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दिवाकर.. चित्रकथा)
अंक १४ मूल्य १७.००
मेघकुमार की
आत्म-कथा
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मेघकुमार की आत्मकथा
मगध सम्राट श्रेणिक के राजपरिवार का भगवान महावीर के धर्म संघ के साथ घनिष्ट सम्पर्क रहा है। वे स्वयं तथा उनकी पटरानी चेलना भगवान महावीर के परम भक्त थे। उनका ज्येष्ठ पुत्र सम्राट अजातशत्रु कूणिक भी अपने राज्यकाल में भगवान महावीर का परम उपासक रहा है। श्रेणिक राजा की अनेक रानियों, महामंत्री अभयकुमार तथा मेघकुमार, नंदीषेण आदि द्वारा भगवान के धर्म संघ में श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर विविध प्रकार की तपःसाधना करने का वर्णन जैन आगमों में उपलब्ध हैं। ___ मेघकुमार के प्रंसग का वर्णन ज्ञातासूत्र के प्रथम अध्ययन में बड़े विस्तार के साथ मिलता है। इस प्रसंग में प्रव्रज्या ग्रहण के पश्चात् उसी रात मेघकुमार के मन में उपजा अन्तर्द्वन्द्व, संयम जीवन में आने वाले कष्टों की कल्पना से जन्मी अधीरता और भगवान महावीर द्वारा मेघकुमार को उद्बोधित करने के लिए उसके पूर्व जीवन की घटनाओं का उद्घाटन। एक नन्हे से जीव की दया अनुकम्पा के लिए सहन किया हुआ कष्ट, और फलस्वरूप पशु जीवन त्यागकर । मानव जीवन की प्राप्ति तक का अन्तर-स्पर्शी वर्णन आज भी पाठक और श्रोता के हृदय को झकझोर देता है। ___भगवान के श्रीमुख से सुनी आत्म-कथा से मेघकुमार का हृदय जागृत हो जाता है, उसके शिथिल पड़े संकल्प पुनः | सुदृढ़ हो जाते हैं और वह अधीरता, उद्वेग और अन्तर्द्वन्दों को त्यागकर समग्र श्रद्धा के साथ संयम में स्थिर होता है। भगवान के श्रीचरणों में स्वयं को समर्पित कर जीवन भर के लिए संकल्प बद्ध होता है।
मेघकुमार की यह आत्म-कथा युग-युग तक करुणा-अनुकम्पा, कष्ट सहिष्णुता और अधीरता त्यागकर धीरता का सन्देश देती रहेगी। सर्वज्ञ प्रभु महावीर का यह उद्बोधन आत्म-विस्मरण में डूबी आत्मा को आत्म-स्मरण कराकर संयम में स्थिर करने में परम सहायक बनेगी। और स्वयं कष्ट सहकर अनुकम्पा दया की शिक्षा देती रहेगी। साथ ही इस घटना से जीव-दया का महान फल भी सूचित होता है।
पू. अध्यात्मयोगी श्रीमद् आचार्य विजय कलापूर्ण सूरीश्वर जी म. सा. के विद्वान शिष्यरल मुनिश्री पूर्णचन्द्रविजय जी ने ज्ञातासूत्र प्रथम अध्ययन के आधार पर मेघकुमार की आत्म-कथा का सुन्दर शब्दों में शब्द चित्र तैयार किया है, इसके लिए हम आपश्री के कृतज्ञ हैं।
-महोपाध्याय विनयसागर -श्रीचन्द सुराना 'सरस'
लेखक : मुनिश्री पूर्णचन्द्र विजय जी प्रबन्ध सम्पादक : संजय सुराना
सम्पादक : श्रीचन्द सुराना 'सरस' चित्रण : श्यामल मित्र
प्रकाशक
दिवाकर प्रकाशन ए-7, अवागढ़ हाउस, अंजना सिनेमा के सामने
एम. जी. रोड, आगरा-282002 दूरभाष : 351165, 51789
श्री देवेन्द्र राज मेहता सचिव, प्राकृत भारती अकादमी 3826, यती श्याम लाल जी का उपाश्रय मोती सिंह भोमियो का रास्ता, जयपुर-302003
© संजय सुराना द्वारा दिवाकर प्रकाशन, ए-7, अवागढ़ हाउस, एम. जी. रोड, आगरा-282 002
भाष : (0562) 351165, 51789 ग्राफिक्स आर्ट प्रेस मथुरा द्वारा मुद्रित।
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मेघकुमार की आत्मकथा
विपुलाचल आदि पाँच पर्वतों की तलहटी में बसी मगध की राजधानी राजगिरि के शासक थेबिम्बसार श्रेणिक। चेलना, नंदा, धारिणी आदि अनेक रानियाँ और अभयकुमार, कूणिक (अजातशत्रु) आदि विशाल पुत्र परिवार था उनका।
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मेषकुमार की आत्मकथा एक रात धारिणी रानी ने स्वप्न देखा, एक विशालकाय श्वेत हाथी सूंड उछालता हुआ आकाश से उतरकर रानी के मुँह के रास्ते उदर में प्रवेश कर रहा है। या
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| फिर दूसरे कक्ष में सोये महाराज श्रेणिक के पास आई।
स्वप्न देखकर रानी जाग उठी। वह दो क्षण इस विचित्र स्वप्न पर विचार करती रही।
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रानी के पैरों की
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विकुमार की आत्मकथा
उठे।
रानी ने अपना स्वप्न सुनाते हुए कहा
महाराज ! ऐसा विशाल श्वेत हाथी आज पहली बार देखा है। इस शुभ स्वप्न का क्या फल हो सकता है?
राजा ने रानी को भद्रासन पर बैठने को कहा, और पूछा
देवी ! इस मध्य रात्रि में अचानक आने का क्या विशेष कारण हुआ?
श्रेणिक ने कहा
देवी! तुम्हारा स्वप्न बहुत ही उत्तम है। तुम जल्दी ही एक श्रेष्ठ पुत्र की माता बनोगी।
महाराज, अपराध क्षमा करें। अभी-अभी मैंने एक विचित्र स्वप्न देखा है।
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उत्तर सुनकर रानी धारिणी के चेहरे पर प्रसन्नता व लज्जा की गुलाबी आभा छितरा गई।
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मेघकुमार की आत्मकथा कुछ देर वार्तालाप के बाद रानी अपने कक्ष में । ऐसा निश्चय कर वह एक स्वच्छ आसन पर वापस आ गई। उसने सोचा
बैठकर नमोकार मंत्र का स्मरण करने लगी।
शुभ स्वप्न देखने के बाद नींद नहीं a लेना चाहिए।
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सूर्योदय तक वह प्रभु-स्मरण व धर्मध्यान करती रही।
प्रातःकाल राजा श्रेणिक ने नगर के श्रेष्ठ विद्वान् स्वप्न-पाठकों को राजसभा में आने का आमंत्रण भेजा। राजसभा में एक सफेद झीने पर्दे के पीछे रानी बैठी। राजा ने स्वप्न-पाठकों को रानी को स्वप्न बताकर पूछाआपके शास्त्र अनुसार इस स्वप्न का क्या शुभ फल हो सकता है?
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प्रधान स्वप्न- पाठक ने अपना शास्त्र पढ़कर बताया
मेघकुमार की आत्मकथा
आपके समाधान से हमें प्रसन्नता और सन्तोष मिला, धन्यवाद ।
स्वप्न- पाठक को फल-फूल वस्त्र एवं स्वर्ण-मुद्राओं से सम्मानित करते हुए राजा ने कहा
स्वप्नफल सुनकर रानी धारिणी और श्रेणिक प्रसन्न हो गये।
आशीर्वाद देकर स्वप्न-पाठक लौट गये।
महाराज ! श्वेत हाथी देखना श्रेष्ठ शुभ स्वप्न है। यह सूचित करता है कि महारानी धारिणी शीघ्र ही एक उत्तम पुत्र की माता बनेगी और यह पुत्र आपकी यश-कीर्ति-वैभव को बढ़ाने वाला होगा।
गर्भ-काल के तीसरे महीने रानी धारिणी के मन में एक दोहद उत्पन्न हुआ। वह उस पर विचार करने लगी
ओह ! कितनी विचित्र और असम्भव इच्छा है मेरी ! कैसे पूरी होगी? अपने मुँह से कैसे बताऊँगी महाराज को यह बात
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रानी इसी विचार में उदास हो गई।
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मेघकुमार की आत्मकथा एक दिन बसन्ता नाम की दासी ने महारानी से पूछा
महारानी जी ! इस समय आपको तो प्रसन्न और आनन्दित रहना चाहिए। आप उदास क्यों हैं? यदि आप यूँ ही गुमसुम रहेंगी तो महाराज
हमें डाँटेंगे ! बताइये न? क्या बात है?
बसन्ता ! जो बात बननी असम्भव लगती है उसे मुँह से कहने में भी लम्जा आती है। सुनोगी तो तुम भी
मुझे मूर्ख समझोगी।
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तभी महाराज श्रेणिक अचानक राजमहल में आ गये। दासियाँ वहाँ से चली गईं। राजा ने रानी को उदास देखा तो पूछादेवी ! इस बसन्त ऋतु में तो फूल खिलते हैं, तुम तो मुआती जा रही हो? तुम्हारे चेहरे पर चिन्ता की छाया देखकर मेरा मन भी दुःखी हो रहा है?क्या बात है?
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मेघकुमार की आत्मकथा
कुछ नहीं स्वामी। बस यूँ ही मेरे
मन में एक विचित्र असम्भव दोहद उत्पन्न हुआ है। मुँह से कहने में भी संकोच होता है।
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संकोच कैसा? क्या मुझे पराया समझती हो, या कायर? बताओ प्रिये तुम्हारे) मन में क्या दोहद उत्पन्न
हुआ है।
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महाराज! मन में एक उमंग उठी है। आकाश में बादल छाये हों, बिजलियाँ चमक रही हों। नन्हीं-नन्हीं फुहारें बरस रही हों। भूमि पर चारों तरफ हरियाली छाई हो, मोर पिउ-पिउ कर नाच रहे हों, ऐसे सुहावने मौसम में मैं श्वेत
गजराज पर बैठू। पीछे छत्र तानकर आप विराजे हों, मेरी सवारी नगर के बीचों-बीच निकले।
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कहते-कहते रानी ने शर्म से गर्दन नीची झुका ली।
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मेघकुमार की आत्मकथा राजा श्रेणिक रानी का दोहद सुनकर चकित हो गये। परन्तु सान्त्वना देते. बोले
हुए
रानी को आश्वासन देकर श्रेणिक वापस राजसभा में आकर बैठ गये।
मैंने रानी का मन बहलाने के लिए उसे आश्वासन तो
दे दिया, अब यह विचित्र दोहद कैसे पूर्ण होगा?
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इन्हीं विचारों में खोये राजा बार-बार आकाश की तरफ देखने लगे।
देवी ! उद्यमी एवं बुद्धिमान् व्यक्ति लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। चिन्ता मत करो। हम आपका दोहद पूर्ण करने की शीघ्र ही व्यवस्था करेंगे
।
तभी महामंत्री अभयकुमार पिताश्री के अभिवादन के लिए आया। परन्तु राजा ने उधर ध्यान ही नहीं दिया। कुछ देर बाद राजा ने अभयकुमार को देखा तो अचकचाकर बोले
अभय ! तुम कब आ गये ?
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महाराज ! मुझे तो काफी समय हो गया यहाँ खड़े ! आप आज किस चिन्ता में हैं ?
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मेघकुमार की आत्मकथा श्रेणिक उठकर अभय के साथ एकान्त मंत्रणाकक्ष में चले गये। अभय कुमार को रानी
महाराज ! आप चिन्ता न करें। यह कार्य धारिणी के दोहद की बात सुनाकर बोले
बुद्धि-बल से नहीं, किन्तु देव-बल से अभय ! मैंने तुम्हारे बुद्धि-बल पर भरोसा करके ही WIसफल होने वाला है। मैं प्रयत्न करता हूँ। रानी को इसकी पूर्ति का आश्वासन दे दिया है। अब )
इसे सम्पन्न करने की योजना बनाओ।
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दूसरे दिन अभयकुमार अपनी पौषधशाला में आया। स्वच्छ वस्त्र पहनकर अपने मित्र देव का आस्वान करने बैठा। तीन दिन के निर्जल तप व आराधना से प्रसन्न होकर मित्र देव आकाश में प्रकट हुआ। अभय ने देव को प्रणाम किया। और अपनी छोटी माता रानी धारिणी का दोहद बताकर कहा
"इसे पूर्ण करना अब आपके हाथ में है।
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मित्र ! निश्चिन्त रहो तुम ! अपने मित्रों और आराधकों की सहायता करना हमारा धर्म है।
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मेघकुमार की आत्मकथा | देव-लीला से अगले दिन देखते ही देखते आकाश में काले कजराले बादल छा गये। मेघगर्जना होने लगी। बिजलियाँ चमकने लगीं। रिमझिम फुहारें बरसने लगीं और सारी पृथ्वी जैसी हरियाली से नाच उठी। राजा श्रेणिक ने रानी धारिणी को कहा
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देवी ! देखो तुम्हारे भाग्य से मौसम कितना सुहावना हो गया है? चलो, हम वन-विहार को चलते हैं?
राजा श्रेणिक के आदेश से अभयकुमार ने वन-विहार की तैयारी पूर्ण कर दी। रानी धारिणी एक सफेद हाथी पर बैठी। पीछे राजा श्रेणिक हाथ में छत्र लेकर बैठ गये। उनकी सवारी नगर के बीचों-बीच से होकर गुजरी, नागरिक जनों ने उन्हें अभिवादन किया।
महारानी धारि की जय ! महाराज की जय हो।
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दोहद पूर्ण होने से रानी की उदासी दूर हो गई।"
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मेघकुमार की आत्मकथा
कुछ माह पश्चात् समय आने पर प्रियंवदा दासी ने राजसभा में आकर महाराज श्रेणिक को बधाई दी
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महाराज ! बधाई हो । महारानी धारिणी ने एक अति सुन्दर पुत्र को जन्म दिया है।
अमारि-घोषणा: किसी पंचेन्द्रिय जीव को नहीं मारने की घोषणा
दासी महाराज को प्रणाम करके सभी को खुशी के समाचार सुनाती हुई चली गई।
नगर में आठ दिन तक बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया। गरीबों को अन्न दान, वस्त्र दान और पशु-पक्षियों को अभयदान की घोषणा कर दी गई।
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आह ! कितनी प्रसन्नता की बात है। प्रियवंदा, यह मोतियों का हार हमारी तरफ) से इनाम लो ।
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सुनो ! सुनो ! रा धारिणी के की पुत्र-जन्म खुशी में नगर में आठ दिन तक अमारि-घोषणा
जाती है।
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मेघकुमार की आत्मकथा
प्रीतिभोज के उत्सव पर राजा ने स्वजनों को बताया
रानी धारिणी को मेघ का दोहद उत्पन्न हुआ था। इस
कारण इस बालक का नाम
मेघकुमार रखा जाये।
(राजकुमार मेघकुमार चिरायु हों।
बड़े लाड़-प्यार
मेघकुमार का लालन-पालन होने लगा। आठ वर्ष का होने पर मेघकुमार को शिक्षण के लिए गुरुकुल में भेजा गया।
राजा ने सभी स्वजन मित्रों को मान-सम्मान देकर विदा किया।
वत्स ! गुरुकुल के तीन नियमों का सदा पालन करोगे सत्य, संयम और अनुशासन ।
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कलाचार्य ने उसे ८ वर्ष तक सब प्रकार का शिक्षण देकर योग्य बनाया।
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मेघकुमार ! अब तुम्हारा शिक्षण पूर्ण हो गया है। जाओ अपने राज्य में जाकर प्रजा का हित करो। सत्य, अहिंसा, करुणा, दया का हमेशा अपने जीवन में पालन करो।
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कलाचार्य से आशीर्वाद लेकर मेघकुमार अपने
राज्य वापस आ गया।
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मेघकुमार की आत्मकथा युवा होने पर आठ सुन्दर राजकुमारियों के साथ मेघकुमार का विवाह हुआ।
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मेघकुमार अपनी आठों रानियों के साथ सुख-पूर्वक रहने लगा।
कुछ वर्षों बाद भगवान महावीर मगध की राजधानी राजगृह में | | मेधकुमार ने आनन्दित होकर कहापधारे। भगवान के दर्शन के लिये जाती हुई भीड़ देखकर भगवान पधारे हैं? मेघमार ने महलों के प्रतिहारी से पूछा-1 0
वाह ! हम भी दर्शन
करने जायेंगे। आज नगर में कुमार ! तीर्थंकर भगवान महावीर क्या उत्सव है? नगर के गुणशील उद्यान में पधारे हैं।
ये लोग दर्शनों के लिए जा रहे हैं।
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मेघकुमार अपनी आठों पत्नियों के साथ रथ में बैठकर भगवान महावीर के दर्शन करने चल दिया।
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मेघकुमार की आत्मकथा पाँच पहाड़ियों की तलहटी में बसा गुणशील उद्यान अनेक प्रकार के सुन्दर वृक्षों व अनेक विश्राम भवनों से मण्डित था। वहाँ भगवान महावीर विशाल जन-समूह को सम्बोधित करते हुए एक उदाहरण दे रहे थे
उदाहरण देकर भगवान ने प्रश्न किया
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भव्यो ! जिस अमृत द्वारा मनुष्य असाध्य रोगों से मुक्त हो सकता है। उस अमृत को पैर धोने में नष्ट करने को आप क्या कहेंगे
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भव्यो! किसी व्यक्ति को पुण्योदय से एक अमृत कलश प्राप्त हो गया। किन्तु उस मूर्ख को उसकी महत्ता का कुछ ज्ञान नहीं था। एक बार वह कीचड़ में सने पैर लेकर घर में आया। सामने ही अमृत कलश रखा हुआ था। उसने उसी में से अमृत लिया और पैरों का कीचड़ धोने में बर्बाद कर दिया।
सभी जनता ने विनम्र स्वर में कहा
भन्ते ! यह तो सरासर मूर्खता है ! घोर अज्ञान है।
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मेघकुमार की आत्मकथा
प्रभु ने कहा
भव्यो ! यह मानव-जीवन अमृत-कलश से भी अधिक मूल्यवान और उपयोगी है। इससे धर्माराधना करके जन्म-मरण-जरा (बुढ़ापे) के रोगों से मुक्त होकर अजर-अमर पद प्राप्त किया जा सकता है। यदि भोग-विलास प्रमाद आदि में इसे खो दिया तो, समझो अमृत से पैर धोने जैसी मूर्खता होगी।
प्रभु का उद्बोधन सुनकर अनेक व्यक्तियों ने त्याग-नियम आदि व्रत ग्रहण किये। मेघकुमार का हृदय भी जाग उठा। उसने निवेदन किया
भन्ते ! मैं भी अपने मानव-जीवन का पूरा लाभ उठाने के लिए संयम का पथ स्वीकारना चाहता हूँ।
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मेषकुमार की आत्मकथा भगवान ने कहा
मेषकुमार अपने घर पर आया और माता-पिता से
मुनि दीक्षा लेने की अनुमति माँगी। रानी धारिणी ने मेघ ! संयम का पथ तलवार की धार पर चलने
आँसू बहाते हुए कहाजैसा कठिन है। किन्तु दृढ़ संकल्पी और विरक्त
ना बेटा ना ! तू बहुत सुकुमार है, आत्मा के लिए यह फूलों का राजमार्ग भी है।
सुखों में पला है। श्रमण-जीवन के कष्ट तुम्हारी आत्मा को जैसा सुख हो वैसा करो।
तुझसे बर्दाश्त नहीं हो सकेंगे।
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ल्ल्यात मेघकुमार ने कहा
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बड़ा दुष्कर है यह मार्ग 7
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माता, जैसे सोने को निखारने के | लिए अग्नि में तपाना ही पड़ता है, वैसे आत्मा को पवित्र और निर्मल बनाने के लिए संयम-तप की अग्नि में तपना आवश्यक है। संयम व तप के बिना सिद्धि नहीं मिल पाती। मुझे
जन्म-मरण से मुक्त होकर " सिद्भगति-मुक्ति प्राप्त करना है।
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मेघकुमार की आत्मकथा
माता-पिता के बहुत समझाने पर भी मेधकुमार ने अपना निर्णय नहीं बदला। तब राजा श्रेणिक ने कहावत्स ! ठीक है, तू संयम पथ पिताजी, पर बढ़ना चाहता है तो हम | कहिए आपका नहीं रोकते, परन्तु हमारी ) आदेश सिर एक इच्छा है।
माथे पर है।
वत्स ! हम चाहते हैं, दीक्षा Forलेने से पहले एक दिन के लिए तेरा राज्याभिषेक कर हम अपने मन का मोद पूरा कर लेवें।
पिताश्री! जैसी आपकी इच्छा
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राजाज्ञा से मेघकुमार का राज्याभिषेक महोत्सव मनाया गया। राजपुरोहित ने तिलक लगाया। माता-पिता ने आशीर्वाद दिया। प्रजा ने अभिवादन कर विविध उपहार दिये। पूरे नगर में मिष्टान्न और स्वर्ण-मुद्रायें बाँटी गईं।।
भाई ! सच्चा त्याग तो यही। है। आज राजतिलक हुआ और कल साधु बन जायेगा।
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मेधकुमार की आत्मकथा दूसरे दिन मेघकुमार की शोभा यात्रा निकली। एक भव्य शिविका में मेघकुमार को बैठाया गया। हजारों स्त्री-पुरुष जयनाद करते हुए गुणशील उद्यान में पहुँचे। मेघकुमार भगवान महावीर के सम्मुख मुनि वेश धारण कर उपस्थित हुआ।
मेघ, आज से तुम संयम-साधना के पथ पर बढ़ रहे हो। जीवन की प्रत्येक गति विधि में विवेक एवं यतनापूर्वक आचरण करोगे।
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भगवान महावीर ने मेघकुमार को मुनि-दीक्षा प्रदान कर श्रमणों को सौंप दिया।
रात हुई। सोने के समय सभी मुनियों ने एक विशाल कक्ष में क्रमश: अपनी-अपनी शय्या लगाई। मेघ मुनि-दीक्षा क्रम में सबसे छोटे थे इसलिए सबके अन्त में द्वार के पास उनकी शय्या लगी। वहीं से बाहर जाने-आने का रास्ता था।
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रात को मेघ मुनि को नींद की झपकी लगती इतने में ही लघु-शंका के लिए बाहर आते-जाते मुनियों के पाँवों का स्पर्श होता तो उसकी नींद खुल जाती।
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मेघकुमार की आत्मकथा
इस प्रकार रात भर नींद नहीं आने से मेघ मुनि का मन खिन्न और व्यग्र हो उठा। वे सोचने लगे
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कल तक मैं राजमहलों की कोमल शय्या पर आराम से सोता था। आज भूमि पर सोना और रात भर पाँवों की आहटों से जागना तथा ठोकरें खाना, कितना कठिन है यह मुनि जीवन । जिन्दगी भर इस प्रकार कष्ट सहना मुझसे तो नहीं होगा ।
मेघ मुनिका मन उद्विग्न हो गया। आते-जाते श्रमणों को देखकर उसके मन में विचार उठने लगे।
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कल तक राजभवन में सब लोग मेरा आदर करते थे, और आज मुझे पैरों की ठोकरें खानी पड़ रही हैं। मुझसे यह बर्दाश्त नहीं होता । श्रमण जीवन की यह कठिन चर्या मुझसे नहीं निभेगी । मैं तो प्रातःकाल होते ही भगवान से पूछकर वापस अपने घर चला जाऊँगा !
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रात भर मेघ मुनि अपनी शय्या पर बैठे-बैठे इसी प्रकार विकल्पों में उलझे रहे।
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मेघकुमार की आत्मकथा
प्रातः होते ही वे भगवान महावीर के समक्ष उपस्थित हुए। वे कुछ बोलते उससे पहले ही भगवान पूछ लिया
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मेघ ! तुम रात भर सोये नहीं? नींद नहीं आई ! विचारों की उथल-पुथल में बहुत परेशान रहे न?
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भगवान महावीर बोले
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हाँ भन्ते ! मेरा मन रात भर बहुते अशान्त रहा। मुझसे श्रमण-जीवन के ये कष्ट बर्दाश्त नहीं हो सकते इसलिए मैं अपने घर वापस लौट जाना चाहता हूँ
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मेघ, अगला कोई निर्णय लेने से पहले तुम एक घटना सुन तुम्हारे अशान्त मन को अवश्य ही शान्ति मिलेगी।
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भन्ते ! अवश्य ! सुनाइये।
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मेधकुमार
बहुत समय पहले वैतादयगिरि पर्वत की तलहटी में एक हरा-भरा विशाल जंगल था। उस जंगल में सैकड़ों हाथी-हथिनियों के साथ उन हाथियों का राजा सुमेरुप्रभ रहता था। सुमेरुप्रभ अपने हाथियों के दल के साथ सरोवरों, ईख के खेतों और केले के वनों में क्रीड़ा | करता और मस्ती से घूमता रहता था।
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एक बार ग्रीष्म ऋतु में उस जंगल में भीषण आग लगी। हवा के झोंकों के साथ देखते-देखते हो आग समूचे जंगल में फैल गई। जंगली जीव, सिंह, चीते, हरिण, खरगोश आदि आग से बचने के लिए इधर-उधर सुरक्षित स्थानों को भागने लगे।
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मेघकुमार
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उस समय वह हाथियों का राजा सुमेरुप्रभ जो बहुत बूढ़ा और दुर्बल हो चुका था, आग की लपटों से खुद बचाने के लिए भागता-भागता गर्मी के मारे व्याकुल हो उठा।
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आग की चिनगारियाँ उछल-उछलकर उसके शरीर पर गिर रही थीं। चमड़ी झुलस रही थी।
ओह ! कितनी भीषण आग है। यह आग तो जंगल के सब पशु-पक्षियों को जलाकर भस्म कर देगी।
गर्मी से सुमेरुप्रभ का गला सूख रहा था। पानी की खोज में इधर-उधर भटकता हुआ वह एक सूखे दलदले सरोवर के किनारे पहुँच गया।
आह ! पानी । कण्ठ सूख गया है। तालाब में जाकर भर पेट पानी पीऊँगा।
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मेधकुमार
सरोवर में पानी कम दलदल ही ज्यादा था। सुमेतप्रभ पानी पीने के लिए दलदल में उतरा तो गहरा धंस गया। जैसे-जैसे वह निकलने की चेष्टा करता, और गहरा फँसता जाता।
वह न तो पानी तक पहुँच पाया और न ही वापस किनारे पर आ सका। बीच दलदल में ही कई दिनों तक भूखा-प्यासा फँसा रहा।
इसी बीच उस यूथ का एक नौजवान हाथी जो सुमेरुप्रभ से खार खाये हुए था, उधर आ गया। उसने बदला लेने का यह मौका देखा तो अपने तीखे दंत शूलों से सुमेरुप्रभ को घायल कर लहूलुहान करने लगा।
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मेघकुमार सुमेरूप्रभ सहायता के लिए चिंघाड़ता, चीखता घायल सुमेरुप्रभ वेदना से कराहता, भूख-प्यास रहा, परन्तु उस खूखार हाथी के डर के कारण से छटपटाता, एक दिन मर गया। कोई भी दूसरे हाथी सहायता के लिए नहीं आये।
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बचाओ।
जवान होने पर अपने यूथ का राजा बन गया। सैकड़ों हाथी-हथिनियाँ उसके पीछे रहते थे।
वह हाथी मरकर गंगा नदी के दक्षिण तट पर विंध्यगिरि की तलहटी में पुनः हाथी बना। यहाँ पर उसके शरीर का रंग लाख जैसा लाल था। वह चार दाँत वाला हाथी, मेरुप्रभ नाम से विख्यात हुआ।
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मेघकुमार
एक बार विंध्यगिरि के बाँस के वनों में भयंकर आग लगी। जानवरों में भगदड़ मच गई। हाथियों का राजा मेरुप्रभ हाथी-हथिनियों के साथ जंगल में इधर-उधर भागकर अपनी जान बचाता रहा। वन-दावानल को देखकर मेरुप्रभ सोचने लगा
मैंने पहले भी कभी इसी प्रकार का दावानल देखा है।
सोचते-सोचते उसे अपना पिछला जन्म याद आ गया।
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भंयकर आग की लपटों में जलता जंगल और वन-जीवों की चीत्कारों से उसका मन काँपने लग गया।
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मेघकुमार आग का प्रकोप शान्त होने पर उसने अपने साथियों से कहा- | | मेरुप्रभ ने आदेश दिया
ग्रीष्म ऋतु में बार-बार जंगल में आग लगती है और हमें इसी प्रकार भयंकर विनाश का सामना करना पड़ता है। अब इससे बचने के
लिए कोई उपाय करना चाहिए।
एक योजन मैदान को एकदम साफ कर डालो जिसमें घास-फूंस का एक तिनका भी न रहे। यह मण्डल ऐसी आपत्ति के समय हमारे लिए सुरक्षित आश्रय स्थान बनेगा।
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आप हमारे राजा हैं। बताइये क्या उपाय करें?
सभी हाथी जुट पड़े। देखते ही देखते एक योजन का साफ-सुथरा मण्डल तैयार हो गया।
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मेघकुमार एक बार फिर वन में आग लगी। चारों तरफ से जंगली जानवर भाग-भागकर उसी मण्डल में आकर घुसने लगे। मेरुप्रभ भी अपने हाथियों के परिवार के साथ वहीं आश्रय लेने आ गया। मण्डल जंगली पशुओं से खचाखच भर उठा। तिल रखने को भी खाली स्थान नहीं बचा।
अचानक मेरुप्रभ के पेट पर खुजली आयी, उसने एक पैर ऊँचा उठाया। नीचे जगह । खाली होते ही एक नन्हा खरगोश वहाँ आकर बैठ गया।
मरुप्रभ पाँव नीचे रखने लगा, नन्हा-सा खरगोश वहाँ बैठा दिखाई दिया। उसका हृदय करुणा से भर गया।
मेरे पाँव के नीचे दबकर इस
नन्हें-से खरगोश का तो कचूमर ही निकल जायेगा।
उसने अपना एक पैर ऊपर अधर में ही उठाये रखा।।
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पाँव ऊपर उठाये वह सोचता रहा
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जैसे मुझे अपनी जान प्यारी है, उसी प्रकार इस नन्हें-से जीव को भी अपनी जान प्यारी है।
मेघकुमार
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जान बचाने के लिये ही यह बेचारा मेरे मण्डल में आया है, तो इसकी रक्षा करना भी मेरा धर्म है।
हाथी के मन में करुणा का झरना फूट पड़ा। उसने ऊँचा उठा पैर वहीं थाम लिया।
लगभग ढाई दिन-रात के बाद वह वन-अग्नि शान्त हुई। जंगली जानवर वहाँ से निकलकर अपने-अपने स्थान पर जाने लगे। खरगोश भी वहाँ से हटा। मेरुप्रभ ने सोचा
अब जगह खाली हो गई, मैं अपना पाँव नीचे रखूँ।
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और उसने पाँव नीचा किया।
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मेघकुमार की आत्मकथा
ढाई दिन-रात तीन पाँव पर खड़े रहने से उसके शरीर का संतुलन बिगड़ गया। वह धड़ाम
भूमि पर गिर पड़ा। भूख-प्यास और बुढ़ापे की दुर्बलता के कारण वह हाथी भूमि से वापस उठ नहीं सका। उसका सारा शरीर दर्द से दुःख रहा था। वह तीन दिन-रात तक भयंकर वेदना भोगता, भूखा-प्यासा पड़ा रहा, परन्तु उसके मन में प्रसन्नता थी। दया और करुणा की भावना के कारण दर्द के समय भी. उसे शान्ति अनुभव हो रही थी। उस हाथी ने वहाँ से अपना आयुष्य पूर्ण कर राजगृह के राजा श्रेणिक की रानी धारिणी के गर्भ से जन्म लिया ।
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मेघकुमार
भगवान महावीर ने यह घटना सुनाकर मेध मुनि को उद्बोधित किया
मेघ ! याद करो, तुम्हीं थे वह मेरुप्रभ हाथी, जिसने पशु योनि में एक नन्हें-से जीव की दया करके इतना महान् पुण्योपार्जन किया कि यहाँ एक राजकुमार बने ।
मेघ ! सोचो, देखो, पशु योनि में एक जीव की रक्षा के लिए तुमने इतनी पीड़ा सही, और अब मनुष्य जन्म में सम्यक्जान चारित्र प्राप्त करके भी तुम एक रात के थोड़े से
कष्ट से घबरा गये?
मेघ मुनि की स्मृतियों में पूर्वजन्म का सभी घटनाक्रम चलचित्र की भाँति आने लगा। कुछ देर तक वह अतीत में खोया रहा, अपने पूर्व जीवन की घटनाओं को ज्ञान की आँखों से देखता रहा।
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मेधकुमार मेघ मुनि के हृदय में उथल-पुथल मचने लगी।
रात की घटना पर विचार करते-करते मेघ की ।
आँखें भर आईं। मैंने कितने कष्ट सहने के बाद यह मानव जन्म पाया है। अज्ञान के अंधेरे
मैं कितना कायर हूँ? थोड़े से शरीर-सुख की में भटकने के बाद ज्ञान का प्रकाश मिला
चिंता में आत्मा के असीम आनन्द को खो है। अब भटक गया तो फिर क्या होगा?
रहा हूँ। मेरी वीरता तो इसी में है कि शरीर को तप की अग्नि में झोंककर आत्मा को
कुन्दन बना लूँ।
दूसरों पर अनुकम्पा वही कर सकता है।
जो स्वयं सहिष्णु हो। सहनशीलता ही दया को जन्म देती है। जीवन-संग्राम को । जीतने के लिए सहनशील बनना होगा।
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यार सहि शान मनिषकुमार
मेघ मुनि का हृदय नाग गया। उसका रोम-रोमं पुलक उठा। भगवान के चरणों के पास आकर बोलने लगे
A/भन्ते ! मैं भटक गया था।
आपने मुझे जगा दिया। आप मेरे जीवन रथ के सारथी बने मेरी अज्ञानता और असहिष्णुता
पर क्षमा कीजिये।
भगवान महावीर ने आशीर्वाद का हाथ उठाया
(मेघ ! तुम जाग उठे।
(बहुत अच्छा हुआ। Aहाँ भन्ते ! इसी दया और तितिक्षा के प्रभाव से मैं आज पशु से मानव बना हूँ। अब मेरे मन के कण-कण
में दया-अनुकम्पा का अमर नाद गूंजता रहेगा। मैं | अपनी जीवन यात्रा में तितिक्षा और सहनशीलता के सहारे आगे बढ़ते रहने का दृढ़ संकल्प करता हूँ प्रभु !
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अब से मैं जीवन पर्यंत के लिये अभिग्रह करता हूँ कि आँख के सिवा मैं अपने शरीर के किसी
भी अंग का उपचार नहीं कराऊँगा। मेरा सर्वस्व आपके चरणों में समर्पित है।
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इस आत्म-मागृति के बाद मेघ मुनि ने भगवान महावीर के चरणों में अपने को पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया। संयम-शील-श्रुत-तप की आराधना करते हुए बारह वर्ष तक उन्होंने विविध प्रकार के उत्कृष्ट तप और निर्मल संयम की आराधना करके विपुलाचल पर जाकर एक मास का अनशन किया। परम समाधि भावपूर्वक देह त्यागकर विजय महाविमान में महान ऋद्धि सम्पन्न देव बने।
समाप्त
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एक बात आपसे भी
सम्माननीय बन्धु,
सादर जय जिनेन्द्र !
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आचार्य हेमचन्द्र और सम्राट कुमार पाल • अहिंसा का चमत्कार • महायोगी स्थूलभद्र
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श्री वर्धमान शलाका यंत्र चित्र (प्लास्टिक फ्लैप में) १५.००
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PORARIOMARITAINMETROMOTIONARIERROR ISTMAITRIORRORMATINENTARIAL
श्री चन्द्रप्रभु जैन नया मंदिर ट्रस्ट मद्रास का सुवर्णमय इतिहास
दक्षिण भारत के तामिलनाडु प्रान्त का संभ्रान्त महानगर मद्रास (तमिलनाम चैनपट्टनम्) सन् १९०४ से पुण्यशाली श्रावकों द्वारा एक छोटे से रूप में स्थापित ट्रस्ट श्री चन्द्रप्रभु जैन नया मंदिर की व्यवस्था चला रहा है।। इस बीसवीं सदी की शुरुआत में बीज के वट वृक्ष की कल्पना ही नहीं थी। पुण्यशालियों की भावभक्ति, दान पुण्य से, देव गुरु की असीम कृपा ने इसकी प्रगति में चार चाँद लगाए और १९०४ से १९९३ तक का इतिहास बेजोड़, अनुपम, अद्भुत, गौरवशाली एवं स्वर्णिम रहा है। एक छोटे से मंदिर से आज तिमंजला शिखरबद्ध संगमरमर का भव्य जिनालय शिल्पकला एवं स्थापत्य का बेजोड़ नमूना बना है। इसकी ८१ फीट की ऊँचाई के साथ ही साथ नूतन जिनालय में १२४ स्तंभ, २३ द्वार, ३४ कलामय गोखले, ५ झरोखे, ६२ तोरण, पहिली मंजिल में सुनाभ मेघनाद मंडप, गूढ मंडप, रंग मंडप परिक्रमा में १० दिग्पाल एवं मंडप में इन्द्र एवं देवाङ्गनाएँ स्थापित हैं। ___इस अमूल्य प्रगतिमय कार्य के साथ-साथ विशाल ज्ञानभंडार, हीरसूरि ज्ञान पुस्तकालय, आराधना भवन, नूतन आयंबिल शाला, धार्मिक पाठशाला भवन, हाईस्कूल की भव्य इमारत, भोजनशाला आदि अनेक संकुल निर्मित हुए हैं। 8 इस ९० वर्ष के अन्तराल में कई धार्मिक अनुष्ठान, उपधान, सैंकड़ों दीक्षाएँ, अनुपम तपश्चर्याएँ तथा एक से 8 एक बढ़कर सुविहित, ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी, महामुनि, आचार्य, उपाध्याय, श्रमण, श्रमणीवृन्द के ऐतिहासिक
चातुर्मास होते रहे हैं, धर्मप्रभावनाएँ हुई हैं। 8 भारत भर में नूतन मंदिरों का निर्माण हो अथवा जीर्णोद्धार हो, श्री चन्द्रप्रभु जैन नया मंदिर ट्रस्ट का सदैव
ही योगदान रहा है। संवत् २०५० में जब से अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुआ है तब से लगाकर आज तक करोड़ों की धनराशि जीर्णोद्धार में तथा जीवदया-प्राणीमात्र के कल्याणकारी कार्यक्रमों में लग चुकी है और भी आगे लगेगी। इस तरह से देव द्रव्य का सदा ही अनवरत रूप से सदुपयोग करते आ रहे हैं। पुण्यशाली दानवीर श्रावकों ने हर एक धार्मिक कार्यक्रम में अपना सर्वोच्च अपरिमित योगदान देना एक सात्विक रुचि बना ली है।
इस शताब्दी में जैन इतिहास में जो भी विशेष उपलब्धियाँ हुई हैं-उनमें से एक महान उपलब्धि है मद्रास शहर में श्री चन्द्रप्रभु नया जैन मंदिर की अंजनशलाका-प्राण प्रतिष्ठा-महा महोत्सव-परम पूज्य आचार्य देवेश श्रीमद विजयकलापूर्ण सरीश्वरजी म. सा. के कर-कमलों द्वार सम्पन्न भव्यातिभव्य महोत्सव। इस प्रतिष्ठा 1 महोत्सव के दश दिवसीय कार्यक्रम में पूजा, जिनेन्द्र भक्ति-अंग रचना, चलचित्र रचनाएँ, रंगोली, साधर्मिक भक्ति स्वरूप साधर्मिक वात्सल्य के अनूठे कार्यक्रमा करीब-करीब भारत के सभी प्रान्तों से एवं विदेशों से पधारे हुए भाविकों ने मुक्त-कंठ से इसकी सराहनीय प्रशंसा की है। लाखों लोग जिन भक्ति-पूजा दर्शन वंदन में जुड़ गए हैं।
देव, गुरु, धर्म के नेता सर्व मुनि भगवंतों से, आचार्यों से, साध्वीगणों से यह विशेष अनुनय-विनय है कि वे हमारे मद्रास संघ पर आशीर्वाद रूपी पुष्पों की वर्षा बरसाते रहें।
श्री चन्द्रप्रभु जैन नया मंदिर ट्रस्ट,
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मद्रास
"श्री जैन आराधना भवन" ३५१, मिन्ट स्ट्रीट, मद्रास - ६०० ०७९
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________________ [ननननननननननननOG GOOG GOOGGननननननननननन दक्षिण भारत के मद्रास शहर की पुण्य भूमि पर निर्मित भव्य श्री चन्द्रप्रभ जैन नया मन्दिर प्रतिष्ठा : वि.सं. 2050 महा सुद 13. ALOOOOOOOOOOOOOGGOOOOOOO GOOGO ननननन G G G GE SOOOOOOOOOODooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooo SARANAMAJD MET XOOOL OCOOOOOOOOOOOOXCX 1000000000000 MBA Emma PADMAADI HINDRAMA ALLED UNPUR OSEXSEXORaaleeTYeteyTY DOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO नाता MMA AVN NAVAUNNANANANANAAANNN 142, मिन्ट स्ट्रीट, साहुकार पेठ, मद्रास-६०० 079. Ph. : 582628 चनaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaa