હસ્તપ્રતો, લેખનના પ્રાચીન સાધનો, ભોજપત્રો ઇત્યાદિ અખૂટ સમૃદ્ધિ પ્રદર્શિત કરેલી છે. ભૂતકાળની ભવ્યતા અને ગૌરવને પ્રદર્શિત કરતું આ સંગ્રહાલય જૈન અને જૈનેતરોને સંસ્કૃતિનાં દર્શન કરાવે છે. જૈન અને ભારતીય સંસ્કૃતિના કલા-વારસાને સંરક્ષવાનું એક આગવું અને ઉમદાકાર્ય અહીં થાય છે.. ધર્મક્ષેત્રે આચાર્યશ્રીનો વ્યાપક પ્રભાવ છે. અન્ય ક્ષેત્રો પણ એમની વાણી, વર્તન, આચાર અને કાર્યોથી પ્રભાવિત થયાં છે. ભારતના મહાન રાજપુરુષો અને રાજનીતિજ્ઞો, ગાંધીવાદી કાર્યકર સ્વ. મોરારજી દેસાઈ, For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, माघ २०५५ १२ સ્વ. ઇન્દિરા ગાંધી, રાષ્ટ્રપતિ સ્વ. જ્ઞાની ઝેલસિંહ અને શ્રી શંકરદયાલ શર્મા, શ્રી દેવગૌડા અને શ્રી અટલબિહારી બાજપેઈ જેવી મહાન વ્યક્તિઓ આ રાષ્ટ્રસંતને મળી છે. અને તેમની સાથે વિચારવિમર્શ કર્યો છે. આ રીતે અનેક ક્ષેત્રના અગ્રણીઓ એમને મળ્યા છે અને ધર્મ, સમાજ અને રાષ્ટ્રના વિકાસનાં અનેક કાયમાં આપશ્રીનું માર્ગદર્શન પ્રાપ્ત કર્યું છે. શ્રી મહાવીર જૈન આરાધના કેન્દ્ર સંસ્થા રૂપ આ તીર્થક્ષેત્ર અને જ્ઞાનમંદિરની સ્થાપના દ્વારા જ્ઞાનની ધારા વહાવીને રાષ્ટ્રના ઉત્થાનમાં રાષ્ટ્રસંતે અનોખું પ્રદાન કર્યું છે. આ __ पृष्ठ २ का शेष वृत्तान्त सागर संस्था में सुन्दर लाभ लिया. संस्था के प्रमुख श्री सोहनलालजी चौधरी साहेब आदि ट्रस्टीगण ने श्री घेवरचंदजी का शाल ओढ़ाकर बहुमान किया. धर्मसभा के अन्त में चाँदी की गिन्नियों से प्रभावना की गई. इस चातुर्मास दौरान पूज्य गुरुदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के दर्शनार्थ गुजरात के गवर्नर महामहिम श्री अंशुमानसिंहजी, मुख्य मंत्री श्री केशुभाई पटेल, पूर्व मुख्यमंत्री श्री शंकरसिंह वाघेला, परिवहन श्री श्री बिमलभाई शाह, विधानसभा के स्पीकर श्री धीरूभाई शाह, राजस्थान के शिक्षा मंत्री श्री गलाबचन्द टारिया, राजस्थान भा.ज.पा की उपाध्यक्ष श्रीमती ताराभण्डारी तथा सिरोही के महाराजश्री रघुवीरसिंहजी आदि कई महानुभाव श्रीमहावीर जैन आराधना केन्द्र- कोबा में पधारें. गुजरात के साणंद में प.पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. का दस साल बाद ७ जनवरी ९९ को पदार्पण हुआ. पूज्यश्री के पधारने से श्रीसंघ में अपूर्व उल्लास छा गया. वाचक मित्रों को याद दिलायें कि यह वही धर्म नगरी है जहाँ पर बरसों पहले पूज्यश्री ने दीक्षा ग्रहण की थी. पूज्यश्री के शिष्यरत्न प.पू. पंन्यास श्री अमृतसागरजी म.सा. एवं उनके शिष्य पू. मुनिराज श्री नयपद्मसागरजी की जन्मभूमि भी यही है. श्रीसंघ ने इस प्रसंग पर प्रभुभक्ति सहित पंचालिका महोत्सव खूब ठाटबाट से मनाया. राष्ट्रसन्त पूज्य आचार्यश्री आदि मुनिवरों की पावन उपस्थिति में पू. साध्वी श्री कुसुमश्रीजी म. के समाधिमय कालधर्म की प्रथम पुण्य तिथि निमित्त श्री साबरमती जैन संघ ने श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिन मंदिर के प्रांगण में विविध महापूजन सहित प्रभुभक्ति का महोत्सव मनाया. पूजन में जीवदया की सराहनीय टीप हई *अहमदाबाद स्थित आंबलीपोल, झवेरीवाड के उपाश्रय में योगनिष्ठ श्रीमदबुद्धिसागरसूरि म.सा. के समुदायवर्ती पू. साध्वीश्री वसन्तश्रीजी म. की प्रशिष्या साध्वीश्री पीयूषपूर्णाश्रीजी का वर्धमान तप की १००वीं ओलीजी का निर्विघ्न पारणा हुआ. पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यदेवश्री की निश्रा में इस प्रसंग पर प्रभु भक्ति का सुन्दर आयोजन किया गया.. अचिार्य श्री भद्रबाहुसागरसूरिजी म.सा. का अहमदाबाद में कालधर्म प.पू. सरल स्वभावी, स्वाध्याय रसिक, शान्तमूर्ति आचार्य श्री भद्रबाहुसागरसूरीश्वरजी म.सा. ८२ वर्ष की अवस्था में वि.सं. २०५५ पोष शुदि १२, ३० दिसम्बर १९९८ को नमस्कार महामन्त्र का स्मरण करते हुए समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त हुए. आप में स्वाध्याय का दृढ़ अनुराग था. सदैव हाथ में पुस्तक प्रतादि लिये ज्ञानार्जन करते ही रहते थे. अन्तिम चातुर्मास आपने श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र- कोबा में किया. ५५ वर्ष के दीक्षा पर्याय में आपने विविध उग्र तपश्चर्याओं में वर्धमान तप की ७३ ओलियों के साथ ही छट्ठ, अट्ठाई वर्षीतप आदि निर्विघ्न रूप से सम्पन्न की थीं. पूज्यश्री ने गुजरात के अतिरिक्त राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र आदि में चातुर्मास कर जिन शासन की प्रभावना की थी. आपके चारित्र धर्म एवं शासन प्रभावना की समस्त संघ अनुमोदना पूर्वक गुणानुवाद करता है. पिछले कई दिनों से आपके अस्वस्थ होने पर पूज्य आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य-प्रशिष्यादि ने खुब सुन्दर वैयावच्च की थी. For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुत सागर, माघ २०५५ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३ नय और प्रमाण आचार्य श्री पद्मसागरसूरि वस्तु का एकांगी दर्शन कराने वाला नय है. किसी एक ही बात को मुख्य बनाकर और जगत की अन्य सभी बातों को गौण बनाकर कुछ कहना नय है. नय अकेला सत्य नहीं है. वस्तु के सभी पर्यायों के समाहार से एक वस्तु का ज्ञान होता है, यही प्रमाण है. नय में मिथ्यात्व होता है और प्रमाण में सम्यक्त्व होता है. जैन दर्शन प्रमाणरूपी पेट के अंदर नय को समाविष्ट करता है. सत्य और असत्य का मिश्रण अर्थात जीवन का व्यवहार. व्यवहारिक असत्य में से सत्य को अलग कर लेना चाहिए. जैसे हम बोलते है - "हम गेहूँ बीन रहे हैं." लेकिन वास्तव में हम गेहूँ में से कंकर बीनते हैं. जीवन का व्यवहार नय और प्रमाण से ही चलता है और नय प्रमाण को जान लेने के बाद सम्यक् दर्शन प्राप्त होता है. वस्तु को पकड़ना यह नय है और उसे चारों ओर से देखना - समग्रता में देखना उसी का प्रमाण है, जगत् के अन्य तत्त्वज्ञानियों ने 'नय' को ही अपनाया है, जबकि जैन तत्त्वज्ञान में 'प्रमाण' को अपनाया गया है. नय की वजह से ही अलग-अलग सम्प्रदाय बने हैं. नाव में अगर संतुलन नहीं हो तो नाव डूब जाती है. उसी प्रकार अकेले नय के आधार पर स्थापित धर्म भी नष्ट हो जाता है. . सभी सातों नय जब एकत्र होते हैं, तब प्रमाण बनता है जैसे सौंठ और गुड़ के गुण अलग-अलग होते हैं. किंतु जब सौंठ और गुड़ एकत्र हो जाते हैं तब वे वात, पित्त और कफ तीनों को दूर करते है. गुडो हि कफहेतुः स्यात्, नागरं पित्तकारणं । द्वयात्मनि न दोषोऽस्ति, गुडनागर भेषजे ।। कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य कृत वीतराग स्तोत्र ८/६ नय और प्रमाण का दर्शन जीवन में भी होता है. पहली मंजिल और दूसरी मंजिल यह नय है और अंतिम मंजिल यह प्रमाण है. पहले मजले पर से होनेवाला दर्शन एकांगी होता है लेकिन अंतिम मंजिल पर से होनेवाला दर्शन संपूर्ण होता है. सब नयों के समन्वय को प्रमाण कहते हैं एक-एक रूपया मिलकर सौ रूपये बनते हैं. एक रूपया अर्थात नय और सौ रुपये अर्थात् प्रमाण. नय के आधार पर चलनेवाला जगत् औरों के विचारों को जान नहीं सकता. इसीलिए विचारों को नय से शुरू करना चाहिए और प्रमाण से पूर्ण करना चाहिए. अकेला नय या अकेला प्रमाण चल नहीं सकता. शब्द का अर्थ नय से होता है और बात का विचार प्रमाण से होता है, जैसे नय के आधार पर 'राजा' शब्द का एक ही अर्थ होता है तथा प्रमाण से उसके अनेक अर्थ होते हैं. नय के द्वारा अर्थ की प्राप्ति होती है और प्रमाण के द्वारा निर्णय लिया जाता है. For Private and Personal Use Only प्रमाण को समझकर ही आचरण करना चाहिये. ज्ञान तो सब के पास होता है, किंतु उस ज्ञान के अनुसार आचरण करना कठिन है. जब क्रिया का चिंतन होता है तभी मन में भाव उत्पन्न होता है. क्रिया को "अर्थ" मिल जाय तो प्रमाद चला जाता है, जब तक क्रिया को "अर्थ" नहीं मिलता तब तक प्रमाद उड़ता नहीं है. शब्दों का अभ्यास तो बहुत किया, लेकिन अर्थ हम एक भी नहीं समझे अर्थ समझ में आने के बाद ही आनंद उत्पन्न होता है और तब अर्थ के चिंतन से आत्मा का कल्याण होता है. अर्थ एकांत में उपासना और साधना की अपेक्षा रखता है. शब्द बनाना आसान है, लेकिन अर्थ करना कठिन है. नय को प्रमाण के घर में ले जाने से 'अर्थ' प्राप्त हो जाता है, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, माघ २०५५ જૈન દર્શનમાં પ્રકાશપુંજ: ૨ સમ્યગ્દર્શનમ્ મુનિ શ્રી અમરપદ્મસાગરજી आधारभूतं जिनशासनस्य, पवित्रपीठं शिवमन्दिरस्य। द्वयादिभेदैः परिकीर्तितं च प्रणौमि सम्यक्त्व पदं सुभक्त्या ।। શ્રી જિનશાસનરુપી ભવ્ય ઇમારતનો આધારસ્તંભ સમ્યક્ત છે અને મોક્ષમંદિરની પવિત્રપીઠ પણ સમ્યક્ત છે. સમ્યક્તની પ્રાપ્તિ થયા પછી જીવ અવશ્ય મોક્ષપદને પ્રાપ્ત કરે છે. અનન્ત સંસારમાં પરિભ્રમણ કરતા જીવનો જ્યારે અપાદ્ધ પુદ્ગલ પરાવર્ત સંસાર બાકી રહે છે ત્યારે તે જીવ સમ્યક્ત પામી શકે છે. અપાદ્ધ પરાવર્ત સંસાર જે જીવનો વધારે હોય તે જીવ સમ્યક્તને પામી શકતો નથી. પરમાત્માની સંપૂર્ણ આજ્ઞા જે વ્યક્તિને રુચિપૂર્વક શિરોમાન્ય હોય તે જ વ્યક્તિ સમ્યક્વી બની શકે છે. સમ્યક્ત ધારણ કરનારી વ્યક્તિ સંસારથી ભયભીત હોય છે, કારણકે સંસારના કલુષિત પરિણામોમાં એ વ્યક્તિને અત્યન્ત દુઃખાનુભવ થતો હોય છે! જૈન શાસનના પરમાર્થગ્રાહી ગુરુ ભગવન્તો પણ શ્રાવકવ્રત અથવા સાધુવ્રતના દાનના પ્રસંગમાં સહુથી પહેલા સમ્યક્તનું દાન કરે છે. સમયન્ત વગરનું વ્રતદાન મોક્ષ આપવા માટે અસમર્થ બને છે. માટે આચાર્ય શ્રી હરિભદ્રસૂરિ કૃત પંચાશકની ટીકામાં આચાર્ય શ્રી અભયદેવસૂરિ મહારાજ સાહેબ જણાવે છે કે – संसारभीतो अन्यथाविधस्य हि व्रतप्रतिपत्ति न मोक्षाय स्यात। સમ્યક્ત મુખ્યત્વે ત્રણ પ્રકારના છે- ૧, ક્ષાયિક ૨. ક્ષાયોપથમિક ૩. પથમિક. ૧. ક્ષાયિક- અનન્તાનુબંધી ક્રોધ, માન, માયા અને લોભ તથા સમ્યક્વમોહનીય, મિશ્રમોહનીય અને મિથ્યાત્વમોહનીય આ સાત કર્મ પ્રકૃતિનું જ્યારે આત્મા ઉપરથી સત્તા તરીકે પણ અસ્તિત્વ ન હોય ત્યારે ક્ષાયિક સમ્યક્ત જીવને પ્રાપ્ત થાય છે. આ સમ્યક્તની સ્થિતિ સાદિ અનન્ત કાલની છે. આ સમ્યક્તને પામનારા જીવો ઉત્કૃષ્ટથી ચારથી પાંચ ભવ સુધી જ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરીને મોક્ષસુખ નિશ્ચયથી પામે છે. સમ્યક્ત પામતી વખતે જો જીવે આયુષ્યનો બંધ કર્યો ન હોય તો ચોક્કસ પણે તે જ સમયે ક્ષપકશ્રેણિ માંડીને નિર્મળ કેવલજ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરે છે. દર્શન સપ્તકના ક્ષયથી પ્રગટ થતું આ સમ્યક્ત ક્ષાયિકભાવનું કહેવાય છે. ચોથા ગુણસ્થાનકથી તમામે તમામ ગુણસ્થાનકમાં આ સમ્યક્ત હોઈ શકે છે. ૨. ક્ષાયોપથમિક સમ્યક્ત- આ સમ્યક્ત ઉપરોક્ત સાત કર્મ પ્રકૃતિના ક્ષયોપશમથી પ્રગટ થાય છે. તેનો કાલ જઘન્યથી અન્તર્મુહૂર્ત અને ઉત્કૃષ્ટથી સાધિક સાગરોપમની સ્થિતિનો છે. ક્ષયોપશમ સમ્યક્તને જીવ અસંખ્યાત વખત પણ પ્રાપ્ત કરી શકે છે. મૂલથી મિથ્યાત્વરસના પુદ્ગલને જીવ વિશેષ પુરુષાર્થથી શુદ્ધ કરીને વેદે છે માટે આ સમ્યકત્વને વેદક સમ્યક્ત પણ કહેવાય છે. આ સમ્યક્તમાં વર્તતા જીવોમાં સમ્યક્ત સંબંધી અતિચારની સંભાવના રહેલી છે. આ સમ્યક્ત ચોથા ગુણસ્થાનકથી સાતમા ગુણસ્થાનક સુધી હોય છે. ૩. ઔપશમિક સમ્યક્ત- ઉપરોક્ત દર્શન સપ્તકના ઉપશમનથી આ સમ્યક્તની પ્રાપ્તિ થાય છે. આ સમ્યક્તનો કાલ અન્તર્મુહૂર્તનો છે. ઉપશમભાવનું આ સમ્યક્ત ચોથા ગુણસ્થાનકથી ૧૧મા ગુણસ્થાનક સુધી હોઈ શકે છે. [વધુ આવતા અંકે] पाठकों से नम्र निवेदन यह अंक आपको कैसे लगा, हमें अवश्य लिखें. आपके सुझावों की प्रतीक्षा है. आप अपनी अप्रकाशित रचना/लेख सुवाच्य अक्षरों में लिख कर हमें भेज सकते हैं. अस्वीकृत रचनाओं की वापसी के लिए उचित मूल्य का डाक टिकट लगा लिफाफा अवश्य भेजें. - सम्पादक, श्रुत सागर For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, माघ २०५५ ग्रंथावलोकन सभी प्रकार के वाचकों के लिए अवश्य पढ़ने एवं बसाने योग्य तीर्थ मार्गदर्शिकायें शेठ आणन्दजी कल्याणजी, अहमदाबाद तथा श्रुतनिधि, अहमदाबाद ने संयुक्त रूप से गुजरात एवं राजस्थान स्थित जैन तीर्थों से सम्बन्धित नयनरम्य श्वेतश्याम चित्रों से युक्त मार्गदर्शिकाओं के प्रकाशन का प्रशंसनीय कार्य किया है. सात पुस्तकों के एक साथ प्रकाशित सेट की इन मार्गदर्शिकाओं को तीर्थों के अल्पज्ञात ऐतिहासिक तथा कलात्मक पक्षों का भारतीय विद्या के बहुश्रुत विद्वान प्रो. मधुसूदन ढांकी (निदेशक, अमेरिकन इन्स्टिट्यूट ऑफ इण्डियन स्टडीज, वाराणसी) द्वारा विवेचन सहित प्रकाशन तैयार कराया गया है. इन विवेचनों से पश्चिमोत्तर भारत में जैन धर्म की लोकप्रियता तथा प्रसार की सूचनायें स्पष्ट रूप से ज्ञात होती है. लेखक ने जैन देरासरों के गुजराती भाषा में लिखित इस इतिहास लेखन में शिल्प एवं स्थापत्य के साथ ही अभिलेखो, स्तुति, स्तोत्र, तीर्थ वन्दनादि लघु कृतियों, विधि-विधानों यात्रा वृत्तान्तों आदि का सहारा लिया है. इन प्रकाशनों से इन तीर्थों की अधिकृत ऐतिहासिक सूचनाओं का महत्वपूर्ण संकलन हो सका है. जिसके लिए लेखक तथा प्रकाशक धन्यवाद के पात्र हैं. इन प्रकाशनों का छायांकन उत्कृष्ट है. इन पुस्तकों का राष्ट्र भाषा तथा अंग्रेजी में अनुवाद करने का भी सम्बन्धित प्रकाशक द्वय विचार करें ऐसा अनुरोध है. निस्संदेह इनके प्रकाशनों से ज्ञान-पिपासुओं के साथ ही धार्मिक जनता को भी अधिकृत जानकारी उपलब्ध होने के साथ ही अतीत के गौरव का स्वाभिमान पूर्वक अनुचिन्तन, दर्शन हो सकेगा. शेठ आणन्दजी कल्याणजी, झवेरीवाड, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित मार्गदर्शिकायें : १. आरसीतीर्थ आरासण (कुम्भारियाजी) २. राजर्षि विनिर्मित तारंगातीर्थ ३. महातीर्थ उज्जयन्तगिरि (गिरनारतीर्थ) ४. वरकाणा तीर्थ श्रतनिधि, शाहीबाग अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित मार्गदर्शिकायें : ५. कलाधाम देलवाडा ६. मेवाडनी तीर्थत्रयी (देलवाडा, केलवाडा अने करहेडानां जिनमन्दिरो) ७. जगविख्यात जेसलमेरतीर्थ सात पुस्तकों के सेट का मूल्य रू.५५०.००, प्राप्ति स्थान : (१) शेठ आणन्दजी कल्याणजी, झवेरीवाड, अहमदाबाद (२) शारदाबेन चीमनलाल एजुकेशनल रीसर्च इन्स्टिच्यूट, दर्शन, शाहीबाग, अहमदाबाद कोबा में महावीरालय की वर्षगांठ तथा भव्य दीक्षा महोत्सव शनिवार, माघ सुदि १४, वि. २०५५ तदनुसार ३०.०१.९९ के शुभ दिन श्री महावीर जैन आराधना केन्द्रकोबा स्थित महावीरालय की बारहवीं वर्षगांठ प.पू. शिल्पशास्त्रज्ञ आचार्य श्री कल्याणसागरसूरीश्वरजी म.सा. व आपश्री के शिष्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. आदि ठाणा की निश्रा में मनाई जाएगी. इसी दिन यहाँ तीन बालब्रह्मचारी मुमुक्षुओं की भागवती प्रव्रज्या होगी. जिसमें श्री हेमन्तकुमार, श्री विजय कुमार एवं श्री उत्पल कुमार इस असार संसार का त्याग कर प्रभु महावीर के पथ पर अग्रसर होंगे. For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, माघ 2055 एक भव्य शासनप्रभावक ज्ञान पिपासु आत्मा राजपुताना की गौरवमयी भूमि पर जन्मे वीरपुत्र आत्माराधक श्रुतभक्त उपाध्याय श्री धरणेन्द्रसागरजी म.सा. आचार्य श्री पद्मसागरसूरि जोधपुर निवासी श्री हुकमराजजीसा मोहनोत के सुसंस्कारी घर में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती ज्ञानकुंवर की कुक्षि से एक बालक का जन्म हुआ जो शंकरराज के नाम से जाना गया. धर्म संस्कारों से ओत-प्रोत इस परिवार में बालक का लालन-पालन उच्च जैन परम्पराओं के अनुरूप धर्म की छत्र-छाया में हुआ. शंकरराज बहुत ही दयालु एवं अन्तर्मुखी बालक थ.. सहज में ही इसका परिचय मेरे साथ हुआ. तब मैं मुनि अवस्था में था. मेरे सम्पर्क में आने के बाद शंकरराज को आत्मोन्नति में सहायक साध्वाचार में निष्ठा उत्पन्न हुई. शकरराज बड़े आग्रह से जिनेन्द्र परमात्मा कथित चारित्र धर्म के लिए हम लोगों को राजी कराने में सफल हो गए और मात्र 22 वर्ष की युवावस्था में संसार को तृणवत् क्षणभंगुर समझ कर सन् 1961 में श्रीफलवृद्धि पार्श्वनाथ जैन तीर्थ (मेड़ता रोड) में दीक्षा प्राप्त किये. दीक्षा के बाद शंकरराज का नाम श्री मुनि धरणेन्द्रसागर रखा गया. अब उन्होंने अपने ज्ञान-ध्यान में वृद्धि करने के साथ ही तत्वज्ञान का गहन चिन्तन प्रारम्भ किया. निरन्तर शान्तभाव से सभी प्रवृत्तियों से हट कर उन्होंने स्वाध्याय, अध्ययन-अध्यापन, लेखन, चिन्तन-मनन में अपना समय दिया. संस्कृ प्राकृत, हिन्दी, गजराती मारवाड़ी एवं अंग्रेजी भाषाओं में उन्होंने प्रवीणता प्राप्त की थी. सन् 1986 में मुनि धरणेन्द्रसागरजी की उत्तम साधुता एवं सुयोग्य चारित्र पर्याय को देखते हुए संघ ने उन्हें बड़े उल्लास के साथ आम्बावाडी, अहमदाबाद में पंन्यास पद तथा सन् 1993 में श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा में विशाल जनमेदिनी के समक्ष उपाध्याय पद से विभूषित किया था. उपाध्यायजी में साधु के सर्वोत्कृष्ट गुण विद्यमान थें. गुरुजनों के प्रति उनका समर्पण भाव अनुकरणीय है. उनका जीवन एक खुली किताब जैसा था. रसनेन्द्रिय पर उनका अनुमोदनीय नियन्त्रण था. 37 वर्ष के चारित्र्य पर्याय में उन्होंने 15 मन्दिरों की प्रतिष्ठा कराई. कई मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया. कुछेक मूर्तियों को भराने में उनका योगदान रहा तथा 10 छरी पालित संघों को निश्रा दी. विगत 15 वर्षों में उन्होंने अनेक उद्यापनों एवं उत्सवों को सम्पन्न कराया. मुम्बई, जयपुर, दिल्ली, कलकत्ता, अजीमगंज, अहमदाबाद जैसे शहरों में चातुर्मास कियें तथा संघ को मार्गदर्शन देकर प्रभु महावीर के आचार एवं विचारों का प्रचार कर जिनशासन की महती सेवा की है. [शेष पृष्ठ 4 पर Book Post/Printed Matter सेवा में प्रेषक: संपादक, श्रुत सागर आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर 382 009 (INDIA) प्रकाशक : सचिव, श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा, गांधीनगर - 382 009 For Private and Personal Use Only