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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुत सागर, माघ २०५५ सातवें कुशील परिभाषित अध्ययन में कुशील का अर्थ बताया गया है. अज्ञानवश यज्ञ इत्यादि करने से मोक्ष मिलेगा मानने वालों को कुशील कहा है. उनके अयोग्य वचनों और मान्यताओं का मिथ्यात्व सिद्ध करने वाले अध्ययन को कुशील परिभाषित कहा गया है. इसमें कहा गया है कि सम्यक दर्शनादि मोक्षमार्गों की साधना करने से ही मोक्ष मिलेगा, ऐसा जिनशासन का फरमान सर्वांश में घटित होता है. वीर्याध्ययन नामक आठवें अध्ययन में जिनधर्म की आराधना करने में आत्मिक वीर्य को फोड़ने की बातें कही गईं हैं. इसमें बताया गया है कि बालवीर्य में अज्ञान की प्रधानता होने से कर्मकी निर्जरा नहीं हो सकती किन्तु पण्डित वीर्य कर्मनिर्जरा एवं मोक्ष का कारण होता है. इसमें तप करने की विधि बताते हुए कहा गया है कि यह मान-सम्मान, यश-कीर्ति, परलोक में इन्द्रपद इत्यादि आकांक्षाओं के लिए नहीं करना चाहिए. धर्माध्ययन नामक नवें अध्ययन में वैराग्य समता, विवेक आदि गुणों को धारण कर मुनियों को सद्गुरु की सेवा, सच्चा त्यागी बनकर आस्रवों का त्याग, विरेचनादि का परिहार, आहारादि के उपयोग में नियमितता के साथ लोलुपता न रखने कायिक प्रवृत्तियों का निरोध, आवश्यक वाणी ही बोलने, इत्यादि आत्मधर्म स्पष्ट रूप से वर्णित हैं. इसी कारण इसे धर्माध्ययन नाम दिया गया है. समाधि अध्ययन दसवां अध्ययन है. इसमें चितशुद्धि, एकाग्रता, स्वस्थता होने पर आत्मा समाधि में जाती है ऐसा बताया गया है. समाधि अर्थात् मन की स्वस्थता. मुनियों के लिए इसमें कहा गया है कि वे सभी पर समभाव रखें. मोक्षमार्गाध्ययन नामक ग्यारहवें अध्ययन में मोक्षमार्ग के स्वरूप का वर्णन है. मोक्ष के अव्याबाध सुख की प्राप्ति के साधनों तथा भिक्षा सम्बन्धित विवेचन के साथ ही अहिंसा के तात्त्विक स्वरूप का भी वर्णन इसमें है. समवसरणाध्ययन नामक बारहवें अध्ययन में ३६३ पाखण्डी मतों का वर्णन कर जैन दृष्टि से उनके मिथ्यात्व का विवेचन है. प्रसंगोपात विविध प्रकार से जैन दर्शन के सिद्धान्तों एवं मान्यताओं का विशद वर्णन टीकाकारों ने किया है. ___ याथातथ्य नामक तेरहवें अध्ययन में धर्म के यथार्थ स्वरूप का विवेचन है. इस अध्ययन में मुनियों को तप, बुद्धि, कुल, इत्यादि का मद न करने, दूसरों से प्रशंसा न कराने तथा ऐसी चाह न रखने, विभाव का परिहार और स्वधर्म को स्वीकारना आदि धर्म बतायें हैं. ग्रंथाध्ययन नामक चौदहवें अध्ययन में परिग्रह का स्वरूप बताकर मुनियों के लिए हितशिक्षा बताई है. मुनि को स्वच्छंदी न हो कर गुरु के साथ रहने, विनय के साथ सीखने, विनय के साथ धर्म का यथार्थ स्वरूप समझ हृदय में प्रस्थापित कर तदनुसार वर्तन करने के लिए कहा गया है. स्याद्वाद के रहस्य को समझकर तदनुसार आचरण की अपेक्षा रखी गई है. यमकीय नामक पंद्रहवें अध्ययन में यमक श्लोक बहुतायत में हैं. प्रभु श्री महावीर द्वारा कथित संयम धर्म का विस्तार से वर्णन है. प्रभु वीर सर्वज्ञ, सत्य सम्पन्न थे. सभी जीवों के लिए उनका मैत्री भाव था. उनके पूर्व के तीर्थंकरों द्वारा यही धर्म कहा गया है तथा भावी तीर्थंकरों द्वारा भी यही धर्म कहा जाएगा. इस एकरूपता का प्रतिपादन करते हुए इस अध्ययन में कहा गया है कि महादुर्लभ मनुष्यावतार को सफल करने के लिए आत्माराधना के साधनों का सेवन कर आत्महित करना चाहिए. गाथाध्ययन नामक सोलहवें अध्ययन में पूर्वोक्त १५ अध्ययनों के वर्णनों का प्रारूप संक्षेप में है. इस अध्ययन की रचना सामुद्रक छंद में होने के कारण तथा सामुद्रक का दूसरा नाम गाथा होने से इसका नाम गाथाध्ययन रखा गया है. इसमें माहण, श्रमण, भिक्षु, निग्रंथ शब्दों का स्वरूप विस्तार से कहा गया है. जो इन्द्रियों का वशीकरण करें, शरीरादि से मोह न करें, मोक्ष को ही साध्य माने, संयम की ही साधना करे वह माहण है. श्रमण, भिक्ष व निग्रंथ भी वही है. क्रमशः For Private and Personal Use Only
SR No.525258
Book TitleShrutsagar Ank 1999 01 008
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoj Jain, Balaji Ganorkar
PublisherShree Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year1999
Total Pages16
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size1 MB
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