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श्रुत सागर, माघ २०५५
* संस्था को मिला आत्मीय स्पर्श :
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उदार जिनशासन सेवक : रसिकभाई अचरतलाल शाह
स्व. रसिकभाई का जन्म अहमदाबाद स्थित सरसपुर में वासणशेरी में हुआ था. बाल्यावस्था में ही उनकी माता का देहावसान हो गया. उनका सामान्य आर्थिक परिस्थितियों में संघर्षशील पालन-पोषण हुआ. उनमें व्यावहारिक सूझ-बूझ, बुद्धि और आत्मबल पर्याप्त था. शिक्षा के बाद अरुण मिल, अहमदाबाद में कुछ समय उन्होंने नौकरी की किन्तु स्वाभिमान, व्यवसायकुशलता, बुद्धिमत्ता के कारण स्वावलम्बी बनने की भावना से उन्होंने नौकरी छोड़ दी तथा स्वयं का व्यवसाय प्रारम्भ किया जिसमें उन्हें आशातीत सफलता प्राप्त हुई. उन्होंने पेन्सिल की फैक्टरी तथा पावरलूम के क्षेत्र में खुद का स्थान अपने कठोर परिश्रम से बनाया.
स्व. रसिकभाई के श्वसूर स्व. हरिभाई बहुत दयालु, परोपकारी एवं धार्मिक थे. उनकी प्रेरणा से ई. १९६५ में स्व. रसिकभाई ने कोबा में मन्दिर बनाने का निश्चय किया था. उस समय कोबा में जंगल था. ई. १९७२ में श्री हरिभाई का देहान्त हो गया और बाद में प.पू. गच्छाधिपति आचार्य श्रीमत् कैलाससागरसूरि म.सा. की निश्रा में ई. १९८० में यहाँ मन्दिर बनना तय हुआ. प.पू. आचार्यदेव के साथ स्व. रसिकभाई का सम्पर्क महेसाणा तीर्थ में हुआ. उनको गुरुदेव के साथ तीन मास रहने का लाभ भी प्राप्त हुआ.
प. पू. गच्छाधिपति आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी म.सा. की प्रेरणा तथा प.पू. राष्ट्रसन्त आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. के सदुपदेश से श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा हेतु १६,००० यार्ड जमीन बिनशरती प्रदान की. इस पर देरासर, गुरुमन्दिर, उपाश्रय, आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर तथा मुमुक्षु कुटीर आदि का निर्माण किया गया है.
उन्होंने श्रीमद् राजचंद्र आश्रम कोबा हेतु भी जमीन प्रदान की थी. श्री रसिकभाई धर्मप्रिय व सत्यप्रिय इन्सान थें. उनमें सद्गुणों का भण्डार था. उनके जीवन में समता का भाव मात्र उनके परिवार तक ही सीमित नहीं था बल्कि सभी प्राणी मात्र के लिए उन्हें प्रेम था. वे सभी को खमाते थे. चातुर्मास में वे मात्र १५ द्रव्यों का ही सेवन करते थें प्रतिदिन सुबह जल्दी उठकर काउस्सग्ग पूर्वक सामयिक करना, प्रतिक्रमण तथा तीन सामयिक करना उनका नियम था. नवपदजी की ओली उन्होंने पूरी की.
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र स्थित देरासर में मूलनायक भगवान श्री महावीरस्वामी के साथ प्रस्थापित श्री आदीश्वर भगवान की मूर्ति भराने में आपका सहयोग प्राप्त हुआ था. इसके अतिरिक्त आपने तन-मन-धन से भी यहाँ अपना अभूतपूर्व सहयोग दिया था. देवद्रव्य की वृद्धि के लिए उन्होंने जो कुछ वे कर सकते थे बहुत प्रयास किया.
१९९२ में उन्हें कैंसर हुआ तथा वे इससे जरा भी नहीं घबराये इतनी भयानक बीमारी के बावजूद समता से समस्त दुःख सहन किया. अन्तिम समय तक उनके अन्दर सभी के लिए अपार प्रेम और मैत्री भावना बरकरार थी. २१ नवम्बर १९९६ को वे पञ्चत्व में लीन हो गए.
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स्व. रसिक भाई अपनी पत्नी श्राविका कान्ताबेन, दो पुत्र श्री उदयनभाई तथा श्री श्रीपालभाई एवं चि. जैनी, जय हेता, जूई नामक पोते-पोतियों का भरा-पूरा परिवार छोड़ गए हैं. उनकी धर्मपत्नी सुश्राविका श्रीमती कान्ताबेन धर्मपरायण एवं संवेदनशील महिला है. परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यश्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. का आपके परिवार हेतु अमी दृष्टिपूर्वक आशीर्वाद रहा है. जैन समाज एवं श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र उनके कृतित्व तथा उदार बहुमूल्य सहयोग को कभी भूल नहीं सकेगा.