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मानव धर्म
मानव धर्म
लानी हो, तो 'मुझे जो अनुकूल आता है वही मैं सामनेवाले के लिए करूँ।' हमें जो अनुकूल आता हो वैसे ही अनुकूल संयोग हम सामनेवाले के लिए व्यवहार में लाएँ, वह मानवता कहलाती है। इसलिए सबकी मानवता अलग-अलग होती है। मानवता सबकी एक समान नहीं होती, उनके ग्रेडेशन के अनुसार होती है।
खुद को जो अनुकूल आए वैसा ही औरों के प्रति रखना चाहिए कि यदि मुझे दुःख होता है, तो उसे दु:ख क्यों नहीं होगा? हमारा कोई कुछ चुरा ले तो हमें दु:ख होता है, तो किसी का चुराते समय हमें विचार आना चाहिए कि 'नहीं! किसी को दुःख हो ऐसा कैसे करें?' यदि कोई हमसे झूठ बोलता है तो हमें दुःख होता है तो हमें भी किसी के साथ ऐसा करने से पहले सोचना चाहिए। हर एक देश के, प्रत्येक मनुष्य के मानवता के ग्रेडेशन भिन्न-भिन्न होते हैं।
मानवता अर्थात् 'खुद को जो पसंद है वैसा ही व्यवहार औरों के साथ करना।' यह छोटी व्याख्या अच्छी है। लेकिन हर एक देश के लोगों को अलग-अलग तरह का चाहिए।
खुद को जो अनुकूल न आए, ऐसा प्रतिकूल व्यवहार औरों के साथ नहीं करना चाहिए। खुद को अनुकूल है वैसा ही वर्तन औरों के साथ करना चाहिए। यदि मैं आपके घर आया तब आप 'आइए, बैठिए' कहें और मुझे अच्छा लगता हो, तो मेरे घर पर जब कोई आए तब मुझे भी उसे 'आइए, बैठिए' ऐसा कहना चाहिए, यह मानवता कहलाती है। फिर हमारे घर पर कोई आए, तब हम ऐसा बोलें नहीं और उनसे ऐसी उम्मीद करें, वह मानवता नहीं कहलाती। हम किसी के घर महेमान होकर गए हों और वे अच्छा भोजन कराएँ ऐसी आशा करें, तो हमें भी सोचना चाहिए कि हमारे घर जब कोई मेहमान आए तो उसे अच्छा भोजन करवाएँ। जैसा चाहिए वैसा करना वह मानवता है।
खुद को सामनेवाले की जगह पर रखकर सारा व्यवहार करना, वह मानवता! मानवता हर एक की अलग-अलग होती है, हिंदुओं की अलग, मुसलमानों की अलग, क्रिश्चियनों की अलग, सभी की अलगअलग होती हैं। जैनों की मानवता भी अलग होती है।
वैसे खुद को अपमान अच्छा नहीं लगता है और लोगों का अपमान करने में शूरवीर होता है, वह मानवता कैसे कहलाए? अतः हर बात में विचारपूर्वक व्यवहार करें, वह मानवता कहलाती है।
संक्षेप में, मानवता की हर एक की अपनी-अपनी रीति होती है। 'मैं किसी को दुःख नहीं दूं', यह मानवता की बाउन्ड्री (सीमा) है और वह बाउन्ड्री हर एक की अलग-अलग होती है। मानवता का कोई एक ही मापदंड नहीं है। 'जिससे मुझे दुःख होता है, वैसा दुःख मैं किसी
और को नहीं दें। कोई मझे ऐसा दुःख दे तो क्या हो? इसलिए वैसा दुःख मैं किसी को न दूं।' वह खुद का जितना डिवेलपमेन्ट हो, उतना ही वह करता रहता है।
सुख मिलता है, देकर सुख प्रश्नकर्ता : हम जानते हैं कि किसी का दिल नहीं दुखे इस प्रकार से जीना है, वे सब मानवता के धर्म जानते हैं।
दादाश्री : वे तो सारे मानवता के धर्म हैं। मानव धर्म का अर्थ क्या है? हम सामनेवाले को सुख दें तो हमें सुख मिलता रहे। यदि हम सुख देने का व्यवहार करें तो व्यवहार में हमें सुख प्राप्त होगा और दुःख देने का व्यवहार करें तो व्यवहार में दुःख प्राप्त होगा। इसलिए यदि हमें सुख चाहिए तो व्यवहार में सभी को सुख दो और दुःख चाहिए तो दुःख दो। और यदि आत्मा का स्वाभाविक धर्म जान लें तो फिर कायमी सुख बरतेगा।