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दादा भगवान प्ररूपित
मानव धर्म
मानव धर्म अपनाइए जीवन में !
मानव धर्म अर्थात् हर एक बात में उसे विचार आए कि मुझे ऐसा हो तो क्या हो? किसी ने मुझे गाली दी उस समय मैं भी उसे गाली ,, उससे पहले मेरे मन में ऐसा होना चाहिए कि यदि मुझे ही इतना दुःख होता है तो फिर मेरे गाली देने से उसे कितना दुःख होगा!' ऐसा सोचकर वह समझौता करे तो निबटारा हो। यह मानव धर्म की पहली निशानी है। वहाँ से मानव धर्म शुरू होता है।
इसलिए यह पुस्तक छपवाकर, सभी स्कूलों कॉलिजों में शुरू हो जानी चाहिए। सारी बातें पुस्तक के रूप में पढ़ें, समझें तब उनके मन में ऐसा हो कि यह सब हम जो मानते हैं, वह भूल है। अब सच समझकर मानव धर्म का पालन करना है । मानव धर्म तो बहुत श्रेष्ठ वस्तु है।
- दादाश्री
Rs.5
9788189-933142"
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दादा भगवान प्ररूपित
प्रकाशक : अजित सी. पटेल
महाविदेह फाउन्डेशन 'दादा दर्शन', 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद - ३८००१४, गुजरात फोन - (०७९) २७५४०४०८, २७५४३९७९
All Rights reserved - Shri Deepakbhai Desai Trimandir, Simandhar City, Ahmedabad-Kalol Highway, Post - Adalaj, Dist.-Gandhinagar-382421, Gujarat, India.
मानव धर्म
प्रथम संस्करण : प्रत ३०००,
दिसम्बर २००९
भाव मूल्य : 'परम विनय' और
'मैं कुछ भी जानता नहीं', यह भाव !
द्रव्य मूल्य : ५ रुपये
लेसर कम्पोझ : दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद
मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरूबहन अमीन
अनुवाद : महात्मागण
मुद्रक
: महाविदेह फाउन्डेशन (प्रिन्टिंग डिवीज़न), पार्श्वनाथ चैम्बर्स, नई रिज़र्व बैंक के पास, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८० ०१४. फोन : (०७९) २७५४२९६४, ३०००४८२३
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त्रिमंत्र
दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित पुस्तकें
हिन्दी १. ज्ञानी पुरूष की पहचान
१३. प्रतिक्रमण २. सर्व दुःखों से मुक्ति
१४. दादा भगवान कौन? ३. कर्म का विज्ञान
१५. पैसों का व्यवहार ४. आत्मबोध
१६. अंत:करण का स्वरूप ५. मैं कौन हूँ?
१७. जगत कर्ता कौन? ६. वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी १८. त्रिमंत्र ७. भूगते उसी की भूल
१९. भावना से सुधरे जन्मोजन्म ८. एडजस्ट एवरीव्हेयर
२०. पति-पत्नी का दीव्य व्यवहार ९. टकराव टालिए
२१. माता-पिता और बच्चों का व्यवहार १०. हुआ सो न्याय
२२. समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य ११. चिंता
२३. आप्तवाणी-१ १२. क्रोध
२४. मानव धर्म
English Adjust Everywhere
17. Money 2. Ahimsa (Non-violence) 18. Noble Use of Money 3. Anger
19. Pratikraman Apatvani-1
20. Pure Love Apatvani-2
21. Right Understanding to Help Apatvani-6
Others Apatvani-9
22. Shree Simandhar Swami Avoid Clashes
23. Spirituality in Speech 9. Celibacy : Brahmcharya 24. The Essence of All Religion 10. Death: Before, During & After...25. The Fault of the Sufferer 11. Flawless Vision
26. The Science of Karma 12. Generation Gap
27. Trimantra 13. Gnani Purush Shri A.M.Patel 28. Whatever has happened is 14. Guru and Disciple
Justice 15. Harmony in Marriage
29. Who AmI? 16. Life Without Conflict
30. Worries दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा गुजराती भाषा में भी ५५ पुस्तकें प्रकाशित हुई है। वेबसाइट www.dadabhagwan.org पर से भी आप ये सभी पुस्तकें प्राप्त कर सकते हैं। दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा हर महीने हिन्दी, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषा में "दादावाणी" मैगेज़ीन प्रकाशित होता है।
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दादा भगवान कौन? जून १९५८ की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय, भीड से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रकट हुए। और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घण्टे में उनको विश्वदर्शन हआ। 'मैं कौन? भगवान कौन? जगत कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?' इत्यादि जगत के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सन्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, गजरात के चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करने वाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष!
उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घण्टों में अन्य ममक्ष जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से। उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात् बिना क्रम के,
और क्रम अर्थात् सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढ़ना। अक्रम अर्थात् लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट!
वे स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन?' का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह जो आपको दिखाई देते है वे दादा भगवान नहीं है, वे तो 'ए.एम.पटेल' है। हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे 'दादा भगवान' हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं, सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और 'यहाँ' हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।"
'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं', इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसी के पास | से पैसा नहीं लिया बल्कि अपनी कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लिंक 'मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करनेवाला हैं। पीछे अनुगामी चाहिए कि नहीं चाहिए? पीछे लोगों को मार्ग तो चाहिए न?"
- दादाश्री परम पूज्य दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षु जनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। आपश्री ने अपने जीवनकाल में ही पूज्य डॉ. नीरूबहन अमीन (नीरूमाँ) को आत्मज्ञान प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थीं। दादाश्री के देहविलय पश्चात् नीरूमाँ वैसे ही मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रही थी। पूज्य दीपकभाई देसाई को दादाश्री ने सत्संग करने की सिद्धि प्रदान की थी। नीरूमाँ की उपस्थिति में ही उनके आशीर्वाद से पूज्य दीपकभाई देश-विदेशो में कई जगहों पर जाकर मुमुक्षुओं को आत्मज्ञान करवा रहे थे, जो नीरूमाँ के देहविलय पश्चात् आज भी जारी है। इस आत्मज्ञानप्राप्ति के बाद हज़ारों मुमुक्षु संसार में रहते हुए, जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मुक्त रहकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं।
ग्रंथ में मुद्रित वाणी मोक्षार्थी को मार्गदर्शन में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी, लेकिन मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मज्ञान प्राप्त करना ज़रूरी है। अक्रम मार्ग के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति का मार्ग आज भी खुला है। जैसे प्रज्वलित दीपक ही दूसरा दीपक प्रज्वलित कर सकता है, उसी प्रकार प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी से आत्मज्ञान प्राप्त कर | के ही स्वयं का आत्मा जागृत हो सकता है।
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निवेदन
आत्मविज्ञानी श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, जिन्हें लोग 'दादा भगवान' के नाम से भी जानते हैं, उनके श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहार ज्ञान संबंधी जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड करके, संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता हैं। दादाश्री ने जो कुछ कहा, चरोतरी ग्रामीण गुजराती भाषा में कहा है। इसे हिन्दी भाषी श्रेयार्थियो तक पहुँचाने का यह यथामति, यथाशक्ति नैमित्तिक प्रयत्न है।
इस पुस्तिका में मानव धर्म की सही परिभाषा दी गई है, साथ ही चार गतियाँ और उससे भी आगे मोक्ष कैसे पा सकते है, उसका सुंदर निरूपण परम पूज्य दादाश्री ने किया है। लोग जिसे मानव धर्म मानते है और सच्चा मानव धर्म क्या है, यह बात यथार्थ रूप से समझाई गई है।
'ज्ञानी पुरुष' के जो शब्द हैं, वे भाषा की दृष्टि से सीधे-सादे हैं किन्तु 'ज्ञानी पुरुष' का दर्शन निरावरण है, इसलिए उनके प्रत्येक वचन आशयपूर्ण, मार्मिक, मौलिक और सामनेवाले के व्यू पोइन्ट को एक्ज़ैक्ट ( यथार्थ ) समझकर निकले हैं, इसलिए श्रोता के दर्शन को सुस्पष्ट कर देते हैं एवं और अधिक ऊँचाई पर ले जाते है।
ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वे इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है ।
प्रस्तुत पुस्तक में कई जगहों पर कोष्ठक में दर्शाये गये शब्द या वाक्य परम पूज्य दादाश्री द्वारा बोले गये वाक्यों को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझाने के लिए लिखे गये हैं। जबकि कुछ जगहों पर अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ के रूप में रखे गये हैं। दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती शब्द ज्यों के त्यों रखे गये हैं, क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सकें। हालांकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द अर्थ के रूप में दिये गये हैं।
अनुवाद संबंधी कमियों के लिए आप से क्षमाप्रार्थी हैं।
संपादकीय
मनुष्य जीवन तो सभी जी रहे हैं। जन्मे, पढ़ाई की, नौकरी की, शादी की, पिता बने, दादा बने और फिर अरथी उठ गई। जीवन का क्या यही क्रम होगा? इस प्रकार जीवन जीने का अर्थ क्या है? जन्म क्यों लेना पड़ता है? जीवन में क्या प्राप्त करना है? मनुष्य देह की प्राप्ति हुई इसलिए खुद मानव धर्म में होना चाहिए। मानवता सहित होना चाहिए, तभी जीवन धन्य हुआ कहलाए।
मानवता की परिभाषा खुद पर से ही तय करनी है। 'यदि मुझे कोई दुःख दे तो मुझे अच्छा नहीं लगता है, इसलिए मुझे किसी को दुःख नहीं देना चाहिए।' यह सिद्धांत जीवन के प्रत्येक व्यवहार में जिसे फिट (क्रियाकारी) हो गया, उसमें पूरी मानवता आ गई।
मनुष्य जन्म तो चार गतियों का जंक्शन, केन्द्रस्थान है। वहाँ से चारों गतियों में जाने की छूट है। किन्तु, जैसे कारणों का सेवन किया हो, उस गति में जाना पड़ता है। मानव धर्म में रहें तो फिर से मनुष्य जन्म देखोगे और मानव धर्म से विचलित हो गए तो जानवर का जन्म पाओगे। मानव धर्म से भी आगे, सुपर ह्युमन (दैवी गुणवाला मनुष्य) के धर्म में आए और सारा जीवन परोपकार हेतु गुज़ारा तो देवगति में जन्म होता है। मनुष्य जीवन में यदि आत्मज्ञानी के पास से आत्म धर्म प्राप्त कर ले, तो अंततः मोक्षगति परमपद प्राप्त कर सकते हो ।
परम पूज्य दादाश्री ने तो मनुष्य अपने मानव धर्म में प्रगति करे ऐसी सुंदर समझ सत्संग द्वारा प्राप्त कराई है। वह सभी प्रस्तुत संकलन में अंकित हुई है। वह समझ आजकल के बच्चों और युवकों तक पहुँचे तो जीवन के प्रारंभ से ही वे मानव धर्म में आ जाएँ, तो इस मनुष्य जन्म को सार्थक करके धन्य बन जाएँ, वही अभ्यर्थना ।
- डॉ. नीरूबहन अमीन
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मानव धर्म
मानवता का ध्येय
प्रश्नकर्ता : मनुष्य जीवन का ध्येय क्या है?
दादाश्री : मानवता के पचास प्रतिशत अंक मिलने चाहिए। जो मानव धर्म है, उसमें पचास प्रतिशत अंक आने चाहिए, यह मनुष्य जीवन का ध्येय है। और यदि उच्च ध्येय रखता हो तो नब्बे प्रतिशत अंक आने चाहिए। मानवता के गुण तो होने चाहिए न? यदि मानवता ही नहीं, तो मनुष्य जीवन का ध्येय ही कहाँ रहा?
यह तो 'लाइफ़' (जीवन) सारी 'फैक्चर' (खंडित) हो गई है। किस लिए जी रहे हैं, उसकी भी समझ नहीं है। मनुष्यसार क्या है? जिस गति में जाना हो वह गति मिले अथवा मोक्ष पाना हो तो मोक्ष मिले।
वह संत समागम से आए
प्रश्नकर्ता : मनुष्य का जो ध्येय है उसे प्राप्त करने के लिए क्या करना अनिवार्य है और कितने समय तक ?
दादाश्री : मानवता में कौन-कौन से गुण हैं और वे कैसे प्राप्त हों, यह सब जानना चाहिए। जो मानवता के गुणों से संपन्न हों, ऐसे संत पुरुष हों, उनके पास जाकर आपको बैठना चाहिए।
मानव धर्म
यह है सच्चा मानव धर्म
अभी किस धर्म का पालन करते हो? प्रश्नकर्ता: मानव धर्म का पालन करता हूँ।
दादाश्री : मानव धर्म किसे कहते हैं? प्रश्नकर्ता: बस, शांति !
दादाश्री : नहीं, शांति तो मानव धर्म पालें, उसका फल है। किन्तु मानव धर्म अर्थात् आप क्या पालन करते हैं?
प्रश्नकर्ता : पालन करने जैसा कुछ नहीं। कोई गुटबंदी (संप्रदाय) नहीं रखना, बस । जाति का भेद नहीं रखना, वह मानव धर्म ।
दादाश्री : नहीं, वह मानव धर्म नहीं है। प्रश्नकर्ता: तो फिर मानव धर्म क्या है?
दादाश्री : मानव धर्म यानी क्या, उसकी थोड़ी-बहुत बात करते हैं। पूरी बात तो बहुत बड़ी चीज़ है, किन्तु हम थोड़ी बात करते हैं। किसी मनुष्य को हमारे निमित्त से दुःख न हो; अन्य जीवों की बात तो जाने दो, मगर सिर्फ मनुष्यों को संभाल लें कि 'मेरे निमित्त से उनको दुःख होना ही नहीं चाहिए, वह मानव धर्म है।
वास्तव में मानव धर्म किसे कहा जाता है? यदि आप सेठ हैं और नौकर को बहुत धमका रहे हैं, उस समय आपको ऐसा विचार आना चाहिए कि, 'अगर मैं नौकर होता तो क्या होता?' इतना विचार आए तो फिर आप उसे मर्यादा में रहकर धमकाएँगे, ज्यादा नहीं कहेंगे। यदि आप किसी का नुकसान करते हों तो उस समय आपको यह विचार आए कि 'मैं सामनेवाले का नुकसान करता हूँ, परंतु कोई मेरा नुकसान करे तो क्या होगा?"
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मानव धर्म
मानव धर्म
मानव धर्म यानी, हमें जो पसंद है वह लोगों को देना और हमें जो पसंद नहीं हो वह दूसरों को नहीं देना। हमें कोई धौल मारे वह हमें पसंद नहीं है तो हमें दूसरों को धौल नहीं मारनी चाहिए। हमें कोई गाली दे वह हमें अच्छा नहीं लगता, तो फिर हमें किसी और को गाली नहीं देनी चाहिए। मानव धर्म यानी, हमें जो नहीं रुचता वह दूसरों के साथ नहीं करना। हमें जो अच्छा लगे वही दूसरों के साथ करना. उसका नाम मानव धर्म। ऐसा ख्याल रहता है या नहीं? किसी को परेशान करते हो? नहीं, तब तो अच्छा है।
'मेरी वजह से किसी को परेशानी न हो', ऐसा रहे तो काम ही बन गया!
रास्ते में रुपये मिले तब..... किसी के पंद्रह हजार रुपये, सौ-सौ रुपयों के नोटों का एक बंडल हमें रास्ते में मिले, तब हमारे मन में यह विचार आना चाहिए कि 'यदि मेरे इतने रुपये खो जाएँ तो मुझे कितना दु:ख होगा, तो फिर जिसके यह रुपये हैं उसे कितना दु:ख होता होगा?' इसलिए हमें अख़बार में विज्ञापन देना चाहिए, कि इस विज्ञापन का खर्च देकर, सबूत देकर आपका बंडल ले जाइए। बस, इस तरह मानवता समझनी है। क्योंकि जैसे हमें दुःख होता है वैसे सामनेवाले को भी दुःख होता होगा ऐसा तो हम समझ सकते हैं न? प्रत्येक बात में इसी प्रकार आपको ऐसे विचार आने चाहिए। किन्तु आजकल तो यह मानवता विस्मृत हो गई है, गुम हो गई है! इसीके ये दुःख हैं सारे! लोग तो सिर्फ अपने स्वार्थ में ही पड़े हैं। वह मानवता नहीं कहलाती।
अभी तो लोग ऐसा समझते हैं कि 'जो मिला सो मुफ्त में ही है न!' अरे भाई! फिर तो यदि तेरा कुछ खो गया, तो वह भी दूसरे के लिए मुफ्त में ही है न!
प्रश्नकर्ता : किन्तु मुझे ये जो पैसे मिलें, तो दूसरा कुछ नहीं, मेरे पास नहीं रखने लेकिन गरीबों में बाँट दूं तो?
दादाश्री : नहीं, गरीबों में नहीं, वे पैसे उसके मालिक तक कैसे पहुँचे उसे ढूँढकर और ख़बर देकर उसे पहुँचा देना। यदि फिर भी उस आदमी का पता नहीं चले, वह परदेशी हो, तो फिर हमें उन पैसों का उपयोग किसी भी अच्छे कार्य के लिए करना चाहिए, किन्तु खुद के पास नहीं रखने चाहिए।
और यदि आपने किसी के लौटाए होंगे तो आपको भी लौटानेवाले मिल आएँगे। आप ही नहीं लौटाएँगे तो आपका कैसे वापिस मिलेगा? अत: हमें खुद की समझ बदलनी चाहिए। ऐसा तो नहीं चले न! यह मार्ग ही नहीं कहलाता न! इतने सारे रुपये कमाते हो फिर भी सुखी नहीं हो, यह कैसा?
यदि आप अभी किसी से दो हज़ार रुपये लाए और फिर लौटाने की सुविधा नहीं हो और मन में ऐसा भाव हुआ, "अब हम उसे कैसे लौटाएँगे? उसे 'ना' कह देंगे।" अब ऐसा भाव आते ही मन में विचार आए कि यदि मेरे पास से कोई ले गया हो और वह ऐसा भाव करे तो मेरी क्या दशा होगी? अर्थात्, हमारे भाव बिगड़ें नहीं इस प्रकार हम रहें, वही मानव धर्म है।
किसी को दु:ख न हो, वह सबसे बड़ा ज्ञान है। इतना संभाल लेना। चाहे कंदमूल नहीं खाते हों, किन्तु मानवता का पालन करना नहीं आए तो व्यर्थ है। ऐसे तो लोगों का हड़पकर खानेवाले कई हैं, जो लोगों का हड़पकर जानवर योनि में गए हैं और अभी तक वापस नहीं लौटे हैं। यह तो सब नियम से है, यहाँ अँधेर नगरी नहीं है। यहाँ गप्प नहीं चलेगी।
प्रश्नकर्ता : हाँ, स्वाभाविक राज है!
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मानव धर्म
मानव धर्म
दादाश्री : हाँ, स्वाभाविक राज है। पोल (अंधेर) नहीं चलती। आपकी समझ में आया? 'मुझे जितना दु:ख होता है, उतना उसे होता होगा कि नहीं?' जिसे ऐसा विचार आए वे सभी मानव धर्मी हैं, वर्ना मानव धर्म ही कैसे कहलाए?
उधार लिए हुए पैसे नहीं लौटाए तो? यदि हमें किसी ने दस हजार रुपये दिए हों और हम उसे नहीं लौटाएँ, तो उस समय हमारे मन में विचार आए कि 'अगर मैंने किसी को दिए हों और वह मुझे नहीं लौटाए तो मुझे कितना दु:ख होगा? इसलिए जितना जल्दी हो सके, उसे लौटा दूं।' खुद के पास नहीं रखने। मानव धर्म यानी क्या? जो दु:ख हमें होता है वह दुःख सामनेवाले को भी होता ही है। किन्तु मानव धर्म प्रत्येक का अलग-अलग होता है। जैसा जिसका डिवेलपमेन्ट (आंतरिक विकास) होता है वैसा उसका मानव धर्म होता है। मानव धर्म एक ही प्रकार का नहीं होता।
किसी को दुःख देते समय खुद के मन में ऐसा हो कि 'मुझे दुःख दे तो क्या हो?' अत: फिर दु:ख देना बंद कर दे, वह मानवता है।
मेहमान घर आएँ तब.... हम यदि किसी के घर मेहमान हुए हों तब हमें मेज़बान का विचार करना चाहिए, कि हमारे घर पंद्रह दिन मेहमान रहें, तो क्या हो? इसलिए मेज़बान पर बोझ मत बनना। दो दिन रहने के बाद बहाना बनाकर होटल में चले जाना।
लोग अपने खुद के सुख में ही मग्न हैं। दूसरों के सुख में मेरा सुख है, ऐसी बात ही छूटती जा रही है। 'दूसरों के सुख में मैं सुखी हूँ' ऐसा सब अपने यहाँ ख़त्म हो गया है और अपने सुख में ही मग्न हैं कि मुझे चाय मिल गई, बस!
आपको दूसरा कुछ ध्यान रखने की ज़रूरत नहीं है। 'कंदमूल नहीं खाना चाहिए' यदि यह न जानो तो चलेगा। किन्तु इतना जानो तो बहुत हो गया। आपको जो दु:ख होता है वैसा किसी को नहीं हो, इस प्रकार रहना, उसे मानव धर्म कहा जाता है। सिर्फ इतना ही धर्म पाले तो बहुत हो गया। अभी ऐसे कलियुग में जो मानव धर्म पालते हों, उन्हें मोक्ष के लिए मुहर लगा देनी पड़े। किन्तु सत्युग में केवल मानव धर्म पालने से नहीं चलता था। यह तो अभी, इस काल में, कम प्रतिशत मार्क होने पर भी पास करना पड़ता है। मैं क्या कहना चाहता हूँ वह आपकी समझ में आता है? अतः पाप किसमें है और किसमें पाप नहीं, वह समझ जाओ।
अन्यत्र दृष्टि बिगाड़ी, वहाँ मानव धर्म चूका फिर इससे आगे का मानव धर्म यानी क्या कि किसी स्त्री को देखकर आकर्षण हो तो तुरंत ही विचार करे कि यदि मेरी बहन को कोई ऐसे बुरी नजर से देखे तो क्या हो? मुझे दुःख होगा। ऐसा सोचे, उसका नाम मानव धर्म। 'इसलिए मुझे किसी स्त्री को बुरी नजर से नहीं देखना चाहिए', ऐसा पछतावा करे। ऐसा उसका डिवेलपमेन्ट होना चाहिए न?
मानवता यानी क्या? खुद की पत्नी पर कोई दृष्टि बिगाड़े तो खुद को अच्छा नहीं लगता, तो इसी प्रकार वह भी सामनेवाले की पत्नी पर दृष्टि न बिगाड़े। खुद की लड़कियों पर कोई दृष्टि बिगाड़े तो खुद को अच्छा नहीं लगता, तो वैसे ही वह औरों की लड़कियों पर दृष्टि न बिगाड़े। क्योंकि यह बात हमेशा ध्यान में रहनी ही चाहिए कि यदि मैं किसी की लड़की पर दृष्टि बिगाडूं तो कोई मेरी लड़की पर दृष्टि बिगाड़ेगा ही। ऐसा ख्याल में रहना ही चाहिए, तो वह मानव धर्म कहलाएगा।
मानव धर्म यानी, जो हमें पसंद नहीं है वह औरों के साथ नहीं
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मानव धर्म
मानव धर्म
करना। मानव धर्म लिमिट (सीमा) में है, लिमिट से बाहर नहीं, किंतु उतना ही यदि वह करे तो बहुत हो गया।
खुद की स्त्री हो तो भगवान ने कहा कि तने शादी की है उसे संसार ने स्वीकार किया है, तेरे ससुरालवालों ने स्वीकार किया है, तेरे परिवारजन स्वीकार करते हैं, सभी स्वीकार करते हैं। पत्नी को लेकर सिनेमा देखने जाएँ तो क्या कोई उँगली उठाएगा? और यदि परायी स्त्री को लेकर जाएँ तो?
प्रश्नकर्ता : अमरीका में इस पर आपत्ति नहीं उठाते।
दादाश्री : अमरीका में आपत्ति नहीं उठाते, किन्तु हिन्दुस्तान में आपत्ति उठाएँगे न? यह बात सही है, पर वहाँ के लोग यह बात नहीं समझते। किन्तु हम जिस देश में जन्मे हैं, वहाँ ऐसे व्यवहार के लिए आपत्ति उठाते हैं न! और ऐसा आपत्तिजनक कार्य ही गुनाह है।
यहाँ पर तो अस्सी प्रतिशत मनुष्य जानवरगति में जानेवाले हैं। वर्तमान के अस्सी प्रतिशत मनुष्य! क्योंकि मनुष्य जन्म पाकर क्या करते हैं? तब कहे, मिलावट करते हैं, बिना हक़ का भोगते हैं, बिना हक़ का लूट लेते हैं, बिना हक़ का प्राप्त करने की इच्छा करते हैं, ऐसे विचार करते हैं अथवा परस्त्री पर दृष्टि बिगाड़ते हैं। मनुष्य को खुद की पत्नी भोगने का हक़ है, लेकिन बिना हक़ की, परस्त्री पर दृष्टि भी नहीं बिगाड़ सकते, उसका भी दंड मिलता है। सिर्फ दृष्टि बिगाडी उसका भी दंड, उसे जानवरगति प्राप्त होती है। क्योंकि वह पाशवता कहलाती है। (सचमुच) मानवता होनी चाहिए।
मानव धर्म का अर्थ क्या? हक़ का भुगतना वह मानव धर्म। ऐसा आप स्वीकारते हैं या नहीं?
प्रश्नकर्ता : ठीक है।
दादाश्री : और बिना हक़ के बारे में?
प्रश्नकर्ता : नहीं स्वीकारना चाहिए। जानवरगति में जाएँगे, इसका कोई प्रमाण है?
दादाश्री : हाँ, प्रमाण सहित है। बिना प्रमाण, ऐसे ही गप्प नहीं मार सकते।
मनुष्यत्व कब तक रहेगा? 'बिना हक़ का किंचित् मात्र नहीं भोगें' तब तक मनुष्यत्व रहेगा। खुद के हक़ का भोगे, वह मनुष्य जन्म पाता है, बिना हक़ का भोगे वह जानवरगति में जाता है। अपने हक़ का दूसरों को दे दोगे तो देवगति होगी और मारकर बिना हक़ का लें तो नर्कगति मिलती है।
मानवता का अर्थ मानवता यानी 'मेरा जो है उसे मैं भोग और तेरा जो है उसे त भोग।' मेरे हिस्से में जो आया वह मेरा और तेरे हिस्से में जो आया वह तेरा। पराये के प्रति दृष्टि नहीं करना, यह मानवता का अर्थ है। फिर पाशवता यानी 'मेरा वह भी मेरा और तेरा वह भी मेरा!' और दैवीगुण किसे कहेंगे? 'तेरा वह तेरा, किन्तु जो मेरा वह भी तेरा।' जो परोपकारी होते हैं वे अपना हो, वह भी औरों को दे देते हैं। ऐसे दैवी गुणवाले भी होते हैं या नहीं होते? आजकल क्या आपको मानवता दिखाई देती है कहीं?
प्रश्नकर्ता : किसी जगह देखने में आती है और किसी जगह देखने में नहीं भी आती।
दादाश्री : किसी मनुष्य में पाशवता देखने में आती है? जब वह सींग घुमाए तो क्या हम न समझें कि यह भैंसा जैसा है, इसलिए सींग मारने आता है ! उस समय हमें हट जाना चाहिए। ऐसी पशुतावाला मनुष्य
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मानव धर्म
तो राजा को भी नहीं छोड़ता ! सामने यदि राजा आता हो तो भी भैंस का भाई मस्ती से चल रहा होता है, वहाँ राजा को घूमकर निकल जाना पड़े किन्तु वह नहीं हटता ।
यह है मानवता से भी बढ़कर गुण
फिर मानवता से भी ऊपर, ऐसा 'सुपर ह्युमन' (दैवी मानव) कौन कहलाए ? आप दस बार किसी व्यक्ति का नुकसान करें, फिर भी, जब आपको ज़रूरत हो तो उस समय वह व्यक्ति आपकी मदद करे ! आप फिर उसका नुकसान करें, तब भी आपको काम हो तो उस घड़ी वह आपकी 'हैल्प' (मदद करे। उसका स्वभाव ही हैल्प करने का है। इसलिए हम समझ जाएँ कि यह मनुष्य 'सुपर ह्युमन' है। यह दैवी गुण कहलाता है। ऐसे मनुष्य तो कभी-कभार ही होते हैं। अभी तो ऐसे मनुष्य मिलते ही नहीं न! क्योंकि लाख मनुष्यों में एकाध ऐसा हो, ऐसा इसका प्रमाण हो गया है।
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मानवता के धर्म से विरुद्ध किसी भी धर्म का आचरण करे, यदि पाशवी धर्म का आचरण करे तो पशु में जाता है, यदि राक्षसी धर्म का आचरण करे तो राक्षस में जाता है अर्थात् नर्कगति में जाता है और यदि सुपर ह्युमन धर्म का आचरण करे तो देवगति में जाता है। ऐसा आपको समझ आया, मैं क्या कहना चाहता हूँ, वह ?
जितना जानते हैं, उतना वे धर्म सिखाते हैं
यहाँ पर संत पुरुष और ज्ञानी पुरुष जन्म लेते हैं और वे लोगों को लाभ पहुँचाते हैं। वे खुद पार उतरे हैं और औरों को भी पार उतारते हैं। खुद जैसे हुए हों वैसा कर देते हैं। खुद यदि मानव धर्म पालते हों, तो वे मानव धर्म सिखाते हैं। इससे आगे यदि वे दैवी धर्म का पालन करते हों तो वे दैवी धर्म सिखाते हैं। 'अति मानव' (सुपर ह्युमन) का
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मानव धर्म
धर्म जानते हों तो अति मानव का धर्म सिखाते हैं। यानी, जो जो धर्म जानते हैं, वही वे सिखाते हैं। यदि सारे अवलंबनों से मुक्तता का ज्ञान जानते हों, वे मुक्त हुए हों, तो वे मुक्तता का ज्ञान भी सिखा देते हैं। ऐसा है पाशवता का धर्म
प्रश्नकर्ता: सच्चा धर्म तो मानव धर्म है। अब उसमें खास यह जानना है कि सही मानव धर्म यानी 'हमसे किसी को भी दुःख न हो।' यह उसकी सबसे बड़ी नींव है। लक्ष्मी का, सत्ता का, वैभव का, इन सभी का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए, उनका सदुपयोग करना चाहिए। ये सब मानव धर्म के सिद्धांत हैं ऐसा मेरा मानना है, तो आपसे जानना चाहता हूँ कि यह ठीक है?
दादाश्री : सच्चा मानव धर्म यही है कि किसी भी जीव को किंचित् मात्र दुःख नहीं देना चाहिए। कोई हमें दुःख दे तो वह पाशवता करता है किन्तु हमें पाशवता नहीं करनी चाहिए, यदि मानवता रखनी हो तो। और यदि मानव धर्म का अच्छी तरह पालन करें तो फिर मोक्ष प्राप्ति में देर ही नहीं लगती। मानव धर्म ही यदि समझ जाएँ तो बहुत हो गया। दूसरा कोई धर्म समझने जैसा है ही नहीं। मानव धर्म यानी पाशवता नहीं करना, वह मानव धर्म है। यदि हमें कोई गाली दे तो वह पाशवता है, किन्तु हम पाशवता न करें, हम मनुष्य की तरह समता रखें और उससे पूछें कि, 'भाई, मेरा क्या गुनाह है ? तू मुझे बता तो मैं अपना गुनाह सुधार लूँ।' मानव धर्म ऐसा होना चाहिए कि किसी को हमसे किंचित् मात्र दुःख न हो। किसी से हमें दुःख हो तो वह उसका पाशवीधर्म है। तब उसके बदले में हम पाशवीधर्म नहीं कर सकते। पाशवी के सामने पाशवी नहीं होना, यही मानव धर्म आपको समझ में आता है? मानव धर्म में टिट फॉर टेट (जैसे को तैसा) नहीं चलता । कोई हमें गाली दे और हम उसे गाली दें, कोई मनुष्य हमें मारे तो हम
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उसे मारें, फिर तो हम पशु ही हो गए न ! मानव धर्म रहा ही कहाँ ? अतः धर्म ऐसा होना चाहिए कि किसी को दुःख न हो ।
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अब कहलाता है इन्सान मगर इन्सानियत तो चली गई होती है, तो फिर वह किस काम का? जिन तिल में तेल ही न हो, तो वे तिल किस काम के ? फिर उसे तिल कैसे कहा जाए? उसकी इन्सानियत तो चली गई होती है। इन्सानियत तो पहले चाहिए। तभी सिनेमावाले गाते हैं न, 'कितना बदल गया इन्सान....' तब फिर रहा क्या? इन्सान बदल गया तो पूँजी खो गई सारी ! अब किसका व्यापार करेगा, भाई ?
अंडरहैन्ड के साथ कर्तव्य निभाते.....
प्रश्नकर्ता: हमारे हाथ नीचे कोई काम करता हो, हमारा लड़का हो या फिर ऑफिस में कोई हो, या कोई भी हो तो वह अपना कर्तव्य चूक गया हो तो उस समय हम उसे सच्ची सलाह देते हैं। अब इससे उसे दुःख होता है तो उस समय विरोधाभास उत्पन्न होता हो ऐसा लगता है। वहाँ क्या करना चाहिए?
दादाश्री : उसमें हर्ज नहीं है। आपकी दृष्टि सही है तब तक हर्ज नहीं है। किन्तु उस पर आपका पाशवता का, दुःख देने का इरादा नहीं होना चाहिए। और विरोधाभास उत्पन्न हो तो फिर हमें उनसे माफ़ी माँगनी चाहिए अर्थात् वह भूल स्वीकार कर लो। मानव धर्म पूरा होना चाहिए। नौकर से नुकसान हो, तब ....
इन लोगों में मतभेद क्यों होता है?
प्रश्नकर्ता : मतभेद होने का कारण स्वार्थ है ।
दादाश्री : स्वार्थ तो वह कहलाता है कि झगड़ा न करें। स्वार्थ में हमेशा सुख होता है।
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प्रश्नकर्ता: किन्तु आध्यात्मिक स्वार्थ हो तो उसमें सुख होता है, भौतिक स्वार्थ हो तो उसमें तो दुःख ही होता है न!
दादाश्री : हाँ, मगर भौतिक स्वार्थ भी ठीक होता है। खुद का सुख जो है वह चला नहीं जाए, कम नहीं हो। वह सुख बढ़े, ऐसे बरतते हैं। किन्तु यह क्लेश होने से भौतिक सुख चला जाता है। पत्नी के हाथ में से गिलास गिर पड़े और उसमें बीस रुपये का नुकसान होता हो तो तुरंत ही मन ही मन अकुलाने लगता है कि 'बीस रुपये का नुकसान किया।' अरे मूर्ख, इसे नुकसान नहीं कहते। यह तो उनके हाथ में से गिर पड़े, यदि तेरे हाथ से गिर जाते तो तू क्या न्याय करता? उसी तरह हमें न्याय करना चाहिए। मगर वहाँ हम ऐसा न्याय करते हैं कि 'इसने नुकसान किया।' किन्तु क्या वह कोई बाहरी व्यक्ति है? और यदि बाहरी व्यक्ति हो तो भी, नौकर हो तो भी ऐसा नहीं करना चाहिए। क्योंकि वह किस नियम के आधार पर गिर जाता है, वह गिराता है या गिर जाता है, इसका विचार नहीं करना चाहिए ? नौकर क्या जान-बूझकर गिराता है ?
अतः किस धर्म का पालन करना है? कोई भी नुकसान करे, कोई भी हमें बैरी नज़र आए तो वह वास्तव में हमारा बैरी नहीं है। नुकसान कोई कर सके ऐसा है ही नहीं। इसलिए उसके प्रति द्वेष नहीं होना चाहिए। फिर चाहे वे हमारे घर के लोग हों या नौकर से गिलास गिर पड़े, तो भी उन्हें नौकर नहीं गिराता । वह गिरानेवाला कोई और है। इसलिए नौकर पर बहुत क्रोध मत करना। उसे धीरे से कहना, 'भाई, ज़रा धीरे चल, तेरा पाँव तो नहीं जला न?' ऐसे पूछना। हमारे दस-बारह गिलास टूट जाएँ तो भीतर कुढ़न- जलन शुरू हो जाती है। मेहमान बैठे हों तब तक क्रोध नहीं करता किन्तु (भीतर) चिढ़ता रहता है। और मेहमान के जाने पर, फिर तुरंत उसकी खबर ले लेता है। ऐसा करने की ज़रूरत नहीं है। यह सबसे बड़ा अपराध है। कौन करता है यह जानता
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नहीं है। जगत् आँखों से जो दिखता है, उस निमित्त को ही काटने दौड़ता है।
मैंने इतने छोटे-छोटे बच्चों से कहा था कि जा, यह गिलास बाहर फेंक आ, तो उसने कंधे ऐसे किए, इन्कार कर दिया। कोई नुकसान नहीं करता। एक बच्चे से मैंने कहा, 'दादा के जूते हैं उन्हें बाहर फेंक आ ।' तो कंधे ऐसे करके कहने लगा, 'उसे नहीं फेंकते।' कितनी सही समझ है! अर्थात्, ऐसे तो कोई नहीं फेंकता। नौकर भी नहीं तोड़ता । यह तो मूर्ख लोग, नौकरों को परेशान कर डालते हैं। अरे, तू जब नौकर होगा तब तुझे पता चलेगा। अतः हम ऐसा नहीं करें तो हमारी कभी नौकर होने की बारी आए तो हमें सेठ अच्छा मिलेगा।
खुद को औरों की जगह पर रखना वही मानव धर्म । दूसरा धर्म तो फिर अध्यात्म, वह तो उससे आगे का रहा। किन्तु इतना मानव धर्म तो आना चाहिए।
जितना चारित्रबल, उतना प्रवर्तन
प्रश्नकर्ता : मगर यह बात समझते हुए भी कई बार हमें ऐसा रहता नहीं है, उसका क्या कारण है?
दादाश्री : क्योंकि यह ज्ञान जाना ही नहीं है। सच्चा ज्ञान जाना नहीं है। जो ज्ञान जाना है वह सिर्फ किताबों द्वारा जाना हुआ है या फिर किसी क्वॉलिफाईड (योग्यतावाले) गुरु से जाना नहीं है। क्वॉलिफाईड गुरु अर्थात् जो जो वे बताएँ वह हमें अंदर एग्ज़ैक्ट ( यथार्थ रूप से) हो जाए। फिर मैं यदि बीड़ियाँ पीता रहूँ और आपसे कहूँ कि, 'बीड़ी छोड़ दीजिए' तो उसका कोई परिणाम नहीं आता । वह तो चारित्रबल चाहिए। उसके लिए तो गुरु संपूर्ण चारित्रबलवाले हों, तभी हमसे पालन होगा, वर्ना यों ही पालन नहीं होगा।
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अपने बच्चे से कहें कि इस बोतल में ज़हर है। देख, दिखता है न सफेद ! तू इसे छूना मत। तो वह बालक क्या पूछता है? ज़हर यानी क्या? तब आप बताएँ कि ज़हर मतलब इससे मर जाते हैं। तब वह फिर पूछता है, 'मर जाना मतलब क्या?' तब आप बताते हैं, "कल वहाँ पर उनको बाँधकर ले जा रहे थे न तू कहता था, 'मत ले जाओ, मत ले जाओ।' मर जाते हैं तो उसी तरह ले जाते हैं फिर ।" इससे उसकी समझ में आ जाता है और फिर उसे नहीं छूता ज्ञान समझा हुआ होना चाहिए।
एक बार बता दिया, 'यह जहर है !' फिर वह ज्ञान आपको हाज़िर ही रहना चाहिए और जो ज्ञान हाज़िर नहीं रहता हो, वह ज्ञान ही नहीं, वह अज्ञान ही है। यहाँ से अहमदाबाद जाने का ज्ञान, आपको नक्शा आदि दे दिया और फिर उसके अनुसार यदि अहमदाबाद नहीं आए तो वह नक्शा ही गलत है, एग्ज़ैक्ट आना ही चाहिए।
चार गतियों में भटकने के कारण.... प्रश्नकर्ता: मनुष्य के कर्तव्य के संबंध में आप कुछ बताइए ।
दादाश्री : मनुष्य के कर्तव्य में, जिसे फिर मनुष्य ही होना हो तो उसकी लिमिट (सीमा) बताऊँ। ऊपर नहीं चढ़ना हो अथवा नीचे नहीं उतरना हो, ऊपर देवगति है और नीचे जानवरगति है और उससे भी नीचे नर्कगति है। ऐसी गतियाँ हैं। आप मनुष्य के बारे में पूछ रहे
हैं?
प्रश्नकर्ता: देह है तब तक तो मनुष्य जैसे ही कर्तव्य पालन करने होंगे न?
दादाश्री : मनुष्य के कर्तव्य पालन करते हैं, इसलिए तो मनुष्य हुए। उसमें हम उत्तीर्ण हुए हैं, तो अब किसमें उत्तीर्ण होना है? संसार दो तरह से है। एक, मनुष्य जन्म में आने के बाद क्रेडिट जमा करते
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हैं, तो उच्च गति में जाते हैं। डेबिट जमा करे तो नीचे जाते हैं और यदि क्रेडिट-डेबिट दोनों व्यापार बंद कर दें तो मुक्ति हो जाए। ये पाँचों जगह खुली हैं। चार गतियाँ हैं। बहुत क्रेडिट हो तो देवगति मिलती है। क्रेडिट ज्यादा और डेबिट कम हो तो मनुष्यगति मिलती है। डेबिट ज्यादा और क्रेडिट कम हो तो जानवरगति और संपूर्णतया डेबिट वह नर्कगति। ये चार गतियाँ और पाँचवी जो है वह मोक्षगति। ये चारों गतियाँ मनुष्य प्राप्त कर सकते हैं और पाँचवी गति तो हिन्दुस्तान के मनुष्य ही प्राप्त कर सकते हैं। 'स्पेशल फॉर इन्डिया।' (हिन्दुस्तान के लिए खास) दूसरों के लिए वह नहीं है।
अब यदि उसे मनुष्य होना हो तो उसे बुजुर्गों की, माँ-बाप की सेवा करनी चाहिए, गुरु की सेवा करनी चाहिए, लोगों के प्रति ओब्लाइजिंग नेचर (परोपकारी स्वभाव) रखना चाहिए। व्यवहार ऐसा रखना चाहिए कि दस दो और दस लो, इस प्रकार व्यवहार शुद्ध रखें तो सामनेवाले के साथ कुछ लेन-देन नहीं रहता। इस तरह व्यवहार करो, संपूर्ण शुद्ध व्यवहार। मानवता में तो, किसी को मारते समय या किसी को मारने से पहले ख्याल आता है। मानवता हो तो ख्याल आना ही चाहिए कि यदि मुझे मारे तो क्या हो? यह ख्याल पहले आना चाहिए तब मानव धर्म रह सकेगा, वर्ना नहीं रहेगा। इसमें रहकर सारा व्यवहार किया जाए तो फिर से मनुष्यत्व प्राप्त होगा, वर्ना मनुष्यत्व फिर से प्राप्त होना भी मुश्किल है।
जिसे इसका पता नहीं है कि इसका परिणाम क्या होगा, तो वह मनुष्य ही नहीं कहलाता। खुली आँखों से सोएँ वह अजागृति, वह मनुष्य कहलाता ही नहीं। सारा दिन बिना हक़ का भोगने की ही सोचते रहें, मिलावट करें, वे सभी जानवरगति में जाते हैं। यहाँ से, मनुष्य में से सीधा जानवरगति में जाकर फिर वहाँ भुगतता है।
अपना सुख दूसरों को दे दे, अपने हक़ का सुख भी औरों को
दे दें तो वह सुपर ह्युमन कहलाता है और इसलिए देवगति में जाता है। खुद को जो सुख भोगना है, खुद के लिए जो निर्माण हुआ, वह खुद को ज़रूरत है फिर भी औरों को दे देता है, वह सुपर ह्युमन है। अत: देवगति प्राप्त करता है। और जो अनर्थ नुकसान पहुंचाता है, खुद को कोई फायदा नहीं हो फिर भी सामनेवाले को भारी नुकसान पहुंचाता है, वह नर्कगति में जाता है। जो लोग बिना हक़ का भोगते हैं, वे तो अपने फ़ायदे के लिए भोगते हैं, इसलिए जानवर में जाते हैं। किन्तु जो बिना किसी कारण लोगों के घर जला डालते हैं, ऐसे और कार्य करते हैं, दंगा-फ़साद करते हैं, वे सभी नर्क के अधिकारी हैं। जो अन्य जीवों की जान लें अथवा तालाब में जहर मिलाएँ, अथवा कँए में ऐसा कुछ डालें, वे सभी नर्क के अधिकारी हैं। सभी जिम्मेदारियाँ अपनी खुद की है। एक बालभर की जिम्मेदारी भी संसार में खुद की ही है।
कुदरत के घर ज़रा-सा भी अन्याय नहीं है। यहाँ मनुष्यों में शायद अन्याय हो, लेकिन कुदरत के घर तो बिलकुल न्यायसंगत है। कभी भी अन्याय हुआ ही नहीं है। सब न्याय में ही रहता है और जो हो रहा है वह भी न्याय ही हो रहा है, ऐसा यदि समझ में आए तो वह 'ज्ञान' कहलाता है। जो हो रहा है वह गलत हुआ, यह गलत हुआ, यह सही हुआ' ऐसा बोलते हैं वह 'अज्ञान' कहलाता है। जो हो रहा है वह करेक्ट (सही) ही है।
अन्डरहैन्ड के साथ मानव धर्म
यदि कोई अपने पर गुस्सा करे वह हमसे सहन नहीं होता किन्तु सारा दिन दूसरों पर गुस्सा करते रहते हैं। अरे! यह कैसी अक्ल? यह मानव धर्म नहीं कहलाता। खुद पर यदि कोई जरा-सा गुस्सा करे तो सहन नहीं कर सकता और वही मनुष्य सारा दिन सबके ऊपर गुस्सा करता रहता है, क्योंकि वे दबे हुए हैं इसलिए ही न? दबे हुओं को मारना
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दादाश्री: कॉमन धर्म तो मानव धर्म. वह अपनी समझ के अनुसार मानव धर्म निभा सकता है। प्रत्येक मनुष्य अपनी समझ के अनुसार मानव धर्म निभाता है, किन्तु जो सही अर्थों में मानव धर्म अदा करते हों, तो वह सबसे उत्तम कहलाए। मानव धर्म तो बहुत श्रेष्ठ है किन्तु मानव धर्म में आए तब न? लोगों में मानव धर्म रहा ही कहाँ है?
मानव धर्म तो बहुत सुंदर है परंतु वह डिवेलपमेन्ट के अनुसार होता है। अमरीकन का मानव धर्म अलग और हमारा मानव धर्म अलग होता है।
प्रश्नकर्ता : उसमें भी फर्क है, दादाजी? किस तरह फर्क है?
तो बहुत बड़ा अपराध कहलाता है। मारना हो तो ऊपरी (हमारे उपर जो है) को मार! भगवान को अथवा ऊपरी को, क्योंकि वे आपके ऊपरी हैं, शक्तिमान हैं। यह तो अन्डरहैन्ड अशक्त है, इसलिए जिंदगीभर उसे झिड़काता रहता है। मैंने तो अन्डरहैन्ड चाहे कैसा भी गुनहगार रहा हो, तो भी उसे बचाया है। किन्तु ऊपरी तो चाहे कितना भी अच्छा हो तो भी मुझे ऊपरी नहीं पुसाता और मुझे किसी का ऊपरी बनना नहीं है। ऊपरी यदि अच्छा हो तो हमें हर्ज नहीं, लेकिन उसका यह अर्थ नहीं है कि वह हमेशा ऐसा ही रहेगा। वह कभी हमें सुना भी सकता है। ऊपरी कौन कहलाए कि जो अन्डरहैन्ड को सँभाले! वह खरा ऊपरी है। मैं खरा ऊपरी खोजता हूँ। मेरा ऊपरी बन पर खरा ऊपरी बन! तू हमें धमकाए, क्या हम इसलिए जन्में हैं? ऐसा तू हमें क्या देनेवाला है?
आपके यहाँ कोई नौकरी करता हो तो उसे कभी भी तिरस्कृत मत करना, छेड़ना मत। सभी को सम्मानपूर्वक रखना। क्या पता किसी से क्या लाभ हो जाए!
प्रत्येक क़ौम में मानव धर्म प्रश्नकर्ता : मनुष्य गति की चौदह लाख योनियाँ, लेयर्स (स्तर) हैं। किन्तु यों तो मानव जाति की तरह देखें तो बाइलॉजिकली (जैविक) तो किसी में कोई अंतर नज़र नहीं आता है, सभी समान ही लगते हैं लेकिन इसमें ऐसा समझ में आता है कि बाइलॉजिकल अंतर भले न हो, किन्तु जो उनका मानस है......
दादाश्री : वह डेवलपमेन्ट (आंतरिक विकास) है। उसके भेद इतने सारे हैं।
प्रश्नकर्ता : अलग-अलग लेयर्स होने के बावजूद बाइलॉजिकली सभी समान ही हैं तो फिर उसका कोई एक कॉमन धर्म हो सकता है न?
दादाश्री : बहुत फर्क होता है। हमारी ममता और उनकी ममता में फर्क होता है। हमारी माता-पिता के प्रति हमारी जितनी ममता होती है उतनी उनमें नहीं होती। इसलिए ममता कम होने से भाव में फर्क होता है, उतना कम होता है।
प्रश्नकर्ता : जितनी ममता कम होती है उतना भाव में फर्क पड़ जाता है?
दादाश्री : उसी मात्रा में मानव धर्म होता है। अतः हमारे जैसा मानव धर्म नहीं होता। वे लोग तो मानव धर्म में ही हैं। करीब अस्सी प्रतिशत लोग तो मानव धर्म में ही हैं, सिर्फ हमारे लोग ही नहीं हैं। बाकी सभी उनके हिसाब से तो मानव धर्म में ही हैं।
मानवता के प्रकार, अलग-अलग प्रश्नकर्ता : ये जो मानव समूह हैं, उनकी जो समझ है. चाहे जैन हों, वैष्णव हों, क्रिश्चियन हों, वे तो सभी जगह एक समान ही होते हैं न?
दादाश्री : ऐसा है कि जैसा डिवेलपमेन्ट हुआ हो, ऐसी उसकी
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समझ होती है। ज्ञानी, वे भी मनुष्य ही हैं न! ज्ञानी की मानवता, अज्ञानी की मानवता, पापी की मानवता, पुण्यशाली की मानवता, सभी की मानवता अलग-अलग होती है। मनुष्य एक ही प्रकार के हैं फिर भी!
ज्ञानी पुरुष की मानवता अलग प्रकार की होती है और अज्ञानी की मानवता अलग प्रकार की होती है। मानवता सभी में होती है, अज्ञानी में भी मानवता होती है। जो अनडिवेलप (अविकसित) हों उसकी भी मानवता, किन्तु वह मानवता अलग प्रकार की होती है, वह अनडिवेलप
और यह डिवेलप। और पापी की मानवता अर्थात्, हमें यदि सामने चोर मिले, तब उसकी मानवता कैसी कहेगा? 'खड़े रहो।' हम समझ जाएँ कि यही उसकी मानवता है। उसकी मानवता हमने देख ली न? वह कहे, 'दे दो।' तब हम कहें, 'ये ले भाई, जल्दी से।' हमें तू मिला, वह तेरा पुण्य है न!
मानवता के विरुद्ध है। कुछ भी बोलने से यदि सामनेवाले को ज़रा-सा भी दु:ख हो, वह मानव धर्म के विरुद्ध है। आपको उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए।
ऐसे चूक गए मानव धर्म मानव धर्म मुख्य वस्तु है। मानव धर्म एक समान नहीं होते, क्योंकि (मानव धर्म जिसे 'करनी' कहा जाता है। और इसी वजह से,) एक यूरोपीयन आपके प्रति मानव धर्म निभाए और आप उसके साथ मानव धर्म निभाए तो दोनों में बड़ा फर्क होगा। क्योंकि इसके पीछे उसकी भावना क्या है और आपकी भावना क्या है? क्योंकि आप डेवलप्ड हैं, अध्यात्म जहाँ 'डिवेलॅप' हुआ है उस देश के हैं। इसलिए हमारे संस्कार बहुत उच्च प्रकार के हैं। यदि मानव धर्म में आया हो, तो हमारे संस्कार तो इतने ऊँचे हैं कि उसकी सीमा नहीं है। किन्तु लोभ और लालच के कारण ये लोग मानव धर्म चूक गए हैं। हमारे यहाँ क्रोध-मान-माया-लोभ 'फुल्ली डिवेलप' (पूर्ण विकसित) होते हैं। इसलिए यहाँ के लोग यह मानव धर्म चूक गए हैं मगर मोक्ष के अधिकारी अवश्य हैं। क्योंकि यहाँ डिवेलप हुआ तब से ही वह मोक्ष का अधिकारी हो गया। वे लोग मोक्ष के अधिकारी नहीं कहलाते। वे धर्म के अधिकारी, मगर मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं।
मुंबई में एक घबराहटवाला आदमी, घबराहटवाला, वह मुझसे कहने लगा, 'अब तो टैक्सी में नहीं घूम सकते।' मैंने पूछा, 'क्या हुआ भाई? इतनी सारी टैक्सियाँ हैं और नहीं घूम सकते, ऐसा क्या हुआ? कोई नया सरकारी कानून आया है क्या?' तब वह बोला, 'नहीं, टैक्सीवाले लूट लेते हैं। टैक्सी में मार-ठोककर लूट लेते हैं।' 'अरे, ऐसी नासमझी की बातें आप कब तक करते रहेंगे?' लूटना नियम के अनुसार है या नियम के बाहर है? रोजाना चार लोग लूट लिए जाते हो, अब वह इनाम
आपको लगेगा, इसका विश्वास आपको कैसे हो गया? वह इनाम तो किसी हिसाबवाले को किसी दिन लगता है, क्या हर रोज़ इनाम लगता होगा?
मानवता की विशेष समझ प्रश्नकर्ता : भिन्न-भिन्न मानवता के लक्षण जरा विस्तार से समझाइए।
दादाश्री : मानवता के ग्रेड (कक्षा) भिन्न-भिन्न होते हैं। प्रत्येक देश की मानवता जो है, उसके डिवेलपमेन्ट के आधार पर सब ग्रेड होते हैं। मानवता यानी खुद का ग्रेड तय करना होता है, कि यदि हमें मानवता
ये क्रिश्चियन भी पुनर्जन्म नहीं समझते हैं। चाहे कितना भी आप उनसे कहो कि आप पुनर्जन्म को क्यों नहीं समझते? फिर भी वे नहीं मानते। किन्तु हम (वे गलत है) ऐसा बोल ही नहीं सकते, क्योंकि यह
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लानी हो, तो 'मुझे जो अनुकूल आता है वही मैं सामनेवाले के लिए करूँ।' हमें जो अनुकूल आता हो वैसे ही अनुकूल संयोग हम सामनेवाले के लिए व्यवहार में लाएँ, वह मानवता कहलाती है। इसलिए सबकी मानवता अलग-अलग होती है। मानवता सबकी एक समान नहीं होती, उनके ग्रेडेशन के अनुसार होती है।
खुद को जो अनुकूल आए वैसा ही औरों के प्रति रखना चाहिए कि यदि मुझे दुःख होता है, तो उसे दु:ख क्यों नहीं होगा? हमारा कोई कुछ चुरा ले तो हमें दु:ख होता है, तो किसी का चुराते समय हमें विचार आना चाहिए कि 'नहीं! किसी को दुःख हो ऐसा कैसे करें?' यदि कोई हमसे झूठ बोलता है तो हमें दुःख होता है तो हमें भी किसी के साथ ऐसा करने से पहले सोचना चाहिए। हर एक देश के, प्रत्येक मनुष्य के मानवता के ग्रेडेशन भिन्न-भिन्न होते हैं।
मानवता अर्थात् 'खुद को जो पसंद है वैसा ही व्यवहार औरों के साथ करना।' यह छोटी व्याख्या अच्छी है। लेकिन हर एक देश के लोगों को अलग-अलग तरह का चाहिए।
खुद को जो अनुकूल न आए, ऐसा प्रतिकूल व्यवहार औरों के साथ नहीं करना चाहिए। खुद को अनुकूल है वैसा ही वर्तन औरों के साथ करना चाहिए। यदि मैं आपके घर आया तब आप 'आइए, बैठिए' कहें और मुझे अच्छा लगता हो, तो मेरे घर पर जब कोई आए तब मुझे भी उसे 'आइए, बैठिए' ऐसा कहना चाहिए, यह मानवता कहलाती है। फिर हमारे घर पर कोई आए, तब हम ऐसा बोलें नहीं और उनसे ऐसी उम्मीद करें, वह मानवता नहीं कहलाती। हम किसी के घर महेमान होकर गए हों और वे अच्छा भोजन कराएँ ऐसी आशा करें, तो हमें भी सोचना चाहिए कि हमारे घर जब कोई मेहमान आए तो उसे अच्छा भोजन करवाएँ। जैसा चाहिए वैसा करना वह मानवता है।
खुद को सामनेवाले की जगह पर रखकर सारा व्यवहार करना, वह मानवता! मानवता हर एक की अलग-अलग होती है, हिंदुओं की अलग, मुसलमानों की अलग, क्रिश्चियनों की अलग, सभी की अलगअलग होती हैं। जैनों की मानवता भी अलग होती है।
वैसे खुद को अपमान अच्छा नहीं लगता है और लोगों का अपमान करने में शूरवीर होता है, वह मानवता कैसे कहलाए? अतः हर बात में विचारपूर्वक व्यवहार करें, वह मानवता कहलाती है।
संक्षेप में, मानवता की हर एक की अपनी-अपनी रीति होती है। 'मैं किसी को दुःख नहीं दूं', यह मानवता की बाउन्ड्री (सीमा) है और वह बाउन्ड्री हर एक की अलग-अलग होती है। मानवता का कोई एक ही मापदंड नहीं है। 'जिससे मुझे दुःख होता है, वैसा दुःख मैं किसी
और को नहीं दें। कोई मझे ऐसा दुःख दे तो क्या हो? इसलिए वैसा दुःख मैं किसी को न दूं।' वह खुद का जितना डिवेलपमेन्ट हो, उतना ही वह करता रहता है।
सुख मिलता है, देकर सुख प्रश्नकर्ता : हम जानते हैं कि किसी का दिल नहीं दुखे इस प्रकार से जीना है, वे सब मानवता के धर्म जानते हैं।
दादाश्री : वे तो सारे मानवता के धर्म हैं। मानव धर्म का अर्थ क्या है? हम सामनेवाले को सुख दें तो हमें सुख मिलता रहे। यदि हम सुख देने का व्यवहार करें तो व्यवहार में हमें सुख प्राप्त होगा और दुःख देने का व्यवहार करें तो व्यवहार में दुःख प्राप्त होगा। इसलिए यदि हमें सुख चाहिए तो व्यवहार में सभी को सुख दो और दुःख चाहिए तो दुःख दो। और यदि आत्मा का स्वाभाविक धर्म जान लें तो फिर कायमी सुख बरतेगा।
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प्रश्नकर्ता : सभी को सुख पहुँचाने की शक्ति प्राप्त हो, ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए न? दादाश्री : हाँ, ऐसी प्रार्थना कर सकते हैं!
जीवन व्यवहार में यथार्थ मानव धर्म प्रश्नकर्ता : अब जिसे मनुष्य की मूल आवश्यकताएँ कहते हैं, उस भोजन, पानी, आराम आदि की व्यवस्था और प्रत्येक मनुष्य को आसरा मिले, इसके लिए प्रयत्न करना मानव धर्म कहलाता है?
दादाश्री : मानव धर्म तो वस्तु ही अलग है। मानव धर्म तो यहाँ तक पहुँचता है कि इस दुनिया में लक्ष्मी का जो बँटवारा है, वह कुदरती बँटवारा है। उसमें मेरे हिस्से का जो है वह आपको देना पड़ेगा। इसलिए मुझे लोभ करने की जरूरत ही नहीं है। लोभ न रहे वह मानव धर्म कहलाता है। लेकिन इतना सब तो नहीं रह सकता, परंतु मनुष्य यदि कुछ हद तक का पालन करे तो भी बहुत हो गया।
प्रश्नकर्ता : तो उसका अर्थ यह हुआ कि जैसे-जैसे कषाय रहित होते जाएँ, वह मानव धर्म है?
दादाश्री : नहीं, ऐसा हो तब तो फिर वह वीतराग धर्म में आ गया। मानव धर्म यानी तो बस इतना ही कि पत्नी के साथ रहें, बच्चों के साथ रहें, फलाँ के साथ रहें, तन्मयाकार हो जाएँ, शादी रचाएँ इन सबमें कषाय रहित होने का सवाल ही नहीं है, किन्तु आपको जो दुःख होता है वैसे दूसरों को भी दुःख होगा, ऐसा मानकर आप चलें।
प्रश्नकर्ता : हाँ, पर उसमें यही हुआ न, कि मानो कि हमें भूख लगी है। भूख एक प्रकार का दुःख है। उसके लिए हमारे पास साधन है और, हम खाते हैं। किन्तु जिसके पास वह साधन नहीं है उसे वह देना। हमें जो दुःख होता है वह औरों को नहीं हो ऐसा करना वह भी
एक तरह से मानवता ही हुई न?
दादाश्री : नहीं, यह आप जो मानते हैं न, वह मानवता नहीं है।। कुदरत का नियम ऐसा है कि वह हर किसी को उसका भोजन पहुँचा देती है। एक भी गाँव हिन्दुस्तान में ऐसा नहीं है जहाँ पर किसी मनुष्य को कोई खाना पहुँचाने जाता हो, कपड़े पहुँचाने जाता हो। ऐसा कुछ नहीं है। यह तो यहाँ शहरों में ही है, एक तरह का प्रतिपादन किया है, यह तो व्यापारी रीत आज़माई कि उन लोगों के लिए पैसा इकट्ठा करना। अड़चन तो कहाँ है? सामान्य जनता में, जो माँग नहीं सकते, बोल नहीं सकते, कुछ कह नहीं पाते वहाँ अड़चनें हैं। बाकी सब जगह इसमें काहे की अड़चन है? यह तो बिना वज़ह ले बैठे हैं, बेकार ही!
प्रश्नकर्ता : ऐसे कौन हैं?
दादाश्री : हमारा सारा सामान्य वर्ग ऐसा ही है। वहाँ जाइए और उनसे पूछिए कि भाई, तुम्हें क्या अड़चन है? बाकी इन लोगों को, जिन्हें आप कहते हैं न कि इनके लिए दान करना चाहिए, वे लोग तो दारू पीकर मौज उड़ाते हैं।
प्रश्नकर्ता : वह ठीक है किन्तु आपने जो कहा कि सामान्य लोगों को ज़रूरत है, तो वहाँ देना वह धर्म हुआ न? ।
दादाश्री : हाँ, मगर उसमें मानव धर्म को क्या लेना-देना? मानव धर्म का अर्थ क्या कि जैसे मुझे दु:ख होता है वैसे दूसरों को भी होता होगा इसलिए ऐसा दुःख न हो इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : ऐसा ही हुआ न? किसी को कपड़े नहीं हो...
दादाश्री : नहीं, वे तो दयालु के लक्षण हुए। सभी लोग दया कैसे दिखा सकते हैं? वह तो जो पैसेवाला हो वही कर सकता है।
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प्रश्नकर्ता : सामान्य मनुष्य को ठीक से प्राप्त हो, आवश्यकताएँ पूर्ण हों, इसलिए सामाजिक स्तर को ऊपर उठाने के लिए प्रयत्न करना, वह ठीक है? सामाजिक स्तर उठाना अर्थात् हम सरकार पर दबाव डालें कि आप ऐसा करें, इन लोगों को दें। ऐसा करना मानव धर्म में आता
है?
दूसरा रास्ता दिखाइए। मैंने कहा, यह आदमी शरीर से तगड़ा है तो उसे अपने पैसे से हजार-डेढ़ हज़ार का एक ठेला दिलवा देना, और दो सौ रुपये नक़द देकर कहना कि सब्जी-भाजी ले आ और बेचना शुरू कर दे। और उसे कहना कि इस ठेले का भाड़ा हर दो-चार दिन में पचास रुपये भर जाना।
प्रश्नकर्ता : मुफ्त नहीं देना, उसे ऐसे उत्पादन के साधन देना।
दादाश्री : हाँ, वर्ना ऐसे तो आप उसे बेकार बनाते हैं। सारे संसार में कहीं बेकारी नहीं है, ऐसी बेकारी आपने फैलाई है। यह हमारी सरकार ने फैलाई है। यह सब करके वोट लेने के लिए यह सारा ऊधम मचाया है।
दादाश्री : नहीं। वह सारा गलत इगोइज्म (अहंकार) है, इन लोगों का।
समाजसेवा करते हैं, वह तो लोगों की सेवा करता है, ऐसा कहलाए या तो दया करता है, संवेदना दिखलाता है ऐसा कहलाए। किन्तु मानव धर्म तो सभी को स्पर्श करता है। मेरी घड़ी खो जाए तो मैं समझू कि कोई मानव धर्मवाला होगा तो वापस आएगी। और उस प्रकार की जो भी सभी सेवा करते हों, वे कुसेवा कर रहे हैं। एक आदमी को मैंने कहा, 'यह क्या कर रहे हो? उन लोगों को यह किस लिए दे रहे हो? ऐसे देते होंगे? आए बड़े सेवा करनेवाले! सेवक आए! क्या देखकर सेवा करने निकले हो?' लोगों के पैसे गलत रास्ते जाते हैं और लोग दे भी आते हैं!
मानव धर्म तो सेफसाइड (सलामती) ही दिखाता है।
प्रश्नकर्ता : यह बात सच है कि हम दया दिखाएँ तो उसमें एक तरह की ऐसी भावना होती है कि वह दूसरों पर जी रहा है।
दादाश्री : उसे खाने-पीने का मिला, इसलिए फिर उनमें से कोई दारू रखता हो, वहाँ जाकर बैठता है और खा-पीकर मौज उड़ाता है।
प्रश्नकर्ता : हाँ, ऐसे पीते हैं। उसका उपयोग उस तरह से होता
प्रश्नकर्ता : किन्तु आज उसे ही मानव धर्म कहा जाता है।
दादाश्री : मनुष्यों को ख़तम कर डालते हो, आप उन्हें जीने भी नहीं देते। उस आदमी को मैंने बहुत डाँटा। कैसे आदमी हो? आपको ऐसा किस ने सिखाया? लोगों से पैसे लाना और अपनी दृष्टि में गरीब लगे उसे बुलाकर देना। अरे, उसका थर्मामीटर (मापदंड) क्या है? यह गरीब लगा इसलिए उसे देना है और यह नहीं लगा इसलिए क्या उसे नहीं देना? जिसे मुसीबत का अच्छी तरह वर्णन करना नहीं आया, बोलना नहीं आया, उसे नहीं दिए और दूसरे को अच्छा बोलना आया उसे दिए। बड़ा आया थर्मामीटरवाला! फिर उसने मुझसे कहा, आप मुझे
दादाश्री : यदि ऐसा ही हो, तो हमें उन्हें बिगाड़ना नहीं चाहिए। यदि हम किसी को सुधार नहीं सकते तो उसे बिगाड़ना भी नहीं चाहिए। वह कैसे? ये लोग जो सेवा करते हैं वे औरों से कपड़े लेकर ऐसे लोगों को देते हैं, किन्तु ऐसे लेनेवाले लोग कपड़े बेचकर बरतन लेते हैं, पैसे लेते हैं। इसके बजाय उन लोगों को किसी काम पर लगा दें। इस प्रकार कपडे और खाना देना, मानव धर्म नहीं है। उन्हें किसी काम पर लगाओ।
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प्रश्नकर्ता : आप जो कहते हैं उस बात को सभी स्वीकार करते हैं और उसमें तो सिर्फ दान देकर उन्हें पंगु बनाते हैं।
दादाश्री : उसीका यह पंगुपन है। इतने अधिक दयालु लोग, किन्तु ऐसी दया करने की ज़रूरत नहीं है। उसे एक ठेला दिलाओ और साग़-सब्जी दिलाओ, एक दिन बेच आए, दूसरे दिन बेच आए। उसका रोजगार शुरू हो गया। ऐसे बहुत सारे रास्ते हैं।
मानव धर्म की निशानी प्रश्नकर्ता : हम अपने मित्रों के बीच दादाजी की बात करते हैं, तो वे कहते हैं, 'हम मानव धर्म का पालन करते हैं और इतना काफ़ी है', ऐसा कहकर बात को टाल देते हैं।
दादाश्री : हाँ, किन्तु मानव धर्म पालें तो हम उसे 'भगवान' कहें। खाना खाया, नहाया, चाय पी, वह मानव धर्म नहीं कहलाता।
यह मानव धर्म की प्रथम निशानी है। यहाँ से मानव धर्म शुरू होता है। मानव धर्म की बिगिनिंग यहाँ से ही होनी चाहिए! बिगिनिंग ही न हो तो वह मानव धर्म समझा ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : 'मुझे दुःख होता है वैसे ही औरों को भी दुःख होता है' यह जो भाव है, वह भाव जैसे जैसे डिवेलप होता है, तब फिर मानव की मानव के प्रति अधिक से अधिक एकता डिवेलप होती जाती है न?
दादाश्री : वह तो होती जाती है। सारे मानव धर्म का उत्कर्ष होता
प्रश्नकर्ता : हाँ, वह सहजरूप से उत्कर्ष होता रहता है। दादाश्री : सहजरूप से होता है।
पाप घटाना, वह सच्चा मानव धर्म
प्रश्नकर्ता : नहीं। मानव धर्म मतलब लोग ऐसा कहते हैं कि एक-दूसरे की मदद करना, किसी का भला करना, लोगों को हैल्पफुल होना। लोग इसे मानव धर्म समझते हैं।
दादाश्री : मानव धर्म वह नहीं है। जानवर भी अपने परिवार को मदद करने की समझ रखते हैं बेचारे!
मानव धर्म से तो कई प्रश्न हल हो जाते हैं और मानव धर्म लेवल (सापेक्षिक स्तर) में होना चाहिए। जिसकी लोग आलोचना करें. वह मानव धर्म कहलाता ही नहीं। कितने ही लोगों को मोक्ष की आवश्यकता नहीं है, किन्तु मानव धर्म की तो सभी को ज़रूरत है न! मानव धर्म में आए तो बहुत से पाप कम हो जाएँ।
वह समझदारीपूर्वक होना चाहिए प्रश्नकर्ता : मानव धर्म में, औरों के प्रति हमारी अपेक्षा हो कि उसे भी ऐसे ही व्यवहार करना चाहिए, तो वह कई बार अत्याचार बन जाता है।
दादाश्री : नहीं! हर एक को मानव धर्म में रहना चाहिए। उसे ऐसे बरतना चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं होता। मानव धर्म अर्थात् खुद समझकर मानव धर्म का पालन करना सीखे।
मानव धर्म अर्थात् प्रत्येक बात में उसे विचार आए कि मुझे ऐसा हो तो क्या हो? यह विचार पहले न आए तो वह मानव धर्म में नहीं है। किसी ने मुझे गाली दी, उस समय मैं बदले में उसे गाली दूँ उससे पहले मेरे मन में ऐसा हो कि, 'यदि मुझे इतना दुःख होता है तो फिर मैं गाली दूं तो उसे कितना दु:ख होगा!' ऐसा समझकर वह गाली न देकर निपटारा करता है।
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प्रश्नकर्ता : हाँ खुद समझकर! किन्तु यह तो औरों को कहे कि आपको ऐसे बरतना चाहिए, ऐसा करना, वैसा करना है।
दादाश्री : ऐसा कहने का अधिकार किसे है? आप क्या गवर्नर है? आप ऐसा नहीं कह सकते।
प्रश्नकर्ता : हाँ, इसलिए वह अत्याचार बन जाता है।
दादाश्री : अत्याचार ही कहलाए! खुला अत्याचार! आप किसी को बाध्य नहीं कर सकते। आप उसे समझा सकते हैं कि भाई, ऐसा करेंगे तो आपको लाभदायक होगा, आप सुखी होंगे। बाध्य तो कर ही नहीं सकते किसी को।
ऐसे रौशन करें मनुष्य जीवन.... यह मनुष्यत्व कैसे कहलाए? सारा दिन खा-पीकर घूमते रहे और दो एक को डाँटकर आए, और फिर रात को सो गए। इसे मनुष्यपन कैसे सह सकते है? इस प्रकार मनुष्य जीवन को लजाते हैं। मनुष्यत्व तो वह कि शाम को पांच-पच्चीस-सौ लोगों को ठंडक पहुँचाकर घर आए हों! और यह तो मनुष्य जीवन लजाया!
पुस्तकें पहुँचाओ स्कूल-कॉलेज में
दादाश्री : हाँ, उसकी कोई अच्छी-सी पुस्तक ही नहीं है। कुछ संत लिखते हैं पर वह पूर्ण रूप से लोगों की समझ में नही आता। इसलिए ऐसा होना चाहिए कि पूरी बात पुस्तक के रूप में पढ़ें, समझें तब उसके मन में यह लगे कि हम जो कुछ मानते हैं वह भूल है सारी। ऐसी मानव धर्म की पुस्तक तैयार करके स्कूल के एक आयु वर्ग के बच्चों को सिखाना चाहिए। जागृति की ज़रूरत अलग वस्तु है और यह साइकोलोजिकल इफेक्ट (मानसिक असर) अलग वस्तु है। स्कूल में ऐसा सीखें तो उन्हें याद आएगा ही। किसी का कुछ गिरा हुआ मिलने पर उन्हें तुरंत याद आएगा, 'अरे, मेरा गिर गया हो तो मुझे क्या होता? इससे औरों को कितना दु:ख होता होगा?' बस, यही साइकोलोजिकल इफेक्ट। इसमें जागृति की ज़रूरत नहीं है। इसलिए ऐसी पुस्तक छपवाकर वह पुस्तक ही सभी स्कूल-कॉलेजों में एक उम्र तक के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध करानी चाहिए।
मानव धर्म का पालन करें तो पुण्य करने की ज़रूरत ही नहीं है। वह पुण्य ही है। मानव धर्म की तो पुस्तकें लिखी जानी चाहिए कि मानव धर्म अर्थात् क्या? ऐसी पुस्तकें लिखी जाएँ, जो पुस्तकें भविष्य में भी लोगों के पढ़ने में आएँ!
प्रश्नकर्ता : वह तो यह भाई अख़बार में लेख लिखेंगे न?
दादाश्री : नहीं, वह नहीं चले। लिखे हुए लेख तो रद्दी में चले जाते हैं। इसलिए पुस्तकें छपवानी चाहिए। फिर वह पुस्तक यदि किसी के यहाँ पड़ी हो तो फिर से छपवानेवाला कोई निकल आएगा। इसलिए हम कहतें हैं कि ये सभी हजारों पुस्तकें और सभी आप्तवाणी की पस्तकें बाँटते रहिए। एकाध रह गई होगी तो भविष्य में भी लोगों का काम होगा, वर्ना बाकी का यह सब तो रद्दी में चला जाएगा। जो लेख लिखा जाता है, वह सोने जैसा हो तो भी दसरे दिन रद्दी में बेच देंगे हमारे
यह तो अपने आपको क्या समझ बैठे हैं? कहते हैं. 'हम मानव हैं। हमें मानव धर्म का पालन करना है।' मैंने कहा, 'हाँ, ज़रूर पालन करना। बिना समझे बहुत दिनों किया, किन्तु अब सही समझकर मानव धर्म का पालन करना है।' मानव धर्म तो अति श्रेष्ठ वस्तु है।
हजारों पुस्तकें और सभी आप्तवाणी की पुस्तके
प्रश्नकर्ता : किन्तु दादाजी, लोग तो मानव धर्म की परिभाषा ही अलग तरह की देते हैं। मानव धर्म को बिलकुल अलग ही तरह से समझते हैं।
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________________ मानव धर्म हिन्दुस्तान के लोग! अंदर अच्छा पन्ना होगा उसे फाड़ेंगे नहीं, क्योंकि उतना रद्दी में वज़न कम हो जाएगा न! इसलिए यह मानव धर्म पर यदि पुस्तक लिखी जाए... प्रश्नकर्ता : दादाजी की वाणी मानव धर्म पर बहुत सारी होगी! दादाश्री : बहुत, बहुत, काफ़ी निकली है। हम नीरुबहन से प्रकाशित करने को कहेंगे। नीरुबहन से कहो न! वाणी निकालकर. पुस्तक तैयार करें। मानवता मोक्ष नहीं है। मानवता में आने के पश्चात् मोक्ष प्राप्ति की तैयारियाँ होती हैं, वर्ना मोक्ष प्राप्त करना कोई आसान बात नहीं है। जय सच्चिदानंद प्राप्तिस्थान दादा भगवान परिवार अडालज : त्रिमंदिर संकुल, सीमंधर सीटी, अहमदाबाद- कलोल हाई वे, पोस्ट : अडालज, जि. गांधीनगर, गुजरात - 382421. फोन : (079) 39830100, email : info@dadabhagwan.org अहमदाबाद : दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (079)27540408, 27543979 राजकोट : त्रिमंदिर, अहमदाबाद-राजकोट हाई वे, तरघडीया चोकडी, पोस्ट : मालियासण, जि. राजकोट, फोन : 99243 43478 वडोदरा : दादा भगवान परिवार, (0265)2414142 मुंबई : दादा भगवान परिवार, 9323528901 पूणे : महेश ठक्कर, दादा भगवान परिवार, 9822037740 बेंगलूर : अशोक जैन, दादा भगवान परिवार, 9341948509 कोलकता : शशीकांत कामदार, दादा भगवान परिवार, 033-32933885 U.S.A. : Dada Bhagwan Vignan Institue : Dr. Bachu Amin, 100. SWRedbud Lane, Topeka, Kansas 66606. Tel: 785-271-0869, E-mail : bamin@cox.net Dr. Shirish Patel, 2659, Raven Circle, Corona, CA 92882 Tel.: 951-734-4715, E-mail: shirishpatel@sbcglobal.net U.K. : Dada Centre, 236, Kingsbury Road, (Above Kingsbury Printers), Kingsbury, London, NW9 OBH Tel. : 07956476253, E-mail: dadabhagwan_uk@yahoo.com Canada : Dinesh Patel, 4, Halesia Drive, Etobicock, Toronto, M9W6B7. Tel.:4166753543 E-mail: ashadinsha@yahoo.ca Canada :+1416-675-3543 Australia:+61421127947 Dubai :+971506754832 Singapore: +65 81129229 Malaysia : +60 126420710 Website : www.dadabhagwan.org, www.dadashri.org