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जैन ऐजुकेशन बोर्ड प्रस्तुति
करनीका फल
Rs. 20.00
Vol
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युवा हृदय सम्राट पूज्य गुरुदेव श्री नम्रमुनिजी म.सा. की प्रेरणा... ____ अर्हम युवा ग्रुप पस्ती द्वारा परोपकार के कार्य... एक नया प्रयोग...
GROUP
YUVA
YUVA GROUP
करुणा के सागर पूज्य गुरुदेव... जिनके हृदय में दूसरों के हित, श्रेय और कल्याण की भावना रही है... उनके चिंतन से एक अभिनव विचार का सृजन हुआ और उन्होंने मानवसेवा, जीवदया के कार्य के साथ अध्यात्म साधना करने के लिए “अर्हम युवा ग्रुप” की स्थापना की..! __ पूज्य गुरुदेव के प्यार से प्रेरणा पाकर यह महा अभियान समस्त मुंबई के युवक-युवतीओं का एक मिशन बन गया ! इस महा अभियान में प्रतिदिन स्वेच्छा से नये नये युवक युवतियाँ जुडते जा रहे हैं। यह उत्साही युवावर्ग हर माह हजारों किलो की पस्ती एकत्र करके उसका विक्रय करता है और उस राशी से परोपकार के कार्य करता है।
पूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन और निर्देशन के अनुसार ये युवक-युवतीयाँ हर माह के प्रथम रविवार को पार्टी, पिक्चर या प्रमाद करने के स्थान पर परमात्मा पार्श्वनाथ की जपसाधना करकेमनकी शांति और समाधि प्राप्त करते हैं।
दूसरे रविवार को सेवा का कार्य करने के लिए घर-घर जाकर अखबारों की पस्ती इकट्ठी करते हैं और कड़वे-मीठे अनुभव द्वारा अपने अहम् को चूर कर, Ego को Go कर, सहनशील और विनम्र बनते हैं।
तीसरे रविवार को पस्ती से पाये गये रूपयो से गरीब, आदिवासी, बीमार, अपंग, अंधे, वृद्ध आदि की जरूरत पूरी करते है। वे उन्हें केवल वस्तुयें या अनाज, दवा आदि ही नहीं देते अपितु उन्हें प्यार, सांत्वना आश्वासन और आदर भी देते हैं । उनकी दर्दभरी बातें सुनते हैं, अनाथ बच्चों के साथ खेलते हैं और वृद्धजनों को व्हीलचेर पर बैठाकर उनकी इच्छानुसार प्रभुदर्शन आदि कराने भी ले जाते हैं । वेकत्लखाने जाते हुए पशुओंकोबचाते हैं। बीमार, घायल पशु-पक्षीयों का इलाज भी कराते हैं।
बदले में उन्हें क्या मिलता है ? उन्हें एक प्रकार का आत्मसंतोष प्राप्त होता है । वे जो अनुभव करते हैं उसके लिए कोइ शब्द ही नहीं है । उनका दिल अनुकंपा से भर उठता है। ____इन युवाओं ने आजतक दुनिया के सिक्के का सिर्फ एक ही पहलू-सुख ही देखा था। अब सिक्के का दूसरा पहलू | दुनिया का दुःख, वास्तविकता देखने के बाद उन्हें अपना सुख अनंत गुना बड़ा लगने लगा है। __बस ! पूज्य गुरुदेव ने आज की युवा पीढ़ी को शब्दों द्वारा समझाने के बदले प्रयोग द्वारा उनका जीवन परिवर्तन कर दिया। प्रयोग और प्रत्यक्ष देखने और अनुभूति करने के बाद समझाने की जरूरत ही नहीं रही।
चौथे रविवार को अपने पूज्य गुरुदेव के दर्शन करके, उनके सानिध्यमें उनके शुक्ल परमाणुओं द्वारा अपनी ओरां, अपने भाव और अपने विचारों को शुद्ध करके शांतिपूर्ण, निर्विघ्न अपने सारे कार्य सफल करते हैं और नया मार्गदर्शन... नया बोध... नये विचार पाकर अपना जीवन धन्य बनाते हैं ।
आप भी जीवन में 'गुरु' द्वारा प्रेरणा पाकर परोपकार के इस महा अभियान में अपना सहयोग देवें और अपना अमूल्य मानव जीवन सफल बनायें।
अर्हम ग्रुप के सदस्य बनने के लिए सम्पर्क करें - - Ritesh -9869257089,Chetan-9821106360, Jai -9820155598
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हमारा संदेश... ज्ञान... ज्ञान के बिना जीवन अधूरा है। बच्चों के लिए ज्ञान प्राप्ति का सरल माध्यम है आकर्षक और रंगीन चित्र... बच्चे जो देखते हैं वही उनके मानसमे अंकित हो जाता है और लम्बे अर्से तक याद भी रहता है। दूसरी बात... आज के Fast युग में बच्चों के पास पढ़ाई के अलावा इतनी साईड एक्टीवीटी है कि उन्हें लम्बी कहानियाँ और बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ने का समय ही नहीं है।
हमारे जैनधर्म मे... भगवान महावीर के आगमशास्त्रो में ज्ञान का विशाल भंडार भरा हुआ है। ज्ञाताधर्मकथासूत्र जैसे आगम में कथानक के रूप में भी कहानियों का खजाना है।
बाल मनोविज्ञान की जानकारी से हमे ज्ञात हआ कि बच्चों की रूचि comics में ज्यादा है। उन्हें पंचतंत्र, रीचीरीच, आर्ची, Tinkle आदि Comics ज्यादा पसंद है और उसे वे दोचार-पाँच बार भी पढ़ते है और Comics एक ऐसाAddiction है जिसे बड़े भी एक बार अवश्य पढ़ते है। यही विषय पर चिंतन-मनन करते हुए हमारे मानस में भी एक विचार आया... क्यों न हम भी जैनधर्म के ज्ञान को... हमारे भगवान महावीर के जीवन को, हमारे तीर्थंकर को... बच्चों तक पहुँचाने के लिएComics Book कामाध्यम पसंद करे...?
शायद यही माध्यम से बच्चों और बच्चों के साथ बड़े भी जैनधर्म के ज्ञान-विज्ञान की जानकारी पाकर अपने आप में कुछ परिवर्तन लायेंगे।
परमात्मा के विशाल ज्ञान सागर में से यदि हम कुछ बूंदे भी लोगों तक पहुँचाने में सफल हुए तो हमारा यह प्रयास यथार्थ है।
जैनधर्म की क्षमा, वीरता, साहस, मैत्री, वैराग्य, बुद्धि, चातुर्य आदि विषयों की शिक्षाप्रद कहानियाँ भावनात्मक रंगीन चित्रों के माध्यम द्वारा प्रकाशित करने का सदभाग्य ही हमारी प्रसन्नता है ।
यह Comics हमारे Jain Education Board - Look n Lean के अंतर्गत प्रकाशित हो रही है।
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प्रस्तावना
जैन परम्परा में त्रैसठ शलाका पुरुष प्रसिद्ध है। शलाका पुरुष का अर्थ है अँगुलियों पर गिने जाने वाला प्रभावक व्यक्तित्व । आज की भाषा में अतिविशिष्ट पुरुष । जिनका प्रभावक व्यक्तित्व बल-पौरुष शक्ति शौर्य-ज्ञान एवं ऐश्वर्य आदि सभी दृष्टि से अद्वितीय हो । २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव और ९ प्रति वासुदेव कुल ६३ शलाका पुरुष एक अवसर्पिणी काल में होते हैं। इस युग के १२ चक्रवर्तियों में आदीश्वर पुत्र भरत प्रथम और ब्रह्मदत्त बारहवाँ अन्तिम चक्रवर्ती हुए। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती का समय भगवान अरिष्टनेमि के निर्वाण पश्चात् (महाभारत काल के बाद) और भगवान पार्श्वनाथ के जन्म से पूर्व मध्यकाल में माना जाता है। अर्थात् ईस्वी पूर्व ४०० से पूर्व किसी समय में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की शासन स्थिति संभव है।
ब्रह्मदत्त का जीवन बहुत ही उथल-पुथल युक्त रहा है। एक ओर उसके जीवन में आशंका, भय, पीड़ा और कष्ट की अँधेरी अमावस छाई है, तो दूसरी ओर षट्खण्ड चक्रवर्ती साम्राज्य के भोग-ऐश्वर्य की चटक चांदनी छितराई हुई दीखती है। उत्तराध्ययनसूत्र में उसके पूर्व जन्मों की कथा -चित्त-संभूत नाम से एक रोचक शिक्षाप्रद और अत्यन्त संवेदनशील चरित्र के रूप में वर्णित है। बड़े भाई चित्तमुनि वैराग्य और ज्ञान से भरी बातें सुनाकर चक्रवर्ती को भोगों से विरक्त होने की प्रेरणा देते हैं । किन्तु ब्रह्मदत्त जीवन एवं वैभव की क्षणभंगुरता को समझते हुए भी दलदल में फँसे हाथी की तरह उनसे छूटने में अपनी असमर्थता बताता है । अन्त में भोगासक्ति और प्रतिहिंसा की भावना से ग्रस्त चक्रवर्ती बड़ी दयनीय मृत्यु को प्राप्त होता है।
प्रकाशक एवं प्राप्ति स्थान
LOOK
LEARN
Jain Education Board
PARASDHAM
मूल्य : २०/- रु.
Vallabh Baug Lane, Tilak Road, Ghatkopar (E), Mumbai- 400077. Tel : 32043232.
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कम्पिलपुर के राजा ब्रह्म और रानी चुलनी के एक कर
फल
तेजस्वी पुत्र था ब्रह्मदत्त। राजा ब्रह्म के चार घनिष्ट
मित्र थे-काशी का राजा कटक, हस्तिनापुर का कणेरुदत्त, कौशल नरेश-दीर्घराज और चम्पापति-पुष्पचूल।
Niche - .
एक बार ब्रह्म राजा बीमार पड़े। वैद्यों ने बहुत उपचार किये परन्तु बच नहीं सके। चारों मित्र राजाओं ने मिलकर ब्रह्मराजा का अन्त्येष्टि संस्कार किया। शोक निवृत्ति के बाद वे आपस में विचार करने लगे। कालालाला कुमार ब्रह्मदत्त अभी
केवल १२ वर्ष का है। जब तक यह राज्य सँभालने योग्य नहीं हो जाये, हमें बारी-बारी राज्य की रक्षा करनी चाहिए। (Bo)
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मित्र के लिए इतना तो हमें करना ही चाहिए। हम
तैयार हैं।
करनी का फल | राजा कणेरुदत्त ने सुझाव दिया
सर्वप्रथम कौशल नरेश दीर्घराज एक वर्ष के लिए राज्य के संरक्षक बनकर रहें।
राज्य के मंत्री-सेनापति आदि सभी ने इस निर्णय का स्वागत किया।
रानी चुलनी भी स्वभाव से चंचल और शरीर वासना की भूखी थी। उसने दीर्घराज को उत्तर दिया
दीर्घराज ने राज्य व्यवस्था सँभाल ली। धीरे-धीरे दीर्घराज चुलनी रानी के रूप पर मुग्ध हो गया। एक दिन उसने रानी से कहा
महारानी, महाराज ब्रह्म हमारे घनिष्ट मित्र थे। उनके पीछे अब मैं आपको इस प्रकार
दुःखी नहीं देख सकता।
जब आप इस राज्य के स्वामी हैं तो मेरे भी स्वामी हुए
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दीर्घराज ने चुलनी रानी को अपनी वासना के जाल में फंसा लिया।
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करनी का फल
धीरे-धीरे रानी चुलनी और दीर्घराज खुलकर प्रेम लीला रचाने लगे। वफादार प्रधानमंत्री ने समझाया परन्तु रानी ने उल्टा उसे ही डाँटा दिया
मंत्री ने सोचा
मुझे सीख देने वाले आप कौन होते हैं? मैं इस राज्य की स्वामिनी हूँ" जैसा चाहूँगी करूँगी
अब तो पानी सिर से ऊपर निकल रहा है। कहीं यह बहाव कुमार ब्रह्मदत्त को डुबो दे
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मंत्री धनु ने अपने पुत्र वरधनु को बुलाकर कहा
एक दिन वरधनु ने कुमार ब्रह्मदत्त को सावधान करते हुए कहा- कुमार, आपको पता नहीं, इस राज्य के
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संरक्षक बनकर दीर्घराज ने हमारे साथ बहुत बड़ा विश्वासघात किया है। उसने राजमाता चुलनी को अपने वासना जाल में फाँस लिया है।
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वरधनु ! महारानी वासना के जाल में अंधी हो चुकी है। ऐसी नारी का कोई भरोसा नहीं तुम कुमार ब्रह्मदत्त की रक्षा का, ध्यान रखो।
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लाललाल कीचड़ में
करनी का फल और राजमाता भी अपनी
यह सुनकर ब्रह्मदत्त आश्चर्य से सोचने लगामर्यादा तोड़कर पूरी तरह इस
क्या मेरी माँ ऐसी कीचड़ में फँस चुकी है:Amim
हो सकती है? ऐसी दुश्चरित्र नारी को क्या मैं माँ कहूं?
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सोचते-सोचते कुमार ब्रह्मदत्त को क्रोध आ गया। वह बोला
मैं उस दुष्ट नीच दीर्घराज को खत्म
कर डालूँगा।
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कुमार ! अभी आप उम्र में छोटे हैं। और वह दुष्ट बड़ा धूर्त व शक्तिशाली है। उसे शक्ति से नहीं, युक्ति से
जीतना चाहिए।
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वरधनु ने कुमार को एक योजना समझाई।
दूसरे दिन कुमार ब्रह्मदत्त ने एक कोकिल और कौए को एक साथ बाँधकर दीर्घराम के शयन कक्ष के बाहर टाँग दिया और तलवार घुमाते हुए कठोर स्वर में बोलने लगा
ऐ नीच कौए ! तेरी यह धृष्टता ! कोकिल के साथ क्रीड़ा करने का
दुःस्साहस ! देख मेरी यह तलवार तुझे इस दुष्टता का दण्ड
देकर रहेगी...
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कुमार की यह हरकत देखकर दीर्घराज सहम गया। उसने रानी से कहा
देखा प्रिये ! तुम्हारा बेटा मुझे कौआ और तुम्हें कोकिल बताकर मारने की धमकी दे रहा है
इसे यों मारने से तो प्रजा में विद्रोह फूट पड़ेगा
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| परन्तु कुमार की इस आक्रोश पूर्ण उक्ति से दीर्घराज डर गया था। उसने चुलनी से कहा
प्रिये ! तुम्हारे पुत्र की यह धमकी केवल बाल लीला नहीं है. इसके भीतर प्रतिशोध की ज्वालाएँ भभक रही हैं। कुछ उपाय सोचो '
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रानी ने हँसकर बात टाल दी
प्रिय ! यह अभी बालक है। प्रेम-लीला को क्या समझे ! इससे डरने की जरूरत नहीं है।
हमारे प्रेम में बाधक बनने वाला चाहे पुत्र हो या मित्र, वह काला नाग है, इसका फन कुचल डालिए
फिर क्या करें ! कैसे इसको खत्म करेंगे?
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करनी का फल
दीर्घराज ने एक षड्यंत्र रचा। अपनी योजना चुलनी को समझाते हुए कहाजैसे पाण्डवों को जीवित जलाने के लिए दुर्योधन ने लाक्षागृह # का निर्माण कराया। हमें भी वही उपाय करना चाहिये ।
शीघ्र ही राजकुमार का विवाह धूम-धाम से होगा। इनके लिए एक सुन्दर नया राजमहल भी बनाया जायेगा।
कुछ दिनों बाद दीर्घराज और रानी चुलनी ने मिलकर अचानक कुमार की सगाई कर दी। सगाई के अवसर पर दीर्घराज ने घोषणा की
मंत्रीवर ! कुमार ब्रह्मदत्त को
सुहागरात के दिन ही जला डालने के लिए लाक्षागृह का निर्माण हो रहा है।
वाह खूब ! साँप भी भर जायेगा और लाठी भी नहीं टूटेग
| दीर्घराज ने अपने विश्वासी कर्मचारियों को एक सुन्दर लाक्षागृह बनाने का आदेश दे दिया।
इस अचानक की घोषणा से प्रधानमंत्री धनु चौकन्ना हो गया। उसने चारों ओर गुप्तचर छोड़ दिये। गुप्तचरों ने कुछ दिन बाद सूचना दी -
लाक्षागृह = लाख का महल
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करनी का फल महामंत्री ने अपने पुत्र वरधनु को बुलाकर सारी बात कुछ दिन बाद महामंत्री धनु ने दीर्घराज से अनुरोध बताई और कहा
कियातम छाया की तरह हर
महाराज ! मैं अब वृद्ध हो गया
जैसी आपकी पिताजी ! आप समय कुमार के साथ रहोगेत
हूँ। इसलिए निवृत्त होकर गंगा Sola इच्छा मंत्रीवर
निश्चिन्त रहें। हर आने वाले खतरे से न
तट पर यज्ञ, पूजा-पाठ आदि
राजकुमार की रक्षा तम उसकी रक्षा करोग क रना हमारा
धार्मिक कार्य करके जीवन को सफल बनाना चाहता हूँ।
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OOGO राजधर्म हैं।
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दीर्घराज भी महामंत्री के चले जाने से निश्चिन्त हो गया।
मंत्री धनु ने गंगातट पर एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया। जहाँ दिन भर दानशाला चलती रहती और रात को सुरंग का निर्माण होता था। शीघ्र ही यज्ञ मण्डप से लाक्षागृह तक एक गुप्त सुरंग बनकर तैयार हो गई।
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करनी का फल इधर एक शुभमुहूर्त में ब्रह्मदत्त का विवाह हो गया। धूम-धाम से वर-वधू ने लाक्षागृह में प्रवेश किया। आधी रात के समय अचानक लाक्षागृह में धू-धू कर अग्नि-ग्वालाएँ भड़क उठी। चारों तरफ हाहाकार मच गया।
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कुमार भीतर हैं उन्हें बचाओ।
अरे ! महल में आग लग गई।
वरधनु ने कुमार को पहले ही सावधान कर दिया था। मौका पाकर दोनों सुरंग के रास्ते बाहर निकलकर यज्ञ-मण्डप में आ पहुंचे। वहाँ से घोड़ों पर चढ़कर जंगलों में निकल पड़े। [
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इधर सेवकों ने महल में खोजबीन करके दीर्घराज को बताया- धूर्त दीर्घराज समझ गया ब्रह्मदत्त बचकर कहीं महाराज ! महल में केवल नववधू का
भाग गया है। उसने सेवकों को आदेश दियाही जला हुआ शव मिला है। राजकुमार
चप्पा-चप्पा छान डालो।
राजकुमार जहाँ भी मिले _____ का कुछ पता नहीं चल रहा है।
पकड़कर मेरे सामने लाओ। Aanaa லலலல
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करनी का फल वरधनु और ब्रह्मदत्त पवनवेगी घोड़ों पर दौड़ते-दौड़ते वेष बदल कर छुपते छुपाते दोनों भूखे प्यासे कम्पिलपर से दूर निकल गये। बेतहाशा दौड़ने से घोड़ों तीन-दिन रात तक चलते रहे। ब्रह्मदत्त को प्यास के फेफडे फट गये और उन्होंने वहीं दम तोड़ दिया। लग गई। उसने कहातब दोनों रातभर पैदल ही उस बीहड़ जंगल में दौड़ते मित्र ! अब तो मुझसे
कुमार, आप रहे। दिन निकलने पर वरधनु ने कहा
एक कदम भी नहीं चला
यहीं रुकिये। मैं
पानी लेकर कुमार ! राजा के दुष्ट
जा रहा है, प्यास से
आता हूँ सैनिक अवश्य हमारा पीछा
गला सूख रहा है। करेंगे, इसलिए वेष बदल
लेना चहिए।
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ब्रह्मदत्त को वहीं बैठाकर वरधनु पानी की खोज में चला गया।
पानी की खोज में इधर-उधर घूमते घरधनु को दीर्घराज के सैनिकों ने आकर घेर लिया।
सैनिकों ने उसे पकड़कर खूब पीटा वरधनु जोर से चिल्लाने लगा
कुमार ! भाग जाओ। इन दुष्ट सैनिकों से अपने को 4
बचाओ।
बताओ कुमार
मुझे नहीं पता. मैं
कहाँ है?
भी कुमार को खोज रहा हूँ।
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अरे यह तो वरधनु की
आवाज है। लगता है सैनिक आ गये? मुझे यहाँ से भाग जाना चाहिये।
करनी का फल भागता-भागता वह तापसों के एक आश्रम में पहुँच गया। आश्रम के कुलपति ने युवक को इस हाल में देखा तो पूछावत्स ! तुम कौन
मैं एक यात्री हूँ। कुछ हो? इतने घबराये हुए क्यों हो?
चोर लुटेरे मेरा पीछा
कर रहे हैं।
ब्रह्मदत्त जंगल में से छुपता हुआ भाग निकला।
ब्रह्मदत्त ने उन्हें अपना असली परिचय नहीं दिया। तभी कुलपति ने उसकी छाती पर श्रीवत्स का चिन्ह देख लिया, उसने मुस्कराकर कहा
आप सामान्य यात्री नहीं, कोई तेजस्वी होनहार युवक हैं। निर्भय होकर अपना परिचय
बताइये-हम आपकी सहायता करेंगे।
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कुलपति ने कुमार को छाती से लगा लिया
कुमार ने कहा- आचार्य, मैं कम्पिलपुर के
स्वर्गीय महाराज ब्रह्म का पुत्र हूँ। दुश्मन मेरा पीछा
कर रहे हैं?
ओह ! तुम कुमार ब्रह्मदत्त हो? तुम्हारे जापिता तो मेरे घनिष्ट
मित्र थे.... Agro COMRAJ
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ब्रह्मदत्त ने पिछली घटना सुनाकर कहा
गुरुदेव,दु दीर्घराज नीच और दुराचारी है। वह मुझे जान से मार डालना चाहता हैं
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कुमार ! मैं तुम्हें शस्त्र विद्या और राजनीति का शिक्षण दूँगा ताकि तुम अत्याचारियों का नाश कर सक
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करनी का फल
एक दिन आचार्य ब्रह्मदत्त के युद्ध-कौशल की परीक्षा लेने के लिए उसे एक बीहड़ वन में सरोवर के किनारे अकेला बैठाकर चले गये और छुपकर जोरदार हस्ति-नाद किया। हस्ति-नाद से उत्तेजित जंगली हाथी वन से निकलकर सरोवर की तरफ भागे। विफरे हाथियों ने ब्रह्मदत्त पर आक्रमण कर दिया। ब्रह्मदत्त अकेला ही उन जंगली हाथियों से युद्ध करने लगा।
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आचार्य ने ब्रह्मदत्त को सभी प्रकार की युद्धकला और राजनीति का प्रशिक्षण दिया। अनेक वर्षों के कठोर प्रशिक्षण से ब्रह्मदत्त अद्भुत योद्धा बन गया।
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करनी का फल एक भीमकाय मदोन्मत्त हाथी ने ब्रह्मदत्त पर | हस्ति-युद्ध में चतुर ब्रह्मदत्त लंगूर की तरह तीखे दंत शूलों से प्रहार किया।
उछलकर हाथी की पीठ पर बैठ गया।
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पा-ची.-5.5-1.
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हाथी के कुंभ स्थल पर उसने एक मुक्का मारा तो हाथी दर्द के मारे चिंघाड़ता हुआ जंगल में भाग गया।
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आचार्य देखते रह गयेअरे ! अनर्थ हो गया !
मदोन्मत्तं गजराज कुमार को लेकर कहाँ भागा जा रहा है?
परन्तु सभी निराश होकर लौट आये। आचार्य निराश होकर बोले
शायद् भाग्य को यही मंजूर होगा। वैसे भी अब कुमार ब्रह्मदत्त एक वर्ष बाद चक्रवर्ती सम्राट बनने ही वाला है।
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आचार्य ने तपस्वियों को कुमार की खोज में भेजा।।
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करनी का फल
| उस मदोन्मत्त हाथी ने ले जाकर कुमार को एक उद्यान में छोड़ दिया। कुमार ने सरोवर में स्नान किया। फल तोड़कर खाये और आगे नगर की तरफ चल पड़ा। वह जहाँ भी जाता लोग उसकी अद्भुत तेजस्विता और अपार सौन्दर्य को देखकर चकित हो जाते। उसका युद्ध-कौशल, वीरता और दूसरों की सहायता करने की परोपकारी वृत्ति से प्रभावित होकर अनेक राजकुमारियों ने उसे पतिरूप में स्वीकार कर लिया। परन्तु कुमार कहीं नहीं रुका। वह सभी को अपना लक्ष्य बताता, - "मुझे शक्ति, सेना, और धनबल जुटा कर कम्पिलपुर का राज्य प्राप्त करना है। जब तुम्हें सूचना मिले, मेरी सहायता के लिए आ जाना।"
उस मदोन्मत्त हाथी ने ले जाकर कुमार को एक रमणीय उद्यान में छोड़ दिया।
अनेक राजकुमारियों ने उसे पतिरूप में स्वीकार कर लिया।
मुझे शक्ति, सेना, धनबल जुटा कर कम्पिलपुर का राज्य प्राप्त करना है। जब तुम्हे सूचना मिले, मेरी सहायता के लिए आ जाना।
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करनी का फल एक दिन ब्रह्मदत्त घूमता-घूमता काशी पहुंच गया। ब्रह्मदत्त के आने की खबर सुनकर स्वयं काशीराज स्वागत सत्कार के लिए नगर के बाहर आये। काशीराज उसके तेजस्वी रूप और सैन्यबल को देखकर गद्गद् हो गये। ब्रह्मदत्त ने उन्हें दीर्घराज के षड्यन्त्रों की कहानी सुनाकर कहातात ! अब उस दुष्ट के पापों का
कुमार ! यह सब तो आपके घड़ा भर गया है। जब तक मैं
बांये हाथ का खेल मात्र है। उस दुराचारी का विनाश नहीं
परन्तु युद्ध से पहले शुभकार्य करूंगा, चुप नहीं बैतूंगा।।
भी होना चाहिए।
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प्रचण्ड
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| काशीराज की पुत्री के साथ ब्रह्मदत्त का पाणिग्रहण हो गया। फिर सबने मिलकर निर्णय किया
| फिर उन्होंने अपनी कन्या कनकवती को बुलाकर कहायह मेरी पुत्री कनकवती है। तात ! गुरुजनों की तुम्हारे पिता और मेरे मित्र आज्ञा स्वीकारना ब्रह्म को मैंने वचन दिया था, मेरा धर्म है। आप इसका विवाह तुम्हारे
यह शुभकार्य साथ करूंगा।
सम्पन्न कीजिये।
अब विश्वासघाती दीर्घराज को उसकी
दुष्टता का दण्ड देना चाहिए।
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महामंत्री धनु और उसका पुत्र वरधनु भी ब्रह्मदत्त के विवाह की सूचना पाकर काशी आ पहुंचे।
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करनी का फल
पालाण्याललाDIDI ब्रह्मदत्त ने दीर्घराज के पास अपना दूत भेजा। दूत ने आकर दीर्घराज से कहा
स्वर्गीय महाराज ब्रह्म का यह राज्य आपके पास धरोहर के रूप में था। आपने इसकी रक्षा करने के बदले इसे ही हड़प लिया। अब आप कुमार ब्रह्मदत्त को
राज्य सौंपकर उनसे क्षमा माँग लो।
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अहंकारी दीर्घराज गुस्से से बोलाराज्य भिक्षा में नहीं। मिलता, जिसकी भुजाओं में बल है, वही राज्य लक्ष्मी का उपभोग कर सकता है।
आखिर ब्रह्मदत्त और दीर्घराज की सेनाओं में घनघोर युद्ध हुआ। क्रुध दीर्घराज ब्रह्मदत्त के साथ ब्रह्मदत्त अद्भुत पराक्रमी तो था ही, न्याय नीति का बल भी था। मल्ल-युद्ध करन लगा। उसके साथ/ उसने दीर्घराज की सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया।
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करनी का फल तभी एक दिव्य चक्र अग्नि की चिनगारियाँ छोड़ता हुआ आकाश से नीचे उतर कर ब्रह्मदत्त की प्रदक्षिणा करने लगा।
ब्रह्मदत्त ने दायें हाथ की तर्जनी ऊपर उठाई। चक्र घूमता हुआ उस पर आकर बैठ गया।
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ब्रह्मदत्त ने चक्र को खूब मोर से घुमाकर दीर्घराज की तरफ फेंका।
घूमता हुआ चक्र दीर्घराज के मस्तक पर गिरा और दीर्घराज का धड़ कटकर भूमि पर लुढ़क पड़ा।
माओ! उस पाप व अनीतियों के उत्पत्ति केन्द्र
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करनी का फल
प्रजाजनों और मित्र राजाओं ने धूमधाम के साथ ब्रह्मदत्त का राज्याभिषेक किया। प्रधानमंत्री धनु ने आशीर्वाद देते हुए कहा
कुमार ब्रह्मदत्त ने १६ वर्ष तक भयानक जंगलों में घूम-घूम कर जो अगणित कष्ट, पीड़ा व संकट सहे हैं उन्हीं कष्टों का मीठा फल है, यह न्याय की विजय !
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राजा ब्रह्मदत्त ने सभी का अभिवादन स्वीकारते हुए उत्तर दिया
मैं धर्म और न्याय की
रक्षा करता हुआ, अपनी प्रजा को ही माता-पिता मानकर उसकी सेवा करता रहूँगा।
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राजा ब्रह्मदत्त के अद्वितीय पराक्रम और न्याय नीति के कारण धीरे-धीरे सैकड़ों राजा उसकी छत्र छाया में आ गये। कुछ वर्षों बाद ब्रह्मदत्त राजा ने भरत खण्ड की दिग्विजय यात्रा प्रारम्भ की। १६ वर्ष तक दिग्विजय अभियान में अनेकों युद्ध आदि संघर्षों का सामना करते ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती सम्राट् बनकर कम्पिलपुर लौटा
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करनी का फल एक दिन चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त अपनी रानियों के साथ रंग बार-बार विस्मित भाव से एकटक वह भवन में बैठा मधुर संगीत और नाटक आदि से मनोरंजन उस गुलदस्ते को देखने लगा। एकाग्र कर रहा था। उसी समय दासी ने फूलों का सुगंधित होने पर उसे अनुभव हुआगुलदस्ता भेंट किया। वाह कितना
इस प्रकार के सुगंधित सुन्दर गुलदस्ता है।
गुलदस्ते और नाटक के मनोहर दृश्य मैंने पहले भी
कहीं देखे हैं।
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गुलदस्ते में बनी हंस मयूर आदि की सुन्दर आकृतियाँ देखकर चक्रवर्ती का मन मुग्ध हो उठा।
सोचते-सोचते ब्रह्मदत्त अतीत की स्मृतियों में गहरा खो गया। उसे पुरानी घटनाएँ याद आने लगीं-वह मूर्छित होकर गिर पड़ा। होश आने पर बदहवास सा बड़बड़ाने लगा
दशार्णपुर में दास थे फिर बने कलिंजर में मृग-दीन, गंगा तट पर हंस युगल चाण्डाल बने काशी में हीन, देव लोक में देव बने फिर बिछड़ गये, हम कहाँ गये? #
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लोग आश्चर्य से उसका बड़बड़ाना सुनते रहे। # दासा दसण्णए आसी मिया कालिंजरे णगे। हंसा मयंग तीराए सोवागा दासि भूमिए। देवा य देव लोयम्मि आसि अम्हे महिढ़िया....
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करनी का फल कुछ देर बाद पूरे होश हवास में आने पर चक्रवर्ती गाँव-नगर गली-गली में लोग ये तीन पद बोलने ने अपने उद्घोषक को बुलाकर कहा
लगे, परन्तु आगे का चौथा पद कोई नहीं बना
सका। एक दिन एक माली दौडा-दौडा राज सभा जाओ ! पूरे राज्य में कविता के
में आया और बोलायह तीन पद सुनाकर लोगों से कहो, जो इसका चौथा पद
Mond महाराज ! श्लोक सुनायेगा मैं उसे १ लाख स्वर्ण
का चौथा चरण
सुनाओ! मुद्रायें दे दूंगा।
मिल गया। 2
सुजाओ!
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चक्रवर्ती ने आश्चर्यपूर्वक देखा और माली से पूछा
तुमने बनाई यह
कविता?
माली ने ब्रह्मदत्त को श्लोक का चौथा चरण सुनाया।
मेरे बगीचे में एक मुनि आये हैं। वे वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ खड़े थे। मैं बगीचे में काम करता-करता कविता के तीन पद
गुन-गुना रहा था। तब वे अचानक बोलेछठा जन्म हमारा # है यह। भाई-भाई
अलग हुए। 'वाह ! जरूर यही श्लोक
का चौथा चरण है।
नहीं महाराज! यह कविता मेरी
नहीं है।
#इमा णो छट्ठिया जाइ अन्नमन्मेण मा विणा
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करनी को फल चक्रवर्ती ने प्रसन्न होकर तुरन्त अपने गले का हार, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बगीचे में मुनि के दर्शन करने के लिए अँगूठी आदि उतारकर माली को पुरस्कार दिया- आया। मुनि को देखते ही ब्रह्मदत्त के हृदय में भाई का तुमने मुझ पर बहुत बड़ा
प्रेम उमड़ने लगा। वह मुनि के चरणों से लिपट गया। उपकार किया, अब चलो
भाई ! मेरे भाई ! उन मुनि के दर्शन करें। कहाँ है मुनि ?
चक्रवर्ती की यह हालत देखकर सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये। महारानी ने पूछामहाराज! आपको आज यह
तुम्हें नहीं मालूम हम पिछले क्या हो गया? मुनि के प्रति
पाँच जन्मों के सगे भाई हैं। इतना प्रगाढ़ स्नेह ! ये आपके
हमने पाँच जन्मों तक साथ-साथ/ भाई कैसे हुए।
सुख-दुःख भोगे हैं।
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सभी लोग आश्चर्यचकित होकर पूछने लगेमहाराज ! यह क्या कहानी । है। हमें भी कुछ बताइये!
मेरा हृदय भर रहा है, मैं नहीं बोल सकता, यह कथा तुम मुनिवर के मुख से
ही सुनो।
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करनी का फल महारानी और महामंत्री आदि ने मुनि से प्रार्थना । | एक दिन दोनों भाई खेत पर जुताई कर रहे की (मुनि कहानी सुनाते हैं, “आज से पाँच जन्म थे। दिन भर कठोर परिश्रम करने के बाद पहले की यह कहानी है। दशार्णपुर में एक | छोटा भाई बोलाब्राह्मण के घर में उसके दासी पुत्र दो भाई थे
चल थोड़ी देर वृक्ष की
| भैया, मैं तो इतना थक दिनभर खूब मेहनत मजदूरी करते थे।
(छाया में सो कर थकावट " गया हूँ। अब घर तक
दूर करते हैं भी नहीं जा सकता।
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| दोनों भाई एक वृक्ष के नीचे आकर लेट गये। तभी वृक्ष के कोटर में से एक काला साँप निकला और नींद में सोये दोनों भाइयों को उस लिया। दोनों भाइयों की तत्काल मृत्यु हो गई।
उनकी आत्मा वहाँ से प्रस्थान करके कलिंजर पर्वत के वनों में हरिण के रूप में जन्म लेती हैं।
एक बार दोनों हरिण छोने पानी पीने नदी के तट पर गये, एक शिकारी ने तीर मारकर इनको बींध दिया। दोनों हरिण शिशुओं ने वहीं प्राण त्याग दिये।
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करनी का फल
दोनों हरिण मरकर गंगा नदी के किनारे हंस बनें। हंसों का सुन्दर जोड़ा सरोवर में क्रीड़ा करता रहता था।
शिकारी ने बड़ी निर्दयता के साथ दोनों की गर्दन मरोड़ दी, छटपटाते हुए दोनों मर गये।
एक बार किसी शिकारी ने जाल फेंका। दोनों हंस उसके जाल में फँस गये।
दोनों हंसों की आत्मा ने वाराणसी में एक चाण्डाल के घर पुत्र रूप में जन्म लिया। बड़े का नाम चित्त और छोटे का नाम संभूत रखा गया ।
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एक बार वाराणसी के राजा ने उस चाण्डाल को आदेश दिया
यह पुरोहित नमुचि है हमारा घोर अपराधी । इसे श्मशान में ले जाकर मौत के घाट, उतार दो।
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करनी का फल | श्मशान में नमुचि चाण्डाल के सामने गिड़गिड़ाने लगा- चाण्डाल ने कुछ विचार मुझे मारो मत, तुम जो माँगोगे वही
किया फिर कहा- मेरे दो पुत्र मुझे जान से भी दे दूंगा। कहोगे वही करूंगा।
ज्यादा प्यारे हैं, तुम इनको संगीत आदि कलाएँ सिखाकर पण्डित बना दो, तो मैं
तुम्हे नहीं मारूंगा।
नमुचि दोनों चाण्डाल पुत्रों को नाटक-संगीत आदि कलाएँ एक दिन चाण्डाल ने नमुचि को अपनी पत्नी के साथ सिखाने लगा। दोनों भाई शीघ्र ही पारंगत हो गये। पापाचार करते देखा। उसे बहुत क्रोध आया। रात को
सोये-सोये वह क्रोध में बड़बड़ाने लगाAIMER
नीच, नमुचि ! जिस थाली में खाता है उसी में छेद कर रहा है। कल ही
छुरे से इसका सिर उड़ा दूंगा।"
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दोनों भाई पिता को क्रोध में बड़बड़ाता सुनकर | | घूमता-घूमता वह हस्तिनापुर के चक्रवर्ती सनत्कुमार कॉप गये। उन्होंने जाकर नमुचि को कहा- की सभा में पहुँचता है। उसकी विद्या और बुद्धिमानी
से प्रसन्न होकर चक्रवर्ती ने कहागुरु जी, आप यहाँ से भाग जाइये। अन्यथा कल सुबह बापू
आज से नमुचि राज्य ) आपको जान से मार डालेगा।
का महामंत्री होगा।
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नमुचि रात को ही घर से भाग गय।
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करनी का फल चित्त और संभूत दोनों भाई नगर के चौराहों पर लय ताल पूर्वक गाते-बजाते घूमने लगे। लोग उनकी सुरीली मीठी आवाज सुनकर मस्त हो जातेइनके सुर में तो अमृत छुपा है। मन होता है
बस सुनते ही रहें, सुनते ही रहें
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एक बार नगर में बहुत बड़ा मेला लगा। देश-विदेश के संगीत नृत्य में निपुण अनेक संगीतज्ञ आये। दोनों चाण्डाल पुत्र भी उसी मण्डली में घुसकर गाने लगे। लोग उनका स्वर सुनते ही झूमने लगे। तभी कुछ पण्डित लोग हाथों में लट्ठ लेकर आ गयेअरे! इस सभा में आकर इन चाण्डाल पुत्रों ने तो हमारा धर्म भ्रष्ट कर दिया। मार-मार कर
नगर से भगा दो।
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लोगों ने लाठियां, पत्थर, धूंसे, मुक्क मारकर दोनों को लहुलुहान कर दिया।
दोनों भागते-भागते एक सुनसान जंगल में | दोनों पहाड़ी पर चढ़कर छलाँग लगाने को तैयार होते छप गये। चित्त बोला
हैं। तभी एक तपस्वी दूर से उनको पुकारते हैंभाई ! ऐसा. अपमानित
भद्र ! क्या कर रहे जीवन जीने से तो
हो? क्यों इस पहाड़ी मरना अच्छा है।
से कूदकर मरना
चाहते हो?
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करनी का फल दोनों भाईयों ने डरते-डरते सारी बातें बताईं तपस्वी ने
तो फिर क्या करें?/ तपस्या करो ! समझाया
ऐसे दुःखी जीवन से / साधना करो ! तप भद्र ! शरीर को नष्ट कर देने से कष्टों का अन्त हम ऊब चुके हैं। की अग्नि से कर्म नहीं होगा। ये कष्ट अगले जन्म में फिर तुम्हारा पीछा
जलते हैं। तभी तुम करेंगे, जैसे शिकारी शिकार का पीछा करता है। वैसे ही
दुःखों से छुटकारा कर्म प्राणी का पीछा करते हैं
पा सकोगे।
मुनि के बताये अनुसार दोनों भाई साधु बन गये और जंगल में तप-ध्यान करने लगे। एक बार दोनों मुनि घूमते हुए हस्तिनापुर के बाहर एक बगीचे में आकर तप करने लगे। संभूत मुनि मास खमण के तप का पारणा लेने नगर में गये। राजपुरोहित नमुचि जो भाग गया था और हस्तिनापुर में आकर यहाँ के चक्रवर्ती राजा सनत्कुमार का मंत्री बन गया था उस नमुचि ने संभूत को मुनिवेश में देखकर पहचान लिया-"अरे ! यह तो वही चाण्डाल पुत्र है। कहीं राजा के पास मेरा भेद प्रकट कर दिया तो सारी पोल खुल जायेगी।" मंत्री ने अपने सैनिकों को आदेश दिया-"राजमार्ग पर यह जो साधु घूम रहा है। वह ढोंगी और पाखण्डी है, इसे पकड़कर नगर के बाहर ले जाओ, और मार-पीट कर भगा दो।" राज सेवकों ने तपस्वी संभूत मुनि को रस्सों से, बैंतों से पीटना शुरू किया। मुनि ने शान्तिपूवर्क कहा-भाई ! क्या बात है, मैंने तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया। मुझे क्यों मार रहे हो?
रामपुरुषों ने कहा-तुम ढोंगी हो, पाखण्डी हो, तपस्वी के वेश में चाण्डाल हो बार-बार रोकने पर भी जब राजपुरुषों ने मुनि को पीटना बन्द नहीं किया तो संभूत मुनि को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा-दुष्टों ! मेरी शान्ति और क्षमा को भी तुम कायरता और पाखण्ड समझ रहे हो, ठहरो ! उन्होंने अपना मुँह खोला-मुख से आग की लपटें उगलती हुई तेजोलेश्या प्रकट हुई। क्षण भर में आकाश धुएँ से भर गया। राजसेवक डरकर भाग गये। परन्तु मुनि का कोप शान्त नहीं हुआ। उनके मुख से धुएँ के गुब्बारे निकलकर पूरे नगर पर छा गये। नगरवासी चीखने चिल्लाने लगे-हाय, क्या हुआ? दम घुट रहा है। यह धुआँ कहाँ से आ रहा है? (मैं) चित्त मुनि भी वहीं पर ध्यान कर रहा था। आकाश में उठती अग्नि ज्वालाएँ और धुएँ का गुब्बार देखता रहा। मैं शीघ्र ही संभूत मुनि के पास आया
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事
भ्रात ! यह क्या किया तुमने? क्रोध में आकर अपनी तपस्या का धुआँ मत उड़ाओ। क्षमा और शान्ति ही अणगार का धर्म है। क्षमा करो ! शान्त हो जाओ ! क्रोध करके तप को नष्ट मत करो।
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चित्त मुनि के समझाने पर संभूत मुनि को अपने किये पर पश्चात्ताप हुआ-भ्रात ! मैं अपने आपको भूल गया। क्रोध में बहक कर अपने तप को नष्ट कर दिया। संभूत मुनि ने अपनी तेजोलेश्या वापस खींचली। कुछ ही देर में धुएँ के गुब्बार शान्त हो गये।
करनी का फल
सैनिकों ने बताया- "मंत्री नमुचि के आदेश से हमने मुनि को पीटा है।"
चक्रवर्ती ने क्रोधित होकर आदेश दिया-इस दुष्ट को रस्सों से बाँधकर चोर की
事
तरह नगर में घुमाकर मेरे सामने लाओ ! फिर उसने दुष्ट नमुचि को मुनि के सामने लाकर खड़ा किया
• पूज्य तपस्वी जी, आपका अपराधी सामने खड़ा है, आज्ञा दीजिये इसे क्या दण्ड
5 दूँ?
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इधर सनत्कुमार चक्रवर्ती को सूचना मिली-"सैनिकों ने एक श्रमण को बहुत मारा है, वे ही मुनि क्रुद्ध होकर नगर को तेजोलेश्या से भस्म कर रहे हैं। चक्रवर्ती ने पता लगाया-किस दुष्ट ने यह नीच कर्म किया?
नमुचि गिड़गिड़ाकर संभूत मुनि के चरणों में झुक गया-“क्षमावीर ! मुझ अपराधी को क्षमा दो ! मेरी नीचता माफ करो।"
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संभूत मुनि बोले - "राजन् ! अपराधी पर क्षमा करना ही मुनि का धर्म है। इसे मुक्त कर दो।"
चक्रवर्ती मुनि की क्षमाशीलता पर बहुत प्रसन्न हुआ। वह भक्ति पूर्वक मुनि की वन्दना करने लगा। 事
सनत्कुमार चक्रवर्ती का विशाल राज परिवार, सुन्दर रमणियाँ आदि अपार वैभव देखकर संभूत मुनि का मन चंचल हो उठा। उन्होंने मन ही मन संकल्प कर लिया"यदि मेरी तपस्या का कोई फल हो तो मैं भी अगले जन्म में ऐसे ही विशाल वैभव का स्वामी बनूँ ।"
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चित्त संभूत दोनों मुनि वहाँ से आयु पूर्ण कर नलिनीगुल्म विमान में देवता बनते हैं। दिव्य देव सुखों का उपभोग करके वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर संभूत का जीव कम्पिलपुर के ब्रह्म राजा का पुत्र ब्रह्मदत्त बनता है। मैं (चित्त) पुरिमताल नगर में एक श्रेष्ठी पुत्र बनता हूँ। पूर्वजन्म के तप-ध्यान-साधना के शुभ संस्कारों के कारण मेरा मन सांसारिक विषय-भोगों से विरक्त हो गया। युवावस्था में ही मैं मुनि बन गया। गाँव-गाँव विचरता हुआ इस बगीचे में आया हूँ। माली के मुख से जब ये गाथाएँ सुनी तो मुझे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। मैंने अपने पाँचों जन्म देख लिए। तब मैंने माली को यह चौथा पद सुनाया
"इमाणो छट्टिया जाइ अण्णमण्णेहि जा विणा ।”
पाँच जन्मों तक हम साथ रहे, किन्तु छठे जन्म में दोनों अलग-अलग हो गये।
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करनी का फल
मुनि के मुख से पाँच जन्मों की कहानी सुनकर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने भाव-विह्वल होकर कहाभी लोग चकित हो गये
कर्मों के कारण जीव कैसे-कैसे सुख-दुःख पाता है ?
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| मुनि ने कहा
चक्रवर्ती ! तुम जान-बूझकर भूल कर रहे हो। हमने कर्मों के कारण ही पूर्व जन्मों में इतने कष्ट भोगे, उन अशुभ कर्मों का नाश तप के द्वारा ही हुआ। अब फिर भोगों में आसक्त होकर हिंसा/ आदि क्रूर कर्म मत करो
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मुनिवर ! जैसे हाथी किसी गहरे दल-दल में फँस जाता है, और निकलने का भरसक प्रयत्न करने पर
भी वह उस कीचड़ से निकल नहीं पाता, वही दशा मेरी हो रही है।
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मुनिवर ! यह विशाल ऐश्वर्य आपका ही है, इस युवावस्था में आप भी इसका उपभोग करें। बुढ़ापा आने पर संयम लेकर आत्म-साधना कर लेना
ब्रह्मदत्त ने कहा
मुनिवर ! यह तो मैं भी जाता हूँ कि हिंसा आदि का अन्तिम परिणाम दुर्गति ही है, परन्तु
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करनी का फल चित्त मुनि ने कहा
भ्रात ! आपका राजन् ! तुम यदि इन भोगों का त्याग नहीं कथन सत्य है, कर सकते हो तो कम से कम अच्छे कर्म तो परन्तु फिर भी मैं करो, जिससे तुम अगले जन्म में नारकीय यह सुख-वैभव छोड़ दुःखों की पीड़ा से बच सकोगे।
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राजन् ! इतना याद रखना ! अच्छे कर्मों का अच्छा और बुरेकर्मों का बुरा फल मिलता है। संसार का यह
अटल नियम है
यह कहकर चित्त मुनि वहाँ से उठकर चले गये।
ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती लौटकर अपने महलों में आ गया और राजसी ऐश्वर्य और भोग विलास में इब गया।
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करनी का फल
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एक बार ब्रह्मदत्त के पिता का परिचित एक चक्रवती ने चकित होकर कहा- JOणन ब्राह्मण रामसभा में आया। ब्राह्मण द्वारा की गई
विप्रदेव ! वह भोजन बड़ा गरिष्ट स्तुति से प्रसन्न होकर ब्रह्मदत्त बोला
और उत्तेजक है "आप हजम नहीं विप्रदेव ! आपको
/ महाराज ! मेरी इच्छा है। कर सकोगे? कुछ और माँग लो।। क्या चाहिए? जो
आपके लिए जो स्वादिष्ट इच्छा हो माँग लो।
भोजन बना है, आज पूरे परिवार के साथ मैं वही|
राजन् ! बस
यही मेरी एक भोजन करूं?
इच्छा है।
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चक्रवर्ती ने अपने रसोईये को आदेश दिया। किन्तु उस गरिष्ठ भोजन के प्रभाव से सभी में ब्राह्मण की पत्नी, पुत्री, पुत्र, पुत्रवधू सभी ने भयंकर कामोत्तेजना जाग उठी। पुत्री-पुत्रवधू का वह अत्यन्त गरिष्ठ भोजन किया
शर्म-लिहाज भूलकर सभी पशु की तरह काम-क्रीड़ा
करने लगे। वाह! क्या स्वादिष्ट भोजन
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करनी का फल दूसरे दिन जब उस भोजन का नशा उतरा तो ब्रामण परिवार को ब्राह्मण को ब्रह्मदत्त पर बहुत क्रोध आयाअपने दुराचरण पर बहुत लज्जा आई। ग्लानि से अपना-अपना
YYY मुँह छिपाकर सभी जंगल में इधर-उधर भाग गये।
इस दुष्ट राजा के दूषित अन्न
से मेरे समूचे परिवार की बुद्धि भ्रष्ट हो गई। इसने मुझे पतित और भ्रष्ट कर दिया। मैं
उसका बदला लूंगा।
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| प्रतिशोध की आग में जलते हुए ब्राह्मण ने एक दिन वन में एक गड़रिये को देखा। वह गिलोल से पत्थर के छोटे-छोटे कंकर फेंककर बड़ के हरे-हरे पत्ते नीचे गिरा-गिराकर अपनी बकरियों को चरा रहा था। गड़रिये की अचूक निशाने बानी देखकर ब्रामण सोचने लगा
इस गड़रिये द्वारा मैं ब्रह्मदत्त से अपने पैर का बदला ले सकता हूँ। AM
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उसने गड़रिये को धन का लालच देते हुए कहादेख, छत्र-चमरधारी जो व्यक्ति हाथी की सवारी पर निकले उसकी दोनों आँखें
एक साथ फोड़ देना।
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करनी का फल भोला गड़रिया ब्राह्मण की बातों में आ गया। जब राजमार्ग से चक्रवर्ती की सवारी निकल रही थी तो उसने निशाना साध कर गिलोल से दो गोलियाँ फेंकी और चक्रवर्ती की आँखें फोड़ डालीं।
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सैनिकों ने तुरन्त गड़रिये को पकड़ लिया। गुप्तचरों ने तुरन्त उस ब्राह्मण को पकड़कर चक्रवर्ती के सामने हाजिर किया। क्रुद्ध चक्रवर्ती ने
पीटने पर गड़रिया बोला
मुझे मत मारो ! मेरा
कहा
कोई कसूर नहीं है। मुझे ऐसा करने के लिए उस ब्राह्मण ने कहा था।
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दुष्ट ! तू तो साँप से भी ज्यादा नीच निकला, ऐसे नीच विश्वासघाती को कठोर से कठोर दण्ड दो, इसके समूचे परिवार को मार डालो।
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करनी का फल ब्राह्मण के पूरे परिवार को मौत के घाट उतारकर भी ब्रह्मदत्त की बदले की हिंसा भावना शान्त नहीं हुई। वह समूची ब्राह्मण जाति से ही द्वेष और घृणा करने लगा। उसने आदेश किया
ब्राह्मणों की आँखें निकाल-निकाल कर थाल में भरकर मेरे सामने लाओ ।
बुद्धिमान मंत्री ने सोचा
चक्रवर्ती के मन प्रतिशोध की
अग्नि धधक रही है, समझाने से बुझेगी नहीं ।
| उसने लसोड़े (लेसवा) की गुठलियाँ निकाल कर उनसे थाल भरकर राजा के सामने रखा गुठलियों के चिपचिपेपन के | कारण अन्धे महाराज ने उसे ही आँखें समझा-अत्यन्त क्रूरतापूर्वक वह उन्हें मसलता और अपनी आँखें फोड़ने के बदले की भावना से मन में सन्तोष अनुभव करता ।
इसप्रकार जीवन के अन्तिम समय में अंधा ब्रह्मदत्त क्रूर और रौद्र हिंसक भावनाओं में जलता-जलता आयुष्य पूर्ण कर सातवें नरक में गया।
समाप्त आधार : उत्तराध्ययनसूत्र अ. १२, त्रिषष्टिशलाका. पर्व ९, सर्ग १
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भगवान पार्श्वनाथ के प्रगट प्रभावक, असीम आस्थारूप, श्वी उवसग्गहरं स्तोत्र की पावन अनुभूति करानेवाला, पोजीटीव एनर्जी के पावरहाउस समान, दिव्य और नव्य
पावनता का प्रतीक - पारसधाम.
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ॐ महानगरी मुंबई के हृदय समान घाटकोपर में पूज्य गुरुदेव
श्री नम्रमुनि म.सा. प्रेरित ज्ञान, ध्यान और साधना का एक अनोखा आधुनिक तकनीकी द्वारा तैयार किया गया धाम... पारसधाम..! पारसधाम... एक ऐसा धाम, जहाँ परमात्मा पार्श्वनाथ के दिव्य परमाणु और पूज्य गुरुदेव की अखंड साधना शक्ति के अध्यात्मिक Vibrations प्रतिपल प्रेरणा के साथ परम आनंद और परम शांति की अनुभूति कराता है। यहाँ मानवता की सपाटी से अध्यात्म के मोती तक की गहराई मिलती है। यहाँ है महाप्रभावक श्री उवसगहरं स्तोत्र की प्रभावक सिद्धीपीठिका जो मनवांछित फल देती है..! क यहाँ है ऐसी कक्षाएं जहाँ Look n Learn के बच्चे अध्यात्म
ज्ञान प्राप्त करते हैं। यहाँ है अध्यात्म ध्यान साधना की शक्ति का प्रतीकरूप पीरामीड
साधना केन्द्र। • यहाँ है शांतिपूर्ण विशाल प्रवचन कक्ष जहाँ संतो के एक एक शब्द
अंतर को स्पर्श करते हैं। यहाँ है स्पीरीच्युअल शोप जहाँ उपलब्ध है अध्यात्म ज्ञान, साधना
और प्रवचन आदि की पुस्तके और C.D.,V.C.D. 9 यहाँ है एक अति आकर्षक आर्ट गैलेरी जहाँ आगम के रंगीन चित्रों की प्रदर्शनी आपके दर्शन को शुद्ध कर देगी। ___महाप्रभावक श्री उवसग्गहरं पार्श्वनाथ परमात्मा की स्तुति के अखंड आराधक पूज्य गुरुदेव श्री नम्रमुनि म.सा. की साधना के तरंगो से समृद्ध पारसधाम अध्यात्म की आत्मिक अनुभूति करानेवाला आधुनिक धाम है जो जैन समाज की उन्नति और प्रगति के लिए | एक अनोखी मिसाल है।
यहाँ के नीति और नियम भो अपने आपमें विशेष महत्त्व रखते हैं।
यहाँ आनेवाली व्यक्ति को गुरुदर्शन और गुरुवाणी के लिए प्रथम 10 मिनिट ध्यान कक्ष में ध्यान साधना करके अपने मन और विचारों को शांत करना जरूरी है। तभी गुरुवाणी अंतरमे उतरेगी...!
मौन, शांति और अनुशासन यहाँकेमुख्य नियम हैं । यहाँ आनेवाले भक्तों का अनुशासन ही उनकी अलग पहचान है। पारस के धाम में पारस बनने के लिए आईए पारसधाम..!
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PARA SDHAM
Vallabh Baug Lane, Tilak Road, Ghatkopar (E), Mumbai - 400 077. Tel: 32043232.
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________________ पूज्य गुरुदेव श्री नममुनिजी म.सा. की प्रेरणा एवं मार्गदर्शन से प्रकाशित दस वर्षीय सदस्यता शुल्क 500 रुपये LOOK LOOK LEARN Jet live FORGIVENESS TA LOOK सचित्र बाल Magazine LEMN Lookn Learn (पाक्षिक) प्रत्येक अंक अपनी एक मौलिक विशेषता के साथ प्रकाशित किया जाता है। LEARN आज के बच्चे जो इंग्लिश माध्यम में पढ़ते हैं और जिन्हें ज्यादातर कार्टून, पिक्चर और Computer में ही रस है उनको जैनधर्म का ज्ञान उन्हीं की पद्धति से... उन्हीं की पसंद अनुसार कार्टन पिक्चर द्वारा, इंग्लिश. गजराती और हिन्दी भाषा में देने के लिए Look n Learn बच्चों की एक Magazine हर पंद्रह दिन में प्रकाशित की जाती है। इस पत्रिका में बच्चों के लिए भगवान महावीर का बोध छोटी-छोटी कहानीयों द्वारा, भगवान का जीवन चरित्र, आगम आधारित कहानीयाँ रंग भरो प्रतियोगिता. प्रश्र-कसौटी द्वारा ज्ञान, जैनधर्म का तत्त्वज्ञान, जैनधर्म के नियम और पूज्य गुरुदेव की मौलिक और सरल शैली में उनका तार्किक समाधान दिया जाता हैं / साथ में हर अंक में इनाम जीतने का अवसर..! बच्चों को यह पत्रिका इतनी पसंद है कि वे एक अंक पढ़ने के साथ ही दूसरे अंक की प्रतीक्षा करने लगते हैं / LOOK LEARN LEARN CHILDRENS JAN MAGALNE Took EARN LEARN Mahavir Jayanti The feachangsel Lordi GREEDY CHILDRENS IN MAGAZINE CHILDREN'S JAIN MAGAZINE CHILDREN'S JAIN MAGAZINE LOOK LOOK CELEBRATION OF LEAM MOCRACKERICISTRUE.4. 0000000000 N GURU II 00000000000 ron.. no... 0000L... Danne... Ion....." hemail Ranajagarat... mpireena... m aly. mallectirand Most imurnoTORY...play latemeiplease... Thermensat the programmehtvaryanarays, # Love me the programme from the bottom of my heart Frem next year I will wind this type of programme only! The F.R.I.E.N.D.S. magic personality..! RS/Concamdopargrammges पत्रिका मंगवाने के लिए सदस्यता शुल्क अर्हम युवा ग्रुप के नाम से चेक / ड्राफ्ट द्वारा निम्न पते पर भेजे। LOOK N LEARN : ASHOK R. SHETH, TEL.: 25162440 5, Munisuvrat Ashish Building, cama lane, Ghatkopar (W), Mumbai - 400 086.