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मानव धर्म
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मानव धर्म
प्रश्नकर्ता : हाँ खुद समझकर! किन्तु यह तो औरों को कहे कि आपको ऐसे बरतना चाहिए, ऐसा करना, वैसा करना है।
दादाश्री : ऐसा कहने का अधिकार किसे है? आप क्या गवर्नर है? आप ऐसा नहीं कह सकते।
प्रश्नकर्ता : हाँ, इसलिए वह अत्याचार बन जाता है।
दादाश्री : अत्याचार ही कहलाए! खुला अत्याचार! आप किसी को बाध्य नहीं कर सकते। आप उसे समझा सकते हैं कि भाई, ऐसा करेंगे तो आपको लाभदायक होगा, आप सुखी होंगे। बाध्य तो कर ही नहीं सकते किसी को।
ऐसे रौशन करें मनुष्य जीवन.... यह मनुष्यत्व कैसे कहलाए? सारा दिन खा-पीकर घूमते रहे और दो एक को डाँटकर आए, और फिर रात को सो गए। इसे मनुष्यपन कैसे सह सकते है? इस प्रकार मनुष्य जीवन को लजाते हैं। मनुष्यत्व तो वह कि शाम को पांच-पच्चीस-सौ लोगों को ठंडक पहुँचाकर घर आए हों! और यह तो मनुष्य जीवन लजाया!
पुस्तकें पहुँचाओ स्कूल-कॉलेज में
दादाश्री : हाँ, उसकी कोई अच्छी-सी पुस्तक ही नहीं है। कुछ संत लिखते हैं पर वह पूर्ण रूप से लोगों की समझ में नही आता। इसलिए ऐसा होना चाहिए कि पूरी बात पुस्तक के रूप में पढ़ें, समझें तब उसके मन में यह लगे कि हम जो कुछ मानते हैं वह भूल है सारी। ऐसी मानव धर्म की पुस्तक तैयार करके स्कूल के एक आयु वर्ग के बच्चों को सिखाना चाहिए। जागृति की ज़रूरत अलग वस्तु है और यह साइकोलोजिकल इफेक्ट (मानसिक असर) अलग वस्तु है। स्कूल में ऐसा सीखें तो उन्हें याद आएगा ही। किसी का कुछ गिरा हुआ मिलने पर उन्हें तुरंत याद आएगा, 'अरे, मेरा गिर गया हो तो मुझे क्या होता? इससे औरों को कितना दु:ख होता होगा?' बस, यही साइकोलोजिकल इफेक्ट। इसमें जागृति की ज़रूरत नहीं है। इसलिए ऐसी पुस्तक छपवाकर वह पुस्तक ही सभी स्कूल-कॉलेजों में एक उम्र तक के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध करानी चाहिए।
मानव धर्म का पालन करें तो पुण्य करने की ज़रूरत ही नहीं है। वह पुण्य ही है। मानव धर्म की तो पुस्तकें लिखी जानी चाहिए कि मानव धर्म अर्थात् क्या? ऐसी पुस्तकें लिखी जाएँ, जो पुस्तकें भविष्य में भी लोगों के पढ़ने में आएँ!
प्रश्नकर्ता : वह तो यह भाई अख़बार में लेख लिखेंगे न?
दादाश्री : नहीं, वह नहीं चले। लिखे हुए लेख तो रद्दी में चले जाते हैं। इसलिए पुस्तकें छपवानी चाहिए। फिर वह पुस्तक यदि किसी के यहाँ पड़ी हो तो फिर से छपवानेवाला कोई निकल आएगा। इसलिए हम कहतें हैं कि ये सभी हजारों पुस्तकें और सभी आप्तवाणी की पस्तकें बाँटते रहिए। एकाध रह गई होगी तो भविष्य में भी लोगों का काम होगा, वर्ना बाकी का यह सब तो रद्दी में चला जाएगा। जो लेख लिखा जाता है, वह सोने जैसा हो तो भी दसरे दिन रद्दी में बेच देंगे हमारे
यह तो अपने आपको क्या समझ बैठे हैं? कहते हैं. 'हम मानव हैं। हमें मानव धर्म का पालन करना है।' मैंने कहा, 'हाँ, ज़रूर पालन करना। बिना समझे बहुत दिनों किया, किन्तु अब सही समझकर मानव धर्म का पालन करना है।' मानव धर्म तो अति श्रेष्ठ वस्तु है।
हजारों पुस्तकें और सभी आप्तवाणी की पुस्तके
प्रश्नकर्ता : किन्तु दादाजी, लोग तो मानव धर्म की परिभाषा ही अलग तरह की देते हैं। मानव धर्म को बिलकुल अलग ही तरह से समझते हैं।