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डाटदारासदासदार বাবা বলবে কেকবরহের
* श्री वीतरागाय नमः *
* श्री पंचामृताभिषेक पाठ *
शांति मंत्र और आरतीसहित
- प्रकाशक -
जवेरी चांदमल जोधकरण गडिया पटवा चाल जबेरी बाजार.
बम्बई नं.२
1958
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विषयानुक्रमणिका.
क्रम विषय १ श्रीपंचामृताभिषेक २ मंगलाष्टक ३ अभिषेक पाठ ४ ज्येष्ठजिनवरजयमाला ५ शांतिमंत्र ६ बृहच्छांतिमंत्र ७ गंधोदक ग्रहणश्लोक ८पंचपरमेष्ठी आरती ९ पद्मावती आरती १० पंचामृताभिषेकप्रमाण ११ स्त्रीदानपूजाधिकारप्रमाण
२५
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AWIKOKHARAMINATINITIATIALAIMIRINonmIMAIIIIIIIIIIIIIIIIIII
* श्री वीतरागाय नमः * श्री पंचामृताभिषेक पाठ
(शांति मंत्र और आरतीसहित )
- प्रकाशक -- भवेरी चांदमल जोधकरण गडिया पटवा चाल, जवेरी बाजार
बंबई नं. २
anweremememeanorwe
- मुद्रक -- वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री कल्याण पॉवर प्रिंटिंग प्रेस कल्याण भवन सोलापूर.
प्रथमावृत्ति
१०००
1958 वीर संवत् २४८४ः
( मूल्य नित्यपूजन
Haveadeoamera
AwaagamarpoemovaiHIKHAIRMIIIIMa
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आद्य निवेदन
श्री धर्मनिष्ठ सेठ चांदमल जोधकरण गड़ियाने यह पंचामृताभिषेकपाठ प्रकाशित कर षट्कर्मनिरत श्रावकों के लिए महान् उपकार किया है। धर्मनिष्ठ दंपतियोंने व्रतोद्यापन किया, जिसके उपलक्ष्य में शास्त्रदान किया गया, वह भी ऐसा शास्त्रदान, जिससे असंख्यश्राचक असंख्यकालतक शुभोपयोग में प्रवृत्त होकर देवभक्ति करेंगे । इससे अर्जन होनेवाले पुण्यपुंजका श्रेय उक्त दातारों को अवश्य मिलेगा ही ।
आजकल वैसे ही धार्मिक क्रियात्रों में शिथिलता आगई है। लोग प्रमादी होते जा रहे हैं। धार्मिक कर्तव्यों को केवल नियम पूर्ति की दृष्टिसे पूरा करने की प्रवृत्ति बढ रही है। कुछ लोग तो देवपूजा, जिना - भिषेकादि नित्य षट्कर्मो को टालने के लिए उसमें अनेक प्रकारसे कुतर्क खडा कर देते हैं । "पंचामृताभिषेक शास्त्रोक्त नहीं है, स्त्रियां जिनाभिषेक नहीं कर सकती हैं, फलफूल नैवेद्य अपवित्र है, अतः अनिवेद्य हैं" इत्यादि स्वकपोल कल्पित तसे इन क्रियावोंसे स्वपरको वंचित करनेका प्रयत्न करते हैं । इन सब तर्कों का आगमसम्मत समाधान इस पुस्तक में किया गया है। उससे भव्य श्रावकों को यथेष्ट लाभ होगा।
सातिशय जिनेंद्रभक्ति के लिए यह पुस्तक सर्वतोपरि सहायक हो सकती है | यदि धर्मोंने उसका उपयोग कर आत्मविशुद्धिकी ओर अप्रसर होनेके लिए प्रयत्न किया तो लेखक, प्रकाशकका श्रम, व्यय, सभी सार्थक हैं ।
वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
( विद्यावाचस्पति, व्याख्यान केसरी, समाजरत्न )
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परिणामों का
सहाराम
- प्रस्तावनाभगवान् कुन्दकुन्दने धर्मका स्वरूप बताते हुए कहा है कि " वत्थुसहावो धम्मो " अर्थात् वस्तु द्रव्य, या पदार्थका जो स्वभाव है, अर्थात् उसका गुण है, वही उसका धर्म है। साथ ही साथमें यह भी बताया है कि जीवका स्वभाव है, शान्तता अर्थात् शुद्धजीव रागद्वेषादि परिणामोंसे रहित है । फिर भी देखा जाता है कि यह प्राणी अपने पूर्वोपार्जित कर्मोंके उदयसे अथवा अज्ञानसे निरंतर अनेक प्रकारके रागद्वेषादि करता है। और स्वयं अपनी पुरुषार्थकी हीनतासे आत्माके परिणामों को कलुषित कर दिन प्रति दिन नीचेकी ओर अग्रसर होता हुआ अनादिकालमे संसारमें परिभ्रमण कर रहा है । इसी बातको लक्षमें रखकर उन चिरकालसे अशुभ रागादि परिणामोंमें सने .हुए और रागअभ्यासियोंके रागपरित्यागके हेतु गृहस्थ श्रावकोंके लिये भगवन् श्री कुन्दकुन्दने "कुन्दकुन्द श्रावकाचार" रचकर परम वीतराग श्रीजिनेन्द्र भगवान के गुणोंमें अनुराग, पूजा, भक्ति स्तवन आदिका उपदेश देकर क्रमशः रागादि परिणामोंको छुडानेका प्रयत्न किया है । पूजाके अंगमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्य रचित " " षट्पाडुड ग्रंथकी श्रुतसागरी वृत्तिमें लिखा है किः-................"जिनविम्बस्य पञ्चामृतैः स्नपनं, अष्टविधैः पूजाद्रव्यैश्च पूजनं कुरुत यूयं, वंदना भक्तिश्च कुरुत ।"
अर्थात्-............"जिनप्रतिमाका पञ्चामृतसे अभिषेक करके अष्ट प्रकार द्रव्योंसे पूजन करना चाहिये। आदि लिखा है।
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पंडित दौलतरामजी पद्मपुराण की भाषामें पर्व ३२ श्लोक १६५ से १६९ में लिखते हैं कि:--" जो नीर कर जिनेन्द्रका अभिषेक करे सो देवोंकर, मनुष्योंकर, सेवनीक चक्रवर्ती होय, जिसका राज्याभिषेक देव विद्याधर करें, और जो दुग्धकर अन्तिका अभिषेक करे सो क्षीरसागरके जलसमान उचल विमानविषै परम कान्तिधारक देव होय, फिर मनुष्य होय, मोक्ष पावें और दधिकर सर्वज्ञ वीतरागका अभिषेक करें सो दधिसमान उज्वल यशको पाय करि भवोदधिको तरे और जो घृतकरि जिननाथका अभिषेक करे सो स्वर्ग विमानविषे महान् बलवान देव होय, परंपरासे अनंतवीर्यको धरे और इक्षुरसकर जिननाथका अभिषेक करे, सो अमृतका भाहारी सुरेश्वर होय । नरेश्वर पद पाय मुनीश्वर होय, अविनश्वर पद पाये। अभिषेकके प्रभावकर अनेक भव्यजीव देवोंकर इन्द्रों कर अभिषेक पावते भये तिनकी कथा पुराणोंविषे प्रसिद्ध है।"
तथा भगवान् उमास्वामी श्रावकाचारमें लिखते हैं कि:" शुद्धतोयेक्षुसपिभिर्दुग्धदध्याम्रजैः रसैः ।
सर्वोषधिभिरुच्चूर्णैर्भावात्संस्नापयज्जिनम् ॥" अर्थात् --शुद्धजल, इक्षुरस, घी, दूध, दही, आम्ररस और सौषधि इत्यादिकोंसे जिनभगवानका अभिषेक करना चाहिये । आदि बनेक आचार्योने पंचामृताभिषेकका उपदेश दिया है । श्री वीरसेन मामीने कषायपाहुड जयधवलामें भी इसी तरह पंचामृतासे जिनेन्द्र भक्ति करनेके लिये कहा है।
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(५)
इसी आदर्शको लक्ष्यमें रखकर भाई श्री चांदमलजी गडिया तथा श्री जवाहरलालजी गांधी व हमने मिलकर पूवाचार्यों द्वारा प्रणीत अभिषेकपाठका संग्रह पूज्य भट्टारक यशःकीर्तिजी महाराज तथा पंडित उल्फतरायजी भिंड द्वारा संशोधन कराके तैयार किया है। श्रीधर्मरत्न पं. लालारामजी शास्त्रीने इसका बहुत परिश्रमपूर्वक संशोधन किया है। और श्री विद्यावाचस्पति पं. वर्धमानजी शास्त्रीने अपनी देखरेखमें शुद्धतापूर्वक मुद्रण कराया है। अतः उन सभी विद्वानोंको हम हार्दिक धन्यवाद देते हैं।
इस संग्रहमें फिर भी हमारी कोई अल्पज्ञतासे अशुद्धि रह गई हो तो क्षमा कर बुधजन सुधार कर योग प्रदान करें।
प्यारेलाल पन्नालाल कोटडिया
सैलाना।
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प्रकाशकके दो शत. पाठकगण ! मैं आपको यह वात बता देना चाहता हूं कि यह पंचामृताभिषेकपाठ क्यों छपाया गया । इसका कारण यह है कि पहले श्री गुलालवा के अपने मंदिरमें हस्तलिखित अभिषेक पाठकी कापी कराके एक पुस्तक हमने प्रकाशित कराई थी । परन्तु अपने माननीय पंडित इन्द्रलालजी शास्त्री जयपुर, पं. वर्द्धमानजी शास्त्री शोलापुर, पं. तनसुखलालजी काला आदि विद्वानोंने कहा कि यह अभिषेक पाठ बहुत ही अशुद्ध है । आप इसका संशोधन कराकर मंत्रोंसहित लिखाईये और फिर उससे अभिषेक कराईये । इन विद्वानोंकी इसी बातको लक्ष्यमें रखकर हमने भाई जवरलालजी गांधी रतलामवालोंकी सहायतासे ग्रंथोंका संग्रह किया, हमारे भाग्यसे उसी अवसरपर सैलानासे भाई प्यारेलाल पन्नालालजी कोठडिया बम्बईमें पधारे । यद्यपि भाई प्यारेलालकी अवस्था छोटी ही है, तथापि उन्होंने अपनी विद्वत्ता तथा जानकारी बहुत अच्छी प्राप्त कर ली है, इसलिये हम उन्हें धन्यवाद देते हैं। उन्होंने अपना अमूल्य समय देकर उन संग्रह किये हुए ग्रन्थोंमेले यथास्थान मंत्रों का संग्रह करवा दिया और संशोधन करवा कर तथा लिखकर यह आभिषेकपाठ तैयार कराया। तदनंतर स्वर्गीय पंडित उलफतरायजी भिंडवालोंसे भी इसका संशोधन कराया । उन दिनों पंडितजी बीमार थे । तथापि उन्होंने धर्मप्रेमसे केवल धर्मके प्रचारके लिये संशोधन कर हमें दिया । इसके लिये हम व समाज उनकी आभारी है। तदनन्तर पूज्य भट्टारकजी श्री यशःकीर्तिजी और पण्डित रामचंद्र ने इसे पढकर अत्यंत प्रसन्नता प्रकट की तथा जनताको शीघ्र ही देनेके लिये, शीघ्र ही प्रकाशित करनेकी अनु
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(७)
मति दी। इसके शिवाय पं. मक्खनलालजी शास्त्री, पं. तनसुखलालजी काला, पं. उल्फतरायजी रोहतकवाले, पं. विद्यानंदि शास्त्री, तथा पं. लालारामजी शास्त्री आदि अन्य कितने ही विद्वानोंको दिखाकर आगमोक्त आर्षग्रंथोंसे प्रमाणित आचार्यप्रणीत यह पुस्तक प्रकाशित कराकर आप लोगोंके सामने भेट कर रहा हूं। आशा है आप भव्यजन अपनी आत्माको पवित्र करनेके लिये प्रतिदिन इस अभिषेक पाठका उपयोग करेंगे तथा धर्मका उपार्जन करेंगे, ऐसी मेरी भावना है। । यद्यपि भरसक इसका संशोधन कराया जा चुका है, तथापि संभव है इसमें अनेक त्रुटियां रह गई हों, इसलिये प्रार्थना है कि विद्वान् लोग इसको सुधार कर पढ़ें, त्रुटियोंके लिये हमें क्षमा करें तथा उन त्रुटियोंसे हमें सूचित करें, जिससे हम द्वितीयावृत्तीमें संशोधन कर सके। ___इस समय पंचामृताभिषेककी प्रथा शिथिलसी हो रही है, वह फिरसे जागृत हो और आगमोक्त धर्मका प्रचार हो, इसीलिये हमने यह पुस्तक प्रकाशित की है। हमारा तथा हमारी धर्मपत्नी ( मोहनबाई चांदमल गडिया ) का रविवारव्रत पूर्ण हुआ था तथा भादों सुदी नौमी रविवार वीर सं. २४८१ के दिन उसका उद्यापन किया था। उसीके उपलक्ष्यमें ये एक हजार प्रतियां प्रकाशित कर वितरण की हैं । इसलिये धर्मप्रेमी भाइयोंको इस ग्रंथका लाभ अवश्य लेना चाहिये । यही हमारी अंतिम कामना है। वीरसम्बत् विक्रमसम्बत् ॥
आपका२४८४ २०१४ ) चांदमल जोधकरण गडिया
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(८)
-= सम्मतियां - (स्वर्गीय) श्री पं. उल्फतरायजी भिंडवाले प्रत्येक श्रावकको प्रतिदिन भक्तिपूर्वक भगवानका अभिषेक करना चाहिये और वह पूर्ण विधिके साथ होना चाहिये । इस पुस्तकमें पंचामृताभिषेककी क्रिया विधिपूर्वक विस्तारके साथ दी है। मतः इससे सर्व भाइयोंको लाभ लेना चाहिये ।
(पूज्य ) भट्टारक श्री यश कीर्तिजी महाराज पंचामृताभिषेकका महत्त्व अत्यंत महान् है। अतः इसे भाक्तिके साथ प्रतिदिन करना चाहिये । इस पुस्तकमें विस्तारके साथ धुर्ण विधि लिखी गई है तथा शान्तिमंत्र भी दिया गया है। अतः यह पुस्तक बढी उपयोगी है। आशा है यह शीघ्र ही प्रकाशित होकर भक्तजन इससे लाभ उठायेंगे ।
श्री पं: माणिकचन्द काला बम्बई इन्द्रने जिस भाक्तिके साथ एक हजार आठ कलशोंसे भगवानका किया था उस भक्तिका दिग्दर्शन पंचामृताभिषेक करते हुये हमें होता है। भगवानका ऐसा . अभिषेक. पापोंका क्षय और पुण्यकी वद्धि करनेवाला है। अतः किसी पक्षपातमें न पडकर इस आगमोक्त क्रियाको विधिविधानके साथ प्रतिदिन करना चाहिये । भाई चांदमलजी गडियाने इसे प्रकाशित कर अर्थको सार्थक किया है।
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श्री परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ति स्व.आचार्य शांतिसागरजी महाराज
-
--
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श्री परमपूज्य चारित्रचूडामणि मुनिराज नेमिसागरजी महाराज बंबईमें वालकेश्वर तुलसीतलावपर
सामायिक कर रहे हैं।
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PROTEIN
श्री धीतरागाय नमः श्री पंचामृताभिषेक पाठ
श्रीपंचनमस्कार मंत्र णमा अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरीयाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सब्बसाहणं ।
गलाष्टकं. श्रीमन्नम्रसुरासुरेंद्रमुकुटप्रधोतरत्नप्रभा । भास्वत्पादनखेदवः प्रवचनांभोधीदवः स्थायिनः । ये सर्वे जिनसिद्धसूर्यनुगतास्त पाठकाः साधवः । स्तुत्या योगिजनेश पंचगुरवः कुर्वन्तु मे (ते ) मंगलम् ॥१॥ सम्यग्दर्शनबोधवृत्तममलं रत्नत्रयं पावनं । मुक्तिश्रीनगराधिनाथजिनपत्युत्तोपवर्गप्रदः । धर्मः सूक्ति सुधा च चैत्यमखिलं चैत्यालयं श्यालयं प्रोक्तं च त्रिविधं चतुर्विधममी कुर्वन्तु मे ( ते ) मंगलम् ॥२॥ नाभेयादि जिनाधिपास्त्रिभुवनख्याताश्चतुर्विशतिः। श्रीमंतो भरतेश्वर प्रभृतयों ये चक्रिणो द्वादश । ये विष्णु प्रतिविष्णु लांगलधराः सप्तोत्तरा विंशतिस्त्रैकाल्ये प्रथितास्त्रिषष्टिपुरुषाः कुर्वन्तु मे (ते) मंगलम् ।।३।।
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-[२]
दव्योष्टौ च जयादिका द्विगुणिता विद्यादिका देवताः। श्रीतीर्थकरमावकाच जनका यक्षाश्च यक्ष्यस्तथा । द्वात्रिंशत्रिदशाधिपास्तिथिसुग दिकन्यकाथाष्टधा, दिक्याला दश चैत्यमी सुरगणाः कुर्वन्तु मे (ते) मंगलम् ॥४॥ ये सर्वोषधऋद्धयः सुतपसो वृद्धिंगताः पंच ये, ये चाष्टांगमहानिमित्त कुशला येऽष्टाविधाश्चारणाः । पंचज्ञानघरास्त्रयोषि बलिनो ये बुद्धिऋद्धीश्वगः सौते सकलार्चिता गणभृता कुर्वन्तु मे ( ते ) मंगलभू ॥५॥ कैलासे वृषभस्य निवृतिमही वीरस्य पावापुरे, चंपायां वसुपूज्यसज्जिनपतेः संम्मेदशैलेतां । शेषाणामपि चोजयंतशिखरे नेमीश्वरस्याहतो, निर्वाणावनयः प्रसिद्धविभवाः कुर्वन्तु मे (ते) मंगलम् ॥६॥ ज्योतिय॑न्तरभावनामरगृहे मेरो कुलाद्रौ तथा, जंबूशाल्मलिचैत्यशाखिषु तथा वक्षार रूप्यादिषु । इष्वाकारगिरौ च कुंदलनगे द्वीपे च नंदीश्वरे, शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहाः कुर्वन्तु मे ते] मंगलम् ।। ७ ।। यो गर्भावतरोत्सवो भगवतां जन्माभिषेकोत्सवो । यो जातः परिनिष्कमेग विभवो यः केवलज्ञानभाक् । यः कैवल्यपुरप्रवेशमहिमा संभावितः स्वाभिः, कल्याणानि च तानि पंच सततं कुर्वन्तु मे (ते) मंगलम् ||८||
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-[३]
इत्थं श्रीजिनमंगलाष्टकमिदं सौभाग्यसंपत्पदं । कल्याणेषु महोत्सवंषु सुधियस्तीर्थकराणामुषः। ये श्रुण्वंति पठंति तैश्च सुजनैधर्मार्थकामान्विता । लक्ष्मीराश्रयते व्यपायरहिता निर्वाण लक्ष्मीरपि ॥९॥
॥ इति श्रीमंगलाष्टकम् ॥
**
अथ अभिषेक पाठ. श्रीमज्जिनेन्द्रमभिवंद्य जगत्त्रयेश स्याद्वादनायकमनंतचतुष्टयाहम् श्रीमूलंसघसुदृशां सुकृतैकहेतु--
जैनेन्द्रयज्ञविधिरेष मयाभ्यधायि ॥१॥ ओं ही क्षी भूः स्वाहा स्नपनप्रस्तापनाय पुप्पाञ्जलिः क्षिपेत् ॥१॥ (नीचे लिखे श्लोकको पढकर आभूषण और यज्ञोपवीतधारण करना।) श्रीमन्मन्दरसुन्दरे ( मरतके ) शुचिजलैधतिः सदर्भाक्षतैः । पीठे मुक्तिवरं निधाय रीचत त्वत्पादपद्मस्रजः । इन्द्रोऽहं निजभूषणार्थकमिदं यज्ञोपवीतं दधे । मुद्राकंकणखराण्यापि तथा जन्माभिषेकोत्सवे ॥२॥ ___ओं ही श्वेतवर्णे सर्वोपद्रवहारिणि सर्वजनमनोरञ्जिनि परिधानोतरीयं धारिणि हं हं झं झं सं सं तं तं पं पं परिधानोत्तरीय धारयामि स्वाहा ।
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-----[४]-....
ओं नमो परमशान्ताय शान्तिफराय पवित्रीकृताय अहं रत्नत्रयम्वरूपं यज्ञोपवीतं धारयामि मम गात्रं पवित्रं भवतु ही नमः स्वाहा ।
( तिलक लगाने का श्लोक. ) सौगंध्यसंगतमधुव्रतझङ्कृतेन, संवर्ण्यमानमिव गंधमनियमादौ । आरोपयामि विसुधेश्वरवृन्दवन्यपादारविंदमभिध जिनोत्तमानाम् ॥३॥
(भूमिप्रक्षालनका श्लोक) ये संति केचिदिह दिव्यकुलप्रसूता, नागा प्रभूतबलदर्पयुता भुवोधाः । संरक्षणार्थममृतेन शुभेन तेषां, प्रक्षालगामि पुरतः स्नानस्य भूमिम् ॥४॥ ओं ही जलेन भूमिशुद्धिं करोमि स्वाहा ॥
(पीठप्रक्षालनका श्लोक) क्षीरार्णवस्य पयसां शुचिभिः प्रवाहैः, प्रक्षालितं सुरवरैर्यदनेकवारम् । अत्युद्यमुद्यतमहं जिनपादपीठं,
प्रक्षालयामि भवसंभवतापहारि ॥ ५॥
ओं हां ही हू द्धः नमोऽईते भगवते श्रीमते पवित्रतर. जलेन पाठप्रक्षालनं करोमि स्वाहा ॥५॥
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--- [५]( पीठपर श्रीकारलेखन ) श्रीशारदासुमुखनिर्गतबीजवर्ण श्रीमंगलीकवरसर्वजनस्य नित्यं । श्रीमत्स्वयं ज्ञपति तस्य विनाशविघ्नं । श्रीकारवर्णलिखितं जिनभदपीठे ॥ ६ ॥ ओं ह्रीं श्रीकारलेखनं करोमि स्वाहा ॥ ६ ॥
( अग्निप्रज्वालनक्रिया) दुरन्तमोहसन्तानकान्तारदइनक्षमम् । दर्भ प्रज्वालयाम्यग्निं ज्वालापल्लविताम्बरम् ॥ ७॥ ओं ही अग्निप्रज्वालयामि स्वाहा ॥ ७ ॥
( दशदिक्पालक आव्हान ) इन्द्राग्निदंडधरनैऋतपाशपाणि । वायूत्तरेण शशिमौलिफणींद्रचन्द्राः । आगत्य यूयमिह सानुचराः सचिन्हाः। स्वं स्वं प्रतीच्छत बलिं जिनपाभिषेके ॥ ८॥
( दशदिक्पालक मंत्र ) ओं आं क्रौं ही इन्द्र आगच्छ आगच्छ इन्द्राय स्वाहा ॥१॥ ओं आं क्रौं ही अग्ने आगच्छ आगच्छ अग्नये स्वाहा ॥ २ ॥ ओं आं क्रौँ ही यम आगच्छ आगच्छ यमाय स्वाहा ॥ ३ ॥
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-[६]
कक
ओं आं क्रौं ही नैऋत आगच्छ आगच्छ नैऋताय स्वाहा ॥ ४ ॥ ओं आं क्रौं ही वरुण आगच्छ आगच्छ वरुणाय स्वाहा ॥ ५ ॥ आं क्रौं ही पवन आगच्छ आगच्छ पवनाय स्वाहा ।। ६ ॥
क्रौं ही कुबेर आगच्छ आगच्छ कुबेराय स्वाहा ॥ ७ ॥ आं क्रौं ही ऐशान आगच्छ आगच्छ ऐशानाय स्वाहा ॥ ८ ॥ आं क्रौं ही धरणेंद्र आगच्छ आगच्छ धरणेंद्राय स्वाहा ॥९॥ आं क्रौं ही सोम आगच्छ आगच्छ सोमाय स्वाहा ॥ १० ॥ नाथ ! त्रिलोकमहिताय दश प्रकार । धर्माम्बुवृष्टिपरिषिक्तजगत्त्रयाय । अर्घ महाघगुणरत्नमहार्णवाय । तुभ्यं ददामि कुसुमैर्विशदाक्षतेश्च ।।९।। ओं ही इन्द्रादिदशदिवपालकेभ्यो इदं अर्घ पाद्यं गंधं दीपं धृपं चरुं बलिं स्वस्तिकं अक्षतं यज्ञभाग च यजामहे प्रतिग्रह्यतां२ स्वाहा ।।९।।
(क्षेत्रपालको अर्घ ) भो क्षेत्रपाल ! जिनपः प्रतिमांकपाल, दंष्ट्रा कराल जिनशासनरक्षपाल ।। तैलादिजन्म गुडचन्दनपुष्पधूपैभोंग प्रतीच्छ जगदीश्वरयज्ञकाले । विमलसलिलधारामोदगन्धाक्षतोघैः, प्रसवकुलनिवेद्यैर्दीपधुपैः फलौघैः । पटह पटुतरोधैः वस्त्रसद्भूषणोघैः जिनपतिपदभक्त्या ब्रह्मणं प्रार्चयामि ॥१०॥
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-[७]ओ आं को अत्रस्थ विजयभद्र-वीरभद्र-माणिभद्र-भैरवापराजित पंचक्षत्रपालाः इंदं अर्घ्य पायं गंधं दीपं चरुं बलिं स्वस्तिकं अक्षतं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिग्रह्यतां प्रतिग्रह्यतामिति स्वाहा ।।
( दिक्पाल और क्षेत्रपालको पुष्पाञ्जली ) जन्मोत्सवादिसमयेषु यदीय कीर्तिः, सन्द्राः सुराः प्रमदभारनता स्तुवन्ति । तस्याग्रती जिनपतेः परया विशुध्या पुप्पांजलिं मलयजादिनुपाक्षिपेऽहम् ॥ ११ ॥
इति पुष्पाञ्जलिः क्षिपेत् ॥ ११ ॥ ( कलशस्थापन और कलशोंमें जलधारा देना)
सत्पल्लवार्चितमुखान् कलधौतरूप्यताम्रारकूटघटितान् पयसा सुपूर्णान् । संवाह्यतामिक गतांश्चतुरः समुद्रान् संस्थापयामि कलशान् जिनवेदिकांते ॥ १२ ॥
ओं हां ही डूं हौं हः नमोऽहते भगवते श्रीमते पद्म महापद्म तिगिच्छ केशरी पुण्डरीक महापुण्डरीक गंगा सिन्धु रोहिद्रोहितास्या हरिद्धरिकान्ता सीता सीतोदा नारी नरकान्ता सुवर्णकूला रूप्यकूला रक्ता रक्तोदा क्षीराम्भोनिधिशुद्धजलं सुवर्णघटं प्रक्षालित परिपूरित नवरत्नगन्धपुष्पाक्षताभ्यर्चितमामोदकं पवित्रं कुरु कुर झा झौं वं में हं सं तं पं द्रां द्रीं अ सि आ उसा नमः स्वाहा ।।
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----[ ८
( अभिषेक के लिये प्रतिमाजीको अर्घ चढाना ) उदकचन्दनतंदुलपुप्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्यकैः । धवलमंगलगानरवाकुले, जिनगृहे जिननाथमहं यजे ॥१३॥
ओं ही परमब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये अष्टादशदोषरहिताय षट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय अर्हत्परमेष्टिने अनर्थ्यपदप्राप्तयेअर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ १३ ॥
( बिम्बस्थापना) यः पांडुकामलशिलागतमादिदेव मस्नापयन सुरवरा सुरशैलमूर्ध्नि कल्याणमीप्सुरहमक्षततोयपुष्पैः
संभावयामि पुर एव तदोयबिम्बम् ॥ १४ ॥ ओं हीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह श्रीवणे प्रतिमास्थापनं करोमि स्वाहा ।।
(मुद्रिकास्वीकार) प्रत्युतनालकुलिशोपलपद्मराग--- निर्यकरपकरबद्धसुरेन्द्रचापम् । जैनाभिषेकसमयेऽङ्गुलिपर्वमूले ।
रत्नाड्गुलीयकमहं विनिवेशयामि ।। १५ ।। ओं ही श्रीं श्रीं ऐं अहं असि आ उ साय नमः मुद्रिकाधारणं ॥
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( जलाभिषेक १) दुरावनम्रसुरनाथकिरीटकोटिसंलग्न रत्नकिरणच्छविधूसरांघ्रिम् प्रस्वेदतापमलमुक्तमपि प्रकृष्टभक्त्या जलैर्जिनपतिंबहुधाभिषिञ्चे ___ मंत्र-(१) ओ हीं श्रीं क्लीं ऐं अर्ह वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं त झं झं झ्वी झ्यीं वीं वीं द्रां द्रां द्रावय द्रावय
ओं नमोऽहते भगवते श्रीमते पवित्रतरजलेन जिनमभिषेचयामि स्वाहा। ___ मंत्र (२)-ओं ही श्रीमंत भगवंतं कृपालसंतं वृषभादि वर्धमानांतं चतुर्विंशतितीर्थकर परमदेवं आद्यानां आये जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखंडे................... देशे..................."नाम नगरे एतद् ...............जिनचैत्यालये सं............... मासोतम मासे................... पक्षे तिथौ........... वासरे प्रशस्त ग्रहलग्न होरायां मुनि-आर्यिका-श्रावक श्राविकाणाम् सकलकर्मक्षयार्थ जलेनाभिषेकं करोमि स्वाहा । इति जलस्नपनम् | * अर्घः-उदक चंदन................... अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।।
(फलरसाभिषेक २) मुक्त्यंगनानमविकीर्यमाणैः पिष्टार्थकर्पूररजोविलासैः। माधुर्यधुर्यैवर्रशर्करौषैर्भक्त्या जिनस्य वरसंस्नपनं करोमि ।।
* नोटः-उपरोत्त दोनों मंत्रों से कोई एक मंत्र बोलना चाहिये । नोटः-- प्रतिष्ठापाठादिमें जलके बाद फल रसका ही अभिषेक है ।
नोट:-जो रस मौजूद हो उसका श्लोक पढकर चढाना चाहिये ।
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[१०]मंत्रः-ओं ही.........................."इति शर्करास्नपनम् । अर्थः-उदकचन्दन ............."अब निर्वपामीति स्वाहा ॥
भक्त्या ललाटतटदेशनिवेशितोचैः । हस्तैच्युता सुरवरासुरमर्त्यनाथैः ॥ तत्कालपीलित महारसस्य धारा ।
सधः पुनातु जिनबिम्बगतैव युष्मान् ॥ १९ ॥ मंत्र:-ओ व्ही. ... ... ... ... .. ... ... इति इक्षुरसस्नपनम् । अर्घः-उदकचन्दन............... अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
नालिकेरजलैः स्वच्छैः शोतैः पूतैर्मनोहरैः ।
स्नानक्रियां कृतार्थस्य विदवे विश्वदर्शिनः ॥ २० ॥ मंत्र:-ओं ही....................... इति नालिकेररसस्नपनम् । अर्घः-उदकचन्दन .............. अर्ध निर्व पामीति स्वाहा ॥
सुपक्वैः कनकच्छायैः सामौदैर्योदकारिभिः ।
सहकाररसैः स्नानं कुर्मः शमैकसद्मनः ॥ २१ ॥ मंत्र:-ओं ही.....................''इति आम्ररसस्नपनम् । अर्घः-उदकचन्दन .............."अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।।
(घृताभिषेक ३) उत्कृष्टवर्ण-नव-हेम-रसाभिरामदेहप्रभावलयसङ्गमलप्सदीप्तिम् । धारां घृतस्य शुभगन्धगुणानुमेयां वन्देऽर्हतां सुरभि संस्नपनोपयुक्ताम् ॥ २२ ॥
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-- [११]मंत्र:-ओं हीं.............
................इति घृतस्नपनम् । अः-उदकचंदन................... अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।।
( दुग्धाभिषेक ४) सम्पूर्ण शारद-शशांकमरीचिजालस्पन्दरिवात्मयशसामिव सुप्रवाहैः । क्षीरैर्जिनाः शुचितरैरभिषिच्यमानाः ।
सम्पादयन्तु मम चित्तसमीहितानि ॥ २३ ॥ मत्रः-आ ही...............ात दुग्धाभिषकस्नपन
... ... ... ... इति दुग्धाभिषेकस्नपनम् । अर्घः-उदकचन्दन ... ... ... ... ..निर्वपामीति स्वाहा ॥
जेष्ठजिनवरजयमाला.
( भट्टारक ब्रह्मकृष्णकृत) अमरनयरिसम नयरि अयोध्या नाभिनरेन्द्र वसे निजबुध्या ।। सुरपति मेरुशिखर ले चढिया कनक कलश क्षीरोदधि भरिया ॥ तसघर राणी मरदेवी माया युगपति आदि जिनेश्वर जाया ॥ * ज्येष्ठमास अभिषेक जुकरिया अष्टोत्तर शत कुंभजु भरिया। भभकत जलधारा संचरिया ललितकलोल धरणि उतरयिया। जय जय सुरनि करी उच्चरिया इन्द्रइन्द्राणी सिंहासन धरिया।। अंग अनंग विभूषण धरिया कुंडलहार हरितमणि जडिया ॥
नोट:--- * जिस महीनमें अभिषेक किया जाय उस महीनेका नाम बोलना चाहिये। यह जयमाला दुग्धाभिषेकके समय बोली जाती है । प्रत्येक पंक्ति के बाद 'सुरपति मेरुशिखर' वाली पंक्तिको दुहराना चाहिये।
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-[१२]ऋषभ नाम शतपुखविस्तरिया कमलनयन कमलापति कहिया। युगला धर्मनिवारण चरिया सुरनर निकर गंधोदक महिया ॥ रत्न कचोल कुमारिनि भरिया जिनचरणाम्बुज पूजत हरिया। हिम हिमांशु चन्दन घनसरिया भूरि सुगंध गंध पसरयिया ॥ अक्षत अक्षतवास लहरिया रोहिणिकांत किरणसम सरिया ।। देखत रुचिकर अमरनि करिया पंचमुष्टि जिन आगे धरिया ।। सुन्दर पारिजात मोगरिया कमल वकुल पाटल कुमदरिया । चरुवर दीप लेय अपछरिया जिनवर आगे उतारि उधरिया। अगर तगर धूप फलफलिया फणस रसाल मधुर रसभरिया। कुसुमांजलि सांजलि समुजलिया पंडितराय अभ्रवच कलिया।। त्रिभुवनकीर्ति पदपंकज वरिया रनभूषणमूरि महापद कहिया ।। ब्रह्मकृष्ण जिनराज स्तविया जयजयकार करी मनहरिया ॥ कुंभ कलश भरि जयजिनवरिया शास्वत शर्म सदा अनुसरिया ॥
यावंति जिनचैत्यानि विद्यन्ते भुवनत्रये ॥ तावन्ति सततं भक्त्या त्रिःपरीत्य नमाम्यहम् ।।
( दध्यभिषेक ५) दुग्धाब्धिीचिचयसंचितफेनराशिपाण्डुत्वकांतिमवधीरयतामतीव । दघ्नांगता जिनपतेः प्रतिमा सुधारा ।
सम्पद्यतां सपदि वाञ्छितसिद्धये वः ॥ २४ ॥ मंत्र:-ओं ही............................"इति दधिस्नपनम् । अर्घः-उदकचंदन .................. अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।।
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- [१३]
( सौषधि ६) संस्नापितस्य घृतदुग्धदधीक्षुवाहैः । सर्वाभिरौषधिभिरहत उज्वलाभिः । उद्वर्तितस्य विदधाम्यभिषेकमेला
कालयकुंकुमरसोत्कटवारिपूरैः ॥ २५ ॥ मंत्र:--ओं ही....................... इति सौंषधिस्नपनम् । अंधः-उदकचंदन .................."अब निर्वपामांति स्वाहा।
( चन्दनलेपनम् ७) संशुद्धशुद्धया परया विशुध्या । कर्पूरसम्मिश्रितचन्दनेन ।। जिनस्य देवासुरपूजितस्य । विलेपनं चारु करोमि भक्त्या ॥२६॥
मंत्र:-ऑ ही....... ... ... इति चंदनलेपनम् करोमांति स्वाहा। अंधः-उदकचंदन .............."अर्ध निर्वपामीति स्वाहा ।
( चतुःकोणकुंभकलशाभिषेकः ८) इष्टैमनोरथशतैरिव भव्यपुंसां । पूर्णः सुवर्णकलशैनिखिलैवसानः संसारसागरविलंघनहेतुसेतु-पाप्लावये त्रिभुवनैकपतिं जिनेन्द्रम्
मंत्रः-ओं ही.............. इति चतुःकोणकुम्भकलशस्नपनम् । अर्घः-उदकचंदन ................ अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
( मंगलआरति ९) दध्युज्वलाक्षतमनोहरपुष्पदीपः। पात्रार्पितं प्रतिदिनं महतादरेण त्रैलोक्यमंगलसुखालयकामदाह मारार्तिकं तव विभोरवतारयामि
( इति मंगलआरति अवतारणम् )
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-[१४]
( पूर्णसुगंधितकलशाभिषेक १०) द्रव्यैरनल्पधनसारचतुः समाव्य-रामोदवासितसमस्तदिगंतरालैः मिश्रीकृतेन पयसा जिनपुंगवानां त्रैलोक्यपावनमहं स्नपनं करोमि
ओं ही....................इति पूर्णसुगंधितजलस्नपनम् । अर्घः-उदक चन्दन.................. अर्घ निर्बपामीति स्वाहा ।।
( पुष्पवृष्टि ११) यस्य द्वादशयोजने सदसि सद् गंधादिभिः स्वोपमानप्यर्थान्सुमनोगणान्सुमनसा वर्षेति विश्वक् सदा । यः सिद्धिं मुमनः सुखं सुमनसांस्वं ध्यायतामावहतं देवं सुमनोमुखैश्च सुमनों भेदैः समभ्यर्चये ।। मंत्र:- ओं हीं सुमनःसुखप्रदाय पुष्पवृष्टिं करोमि स्वाहा । ___अथ शांतिमन्त्रः प्रारभ्यते ।
ॐ नमः सिद्धेभ्यः । श्री. वीतरागाय नमः । ओं नमोऽर्हते भगवते । श्रीमते पार्श्वतीर्थकराय द्वादशगणपरिवेष्टिताय, शुक्लध्यानपवित्राय । सर्वज्ञाय । स्वयंभुवे । सिद्धाय । बुद्वाय । परमात्मने । परमसुखाय । त्रैलोक्यमहीव्याताय । अनन्तसंसारचक्रपरिमर्दनाय । अनंतदर्शनाय । अनन्तवीर्याय । अनन्तसुखाय सिद्धाय, बुद्धाय, त्रैलोक्यवशङ्कराय, सत्यज्ञानाय, सत्यब्रह्मणे, धरणेन्द्रफणामण्डलमण्डिताय, ऋष्यार्यिका- श्रावक- श्राविकाप्रमुखचतुस्सङ्घोपसर्गविनाशनाय, घातिकर्मविनाशनाय, अघातिकर्मविनाशनाय, अपवायं छिंद छिंद, भिंद भिंद । मृत्यु छिंद २ भिंद २
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---[१५]
अतिकामं छिंद २ भिंद २। रतिकामं छिंद २ भिंद २ । क्रोध छिंद २ भिंद २ । अग्निं छिंद २ भिंद २ । सर्वशत्रु छिंद २ भिंद २ । सर्वोपसर्ग छिंद २ भिंद २ । सर्वविघ्नं छिंद २ भिंद २। सर्वभयं छिंद, २ भिंद २ । सर्वराजभयं छिंद २ भिंद २ सर्व चौरभयं छिंद २ भिंद २ । सर्व दुष्टभयं छिंद २ भिंद २ । सर्वमृगभयं छिंद २ भिंद २। सर्वमात्मकभयं छिंद २ भिंद २ । सर्वपरमंत्रं छिंद २ भिंद २ । सर्वशूलरोगं छिंद २ भिंदं २ । सर्वक्षयरोगं छिंद २ भिंद २ । सर्व कुष्टरोग छिंद २ भिंद २ । सर्व क्रूररोगं छिंद २ भिंद २ । सर्व नरमारों छिंद २ भिंद २। सर्व गजमार्ग छिंद २ भिंद २ । सर्वाश्वमारी छिंद २ भिंद २ । सर्व गोमारी छिंद २ । भिंद २ । सर्व महिषमारी छिंद २ भिंद २। सर्व धान्यमारी छिंद २। भिन्द २ । सर्ववृक्षमारी छिंद २ भिंदर। सर्व गलमारी छिंद २ भिंद २ । सर्व पत्रमारी छिंद २ भिंद २ । सर्व पुष्पमारी छिंद २ भिद २१ सर्व फलमारी छिंद २ भिंद २ । सर्व राष्ट्रमारी छिंद २ भिंद २ । सर्व देशमारी छिंद २ भिंद २ । सर्व विषमारी छिद २ भिंद २।सर्व वेतालशाकिनीभयं छिंद २ भिंद २। सर्ववेदनीयं छिंद २ भिंद २। सर्व मोहनीयं छिंद २ भिंद २ । सर्व कर्माष्टकं छिंद २ भिंद २।। __सुदर्शन महाराज चक्रविक्रमतेजोबलशौर्यवीर्यशांतिं कुरु कुरु । सर्वजनानन्दनं कुरु कुरु । सर्वभव्यानन्दनं कुरु कुरु । सर्व गोकुलानन्दनं कुरु कुरु । सर्व ग्रामनगरखेटकर्वटमटंबपत्तनद्रोणमुखमहानंदनं कुरु कुरु । सर्व लोकानन्दनं कुरु कुरु। सर्व देशा
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- [१६]नन्दनं कुरु कुरु । सर्व यजमानानन्दनं कुरु कुरु । सर्व दुःखं, हन हन, दह दह, पच पच, कुट कुट, शीघ्रं शीघ्र ।
यत्सुखं त्रिषु लोकेषु व्याधिर्व्यसनवर्जितं ।
अभयं क्षेममारोग्यं स्वस्तिरस्तु विधीयते ॥ शिवमस्तु । कुलगोत्रधनधान्यं सदास्तु । चन्द्रप्रभ-वासुपूज्य-मल्लिवर्द्धमान-पुष्पदन्त-शीतल-मुनिसुव्रत-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ इत्येभ्यां नमः॥ ( इत्यनेन मन्त्रेण नवग्रहार्थं गन्धोदकधारावर्षणम् ॥ )
(गन्धोदकवन्दनमंत्रः) निर्मलं निर्मलीकरणं पवित्रं पापनाशनम् । जिनगन्धोदकं वन्दे कर्माष्टकनिवारणम् ।।
इति गन्धोदकवन्दनम् ॥ अथ बृहच्छान्तिमंत्रः प्रारभ्यते ।
ओं हीं श्रीं क्लीं ऐं अहं वं में हं सं तं पं वं वं मं में हं हं सं सं तं तं पं पं झं झं झ्वी झ्वी क्ष्वी क्ष्वी द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय द्रावय नमो अर्हते भगवते ओं ही क्रौं मम पापं खंडय खंडय हन हन दह दह पच पच पाचय पाचय शीघ्रं कुरु कुरु । ओं नमोऽहं झं इवीं क्ष्वी हं संज्ञवं व्हः पः हः क्षां क्षीं हूं क्षं ः ः क्षों क्षः ओं हा हि ही हुं हूं हें हैं हौं हः असि आउ सा नमः मम पूजकस्य ( सर्वेषां पूजकानाम् ) ऋद्धिं वृद्धिं कुरु कुरु स्वाहा ।
ओं द्रां ह्रीं द्रावय द्रावय नमोऽहते भगवते श्रीमते ठः ठः मम श्रीरस्तु वृद्धिरस्तु पुष्टिरस्तु शांतिरस्तु कांतिरस्तु कल्याणमस्तु मम कार्य
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-[१७]
सिद्धयर्थं सर्वविघ्ननिवारणार्थ श्रीमद्भगवतः सर्वोत्कृष्टत्रैलोक्यनाथार्चितपाइपद्मप्रसादात सद्धर्मश्रीबलायुरारोग्यदेवयाभिवृद्धिरस्तु स्वस्तिरस्तु धनधान्यसमृद्धिरस्तु श्रीशान्तिनाथो मां प्रति प्रसीदतु, श्रीवीतरागदेवो मां प्रति प्रसीदतु, श्रीजिनेन्द्र-परममांगल्यनामधेयो ममेहामुत्र च सिद्धिं तनोतु,
ओं नमोऽईते भगवते श्रीमते चिन्तामणि-पार्श्वतर्थिकराय रत्नत्रयरूपाय अनन्तचतुष्टयसहिताय धरणेंद्रफणामण्डलमण्डिताय समवशरणलदमीशोभिताय इन्द्रधरणेन्द्रचक्रवादि-पूजितपाद पद्माय केवलज्ञानलदमी-शोभिताय जिनराजमहादेवाय अष्टादशदोषरहिताय षट्चत्वारिंशत् गुणसंयुक्ताय परमगुरु परमा मने सिद्धाय बुद्धाय त्रैलोक्यपरमेश्वराय देवाय सर्वसत्वहितंकराय धर्मचक्राधीश्वराय सर्वविद्यापरमेश्वराय त्रैलोक्यमोहनाय धरणेद्रपद्मावतीसहिताय अतुलबलवीर्यपराक्रमाय अनेकदैत्यदानवकोटिमुकुटघृष्टपादपीठाय ब्रह्माविष्णुरुद्रनारदखेचरपूजिताय सर्वभव्यजनानन्दकराय सर्वरोगमृत्युघोरोपसर्गविनाशाय सर्वदेशग्रामपुर पट्टनराजा-प्रजाशान्तिकराय सर्वजीवविघ्ननिवारणसमर्थाय श्रीपार्श्वदेवाधिदेवाय नमोस्तु श्रीजिनराजपूजनप्रसादात सर्वसेवकानां सर्वदोषरोगशोकभय पीडाविनाशनं कुरु कुरु सर्वशांति तुष्टिं पुष्टिं कुरु कुरु स्वाहा । ओं नमो श्री शांतिदेवाय सर्वारिष्टशांतिकराय हां ह्रीं ढूं हों ह्रौं हः आस आउसा मम सर्व विघ्नं शांति कुरु कुरु स्वाहा, मम तुष्टिं पुष्टिं कुरु कुरु स्वाहा ।
श्री पार्श्वनाथपूजनप्रसादात् मम अशुभानि पापानि छिंद २ भिंद २, मम परदुष्टंजनोपकृत मंत्र तंत्र दृष्टिं मुष्टिं छलछिद्र
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--[१८]
दोषान् छिंद २ भिंद २, मम आग्निचोरजलसर्वव्याधि छिंद २ भिद २, मारीकृतोपद्रवान् छिंद २ भिंद २, सर्वभैरवदेवदानव वीरनरनारिसिंहयोगिनीकृत विघ्नान् छिंद २ भिंद २, डाकिनी शाकिनी-भूत-भैरवादिकृतविघ्नान् छिंद २ भिन्द २, भवनवासीन्यन्तर-ज्योतिषीदेवदेवीकृतविघ्नान् छिंद २ भिद २, अग्निकुमारकृत विघ्नान् छिंद २ भिंद २, उदधिकुमारस्तनितकुमारकृतविघ्नान् छिंद २ भिन्द २, द्वीप कुमार-दिक्कुमारकृतविघ्नान् छिंद २ भिद २, वातकुमारमेघकुमारकृतविघ्नान् छिंद २ भिंद २, इन्द्रादि-दशदिवपालदेवकृतविघ्नान् छिंद २ भिंद २, जय-विजय--अपराजित मणिभद्र-पूर्णभद्रादि क्षेत्रपालकृत विघ्नान् छिंद २ भिंद २, राक्षस वैताल-दैत्य-दानव-यक्षादिकृतविध्नान् छिंद २ भिंद २, नवग्रहकृत सर्वग्रामनगरीपीडां छिंद २ भिंद २, सर्व ग्रामनगरदेशमारीरोगान् छिद २ भिद २, सर्वस्थावरजंगमवृश्चिकदृष्टिविषजातिविप सर्पादिकृत दोषान् छिंद २ भिंद २, सर्व सिंहअष्टापदव्याघ्रन्यालबनचरजवभयान् छिद २ भिंद २, परशत्रुत-मारणोच्चाटन विद्वेषन-मोहन-वशीकरणादिदोषान् छिंद २ भिंद २, सर्वदेशपुरमारी छिद २ मिंद २. सर्व राजनरमारीम् छिद २ भिंद २, सर्व हस्ति-घोटकमारी छिंद २ भिंद २, ओं भगवती श्री चक्रेश्वरी ज्वालामालिनी एमावती देवी अस्मिन् जिनेन्द्रभवने आगन्छ २ एहि २ तिष्ठ २ बलिं ग्रहाण २ मम धनधान्यसद्धि कुरु २ सर्व भव्यजीवानन्दनं कुरु कुरु सर्व देशग्रामपुरमध्ये क्षुद्रोपद्रव-सर्व
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-[१९]
दोषमृत्युपीडाविनाशनं कुरु २ सर्वपरभयनिवारणं कुरु २ स्वाहा । ___ओं आं क्रौं ही श्री वृषभादि वर्धमानांत-चतुर्विंशतितीर्थकरमहादेवाः प्रियंतां २, मम पापानि ३ म्यंतु धोरोपसर्गाणि सर्वविघ्नानि शाम्यंतु, ओं आं क्रौ ह्री श्री चक्रेश्वरी–ज्वालामालिनी पद्मावती देवी प्रियंताम् २, ओं आं क्रौं ह्रीं श्रीं रोहिण्यादि-महादेवी अत्र आगच्छ २ सर्व देवताः प्रियंताम् २, ओं आं क्रौं ह्रीं श्री मणिभद्रादि यक्षकुमारदेवाः प्रियंताम् २, सर्वे जिनशासन-रक्षक देवाः प्रियताम् २, श्री आदित्य सोम मंगल बुध बृहस्पति शुक्र शनि राहु केतु सर्वे नवग्रहदेवाः प्रियंताम् २ प्रसीदंतु ।
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शांतिं भगवान् जिनेंद्रः । यत्सुखं त्रिषु लोकेषु व्याधिय॑सनवर्जितं । अभयं क्षेममारोग्यं स्वस्तिरस्तु मम सदा । यस्यार्थ क्रियते कर्म स प्रीतो नित्यमस्तु मे । शांतिक पौष्टिकं चैव सर्वकार्येषु सिद्धिदः । आव्हानं नैव जानामि नैव जानामि पूजनम् । विसर्जनं न जानामि क्षमस्व परमेश्वर ।
॥ इति शांतिधारा ॥
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-[२०]गन्धोदक लेनेका श्लोक. मुक्तिश्रीवनिताकरोदकमिदं पुण्यांकुरोत्पादक । नागेन्द्रत्रिदशेन्द्रचक्रपदवी-राज्याभिषेकोदकम् ।। सम्यग्ज्ञानचरित्रदर्शनलता-संवृद्धिसम्पादकम् । कीर्ति-श्रीजयसाधकं तव जिन ! स्नानस्य गंधोदकम् ॥
चंदन चढानेका श्लोक. ताम्पत्रिलोकोदरमध्यवर्ति-समस्त सत्साहितहारिवाक्यान् । श्रीचंदनैर्गवविलुब्ध गै-जिनेंद्रसिद्धांतयतीन् यजेऽहम् ॥ ___ओं ह्रीं परमब्रह्मणे अनन्तानन्तज्ञानशक्तये अष्टादशदोषरहिताय षट्चत्वारिंशदगुगसहिताय अर्हत्परमेष्ठिने संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्प चढानेका श्लोक. विनीतभव्याजविवोधमूर्यान् वर्यान मुचर्यान् कयनैकधुर्यान् । कुन्दारविंदप्रमुखैः प्रसनैर्जिनेन्द्रसिद्धांतयतीन् यजेऽहम् ॥
ओं ही परमब्रह्मणे अनन्तानन्तज्ञानशक्तये अष्टादशदोषरहिताय षट्चत्वारिंशद्गुणसहिताय अर्हत्परमेष्ठिने कामबाणविचंतनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
----- इति अभिषेकपाठः =--
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- [२१]
पंचपरमेष्ठीकी आरती. यह विधि मंगल आरति कीजे, पंचपरमपद भजि सुख लीजे। प्रथम आरती श्री जिनराजा, भवदपि पार उतार जिहाजा ॥१॥ दूनी आरति सिद्धन फेरी सुमिरन करत मिटत भवफेरी॥२॥ तीजी आरति सूरि भुनींद्रा जन्ममरण दुख दूर करिंदा ॥३॥ चौथी आरति श्री उवझाया, दर्शन होक्त पाप पलाया ॥ ४॥ पांचवीं आरति साधु तुम्हारी, कुमतिविनाशन शिवअधिकारी। छट्टी ग्यारह प्रतिमाधारी, श्रावक बंदो आनंदकारी ।। ६ ।। सातवीं आरति श्रीजिनवाणी, संवत स्वर्ग-पुकतिसुखदानी। पूजा करके आरति कीजे, जनम जनमका लाहो लीजे । जो यह आरति पढे पढावे, द्यानत अजर अमर पद पावे ।।
पद्मावति माताकी आरती. पद्मावति माता दर्शनकी बलिहारियां । पार्श्वनाथ महाराज विराजे मस्तक ऊपर थारे । इन्द्र फणीन्द्र नरेन्द्र सभी खडे रहे नित द्वारे॥पद्मावति ।। जो जिय थारो शरणो लीनो सब संकट हर लीनी । पुत्र पौत्र धन संपति देकर मंगलमय करि दीनो ॥ २ ॥ डाकिन शाकिन भूत भवानी नाम लेत भगजाये। वात पित्त कफ रोग मिटे अरु तन मन सुख हो जावे ॥३॥ दीप धूप अरु पुष्पहार ले मैं दर्शनको आया । दर्शन करके माता तुम्हारे मनवांच्छित फल पाया ॥४॥
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--- [२२]पंचामृताभिषेकके विषयमें कुछ प्रमाण
यहां थोडेसे प्रमाण दिये हैं । इनके सिवाय भी और अनेक. प्रमाण हैं । माननीय सेठ गोपीचंदजी ठोल्या जोहरी जयपुरवालोंने एक अभिषेक पाठ छपाया है । उसमें चौदह आचायाँके अलग अलग चौदह पंचामृताभिषेक पाठ हैं। उनमें पूज्यपाद जैसे महा आचाोके पाठ हैं । उनको देखकर श्रावकोंको श्रद्धापूर्वक पंचामृताभिषेक और आगमोक्त कार्य करना चाहिये ।
पंचामृताभिषेक पोषक कुछ आचार्यों व ग्रन्थोंके नामः --- नाम शास्त्र नाम आचार्य | नाम शास्त्र नाम आचार्य उमास्वामीश्रावकाचार उमास्वामी कषायपाहुड(जयश्वला) वीरसेन सागारधर्मामृत पं.आशाधर | षट्कर्मोपदेशरत्नमाला शिवकोटि भावंसंग्रह देवसेन अकलंकप्रतिष्टातिलक अकलंक भावसंग्रह वामदेव | कुंदकुंदश्रावकाचार कुंदकुंद पद्मपुराण
अभयनंदिअभिषेकपाठ अभयनंदि आदिपुराण जिनसेन | पद्मनंदिपंचविंशतिका पद्मनंदि श्रावकाचार वसुनंदि नेमिचन्द्रप्रतिष्ठातिलक नेमिचन्द हरिवंशपुराण जिनसेन | दानशासन वासुपूज्य चन्द्रप्रभ चरित्र पं.दामोदर नीतिसार इन्द्रनंदि सि. च धर्मसंग्रहश्रावकाचार पं. मेधावी | तत्वार्थसूत्र टीका श्रीश्रुतसागर
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- [२३]चन्दन तथा पुष्पोंसे पूजा किस प्रकार की जाये:
चन्दनसे पूजन श्री जिनेन्द्रके चरणोंको चर्चनेसे होती है, न कि सन्मुख चढानेसे । पुष्प भी श्री जिनेन्द्रके चरणोंपर ही चढाना चाहिये । बडे २ आचार्योंका यही मत है। श्री वीरसेन स्वामी कषासायपाहुड जयधवा पत्र १००
पहवणीवलेवण समजण छुट्टावण, फुल्लारोवण धृवदहणादि वावारेहि जीववठ्ठाविणाभावीहि विणा पूजकरणाणुवबत्तीदो च।
भावार्थ --- अभिषेक करना, अवलेप करना, संमार्जन करना, चंदन लगाना, फूल चढाना और धूप जलाना आदि जीववधके अविनाभावी व्यापारोंके विना नहीं बन सकता है ।
___ इसमें अबलेवण व फुल्लारोवण शब्द आया है । यह स्पष्ट प्रकट कहता है कि चंदन और पुष्प भगवानके चरणपर चढाना चाहिये ।
चंदण मुअंधलओ जिणवरचरणेसु कुणई जो भविओ। लहई तणु विकिरियं सहाव-ससुअंधयं विमलं ।
-देवसेन भावसंग्रह. पुष्पके लिये भी भावसंग्रहमें ऐसा ही लिखा हुआ है:जिणचरणेषु पुष्पं धरई ! यह पाठ है। इन प्रमाणोंसे स्पष्ट प्रकट हो रहा है कि गंध व पुष्पकी पूजा चर्चनेसे व चरणपर चढानेसे ही होती है ।
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- [२४]भगवान की पूजन पूर्व तथा उत्तरकी ओर मुख करक ही करनी चाहिये । स्वयं उत्तरमुखी हो तो भगवानको पूर्वमुग्व कर लेना चाहिये ।
उदङ्मुखः स्वयं तिष्ठत, प्राङ्मुखं स्थापयेज्जिनम् ।
पूजाक्षणे भवेन्नित्यं यमी वाचं यमक्रियः॥ यशस्तिलक पूजा खडे खडे नहीं, किन्तु बैठकर ही करना चाहिये-----
उपविसइ पडिम आसण ( भावसंग्रह) इन सब प्रमाणोंसे यह सिद्ध है कि जितना दान पूजा स्वाध्याय अभिषेक आदिमें पुरुषको अधिकार है, उतना ही स्त्रीको भी है। स्त्रियोंको भगवान्के स्पर्श और अभिषेकसे रोकना हठग्राहिता, कुरूढि और पाप है।
भगवान्की पूजा तथा अभिषेकादि शुद्ध सज्जाति त्रिवर्ण व्यक्तिको बाह्यशुद्धि ( स्नानादि ) से विशेष शुद्ध हो यज्ञोपवीत, तिटकादि भूषित हो, पंचामृताभिषकपूर्वक बैठकर एवं पूर्व अथवा उत्तरकी तरफ मुख करके करना चाहिये । अभिषेक व पूजा करते समय मौन रखना चाहिये । चंदन और पुष्पसे जो पूजा की जावे वह भगवान्के चरणोंपर करना चाहिये । इस प्रकार चंदन और पुष्पोंके संसर्गसे वीतरागतामें कोई बाधा नहीं आती। यह पूजाके लिए विशेष विधान आगमोक्त है। निर्वाणकांड गाथामें तो स्पष्ट आदेश है कि देवा कुणंति बुट्टी केसर-कुसुमाण तस्स उवरिम्भि ! अर्थात् भगवान्पर देवगण केसर और पुप्पोंकी वृष्टि करते हैं।
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-[३५]क्या स्त्रियां जिनाभिषेक व पात्रदान
नहीं कर सकती? ( लेखकः--श्री विद्यावाचस्पति पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री)
जैन आगमोंमें गृहस्थोंके लिए नित्य कर्म बतलाये गये हैं। देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, और दान ये गृहस्थों के षट्कर्म हैं । इसी प्रकार मुनियोंके भी सामायिकादि षट्कर्म बतलाये गये हैं। भगवान कुंद कुंदने श्रावकोंक षट्क मोमें दाणं पूजा मुख्खो सावय धम्मो, ऐसा बतलाते हुए श्रावक धर्ममें दानपूजाकी मुख्यता बतलाई, इसी प्रकार यतिधर्ममें ध्यान व अध्ययनको प्रधान बताया। सो श्रावकोंको दान व पूजा मुख्यतया अवश्य आचरणीय है ।
गृहस्थ शरसे स्त्री और पुरुष दोनों लिए गये हैं। जैन आचार ग्रंथों में स्त्रियोंका आचार, पुरुषोंका आचार इस प्रकारका भेद कहीं भी प्रतिपादित नहीं है । परंतु भेद आजकलके पंडित अपनी मनो कल्पित सरणिके अनुसार करते है,यह उचित नहीं है। हां,स्त्रियों के लिए अधिक से अधिक कितने गुणस्थान हो सकते हैं । पुरुषोंके लिए कितने गुणाथान हो सकते है, यह मर्यादा आगमों में बतलाई गई है । सो वहांतकके आचरणमें कोई भेद नहीं है। ऐसी स्थितिमें स्त्रियां दानप्जा भी पुरुषोंके समान नहीं कर सकती है, यह हास्यापद तर्क है।
पूजा शबसे अभिषेक,अष्टव्यार्चन आदि लिए जाते हैं । इसलिए गृहस्थोंको जैसी पूजा करनेका अधिकार है, उसी प्रकार स्त्रियोंको भी पूजा करने का अधिकार है। इस धार्मिक नित्यक्रियासे उन्हें वंचित
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-[२६]
नहीं करना चाहिए । बहुतसे सजन इसमें कुतर्क उठाते हैं कि वे प्रति समय अशुचि रहती हैं। अतः उन्हें देवाजादिका आधिकार नहीं । सो यह कहना बराबर नहीं है। वे हर समय अशुचि नहीं रहती हैं । अशुचि रहने की कोई कालमर्यादा है । उस मर्यादातक के ऐसे कार्योंसे दूर रहे, इसमें किसको आपत्ति हो सकती है ? सदा अशुचि बता कर उन्हें धर्मकार्यसे वंचित करना ठीक नहीं है । त्रियों को अर्जिकापदतक पहुंचने की मान्यता है। अर्जिकापद भी उपचारसे महावत ही है । फिर वे क्या गृहस्थोचित दानपूजा सदृश कार्यको भी नहीं कर सकती हैं ?
___ यदि स्त्रियां अपवित्र होने के कारण पूजा नहीं कर सकती है तो साधुवों को आहारदान कैसे दे सकती हैं ? आहारदान तो देती ही हैं। इसलिए अपवित्र होने का कोई कारण सयुक्तिक नहीं । शायद इसीलिए अब यह बतला दिया जा रहा है कि वे आहारदान भी नहीं दे सकी हैं । एक गलती को पोषण करनेके लिए दूसरी गलती की जा रही है।
स्त्रियोंने पूजा की है, आहारदान दिया है, इसके लिए ग्रंथों में प्रमाण है। उदाहरण हैं । यदि उन्हें अधिकार नहीं था तो ये प्रमाण कैसे उपस्थित होते ?
(१) आदिपुराणमें स्वयंप्रभादेवी का वर्णन जहां आया है वहां छह महिनेतक वह जिनपूजामें उद्यत थी, यह लिखा गया है । (२) आदिपुराण पर्व ४२ मे सुलोचनाके संबंधमें देखिए। तत्प्रतिष्ठाभिषेकांते महापूजा प्रकुर्वती । मुहुः स्तुति भिराभिः स्तुवती भक्तितोर्हतः। ददाति पात्रदानानि मानयंति महामुनीन् । इत्यादि ।
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-[२७]
वह सुलोचना अनेक रत्नमय प्रातमावोंको निर्माण कराकर एवं उनकी पूजाके लिए रत्नमय उपकरणों को भी कराती थीं। तदनंतर उनकी प्रतिष्ठा कराकर महापूजा अभिषेक बार २ करती हुई भक्तिपूर्वक भगवंतकी स्तुति करती महामुनियों को पात्रदान भी देती थी।
(३) पद्मपुराणमें सुलोचनाने अष्टान्हिकापर्वमें महाभिषेक पूजा कर राजदरबारमें स्थित अकंपन राजाको शेष पुष्पाक्षतको देनेका उल्लेख मिलता है।
(५) कुछ लोग कहते हैं कि देवेंद्रने अभिषेक किया | इंद्राणीने तो नहीं किया। फिर स्त्रियां आभषेक क्यों करे । उनके समाधानके लिए इंद्राणीने जो अभिषेक किया वह भी प्रमाण उद्धृत्त किये जाते हैं।
गंधैः सुगंधिभिःसांदरिंद्राणी गात्रमीशितुः। __ अवलिंपं च लिंपद्भिरिवामादेत्रिविष्ठपम् ॥
इंद्राणीने भगवानके शरीरको सुगंधित गंधके द्वारा लेपन किया, मानों वह तीन लोकको ही सुगधद्रव्यसे लेपन कर रही हो, अर्थात उस सुगंधसे तीन लोक व्याप्त हुआ।
इंद्राणिप्रमुखा देव्याः सद्वर्णैरवलेपनैः । चक्रुः उद्वर्तनं भक्त्या करैः कोमलपल्लवैः । महीधमिव तं नाथं घटै लघरिव ।
अभिषिच्य समारब्धा इत्यादि । पद्मपुराणमें पर्व ३ में देखियेगा।
अर्थात् इंद्राणि ही जिनमें प्रमुख हैं ऐसी देवांगनाओंने अपने कोमल हस्तपल्लवोंसे भगवंतके शरीरपर चंदनलेपन किया । और इसी प्रकार बहुत बडे २ कलशोंसे महाभिषेक किया ।
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-[२८]इसी प्रकार हरिवंशपुराणमें श्रीनेमिनाथ तीर्थकरके जन्मोत्सबके वर्णनमें भी निम्नलिखित प्रमाण है ।
ततः सुरपतिस्त्रियः जिनमुपेत्य शच्यादयः। सुगंधितनुपूर्वकैः मृदुकराः समुद्रर्तनम् । प्रचारभिषचन शुभपयांभिरुचघटैः। पयोधरभर्निजरिव कुचैः समावर्तितः।
अर्थात् उसके बाद शची महादेवी आदि देवांगनावोने भगवंतके शरीरको स्पर्श करते हुए सुगंधित जल्स अभिषेक किया । वे घट उनके कुचकुंभवे. अनुसार थे। सभी इंद्राणियोंने एक साथ ही अभिषेक किया।
श्री भगवद् गुणभद्राचार्य कृत जिनदत्त चरित्रमें देखिये । गृतिगंधपुष्पादिप्रार्चनाःसपरिच्छदा। अथैकदा जगामैषा प्रातरंव जिनालयम् । त्रिःपरीत्य ततः स्तुत्वा जिनांश्च चतुराशया,
संस्नाप्य पून यित्वा च प्रयाता यतिसंसदि ।
अर्थात्:-एक दन वह श्रष्ठिपत्नी जीव-सा स्नानादिके द्वारा शुद्ध होकर अपने परिवार के साथ प्रातः जिनालयमें गई, और जिनालयको तीन प्रदक्षिणा देकर स्तुतिपूर्वक अभिषेक करके मुनियोंकी सभामें गई।
श्र नेमिचंद्रकृत श्रीपालचरित्रमें देखिये:अथैकदा नुता सा च सुधी मदनसुंदरी। कृत्ला पंचामृतः स्नान जिनानां सुखकोटिंद।
अर्थात् अनंतर वह गुणवती मदनसुंदरीने कोटिसुखप्रद, जिनेंद्रका पंचामृतोंसे अभिषेक किया ।
आराधना कथाकाषमें प्रमाण देखिए ।
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तदा वृषभसेना च प्राप्य राजीपदं महत् । दिव्यान् भोगान् प्रभुजाना पूर्वपुण्यप्रसादतः । पूजयंती जगतपूज्यान जिनान्स्वर्गापवर्गदान्। दिव्यैरष्टमहाद्रव्यैः स्नपनादिभिरुज्वलैः ।
औषधदानमें प्रसिद्ध वृषभसेनाने पूर्वपुण्यप्रसादसे महारानीपदको प्राप्त किया। वहांपर वह स्वर्ग और मोक्षके लिए कारणभूत जिनपूजा व अभिषेक उत्तम द्रव्योंसे करती थी। जिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण । इत्युक्तो नौदयद्वेगात्सारथी रथमाप सः। जिनवेश्म तमास्थाप्य तौ प्रविष्टौ प्रदक्षिणौ। क्षीरंक्षुरसधारॊधै कृतदध्युदकादीभि ।
अभिषिच्य जिनेंद्रा_मर्चितां नृमुरासुरैः ।। अर्थात् गंधर्वसेनाके वचनको सुनकर सारथी रथको जिन. मंदिरके पास ले गया,गंधर्वसेनाने जिनमंदिरको तीन प्रदक्षिणा देकर जिनेंद्र भगवतका पंचामृतोंसे अभिषेक किया।
इसी प्रकार पद्मपुराण, महापुराण, गौतमचरित्र, षट्कर्मोपदेशरत्नमाला आराधना कथाकोष, व्रतकथाकोष, षट्पाहुड आदि अनेक ग्रंथों में इस विषयके लिए प्रमाण है। अतः इस विषयपर दुराग्रहको छोडकर स्त्रियोंको आगमानुमोदित जिनाभिषेक व पात्रदानसे वंचित नहीं करना चाहिए।
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महापुरुषोंका अभिमत पंचामृताभिषेक, स्त्रियोंको जिनाभिषेकाधिकार आदि विषपॉके लिए आचार्योके द्वारा प्रतिपादित ग्रंथों में उल्लेख हैं। हमें बाचार्य वाक्य प्रमाण हैं। स्व. चारित्रचक्रवर्ति आचार्य शांतिसागरजी महाराज आर्षग्रंथों में प्रतिपादित कल्याणकारी क्रियाओंके प्रति प्रमादसे शिथिलाचारी बनना ठीक नहीं है। यथाविधि अभिषेक पूजादि करनेसे श्रावकोंको पुण्यबंध ही नहीं, कर्मनिर्जरा भी होती है। तपोनिधि स्व. आचार्य वीरसागरजी महाराज भगवानके अभिषेक पूजनका वही अधिकारी हो सकता है जो मुनिदान देनेका अधिकारी हो / मुनिदान देनेका अधिकार स्त्रियोंको भी है, अतः अभिषेक पूजनका भी अधिकार उन्हे है। न्यायालंकार, वा. के. न्यायदिवाकर, पं. मक्खनलालजी शास्त्री जैनधर्मम नर और नारी दोनोंको समान धार्मिक अधिकार प्राप्त है / अतः जैनाचार्योंने नारियोंके लिए भी पूजन प्रक्षालके डाधिकार पुरुषोंके समान ही दिये हैं। साहित्यसरि, विदुषीरत्न ब्रा. पं. चंदाबाईजी आरा Printed by V. P. Shastris at Kalyan Power Printing Press, Kalyan Bhawan, Sholapur. For Private and Personal Use Only