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তাতে
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প্রিয় कथा
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सम्पादकीय :-राजुल
नेमीनाथ की बरात विवाह मण्डप के तोरण द्वार तक पहुँच ही रही थी कि रास्ते में निरीह प्राणियों का करुणक्रन्दन वेद्य गया। विवाह का विचार त्याग वन को चल दिये। उनकी जीवन धारा राग से. विराग की ओर भोग से
ओर बढ़ चली। नेमीनाथ ने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर तपस्या में लीन हो गये। समाचार अन्त:पुर में राजकुमारी राजुल को मालूम हुए। मेंहदी लगवाती राजुलमति ने सिर उठाया। पूरा नगर सजा था। मेहमान आये हुए थे। विवाह मंडप में पवित्र बेदी सजी थी। राजकुमारी से उसके माता पिता ने कह्म, बेटी शोक न करो। लग्न बेला टली नहीं। हम किसी और राजकुमार के संग तेरा विवाह कर देंगे। पिताजी। हाँ। स्त्री के जीवन में पति तो एक ही होता है, ना जाने मेरे किस जन्म का पाप कर्म सामने आया कि मेरे पति ने मुझे त्याग दिया। अब मैं दूसरा पाप नहीं करना चाहती। वे मेरे पति हैं और उनके चरणों में ही मेरा स्थान है। मेरा मार्ग भी वही है जो उनका है। जिस राह से वे गये हैं उसी रास्ते से जाना होगा। यह कहकर राजकुमारी राजुल ने अपना श्रृंगार त्याग दिया, घर त्याग दिया और गिरीनार पर्वत की ओर चल दी। अथक प्रयत्न करने पर वह दूसरे से विवाह करने के प्रस्ताव से सहमत नहीं हुई और स्वामी नेमिनाथ के समीप गिरीनार पर्वत पर पहुँच कर उन्हीं से साध्वी दीक्षा ग्रहण कर तपस्वनी बन गई।
राजमति ने एक वार मन से निश्चित किए हुए पति के अतिरिक्त किसी से विवाह न कर अपने पति का अनुगमन करके महान सती का आदर्श उपस्थित किया। जैन धर्म में जिस तरह नेमीनाथ तीर्थंकर को स्मरण किया जाता है उसी प्रकार २४ महासतियों में राजुल का पवित्र नाम भी प्रात: स्मरणीय है। नारी तपश्चरण करने में स्वतंत्र है। त्याग और साधना के मार्ग में उच्च स्थान प्राप्त है। आज की नारीयों को पुरुष की दासता को छोड़ नारी समाज की दर्दशा का नाश करना है. उसके पतन को रोकना है तो अवश्य ही संसार के त्याग मार्ग पर आरुढ होना चाहिए। ताकि हम सभी नेमी-राजुल के समान आदर्श उपस्थित कर सकें। नारी का जीवन समाज में प्रतिष्ठित और धर्म क्षेत्र में परम पूज्य हो। आशा है। प्रकाशक : आचार्य धर्म श्रत ग्रन्थमाला. गोधासदन अलसीसर हाउस संसार चंद रोड जयपुर सम्पादक : ब्र. धर्मचंद शास्त्री, ज्योतिषाचार्य प्रतिष्ठाचार्य जैन चित्र कथा कार्यालय लेखक : मिश्रीलाल जी एडवोकेट
दि. जैन मंन्दिर गुलाब बाटिका चित्रकार : मधु जैन बम्बई
दिल्ली सहारनपुर रोड दिल्ली (U.P.)
वर्ष २
अंक १७ मूल्य ६.००
जुलाई १९८९ स्त्वाधिकारी/मुद्रक प्रकाशक तथा सम्पादक धर्मचंद शास्त्री द्वारा जुबली प्रिन्टर्स से छप कर धर्मचंद शास्त्री ने जयपुर से प्रकाशित की। 0 जैन चित्र कथाओं के प्रकाशन के इस पावन पुनीत महायज़ में हमें सहयोग प्रदान करेंआजीवन सदस्य 1501/= __ संरक्षक 5001/=
परमसंरक्षक 11111/=
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राजुळा
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2006
राजकुमारी राजुल की सुन्दरता की प्रसिद्धि भारतवर्ष में फैली हुई थी। वह जूनागढ़ के राजा की पुत्री थी।
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जैन चित्रकथा
रात्री का प्रथम पहर। जूनागढ़ के राज महल के एक सज्जित कक्ष में महाराज उग्रसेन और उनकी पत्नी रानी चर्चा में व्यस्त हैं।
स्वामी !
| अपनी बेटी राजुल विवाह योग्य हो
गई है और आप | कोई चिन्ता नहीं करते ।
स्वामी ! तो क्या बिना प्रयत्न किये ही ...?
हाँ देवी ! अनेक राजघरानों से बेटी राजुल के विवाह हेतु प्रस्ताव आ रहे हैं, पर....
2
पर...
पर क्या स्वामी ?
देवी! इसमें चिन्ता करने .की क्या बात है। अपनी बेटी सुन्दर और सुशील है।
मेरा मन नहीं करता। मैं राजुल का विवाह इरावती नगरी के राजा समुद्रविजय और शिवादेवी के पुत्र
राजकुमार नेमिनाथ से
करना
चाहता हूँ।।
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राजुल
नेमिनाथ में ऐसे क्या विशेष गुण हैं स्वामी
वह महान पराक्रमी सुन्दर एवं धार्मिक
Seous
THUN
( आपको कैसे मालूम ? )
मैं क्या उसे जानता नहीं हूँ? कुरुक्षेत्र के युद्ध में उसने नारायण श्रीकृष्ण और - पांडवों की ओर से लड़ कर महान पराक्रम
दिखायाथा।
इतने गुण एक व्यक्ति में कहाँ मिलते हैं। आप अवश्य बेटी राजुल का विवाह नेमिनाथ से कर दीजिये।
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जैन चित्रकथा एक दिन जब महाराज उग्रसेन अपने मन्त्री, सेनापति और सभासदों सहित राजदरबार में बैठे थे
अन्नदाता। इरावती नगरी के महाराजा समुद्रविजय और द्वारकाधीश श्रीकृष्ण का दुत महाराज के दर्शनों की आज्ञा
चाहता है।
(CCCUT
CONG can
आज्ञाहै।
ZNCO
राजदूत दरबार में प्रवेश करके रत्नमंजूषा मेंट करने के पश्चात महाराज से निवेदन करता है।
महाराज! द्वारकाधीश श्रीकृष्ण ने सन्देश भेजा है कि वह अपने भाई राजकुमार नेमिनाथ का विवाह आपकी पुत्री राजकुमारी राजुल से करना चाहते हैं।
EGOR
दूत ! क्या इस प्रस्ताव में राजकुमार नेमिनाथ के पिता । महाराज समुद्रविजय की । महाराज। भी स्वीकृति है? AMME
दूत! महाराज समुद्राविजय और श्रीकृष्णसे जाकर कहना कि यह सम्बन्ध हमें प्रसन्न्तापूर्वक कम स्वीकार है।
DiOSIAM
और उसराजदूत को वस्त्राभूषण मेंट करके विदाकिया
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राजुल बारात जूनागढ़ में प्रवेश कर रही है। एक सज्जित रथ में श्री कृष्ण पांडवों के साथ शोभायमान हैं। अश्व, हाथी और रथों की पंक्तियों के आगे हर्षोल्लास को दर्शाते संगीतरचते वाद्ययन्त्रों सहित वादक-बारात एक भव्य द्रष्य की भाँति सजी हुई दर्शकों की भीड़ के बीच आगे बढ़ती है
बारात के मध्य भाग में एक भव्य और दिव्य रथ में युवा राजकुमार नेमिनाथ बैठे हैं। इतनी दूल्हा कितना सुन्दर आकर्षक है। अपनी राजकुमारी राजुल बारात तो के भाग्य खुल गये। जीवन में कभी नहीं
देखी!
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जैन चित्रकथा बारात जूनागढ़ के दुर्ग के मुख्य द्वार के समीप पहुंचती है। दिव्य, भव्य,सुन्दर अलंकारों से सज्जित राजकुमारी दुर्ग के मार्ग में बने विशाल-सुन्दर स्वागत स्थल पर अपनी सहेलियों के साथ वरमाला लिये बारात की प्रतीक्षा कर रही है। सखियाँ सहेलियाँ गा रही है।
तेरा अमर रहे सिन्दूर तेरा..
ANAN
बारात दुर्ग के निकट आती है। पथ की एक ओर एक बाड़े में नेमिनाथ का हृदय करुणासे भरजाताहै| हिरण व विभिन्न जाति के पालतू पशुबंद है। राजकुमार नेमिनाथ इन पशुओं की चीत्कार सुनकर विचलित होजाते हैं। (सारथी। यह झूठ है।
आदि तीर्थकर कृषभदेव के सारथी ! ये कैसी करुण आवाजें आ
| स्वामी! वंशज मांसनहीं | रही हैं? इन पशुओं को क्यों बन्दी
बारात में समीजाति खाते । स्वामी। बनाया गया है?
के लोग सम्मिलित / आपको पता नहीं?
हैं। विवाह में मांस AMA आश्चर्य,आपके विवाह पर AND
तो प्रीतिभोजकी) आयोजित मोज में इन पशुओACERAMAN - शोभा है। का माँस खाने को देंगे।
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राजुल नेमिनाथ के विषाद से पिघले पिघले हृदय से निश्चय के साथ आने वाले समयका पूर्वाभास एक घोषणा की तरह इन बोली में फूट निकला।।
सारथी। रथ मोड़ो और मुझे उस स्थान तक ले चलो।। मेरे विवाह के लिए इतने जीवों की हत्या मुझे स्वीकार
नेमिनाथ का रथ सारथी पशुओं के बाड़े के पास ले जाता है। नेमिनाथ रथ से उतर कर बाड़े के द्वार तक आते है।
में तुम सबका दुख समझता है। सभी में समान आत्मा है। प्राण सभी को
प्यारे होते हैं।
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जैन चित्रकथा | नेमिनाथ पशुओं के बाड़े का दरवाजा रवोल देते है। उनके हृदय में इससे जोसकून मिला वह उनके अधरों पर उभरी स्वर्गिक मुस्कान में दिखलाई पड़ी। बाड़े से निकलकर वध करने को लाये गये बन्दी पशु जंगल की ओर भागते है।
मेरे विवाह से तुम्हारे EVA प्राण अधिक मूल्यवान
नेमिनाथ के अधरों की मुस्कान विलीन सी हो जाती है। निश्चयात्मक गंभीरता दिखाई देती है।
मैं लोक कल्याण और आत्म कल्याण के लिए सभी सांसारिक सुखों को छोड़ताहँ
नेमिनाथसहसा एक जन विहीन पथ की ओर बढ़ने लगते हैं। सारथी आश्चर्य चकितरहजाता है। स्वामी । रथ इधर है। आप कहाँ जारहे हैं?
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राजुल
| नेमिनाथ मुड़कर नहीं देखते। चलते-चलते कहते हैं- नेमिनाथ निर्जन पथ पर बढ़े चले जाते हैं।
मृत्यु आये इसके पूर्व मुक्ति
प्राप्त करना चाहता
| नेमिनाथ गिरनार पर्वत के शिखर पर पहुँच कर समस्त्र अपने हाथों से अपने केश उखाड़ते हैं। वस्त्र आभूषण उतारते हैं और दिगम्बर वेष में पद्मासन मुद्रा में एक शिलाखण्ड पर बैठ जाते हैं
सिद्धम् नमः
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मैं देह नहीं आत्मा हूँ । संसार की किसी भी वस्तु से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं।
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जैन चित्रकथा | प्रातः जूनागढ़ के राजमहल के एक सज्जित कक्ष में शोकाकुल राजुल को महारानी सान्त्वनादिरही है। | बेटी राजुल ! इतना दुख करना
माँ। अच्छा नहीं। भारतवर्ष बहुत
आप यह क्या बड़ा देश है और देश में
कह रही है। वीर और सुन्दर राजकुमारों की कमी नहीं है। मैं तेरा विवाह नेमिनाथसे भी सुन्दर राजकुमार से करूँगी।
बेटी! पागलपन की बातें नहीं करते।
माँ। विवाह के लिये वरमाला और फेरे सामाजिक व्यवस्था है। मैं हृदय से नेमिनाय को पति स्वीकार कर चुकी
इसमें पागलपन जैसी क्या बात है?
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बेटी ! राजकुमार नेमि दिगम्बर संन्यासी बन गये हैं। उन्हें सान्सारिक मार्ग पर लाना असम्भव है।
| बेटी! यह असंम्भव है। नेमिनाथ को भूल जा इसी में तेरा कल्याण
दिगम्बर श्रमण प्राण दे सकते
हैं| परन्तु एक बार
मुनिधर्म ग्रहण करने
के बाद
मुनिधर्म
नहीं
छोड़ते ।
राजुल
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KRIDALC
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माँ जिन्हे पशुओं की करुण पुकार संन्यासी बना सकती हैं उन्हे नारी की
करुण याचना
वापस भी
ला सकती है।
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क्यों माँ !
माँ ! देखना तो सही मैं अ रूप और कौशल से उन्हें लौटा
लाऊँगी
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जैन चित्रकथा हाथों-पाँवों में मेंहदी, पगतलियों में महावर-लाली । अनुपमसुन्दरी। अनुपम श्रंगार।सज्जित राजुल गिरनार पर्वत पर अकेली चढ़ रही है...
DISIA
| विजन और चढ़ाई पर राजुलमार्ग में मिलने चारों और सघन वन में राजुल को हिरण,मोर कोयल वाले वनफूलों से ही बातें करती चलती है- आदि पशु-पक्षी दिखते हैं। हेसुमन! तुमसे
तुम्हारे कारणही भीसुन्दर मेरे/
मेरे पति इस पर्वत स्वामी
पर आये है। नेमि प्रभु
तुम्हेंतोपता क्याइसीए
होगा,बतान रास्तेसे
ओ मेरे गये
स्वामी कहाँ
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राजुल चढ़ाई कठिन होती जाती है। राजुल पसीने सेनहाजाती धीरे-धीरे कठिनाई सेराजुल गिरनार है। पाँवों से खून निकलने लगता है।
| पर्वत के शिरवर तक पहुँचती है।देखती
है नेमिनाथ के बहुमूल्य वस्त्र-आभूषण (स्वामी तुमकहाँ हो ?
एक स्थान पर पड़े हैं।
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..
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( स्वामी प्रणाम
और फिर राजुल की दृष्टि एक शिलारखण्ड पर पड़ी जहाँ नेमिनाथ पद्मा -सन नासिग्र दृष्टि ध्यानस्त दिगम्बर मुद्रा में विराज रहे थे...
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जैन चित्रकथा दिगम्बर मुद्रा में पद्मासन विराजमान नेमिनाय के सम्मुख कर्तव्य विमूढ राजुल खड़ी थी। स्वामी। एक बार राजुल का रुपऔर सौन्दर्य देव लेते। पशुओं की भाँति मुझ पर भी करुणा करो।
SAF
साधना में ध्यान मग्न श्रमण नेमिनाथ मौन थे, मौनही | “विस्मय-आश्चर्य सेराजुलचारों रहे, राजुल को लगा जैसे कोई कहरहा हो
ओर देखती है। भयानक जंगल के
अलावा कुछ नहीं दिखता। B देवी रूप और सौन्दर्य नश्वर है। इसे पाया है
भयानक जगल हा कोई किसी 2- तोरवोना पड़ेगा।।
मैं अकेली हूँ। करुणा करो।
पर दया नहीं करता।जैसा
बोते हैं, वैसा काटते हैं।
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राजुल राजुल ने एक बार फिर श्रमण नेमिनाथ की और देखा और स्वयं को ही सम्बोधित कर बोलीराजुल। नारीका सच्चा सुख पति के मार्ग पर चलने में है। सुन्दरता सदैव नहींरहती। वासना पाप
और राजुल के मुरव पर प्रसन्नता लौट आती है
हे श्रमण नमोस्तु। आपकी राजुल ने आपका मौन सन्देश सुन
लिया है।
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| नेमिनाथ श्रमण ने एक क्षण को नयन खोले और बन्द कर लिये
-CLES
हे श्रमण! अब राजुल भी आपके मुक्ति पथ का पालन करेगी।
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जैन चित्रकथा सच्चे सुख- मुक्ति मार्ग प्राप्त करने के लिए राजुल गिरनार पर्वत से मधुर स्वर मेगातीलौट चली
देवता । ताम् हरो SD
रागा को
AND करो!
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गिरनार पर्वत के तल में स्थित एक प्राकृतिक गुफा में राजुल सामयिक साधना में रत है
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राजुल श्रमण नेमिनाथ ऊर्जन्त गिरनार पर्वत के शिरवर पर साधना रत है। वहाँ पर भी उनके दर्शन लाभ के लिए स्त्री-पुरुष बहुत उत्साह पूर्वक आ रहे हैं।
श्रमणश्री कैसी महान तपस्या कर रहे हैं।
| एक दिन सहसा एक दिव्य आलोक । तेजोवलय श्रमण नेमिनाय के चारों ओर फैल गया। श्रमण नेमिनाथ को केवलज्ञान प्राप्त हुआ।
तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान ।
की जय !
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जैन चित्रकथा स्वर्गलोक में अपने एक विशाल अनुपम सज्जित सभाकक्ष में इन्द्र और शचि-इन्द्राणी तथा अनेक देवी देवता एक अप्सरा के सुन्दर नृत्य का आनन्द ले रहे है।
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INTI
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सहसा इन्द्र का आसन काँपता है और सभी उपस्थित देवी देवता भयमीत हो जाते हैं।
देव! 239 इन्द्रलोक का
आसन क्यों कॉप ल्ल रहा है? क्या कोई
संकट आने a वाला है।
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राजुल इन्द्र ने कुछ छण ध्यान लगा कर सोचा।
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।
सहसा इन्द्र के मुरव मण्डल पर मुस्कान उभरती है और वे शचि और देवी-देवताओंसेकहते है। | देवीशचि! महान शुभ संकेत है। गिरनार पर्वत पर श्रमण नेमिनाथ को केवलज्ञान प्राप्त हुआ है। तीर्थंकरों की परम्परा में वें २२ वे तीर्थंकर होगये हैं।
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जैन चित्रकथा स्वामी। तीर्थंकर का पद देवलोक के स्वामी से भी
लम बड़ा होता है क्या?
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हाँ देवी!
यह केवलज्ञान क्या होता है स्वामी?
कुछ समझ में नहीं आया स्वामी।
कुछ विस्तार से बताइये न।
ज्ञान की पूर्णता को केवलज्ञान कहते हैं।
हम दिरवने वाली वस्तुओं को देखते हैं। ज्योतिष ज्ञान से बीती हुई और आने वाली बातोंको जानते हैं परन्तु केवलज्ञान एक साथसब को जानता है।
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राजुल देव ! आपके साथ मैं भी तीर्थंकर नेमिनाथ के दर्शनों की चलूँगी।
तुम अकेली
ही क्यों देवी ! तीर्थंकर प्रभु की वन्दना के लिये सभी देवी-देवता भों
चलेंगे।
देवराज इन्द्र के इस निर्णय को सुनकर सभा में उपस्थित सभी देवी देवता प्रसन्न होते हैं। देवताओं के मध्य एक की ओर इन्द्र संकेत करते हैं
कुबेर! तीर्थंकर की धर्म सभाएँ HAI होंगी। संसार को उनकी दिव्य वाणी
सुनने का सौभाग्य प्राप्त होगा। इन धर्म सभाओं की व्यवस्था तुम्हें
करनी है।
ISEDIA
जो आज्ञा स्वामी।
NEGIRLS
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जैन चित्रकया इन्द्र, इन्द्राणी, देवी-देवता गिरनार पर्वत पर जाकर तीर्थकर नेमिनाथ की वन्दना करते है।
हे प्रभु! हम आपकी वन्दना कर धन्य हुए स्वर्गलोक आज आपके
श्रीचरणों में नत
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कुबेर अद्भुत धर्म सभा-समोशरण की रचना करते हैं। मुनि, साध्वी, देवी, देवता,राजा,महाराजा, पशु-पक्षी तक अपने-अपने दायरे में हैं। सहस्त्र पंरतुरी कमल पर, उसको छुएबिना तीर्थंकर विराजे हैं।
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जैन चित्रकथा
बनाया
है ?
नेमिनाथ भगवान की दिव्यवाणी मुखरित हुई
एक जिज्ञासु श्रोता ने प्रश्न किया
भगवन ।
वत्स !
इस दुनिया को किसने
यह संसार सदैव से है और सदैव रहेगा! वस्तुओं का रूप बनता - बिगड़ता रहता है परन्तु मूल वस्तु सुरक्षित रहती हैं। उसे ध्रुवता कहते हैं।
इस संसार में चेतन और अचेतन पदार्थों के अलावा कुछ नहीं है । सारी श्रष्टि इन्हीं मूल पदार्थों से बनी है। जीव को आत्मा के नाम से पुकारते हैं। अचेतन में धर्म, अधर्म, आकाश और काल सम्मिलित हैं।
एक अन्य श्रोता अपनी शंका समाधान करने के लिये भगवान नेमिनाथ से पूछता है
भगवन !
संसार में मनुष्य | के अलावा मिन्नभिन्न प्रकार के प्राणी पाये जाते हैं इसका क्या कारण है ?
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वत्स !
सब प्राणी अपने
कर्मों से पंचतत्वों से जुड़े हैं और अपने कर्मों का फल भोग
रहे हैं।
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जैन चित्रकथा धर्मसभा विसर्जित हो गई। तीर्थकर नेमिनाय गिरनार पर्वत से नीचे उतर रहे हैं। पीछे श्रमण | श्रमणियों का समुदाय चल रहा है। साध्वी राजुल भी सफेद सारिका पहने चल रही है।
तीर्थकर लोक कल्याण के लिये भ्रमण करते हैं।
मार्ग में पशु पक्षी अपना बैर भूल कर खड़े दिखते हैं। सिंह के समीप हिरण-गाय तथा सर्प के निकट मोर विचर रहे है। बिना मौसम के फल-फूल पल्लवित हो रहे है
HIK
INDIAN
यह सब पुण्य का फल है। तीर्थंकर के प्रभाव से पशु, पक्षी तक जन्मजात शत्रुता भूल जाते हैं।
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राजुल
गिरनार पर्वत से उतर कर प्रभु जूनागढ़ आते हैं।
नगर के बाहर कुबेर समवशरण की रचना करता है।
भगवन !. तप क्या
होता है ?
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SAVA
सभी मनुष्य समान हैं। मनुष्यों की भाँति पशु-पक्षियों में भी आत्मा होती है। इनकी रक्षा करना
मनुष्य का कर्तव्य है और इनको
मारना पाप
है।
इच्छाओं की कोई सीमा नहीं होती । उनका रोकना ही तप है ।
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जैन चित्रकथा
प्रभु! कृपाकर द्वारका का भविष्य बताईये
POSELKHAN
A
वत्स! मांस खाना, शराब पीना सबसे बड़ी बुराई है। शराब की बुराई. के कारण दीपायन ऋषि के श्राप से द्वारका नाश को प्राप्त होगी।
समवशरण फिर विघटित हो जाता है और प्रभु सम्पूर्ण देश में विहार करते हैं।
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राजुल
सम्पूर्ण देश का भ्रमण करके तीर्थंकर नेमिनाथ गिरनार पर्वत पर लौटते हैं और कार्योत्सर्ग मुद्रा में साधना में रत हो जाते हैं।
समीप एक एक पर्वत पर अनेक दिगम्बर श्रमण पद्मासन मुद्रा ध्यान मग्न हैं।
Kavi Anti
***
एक अन्य पहाड़ी पर श्वेत सारिका-धोती पहने साध्वियाँ पद्मासन मुद्रा में साधना में लीन हैं।
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जैन चित्रकथा एक दिन जब तीर्थंकर साधना में लीन थे कि सहसा उनके चारों ओर दिव्य आलोक फैल गया
तीर्थंकर नेमिनाथको दिव्य निर्वाण प्राप्त हुआ। वह दिव्य आलोक तीर्थंकर की देह से निकल- जनसमूह, अमण, श्रमणियाँ तीर्थंकर का कर आकाश में उर्ध्वगमन करता जारहा है। जयघोष करते हैं
तीर्थकर नेमिनाथ भगवान
की जय तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान
40 की जय।
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।
तीर्थंकर की आत्मा सिदालय की ओरजारहीहै।
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राजुल तीर्थकर जिस स्थान पर साधना रत थे वहाँ नारखून और केश दिरवाई दे रहे है। देह सहसा अदृष्य हो गई।
बन्धु यह रोने का समय नहीं है। ( यह क्या कहते हो?
HAMAMALNA
हा बंधु। प्रभु की आत्मा अमर हो गई। वह जन्म-मृत्यु के बंधन से छूट गये।
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जैन चित्रकथा एक श्रावक आकाश से उतरते हुए विमान की ओर जन समुदाय का ध्यान केन्द्रित करता है|
देखो । देवलोक से देवी देवता भी निर्वाण महोत्सव मनाने
आ रहे है।
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देवलोक से इन्द्र और इन्द्रानी शचि का विमान भी निर्वाण स्थल पर पहुंच उतरता है।
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राजुल देवराज इन्द्र सभी देवी देवताओं को निर्वाण स्थल की आराधना करने का निर्देश देता है|
देवियों और देवताओं तीर्थकर नेमिनाथ की साधना और निर्वाणकी इस स्थली की आराधना
करो।
सभी नर नारी, देवी देवतागण एक स्वर में अहंत नेमिनाथ की आराधना करते हैं।
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जैन चित्रकथा देवराज इन्द्र तीर्थंकर नेमिनाथ के नरख एवं केश रुपी पवित्र अक्शेष एकत्रित करता है
सभी देवी देवता निर्वाण स्थल को
प्रणाम करते हैं। और अग्नि कुमार देव अग्नि प्रज्जवलित कर अन्तिम संस्कार करते हैं।
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AGE
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और इस संसार में प्रभु की दिव्य वाणी शेष रह गई जो हरयुग में सत्य और हिंसा का सन्देश देती रहेगी।
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सुनो सुनायें सत्य कथाएँ जैन चित्र कथा
नई पीढ़ी को अच्छी शिक्षा के लिए हमारे नए अंक में
नया उत्साह, उमंग, ज्ञान रस से भरपूर, जीवन को प्रेरणा देने बाली रोचक एवं मनोरंजक कहानियां
रंग विरंगी दुनियाँ में
आपके नन्हें मुन्नों के लिए ज्ञान वर्धक टोनिक जैन चित्र कथा पढ़ें तथा पढ़ावें
अब तक प्रकाशित जैन चित्र कथाएँ।
तीन दिन में
भाग्य की परीक्षा
त्याग और प्रतिज्ञा
आटे का मुर्गा
करे सो भरे
कविरत्नाकर
चमत्कार
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प्रद्यम्न हरण
(9)
सत्य घोस
(10) सात कोड़िओं में राज्य (11) टीले बाले बाबा (12) चंदना
( 13 ) ताली एक हाथ से बजती रही (14) सिकन्दर और कल्याण (15) चारित्र चक्रवर्ति (16) रूप जो बदला नहीं (17) राजुल (18) स्वर्ग की सीढ़ियाँ
(1)
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आगामी प्रकाशन
अंजना
मुनि रक्षा
गाये जा गीत अपन के
क्या रखा है इसमें
चरित्र ही मन्दिर है मुक्ति का राही
आत्म कीर्तन
महादानी भामाशाह
आचार्य कुन्दकुन्द
(10) रामायण (11) नन्हें मुन्हें
(12) एक चोर (13) सोने की थाली
प्रकाशक : आचार्य धर्मश्रुत ग्रन्थ माला
प्राप्ति स्थान : जैन चित्र कथा कार्यालय
(14) (15)
(16) बेताल गुफा
(17) चन्द्रप्रभु तीर्थंकर
(18) जल्लाद का अहिंसाव्रत
(19) निकलंक का जीवन दान
(20) महारानी मृगावती (21) नेमीनाथ
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नाग कुमार तीसरा नेत्र
दलदल में फंसा बैल
आओ चले हस्तिनापुर
तो फिर देर किस बात की आज ही ड्राफ्ट या चैक जैन चित्र कथा के नाम से भेजें परम संरक्षक १११११
संरक्षक ५००१
आजीवन १५०१
दस वषीर्य ७०१
सुबह का भूला
ऋषि का प्रभाव
गोधा सदन अलसीसर हाऊस संसारचंद, रोड जयपुर
दि. जैन मन्दिर, गुलाब बाटिका दिल्ली सहारनपुर रोड दिल्ली (U.P.)
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________________ झक पंजीयन-क्षार. जे.2920 भावी पीढी के आचार-विचार एवम सदाचार का सुसंस्कृत नवनिर्माण में आप अपना सहयोग प्रदान करें। मुनो विनोद और ज्ञानवर्धन का उपयुक्त साधन जैन संस्कृति, इतिहास तथा महावीर की वाणी को जनजन तक पहुंचाने के लिए जैन कथाओं पर आधारित / 199sup जैन चित्रकथा सम्पादक. धर्मचन्द शास्त्री Printed by: SHAKUN PRINTERS, 3625 Darya Ganj, New Delhi-2. Phone: 271818