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श्रुत सागर, माघ २०५५
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नय और प्रमाण
आचार्य श्री पद्मसागरसूरि
वस्तु का एकांगी दर्शन कराने वाला नय है. किसी एक ही बात को मुख्य बनाकर और जगत की अन्य सभी बातों को गौण बनाकर कुछ कहना नय है. नय अकेला सत्य नहीं है. वस्तु के सभी पर्यायों के समाहार से एक वस्तु का ज्ञान होता है, यही प्रमाण है. नय में मिथ्यात्व होता है और प्रमाण में सम्यक्त्व होता है.
जैन दर्शन प्रमाणरूपी पेट के अंदर नय को समाविष्ट करता है. सत्य और असत्य का मिश्रण अर्थात जीवन का व्यवहार. व्यवहारिक असत्य में से सत्य को अलग कर लेना चाहिए. जैसे हम बोलते है - "हम गेहूँ बीन रहे हैं." लेकिन वास्तव में हम गेहूँ में से कंकर बीनते हैं. जीवन का व्यवहार नय और प्रमाण से ही चलता है और नय प्रमाण को जान लेने के बाद सम्यक् दर्शन प्राप्त होता है.
वस्तु को पकड़ना यह नय है और उसे चारों ओर से देखना - समग्रता में देखना उसी का प्रमाण है, जगत् के अन्य तत्त्वज्ञानियों ने 'नय' को ही अपनाया है, जबकि जैन तत्त्वज्ञान में 'प्रमाण' को अपनाया गया है. नय की वजह से ही अलग-अलग सम्प्रदाय बने हैं. नाव में अगर संतुलन नहीं हो तो नाव डूब जाती है. उसी प्रकार अकेले नय के आधार पर स्थापित धर्म भी नष्ट हो जाता है.
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सभी सातों नय जब एकत्र होते हैं, तब प्रमाण बनता है जैसे सौंठ और गुड़ के गुण अलग-अलग होते हैं. किंतु जब सौंठ और गुड़ एकत्र हो जाते हैं तब वे वात, पित्त और कफ तीनों को दूर करते है.
गुडो हि कफहेतुः स्यात्, नागरं पित्तकारणं । द्वयात्मनि न दोषोऽस्ति, गुडनागर भेषजे ।।
कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य कृत वीतराग स्तोत्र ८/६ नय और प्रमाण का दर्शन जीवन में भी होता है. पहली मंजिल और दूसरी मंजिल यह नय है और अंतिम मंजिल यह प्रमाण है. पहले मजले पर से होनेवाला दर्शन एकांगी होता है लेकिन अंतिम मंजिल पर से होनेवाला दर्शन संपूर्ण होता है.
सब नयों के समन्वय को प्रमाण कहते हैं एक-एक रूपया मिलकर सौ रूपये बनते हैं. एक रूपया अर्थात नय और सौ रुपये अर्थात् प्रमाण.
नय के आधार पर चलनेवाला जगत् औरों के विचारों को जान नहीं सकता. इसीलिए विचारों को नय से शुरू करना चाहिए और प्रमाण से पूर्ण करना चाहिए. अकेला नय या अकेला प्रमाण चल नहीं सकता. शब्द का अर्थ नय से होता है और बात का विचार प्रमाण से होता है, जैसे नय के आधार पर 'राजा' शब्द का एक ही अर्थ होता है तथा प्रमाण से उसके अनेक अर्थ होते हैं.
नय के द्वारा अर्थ की प्राप्ति होती है और प्रमाण के द्वारा निर्णय लिया जाता है.
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प्रमाण को समझकर ही आचरण करना चाहिये. ज्ञान तो सब के पास होता है, किंतु उस ज्ञान के अनुसार आचरण करना कठिन है. जब क्रिया का चिंतन होता है तभी मन में भाव उत्पन्न होता है.
क्रिया को "अर्थ" मिल जाय तो प्रमाद चला जाता है, जब तक क्रिया को "अर्थ" नहीं मिलता तब तक प्रमाद उड़ता नहीं है.
शब्दों का अभ्यास तो बहुत किया, लेकिन अर्थ हम एक भी नहीं समझे अर्थ समझ में आने के बाद ही आनंद उत्पन्न होता है और तब अर्थ के चिंतन से आत्मा का कल्याण होता है. अर्थ एकांत में उपासना और साधना की अपेक्षा रखता है. शब्द बनाना आसान है, लेकिन अर्थ करना कठिन है.
नय को प्रमाण के घर में ले जाने से 'अर्थ' प्राप्त हो जाता है,