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श्रुत सागर, माघ २०५५ जैन साहित्य - ७
सूत्रकृताग (गत अंक में आपको सूत्रकृताङ्ग का प्राथमिक परिचय कराया गया था. इस अंक में अब सूत्रकृताङ्ग का विस्तार से परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है.]
सूत्रकृताङ् की वाचना में स्वमत तथा परमत की चर्चा प्रथम श्रुतस्कंध में संक्षेप में की गई है जब कि द्वितीय श्रुतस्कंध में यह स्पष्ट रूप से उपलब्ध होती है. इस आगम में जीवविषयक स्पष्ट निरूपण भी है. नवदीक्षितों के लिए उपदेशप्रद बोधवचन उपलब्ध वाचनाओं में मिलते हैं. इनमें ३६३ पाखण्ड मतों की चर्चा के लिए पूरा एक अध्ययन है. इसके अतिरिक्त दूसरे स्थानों पर भी पाखण्ड, भूतवादी, स्कंधवादी, एकात्मवादी, नियतिवादी आदि मतावलम्बियों की चर्चा हुई है. सष्टि की उत्पत्ति के विविध वादों की चर्चा तथा मोक्षमार्ग का निरूपण सूत्रकृताङ्ग की वाचनाओं में सुन्दर रूप में हुआ है. इनमें ज्ञान, आस्रव, पुण्य-पाप आदि का प्रेरणास्पद विवेचन दृष्टिगत होता है.
सूत्रकृताङ्ग का प्रथम श्रुतस्कंध : सूत्रकृताङ्ग के प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन का नाम समय है. इसमें स्वसिद्धान्त का निरूपण और पर सिद्धान्त का निरसन की दृष्टि से निरूपण किया गया है. इसमें पंचमहाभूतिकवाद आदि के स्वरूपों की जानकारी मिलती है. यहाँ परधर्मियों की मान्यताओं एवं आचार-विचार का वर्णन होने के साथ ही जैन दर्शन के स्याद्वाद शैली से इनके मिथ्यात्व को सिद्ध कर सर्वज्ञ तीर्थंकर प्ररूपित धर्म की सत्यता का प्रतिपादन किया गया है.
द्वितीय अध्ययन का नाम वैतालीय अध्ययन है. इस अध्ययन में कर्मरूपी लकड़ी के नाश हेतु वैराग्य आदि साधनों का उपयोग बताया गया है. इसकी टीका में भगवान ऋषभदेव का एक प्रकरण है जिसमें राज्याभिलाषी उनके ९८ पुत्रों को उन्होंने प्रतिबोध देते हुए वास्तविक आत्मिक राज्य को समझा कर निर्मल संयम का साधक बनने के लिए उपदेश दिया है. वे कहते हैं कि कामभोग से वासना बढ़ती ही जाती है, इसलिए अचल वैराग्य भाव से संयम की साधना कर मुक्ति का अव्याबाध सुख प्राप्त करो. इस प्रकार आत्महितकारी और अहिंसादि साधनों का विस्तार से वर्णन करता है, जिससे यह अध्ययन बहुत ही प्रेरणास्पद और हृदयस्पर्शी है.
उपसर्गपरिज्ञा नामक तीसरे अध्ययन में मोक्षमार्ग के आराधक भव्य जीवों हेतु उपसर्गों की दशा में धैर्य बना रहे ऐसे उपदेश दिये गये हैं. उपसर्गों के प्रसंग में इन्हें कर्म निर्जरा के अपूर्व साधन मानकर इन्हें सहन करने, आत्मधर्म से न चूकने, शीत-उष्ण, अपमान इत्यादि सहन करने, स्नेह-ममता का त्याग करने, प्रत्युत्तर शान्ति से और स्पष्ट रूप में देने, वस्तु स्वरूप समझने, कुशास्त्रवचनों को सुनकर स्वधर्म की आराधना में संकोच न करने आदि हकीकतों का समुचित उपदेशपरक विवेचन किया गया है.
स्त्रीपरिज्ञा नामक चौथे अध्ययन में स्त्री के संसर्ग से होने वाली हानि आत्महितसाधक पुण्यात्माओं के लिए त्याज्य बताई गई है. उन्हें शील धर्म की अखंड आराधना करनी चाहिए, ऐसा स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है.
नरकविभक्ति नाम पांचवे अध्ययन में विषयकषायादि सेवन करने वाले जीवों की नरक में होने वाली परिस्थिति का वर्णन है. स्वधर्म से चूकने वाले जीवों का हाल देखकर स्वधर्म की सिद्धि का सुख प्राप्त करने के उपाय बताये गये हैं.
महावीर स्तुति नामक छठे अध्ययन में प्रभु महावीर की गम्भीरता, तप, समता, सहनशीलता, वैराग्य, ज्ञान, शील इत्यादि गुणों का योग्य उपभाओं का प्रयोग कर स्तवन किया गया है.
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