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________________ पच्चीसवां प्रवचन दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष For Private & Pesanal Use Only
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________________ नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे। चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई।।६२।। नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा। अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं / / 63 / / हयं नाणं कियाहीणं, हया अण्णाणओ किया। पासंतो पंगुलो दड्डो, धावमाणो य अंधओ।।६४।। संजोअसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ। अंधो य पंगु य वणे समिच्चा, ते संपडत्ता नगरं पविट्ठा।।६५।।
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________________ णेण जाणई भावे-ज्ञान से मनुष्य जानता है। रखना। अधिक लोगों ने जीवन के आधार ज्ञान पर रख लिए हैं। / दंसणेण य सद्दहे-दर्शन से श्रद्धा उत्पन्न होती है। तर्क से, विचार से, बुद्धि से जो बात ठीक लगी है-सोचा, उसे चरित्तेण निगिण्हाइ-चरित्र से निरोध होता है, स्वीकार कर लें। लेकिन जो तर्क से ठीक लगा है वह हृदय तक निषेध होता है। | न जा सकेगा, क्योंकि तर्क की पहुंच हृदय तक नहीं। तर्क तो तवेण परिसुज्झई-और तप से मनुष्य विशुद्ध होता है। सिर्फ खोपड़ी की खुजलाहट है; बहुत ऊपर-ऊपर है। प्राणों को ज्ञान से हम जानते हैं। लेकिन जानना काफी नहीं है। जानना आंदोलित नहीं करता तर्क। बहुत ऊपर-ऊपर है। मात्र जान लेने से श्रद्धा पैदा नहीं होती। तर्क के लिए कभी किसी ने प्राण दिये? तर्क के लिए कभी जब तक कि स्वयं दर्शन न हो जाये, जब तक कि खुद की आंखों कोई शहीद हुआ? तुम जिसके लिए मर सको, वही तुम्हारी से हम न देख लें-तब तक श्रद्धा नहीं होती। श्रद्धा है। तुम जिसके बिना जी न सको, वही तुम्हारी श्रद्धा है। महावीर ने देखा; हमने सुना। जो सुनकर जान लिया, उससे तुम कहो जीयेंगे तो इसके साथ, इसके बिना तो मृत्यु हो श्रद्धा पैदा नहीं होगी। कृष्ण ने कहा; हमने सुना। मान लिया जायेगी वही श्रद्धा है। जो जीवन से भी बड़ी है, वही श्रद्धा सुनकर। उससे श्रद्धा पैदा नहीं होगी। और अगर तुमने श्रद्धा | है। जिसके लिए जीवन भी निछावर किया जा सकता है, वही किसी भांति आरोपित कर ली तो तुम भटक जाओगे। क्योंकि | श्रद्धा है। झठी श्रद्धा जीवन को रूपांतरित नहीं करती। वही लक्षण है झठी तर्क के लिए तुमने कभी किसी को जीवन निछावर करते श्रद्धा का, कि जीवन तो कहीं और जाता है, श्रद्धा कुछ और देखा? दो और दो चार होते हैं—इस सत्य का अगर कोई कहती है। श्रद्धा कहती है, त्याग; और जीवन धन को इकट्ठा प्रतिपादन करता हो और तुम तलवार लेकर खड़े हो जाओ, तो करता चला जाता है। तो श्रद्धा झूठी है, मिथ्या है। क्या वह सत्य की रक्षा के लिए अपने जीवन को देना चाहेगा? जब जीवन और श्रद्धा साथ-साथ चलने लगे, जब जीवन मूढ़तापूर्ण मालूम पड़ेगा। श्रद्धा के पीछे छाया की भांति चलने लगे, तभी जानना की श्रद्धा दो और दो चार होते हैं, इसके लिए मरने में कोई सार न मालूम सच्ची है। होगा। वह कहेगा कि तुम्हारी मर्जी, दो और दो पांच कर लो कि तो महावीर कहते हैं, श्रद्धा मौलिक है। श्रद्धा से जो ज्ञान दो और दो तीन कर लो; लेकिन दो और दो चार कोई ऐसी बात आविर्भूत हो, वही ज्ञान है। और जब श्रद्धा से ज्ञान आविर्भूत नहीं जिसके लिए मैं जीवन को गंवा दूं। होगा तो ज्ञान से चारित्र्य अपने-आप निष्पन्न होता है। प्रेम के लिए कोई जीवन को गंवा सकता है। इसलिए श्रद्धा जीवन का आधार ज्ञान पर मत रखना-दृष्टि पर, दर्शन पर प्रेम की भांति है। महावीर कहते हैं, श्रद्धा पर जीवन को खड़ा 537
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________________ जिन सूत्र भागः1 करना। महावीर की श्रद्धा को समझ लेना। उनका विशेष शब्द राजी हो जाते हैं। विश्वास मरा हुआ है, लाश है। है: श्रद्धान। यह तुम जिसे साधारणतः श्रद्धा कहते हो उससे हां, महावीर को दिखायी पड़ा होगा। जो उन्होंने कहा वह महावीर का कोई प्रयोजन नहीं है। लोग कहते हैं, हमारी तो उनकी श्रद्धा थी; जो तुमने सुना वह तुम्हारा विश्वास है। ईश्वर में बड़ी श्रद्धा है। जिसे तुमने देखा नहीं, श्रद्धा होगी इसलिए खयाल रखना, अगर मैं कुछ कह रहा हूं तो वह मेरी कैसे? श्रद्धा कान से नहीं होती, श्रद्धा आंख से होती है। श्रद्धा है। और तुमने अगर सुनकर मान लिया तो तुम धोखे में इसलिए श्रद्धान का दूसरा नाम महावीर 'दर्शन' कहते हैं। पड़ गये। तुम्हारे लिए वह विश्वास होगा। चूंकि मेरे लिए श्रद्धा श्रद्धान और दर्शन महावीर की भाषा में पर्यायवाची हैं; एक ही है, इसलिए तुम्हारे लिए श्रद्धा न हो जायेगी। जैसा मैंने देखा, अर्थ रखते हैं, उनमें जरा भी फर्क नहीं है। तुम भी देखो। इसलिए तुम कहते हो, ईश्वर में हमारी श्रद्धा है। देखा? तो मैं तुम्हें श्रद्धा नहीं दे सकता; मैं तुम्हें सिर्फ कुछ इशारे दे अनुभव किया? स्पर्श हुआ? जीये उसमें? तुम्हारा हृदय सकता हूं, जिनसे तुम भी आंख खोलो और देखो। जब तुम देख उसके साथ धड़का? तुम नाचे उसके साथ? कोई पहचान है? लोगे तभी श्रद्धा होगी। फिर तुम्हारे देखे को कोई छीन न नहीं, तुम कहते हो मान्यता है। और लोग कहते हैं, बड़े बुजुर्ग सकेगा। क्योंकि देखते ही हृदय में विराजमान हो जाता है। कहते हैं, सनातन से चली आयी बात, परंपरा में है। लेकिन इसलिए महावीर ने श्रुतियों को, स्मृतियों को, सभी को इनकार इससे श्रद्धा पैदा न होगी। यह तुम्हारा विश्वास है, श्रद्धा नहीं। कर दिया; वेद को इनकार कर दिया। यह शब्द विचारणीय है। विश्वास और श्रद्धा का भेद यही है। विश्वास उधार; श्रद्धा हिंदू कहते हैं, वेद उपनिषद श्रुतियां हैं। सुना ऐसा हमने; ऐसा अपनी। श्रद्धा होती है निज की, विश्वास ऐसा है जैसे बाजार से सदपुरुषों ने कहा; ऐसा जो जागे, उनका बोध है-श्रुति! फिर खरीद लाए कागज या प्लास्टिक के फूल और घर को सजा हमने उसे याद रखा; सदियों सदियों तक सम्हाला धरोहर की लिया। श्रद्धा ऐसे है जैसे बीज बोया, वृक्ष को सम्हाला, पानी तरह-स्मृति! सभी शास्त्र पहले श्रुति बनते, फिर स्मृति बन दिया, खाद दी-फिर एक दिन फूल आये और हवाएं सुगंध से जाते। महावीर ने कहा, न श्रुति न स्मृति-श्रद्धा। भर गयीं। शास्त्र को तुम्हें स्वयं ही निर्मित करना होगा। तुम्हारा शास्त्र श्रद्धा के फूल तुम्हारे जीवन में लगते हैं—उधार और बासे तुम्हें जन्म देना होगा। ऐसे गोद लिए शास्त्र काम न पड़ेंगे। नहीं; किसी और से नहीं; मांगे हुए नहीं। फर्क देखा! एक स्त्री मां बनती है-गोद लेकर मां बन जाती विश्वास बड़ा सस्ता है। इतने सस्ते तुम सत्य को न पा है। ऐसा मां बनने का धोखा देती है। न तो गर्भ रहा, न गर्भ की सकोगे। सत्य जो सर्वोपरि है, उसे तुम विश्वास से न पा पीड़ा सही, न नौ महीने के लंबे कष्ट भोगे, न वमन हआ, न दर्द सकोगे। उधार कब किसने सत्य को जाना है। उठा, न मितली आयी, न बोझ सहा, फिर प्रसव की पीड़ा भी न उपनिषद कहते हैं : सत्यम् परं, परं सत्यम्; सत्य सर्वोत्कृष्ट है सही, कि जैसे प्राण संकट में पड़े, कि बचेंगे कि न बचेंगे।...उस अज्ञात जीवन के लिए जो पेट में है अपने ज्ञात कैसे पा सकोगे? अपने को दांव पर लगाना होगा। इसलिए मैं | जीवन को दांव पर लगाया—उस अनजान के लिए जो अभी कहता हूं, दुकानदार सत्य तक नहीं पहुंचते; जुआरी पहुंचते हैं। आया नहीं; कौन है, कैसा है, कुछ पता नहीं है; जो ज्ञात है, क्योंकि सत्य की पहली शर्त यह है: अपने को गंवाओ तो परिचित है, पहचाना है, उसको खतरे में डाला; अपने प्राण मिलेगा; दांव पर लगाओ तो मिलेगा। यह बिलकुल जुए जैसा जोखिम में डाले। है। मिलेगा कि नहीं, यह पक्का नहीं है। तुम तो गंवा दोगे अपने तो एक तो मां बनती है गर्भ को धारण करके। फिर होशियार को, तब मिलेगा। गंवाने के पहले कोई सुनिश्चित नहीं कर लोग हैं। वे कहते हैं, 'इतनी परेशानी में क्या पड़ना! बच्चे तो सकता कि मिलेगा ही। गोद भी लिए जा सकते हैं।' गोद ले लो। लेकिन गोद लेने में इसलिए दुकानदार, गणित, तर्क बिठानेवाले लोग विश्वास से और गर्भ लेने में बड़ा फर्क है। कामचलाऊ मां पैदा हो जायेगी. 538
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________________ नि, ज्ञान, चरित्र-और माक्ष लेकिन असली मां पैदा न होगी। क्योंकि असली मां तो तभी पैदा चित्त की मालूम पड़ेगी। जिद्दी। हठाग्रही! एकांतवादी! होती है जब बच्चा पैदा होता है। समझदार आदमी तो समझौतावादी होता है। बुद्धिमान तो सभी जब बच्चा पैदा होता है तो दो चीजों का जन्म होता है-बच्चे | समझौतावादी होते हैं। वे कहते हैं, जहां पूरा न मिलता हो वहां का और मां का। एक तरफ बच्चा पैदा होता है, दूसरी तरफ मां | आधा ले लो। तो मनोवैज्ञानिक उस स्त्री को-जो कहेगी कि पैदा होती है। अभी कल तक जो एक साधारण स्त्री थी, ठीक है, मैं आधा लेने को राजी हूं-कहेगा स्वस्थ है, नार्मल अचानक मां बन जाती है। बच्चे को तुमने गोद में ले लिया तो | है। और यह स्त्री तो आब्सैस्ड है, जो कहती है पूरा लूंगी, नहीं तो बच्चा तो कभी पैदा नहीं हुआ; तुमसे तो पैदा नहीं हुआ। तो मां पूरा दे दूंगी, यह तो पागलपन से भरी है। बनने का धोखा पैदा होता है। तो उस मनोवैज्ञानिक ने कहा है, अगर आज यह घटना घटे तो विश्वास ऐसा ही है-गोद लिया हुआ सत्य। श्रद्धान, श्रद्धा अमरीका की अदालत बच्चा उसको दे देगी जो आधा लेने को ऐसे है-जन्म दिया हुआ सत्य। और कोई दूसरा तुम्हारे सत्य राजी थी, क्योंकि वह पागल नहीं है। तर्कयुक्त है उसका उत्तर, को कैसे जन्म दे सकेगा! विचारपूर्ण है। यह कौन-सी समझदारी है कि अगर पूरा न बड़ी पुरानी कहानी है सोलोमन के जीवन में। दो स्त्रियां मिलता हो तो आधा भी छोड़ दो। जितना मिलता हो उतना तो ले सोलोमन की अदालत में आयीं। वे दोनों दावा कर रही थीं एक लो! मध्यमार्ग चुनो। अति पर तो मत जाओ! ही बच्चे का कि वह उसकी मां है। बड़ी कठिनाई थी। कैसे तय जो लोग बुद्धि से चलते हैं, वे होशियारी से चलते हैं। जो किया जाये? सोलोमन ने कहा, ठीक है। एक-एक को पास | श्रद्धान से चलते हैं, वे दीवाने होते हैं। इसलिए तो बुद्धि के लिए बुलाया और कान में कहा कि सुन, तय करना तो मुश्किल हो रहा प्रेम सदा अंधा मालूम होता है। बुद्धि कहती है, थोड़ा सोचो, है। कोई गवाह नहीं, कोई चश्मदीद गवाह नहीं है। तो उचित समझो, विचारो, हिसाब बिठाओ। यही है कि आधा-आधा बच्चा बांट देते हैं। तो जिसका बच्चा | महावीर कह रहे हैं कि ज्ञान से तो मनुष्य केवल जानता है। था वह तो चीख मारकर रो उठी। उसने कहा कि नहीं, ऐसा मत जानना यानी परिचय बाहर-बाहर। हृदय तक बिधती नहीं करना; फिर पूरा ही उसे दे दो। लेकिन जिसका बच्चा नहीं था, बात। श्रद्धा से, दर्शन से बिधती है हृदय तक-रोएं-रोएं में उसने कहा कि ठीक है, न्याययुक्त है, तर्कयुक्त समा जाती है; श्वास-श्वास में प्रविष्ट हो जाती है। इसलिए तुम है-आधा-आधा बांट दो। जो चीख उठी थी। और जिसने ज्ञान को पकड़कर मत बैठे रह जाना।...नाणेण जाणई तर्क का सहारा न लिया था, हृदय का सहारा लिया था, उसने भावे-ज्ञान से तो बस जानना मात्र होता है। 'एक्वेंटेन्स'। कहा कि नहीं-नहीं, फिर उसे ही दे दो; मेरा नहीं है, उसी का है। | ऐसा परिचय बन जाता है। सोलोमन ने उसी को बेटा दे दिया। हृदय ने गवाही दे दी, | __ जैसे तुमने हिमालय के संबंध में कुछ बातें भूगोल की किताब किसका है! में पढ़ी हैं—क्या यह जानना वही है जो उसके लिए प्रगट होता यह तो कहानी पुरानी हो गयी। | है, जिसने हिमालय के दर्शन किए, जिसकी आंखों ने हिमालय एक मनोवैज्ञानिक का जीवन में पढ़ रहा था। उसने इस कहानी | की शीतलता को पीया, जिसकी आंखों ने हिमालय के सौंदर्य को के बाबत चर्चा की है। और उसने लिखा है अगर आज अमरीका अपने में प्रविष्ट होने दिया, जो हिमालय की घाटियों और की किसी अदालत में यह मामला आये और जज तय न कर शिखरों पर घूमा, जिसने हिमालय का स्पर्श किया? क्या यह पाये, तो वह मनोवैज्ञानिक को बुलायेगा। क्योंकि अब तो जानना वही है जो भूगोल की किताब से मिल जाता है? भूगोल अमरीका में मनोवैज्ञानिक से पूछा जाता है कि क्या करना, ये की किताब में तो कोरे कागजों पर स्याही के काले चिह्न हैं और दोनों स्त्रियां दावा करती हैं, इनमें कौन झूठी है? और कुछ भी नहीं। कहां वे स्वर्ण-शिखर! कहां वे बर्फ से ढंके हुए मनोवैज्ञानिक सोलोमन की तरकीब का उपयोग करें, तो जो स्त्री शीतल अछूते, कुंवारे लोक! कहे, कि 'लूंगी तो पूरा, नहीं तो पूरा दे दूंगी', वह थोड़ा रुग्ण आंखें-आंखें ही केवल सत्य को देख सकेंगी। कही-सुनी 539
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________________ जिन सूत्र भागः1 पर बहुत ध्यान मत देना। देखा-देखी बात! देखो तो ही कुछ जानना है? विवेकानंद झिझके! 'अभी जानना है कि थोड़ी देर बात हुई। लिखा-लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात। रुकोगे?' विवेकानंद ने कहा, मैंने सोचा नहीं। यह तो मैंने नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे। सोचा ही न था कि कोई इस तरह पूछेगा जैसे कि पास के कमरे में 'दर्शन से ही श्रद्धा उत्पन्न होती है।' है ईश्वर, दरवाजा खोला कि दिखा देंगे! श्रद्धा का अर्थ है, जुड़ गये तार तुम्हारे हृदय से; बात बुद्धि की रामकृष्ण ने कहा, उस कमरे से भी पास है। तुम्हारे भीतर है! न रही; बात केवल मत न रही, 'ओपिनियन' न रही। अब | मेरे भीतर है! तुम कहो तो मैं दिखा दं। और तमने अभी तैयारी न ऐसा नहीं कि ऐसा हम सोचते हैं-ऐसा है। श्रद्धा का अर्थ की हो तो सोचकर आ जाना।। हुआ : ऐसा है। ऐसा नहीं कि हम सोचते हैं; ऐसा नहीं कि और और इसके पहले कि विवेकानंद कुछ कहें-रामकृष्ण तो थोड़े लोग कहते हैं; ऐसा नहीं कि जाननेवालों ने कहा है; ऐसा नहीं पागल-से आदमी थे-उन्होंने विवेकानंद की छाती पर पैर लगा कि हमने सुना है-ऐसा है। दिया। विवेकानंद धड़ाम से गिर पड़े। बेहोश हो गये। घंटेभर विवेकानंद परमात्मा की खोज में भटकते थे। अनेक गुरुओं के बाद जब होश में आये तो कंप रहे थे पत्ते की तरह तूफान में! रोने पास गये। पूछा, ईश्वर है? विवेकानंद की निष्ठा और लगे। क्योंकि जो दिखाया, जो प्रतीति हुई उस घड़ी में, उसने विवेकानंद की जलती हुई खोज! जिससे पूछते वह घबड़ा | सारा, सारा जीवन बदल दिया। फिर रामकृष्ण से बहुत भागने जाता। वे बलशाली व्यक्ति थे। वे ऐसे पूछते कि अगर उत्तर की कोशिश की, बहुत भागने की कोशिश की, सब उपाय ठीक न मिला तो शायद चढ़ पड़ेंगे, शायद गर्दन दबा देंगे। किए–लेकिन भाग न सके। इस आदमी ने विवेकानंद की रामकृष्ण के पास भी गये। औरों ने ईश्वर के बाबत चर्चा की | आंखें किसी तरफ खोल दीं। थी। उसमें कई बड़े-बड़े लोग थे। उसमें रवींद्रनाथ के दादा थे; अब यह सवाल ज्ञान का न रहा। इसको महावीर श्रद्धान कहते वे महर्षि समझे जाते थे। उनके पास भी विवेकानंद पहुंच गये हैं। श्रद्धा हुई। यह गैर पढ़ा-लिखा आदमी रामकृष्ण, महर्षि थे। वे एक बजरे में रहते थे नाव में। आधी रात तैरकर नाव में देवेंद्रनाथ को हरा दिया। वे बड़े ज्ञानी थे, बड़े पंडित थे, चढ़ गए। पूरी नाव कंप गयी। वे ध्यान कर रहे थे अंदर। ब्रह्म-समाज के जन्मदाताओं में एक थे। लेकिन श्रुति थी, स्मृति दरवाजा धक्का देकर तोड़ दिया। भीतर पहुंच गये पागल की थी-श्रद्धान न था। तरह। आधी रात! पानी में सरोबोर! पूछा, 'क्या बात है। महावीर कहते हैं, ज्ञान से जाना जाता है; दर्शन से श्रद्धा होती युवक! कैसे आये?' तो विवेकानंद ने कहा, 'ईश्वर है?' तो है। और जब श्रद्धा होती है तो चरित्र का जन्म होता है। क्योंकि उन्होंने कहा, 'बैठो मैं तुम्हें समझाऊंगा।' विवेकानंद ने कहा, जिस पर श्रद्धा ही नहीं है वह तुम्हारे चरित्र में कभी न उतर 'मैं समझने नहीं आया। मैं यह जानना चाहता हूं, ईश्वर है? | सकेगा। उतार लोगे तो पाखंड होगा। ऊपर-ऊपर होगा। किसी ऐसा तुम्हें अनुभव हुआ है?' और को दिखाने को होगा। अंतर्तम में तुम विपरीत रहोगे, भिन्न झिझके महर्षि! विवेकानंद छलांग लगाकर नदी में कूद गये। रहोगे। बाहर के दरवाजे से एक, भीतर के दरवाजे से दूसरे बुलाया कि 'सुनो, आये...चले?' विवेकानंद ने कहा, झिझक रहोगे। कहोगे कुछ, करोगे कुछ। वह तुम्हारे चरित्र में न आ ने सब कह दिया। समझने में आया नहीं, जानने में आया नहीं। सकेगा। चरित्र में तो कोई बात तभी आती है जब श्रद्धा की भूमि मैं तो यह पूछने आया हूं कि तुमने देखा है? मैं किसी ऐसे में बीज पड़ता है। आदमी की तलाश में है, जिसका हाथ ईश्वर के हाथ में हो। जीसस ने कहा है, किसान बीज फेंकता है। कुछ रास्ते पर पड़ शास्त्र तो मैं भी पढ़ लूंगा। शास्त्र ही समझना हो तो तमसे क्या जाते हैं, जहां पथरीली जगह है: कभी उगते. समझेंगे, खुद ही पढ़ लेंगे। किनारे पड़ जाते हैं, जहां जमीन तो ठीक है, लेकिन लोग गुजरते फिर रामकृष्ण के पास भी वही सवाल किया था, कि ईश्वर हैं, पैरों में दब जाते हैं: उग भी आते हैं तो मर जाते हैं। कछ उस | है ? तो रामकृष्ण ने क्या उत्तर दिया? रामकृष्ण ने कहा, तुम्हें भूमि में पड़ते हैं, गीली, कोमल-जहां पैदा भी होते हैं, सुरक्षित 5401
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________________ / दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष भी रह जाते हैं। असत्य गिरता है; सत्य तो-जो शेष रह जाता है, असत्य के तो जब तक कोई ज्ञान तुम्हारी श्रद्धा न बन जाये, जब तक हृदय गिर जाने पर जो शेष रह जाता है, तुम्हारा स्वभाव, वही सत्य है। की भूमि में कोई बीज न पड़े, जब तक तुम्हारी दृष्टि में कोई बात इसलिए महावीर कहते हैं, चरित्र से सिर्फ निरोध होता है, सत्य की तरह अनुभव में न आ जाये तब तक चारित्र्य का, नकार होता है, व्यर्थ छूट जाता है। सार्थक तो है ही भीतर, व्यर्थ चरित्र का, आचरण का कोई रूपांतरण नहीं होता। हां, तुम से जुड़ गया है। सार्थक को लाना नहीं है। आयोजन करके, चेष्टा करके रूपांतरण कर सकते हो। बहुतों ने यही किया है। निमंत्रण देकर, अभ्यास करके लाना नहीं है सिर्फ व्यर्थ को ज्ञान से सीधा चरित्र निर्मित किया जा सकता है लेकिन वही देख लेना है। व्यर्थ को व्यर्थ की तरह देख लेना पर्याप्त है। व्यर्थ चरित्र पाखंडी, हिपोक्रेट का चरित्र है। जो ज्ञान से सीधा चरित्र व्यर्थ की तरह दिखा कि हाथ से छूटा, गिरा। फिर तुम उसे दुबारा पर चला गया, वह अपने ऊपर एक तरह का आरोपण कर न उठा सकोगे। और तुम जो उसके बिना रह जाओगे, वही सत्य लेगा। वह सत्य बोलेगा, लेकिन झूठ से उसकी मुक्ति न होगी। है, वही स्वभाव है। वह तुम सदा से थे। झूठ भीतर-भीतर उबलेगा, सत्य ऊपर-ऊपर थोपेगा। वह इसका अर्थ यह हुआ कि तुम ठीक तो हो ही, कुछ गलत से अहिंसक हो जायेगा, लेकिन हिंसा भीतर दावानल की तरह तुम्हारा संबंध जुड़ गया है। ठीक होना तो सदा से ही है; गलत जलती रहेगी। वह ब्रह्मचर्य का व्रत ले लेगा, लेकिन कामवासना से संबंध जुड़ गया है। गलत से संबंध छूट जाये, तुम ठीक तो थे रोएं-रोएं में मौजूद रहेगी। उसके व्रत ऊपर-ऊपर होंगे; जैसे ही। ऐसा नहीं है कि तुम गलत हो गए हो और तुम्हें ठीक होना वस्त्र हैं ऐसे होंगे; हड्डी, मांस, मज्जा न बनेंगे। है; ऐसा ही है कि सोने के ऊपर मिट्टी की तह बैठ गयी, धूल जम जब ज्ञान श्रद्धा के माध्यम से गुजरकर चरित्र तक पहुंचता है, गयी, दर्पण के ऊपर धूल बैठ गयी-बस धूल को हटा देना है, तब सम्यक चारित्र्य पैदा होता है। पोंछ देना है; दर्पण तो दर्पण है ही। धूल के भीतर शुद्ध दर्पण चरित्र से, जो व्यर्थ है उसका निरोध हो जाता है। चरित्र का मौजूद है। धूल ने दर्पण को खराब थोड़े ही किया है! धूल से इतना ही अर्थ है। महावीर के हिसाब से चरित्र का अर्थ है : व्यर्थ दर्पण नष्ट थोड़े ही हुआ है ! ढंक गया है-उघाड़ना है। का निरोध। इसे खयाल में लेना, क्योंकि महावीर की। इसलिए महावीर के लिए आत्मा एक आविष्कार है। सिर्फ नकारात्मक दृष्टि का बुनियादी हिस्सा है। महावीर यह नहीं | उघाड़ना है। जैसे राख में अंगारा छिपा हो-फूंक मारी, राख कहते कि तुम्हें ब्रह्मचर्य आरोपित करना है। ब्रह्मचर्य तो आत्मा गिर गयी, अंगारा रह गया। ऐसे ही दृष्टि की फूंक जब लग जाती का स्वभाव है; आरोपित करना नहीं। आरोपित तो इसलिए है, राख झड़ जाती है; जो शेष रह जाता है, वही चरित्र है। करना पड़ता है कि श्रद्धा से कभी वासना का सत्य, वासना की 'चरित्र से निरोध होता है और तप से विशुद्धि होती है।' व्यर्थता तुम्हें दिखायी नहीं पड़ी। सुना किसी को, ब्रह्मचर्य की | तप का मैंने तुम्हें कल अर्थ कहा, वह खयाल रखना। तप का बातें मधुर लगी, तुम्हारे अनुभव से भी थोड़ी मेल खाती लगीं। अर्थ है : जो दुख आयें उन्हें चुपचाप, बिना ना-नुच किये, बिना जीवन के दुख से भी तुम ऊब गये हो, परेशान हो गये हो। तो अस्वीकार किए स्वीकार कर लेना। लगा कि ठीक ही है, उचित ही है। ऐसा उचित मानकर तुमने तप का भी अर्थ इतना ही है कि पिछले-पिछले जन्मों में, दूर ब्रह्मचर्य आरोपण करना शुरू किया। तो ब्रह्मचर्य को विधायक की लंबी यात्रा में, हमने जो दुख के बीज बोए थे उनके फल पक रूप से आरोपित करना होगा, पाजिटिव रूप से आरोपित करना गये हैं। उन्हें कौन भोगेगा? उन्हें भोगना ही होगा। तो जिसे होगा। तुम्हें चेष्टा करके ब्रह्मचारी बनना होगा। भोगना ही है, उसे दुख से भोगना गलत है। जिसे भोगना ही है महावीर का कहना यह है, अगर तुम्हें दिखायी पड़ गया कि उसे सहज स्वभाव से, सरलता से, शांति से भोग लेना उचित वासना व्यर्थ है तो ब्रह्मचर्य आरोपित नहीं करना पड़ता; वासना है। क्योंकि अगर तुमने उसे दुख से भोगा तो तुमने फिर दुख के गिर जाती है, जो शेष रह जाता है वही ब्रह्मचर्य। इस भेद को बीज बोये। तुमने प्रतिक्रिया की। तुम कहते रहे कि चाहता नहीं खूब गहराई से समझ लेना। था, यह क्या हो रहा है? इनकार करते रहे। तो तुमने चाह की
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________________ जिन सूत्र भागः फिर प्रदर्शना की। तुम्हारी चाह भीतर बनी ही रही। तुम सुख __ अभी पश्चिम में वैज्ञानिक कहते हैं, जल्दी ही टेस्ट-ट्यूब में चाहते थे और दुख मिल रहा है तो तुम नाराज रहे, तुम क्रोधित बच्चे होने लगेंगे, ताकि स्त्रियों को इतनी झंझट न उठानी पड़े। रहे। दुख तो भोगना ही पड़ा। लेकिन ये क्रोध और नाराजगी के यह होगा। यह बीस वर्षों के भीतर होगा। यह तुम्हारे सामने नये बीज बो लिये। इनका दुख फिर भोगना पड़ेगा। होगा। क्योंकि स्त्रियों को एक बार पता हो गया कि बच्चे महावीर कहते हैं, तुम चुपचाप, बिना कोई प्रतिक्रिया किये, | | टेस्ट-ट्यूब में पैदा हो सकते हैं, तो जैसे ही मां के पेट में दुख आये तो उसे भोग लो। जैसे दर्पण के सामने सुंदर व्यक्ति | गर्भाधारण होगा, उसके अंडे को निकालकर टेस्ट-ट्यूब में रख आ जाये कि कुरूप व्यक्ति आ जाये, दर्पण कोई इनकार नहीं | दिया जायेगा। फिर वैज्ञानिक उसकी फिक्र कर लेंगे अस्पताल करता, दोनों को झलका देता है। फिर दोनों चले जाते हैं, दर्पण में। यह मां को नौ महीने की उपद्रव, परेशानी, कठिनाई, पीड़ा खाली रह जाता है। तो महावीर कहते हैं, सुख आये तो पकड़ना यह सब बच जायेगी। यह सब तो बच जायेगी, लेकिन मां भी मत, दुख आये तो धकाना मत। सुख आये तो समझना, किये | पैदा न होगी। हुए पुण्य-कर्मों का फल है। दुख आये तो समझना कि किये हुए जरा सोचो! तुम्हारा बच्चा टेस्ट-ट्यूब में पैदा हुआ, तो वह पाप-कर्मों का फल है। निष्पक्ष, तटस्थ दर्पण की भांति खड़े तुम्हारा है या किसी दूसरे का है, क्या फर्क पड़ता है? रहना : दोनों आये हैं, दोनों चले जायेंगे। जो आता है वह जाने टेस्ट-ट्यूब अगर बदल गयी हो भूल-चूक से क्लर्कों की, तो को ही आता है। जो आया है वह जाने के रास्ते पर ही है। सुबह तुम्हें कभी पता भी न चलेगा कि तुम्हारा है या किसी और का है! हो गयी, सांझ हो जायेगी। सांझ हो गयी, सुबह हो जायेगी। भेद ही क्या है? सूरज ऊगा, सूर्यास्त होने लगा। इसलिए घबड़ाना मत। तुम फिर गणित का ऐसे विस्तार होता है। फिर वैज्ञानिक कहते हैं सिर्फ चुपचाप खड़े रहना। तुम्हारी दृष्टि कोरी रहे, दर्पण की तरह कि जरूरी क्यों हो कि तुम्हारे ही वीर्याणु से तुम्हारा बच्चा पैदा रहे—बिना किसी पक्षपात के, बिना किसी विकल्प के। कोई | हो। अच्छे वीर्याणु मिल सकते हैं। यह बात सच है। आदमी धारणा मत बनाना। इस अवस्था का नाम तप है। जब बीज बोता है, खेती करता है, फूल लगाता है, तो अच्छे से तप से आदमी शुद्ध होता है। क्यों? क्योंकि तप से जो अतीत अच्छे बीज चुनता है। तुम अपना बच्चा पैदा करना चाहते हो, है, उससे छुटकारा हो जाता है। अतीत है अशुद्धि...अतीत से | अच्छे से अच्छे बीज चुनो। तुमसे बेहतर बीज मिल सकते हैं। छुटकारा है विशुद्धि। अतीत से दबे रहना है अशुद्धि। तो जल्दी ही, आज नहीं कल जैसे फूलों की दुकानों पर बीज कचरा, कूड़ा-कर्कट न-मालूम कितने जन्मों का छाती पर रखे पैकेट में मिलते हैं, वैसे आज नहीं कल वैज्ञानिक बच्चों के हम बैठे हैं! यह है अशुद्धि। इससे छुटकारा पा जाना है शुद्धि। वीर्याणु पैकेटों में बेचने लगेंगे। उसकी पूरी योजनाएं तैयार हैं। और जैसे ही कोई शुद्ध हुआ, वैसे ही महावीर कहते हैं: जो है, इतना ही नहीं, जैसे फूल के पैकेट पर फूल की तस्वीर बनी होती हमारा स्वरूप, स्वभाव, उसकी छवि उभरने लगती है; उसका है कि कैसा फूल होगा जब फूल होगा, बच्चे की तस्वीर भी बनी रूप स्पष्ट होने लगता है। और एक से दूसरी चीज जुड़ी है। होगी कि कैसा बच्चा होगा। तो तुम चुनाव कर सकते हो : कैसी लेकिन शुरुआत श्रद्धा से। आंख चाहिए, कैसे बाल चाहिए, कैसा चेहरा चाहिए, कितनी दर्शन, ज्ञान, चरित्र–इनको महावीर ने मोक्ष का मार्ग कहा | ऊंचाई चाहिए, लड़का चाहिए, लड़की चाहिए, वैज्ञानिक, है। जीवन बड़ा संयुक्त है : बीज से पौधा, पौधे से वृक्ष, वृक्ष में | कवि-तुम क्या चाहते हो? लेकिन तब एक बात पक्की है: फलों का लग जाना, फूलों का लग जाना। सब ठीक हो जायेगा; बच्चा तुम्हारा नहीं होगा। मां बनने से, कहीं बीच से शुरू मत करना! प्रारंभ से ही प्रारंभ करना। पिता बनने से, तुम वंचित रह जाओगे। बहुत लोग जल्दबाजी में होते हैं। वे सोचते हैं, 'फूल तो बाजार यह होनेवाला है, क्योंकि आदमी तकलीफों से बहुत डरने लगा में मिल जाते हैं। क्यों इतनी परेशानी उठानी? क्यों इतनी झंझट है। तो जहां-जहां सुविधा मिले, सब स्वीकार कर लेता है। लेनी? जो सस्ते में मिल जाता है, वह सस्ते में ले लिया जाये।' अगर सुविधा के कारण जीवन भी गंवा दे तो भी हर्ज नहीं, 542/
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________________ MRITARAMIN दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष - लेकिन सुविधा चाहिए। फिर थोड़ी देर बाद आया। उसे देखकर ही वह कैप्टन थोड़ा तप का अर्थ है : जीवन संघर्षों से गुजरता है, तूफान भी आते परेशान होने लगा। उसने कहा कि 'फिर आ गए! अब क्या हैं, कठिनाइयां भी हैं..-उनको स्वीकार करना। उनको शांत भाव मामला है?' तो मुल्ला ने कहा, 'और सब तो ठीक-ठाक है? से स्वीकार कर लेना, तो तुम्हारे जीवन में धीरे-धीरे शुद्धि और कोई गड़बड़ तो नहीं है ?' उस कैप्टन ने कहा कि इससे निखरेगी। आत्मा प्रगाढ़ होगी। तुम केंद्रित बनोगे, आत्मवान तुम्हें मतलब क्या है ? मुल्ला ने कहा, 'मतलब? फिर बीच में बनोगे। और एक से दूसरी चीज जुड़ी है। श्रद्धा से शुरू करना। मत कहना, जब रुक जाये कि उतरकर धक्के लगाओ!' हृदय से शुरू करना। क्योंकि वहीं तुम्हारे प्राणों का प्राण छिपा बस में बैठने के आदी! आदमी दूध से जल जाये तो छाछ भी है। वही तुम्हारा मंदिर है। और फिर ज्ञान अपने-आप चला फूंक-फूंककर पीने लगता है। तुम्हें दिखायी पड़े, आग जलाती आता है। है, अनुभव में आ जाये...। आया ही था खयाल कि आंखें छलक पड़ीं तो तुमने खयाल किया है। अगर कहीं थियेटर में बैठे हो और आंसू किसी की याद से कितने करीब थे। लोग इतना ही चिल्ला दें, 'आग!' कि भगदड़ मच जाती है। आया ही था खयाल की आंखें छलक पड़ी! खयाल ही उठता | किसी को आग दिखायी नहीं पड़ रही है, किसी ने हो सकता है है, याद ही आती है कि आंखों में आंसू भर जाते हैं। मजाक ही की हो; लेकिन लोग इतना ही चिल्ला दें, 'आग!' आंसू किसी की याद से कितने करीब थे। जैसे याद के करीब कि भगदड़ मच जाती है। फिर तुम लाख समझाओ कि रुको, आंसू हैं और हृदय में किसी की याद उठी तो आंखें डबडबा कोई सुननेवाला नहीं है। आग शब्द भी घबड़ा देता है। जीवंत आती हैं-ऐसा ही, जहां दर्शन घटा, वहां ज्ञान घटता है। बहुत अनुभव का इतना परिणाम है! करीब है ज्ञान दर्शन के। और जहां ज्ञान घटा, वहां चारित्र्य घटना | तो अगर वासना जला दे तो वासना की तो बात दूर, वासना शुरू हो जाता है। अगर एक ही बात सध जाये-दर्शन-तो | | शब्द भी तुम हाथ में न ले सकोगे। अगर कामवासना ने तुम्हारे सब सध जाता है। जीवन को दग्ध किया और घाव बना दिये तो कामवासना की तो महावीर ने तीन की बातें कहीं, ताकि तुम्हें पूरा विश्लेषण साफ दूर, कामवासना की जहां चर्चा भी होती है वहां तुम न बैठ हो जाये; अन्यथा दर्शन कहने से भी काम चल जाता। जब तुम्हें सकोगे। कोई अर्थ न रहा। व्यर्थ के लिए कौन बैठता है! और जाता है कि दरवाजा कहां है, तो फिर तुम दीवाल से व्यर्थ की ही बात नहीं, जले जीवन के दुखद अनुभव हुए, घाव नहीं निकलते। और जब तुम्हें दिखायी पड़ जाता है कि आग हाथ बने-कौन घावों को मांगने जाता है! को जला देती है, अनुभव में आ जाता है, तो फिर तुम हाथ आग लेकिन तुम सुनते हो ब्रह्मचर्य की चर्चा, लोभ पैदा होता है। में नहीं डालते। आग की तो बात दूर, आग की तस्वीर भी रखी वासना की आग अभी दिखाई नहीं पड़ी और ब्रह्मचर्य की चर्चा से हो तो तुम जरा बचकर चलते हो। | लोभ जगने लगता है-इससे अड़चन खड़ी होती है। इससे मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन पहली दफा समुद्र की यात्रा पर | जीवन में एक भ्रांति आती है।। गया। इसके पहले कभी समुद्र की यात्रा न की थी, जहाज में | महावीर कहते हैं, शुरू करना दर्शन से। दर्शन, ज्ञान, बैठा न था। बस के अलावा और किसी वाहन में बैठा ही न था। चरित्र-यह सम्यक सरणि है। और जीवन को अगर ठीक से जहाज में थोड़ी देर बैठा। उठा, कैप्टन के कमरे में जाकर बोला, पहचानना हो तो जीवन को प्रतिपल जागकर देखते रहना। उसके 'पेट्रोल-वेट्रोल तो भर लिया है?' तो उसने कहा, 'सब भर अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। जो भी है-अगर क्रोध हो रहा है लिया है, तुम फिक्र न करो। बैठो अपनी जगह पर!' थोड़ी देर तो क्रोध को जागकर देखना-वही दर्शन बनेगा। करुणा का बैठा रहा, फिर उठकर पहुंचा, और कहा, 'सुनो जी! शास्त्र मत पढ़ना, क्रोध को गौर से देखना : उसी से करुणा किसी इंजिन-विंजिन तो ठीक है?' कैप्टन थोड़ा झल्लाया। उसने दिन पैदा होगी। कहा कि सब ठीक है, आप अपनी जगह पर बैठिये! लेकिन वह मैं हकीकत-आश्ना हूं हस्तिए-मोहूम का 543
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________________ 2. जिन सूत्र भागः 11 देखता हूं गौर से फूलों को मुरझाने के बाद। 'और मोक्ष के बिना आनंद कहां, निर्वाण कहां।' ऐसे गौर से देखने से कुछ लाभ न होगा। जब नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं। फिर देखने से कुछ सार नहीं। बड़े सीधे-सरल, लेकिन बड़े वैज्ञानिक सूत्र हैं! बुढ़ापे में लोग कामवासना के संबंध में विचार शुरू करते हैं। 'दर्शन के बिना ज्ञान नहीं।' जब फूल मुर्झ गए, जब जीवन में ऊर्जा खो गयी, जब थक गये, इसलिए और कैसा भी ज्ञान तुमने इकट्ठा किया हो, उसे ज्ञान जब जीवन जवाब देने लगा, जब जिंदगी खुद ही उन्हें छोड़ने | मत समझना। और कितना ही ज्ञान तुम्हारे पास हो, उसे तुम लगी और रद्दी के ढेर पर फेंकने लगी-तब वे त्यागने की बात अज्ञान का आभूषण ही समझना; उससे अज्ञान ही सज गया है, सोचते हैं। संवर गया है, ज्ञान पैदा नहीं हुआ। उससे अज्ञान ढंक गया है, इसलिए महावीर ने एक बहुत अनूठा सूत्र भारत को ज्ञान पैदा नहीं हुआ। दिया-और वह था: जब तुम जवान हो, जब जीवन की ऊर्जा | 'ज्ञान के बिना चरित्र नहीं।' भरी-पूरी है, तभी अगर तुम जीवन के दुख को देख लो और दर्शन, ज्ञान, चरित्र। और ज्ञान की परीक्षा यही है कि वह उससे छूट जाओ, भरी जवानी में त्याग का फल लग जाये, तो | तुम्हारे आचरण में उतर आये। बड़ा शुभ है। क्योंकि तब ऊर्जा है। तो जिस ऊर्जा से तुम संसार मैंने सुना है, प्रसिद्ध शहीद चंद्रशेखर आजाद को तीन ही की तरफ जाते थे, वही ऊर्जा तुम्हें मोक्ष की तरफ ले जाने का | गालियां आती थीं। और जब वह बहुत क्रोध में भी आ जाते तो साधन बन जायेगी। ऊर्जा तो वही है। लेकिन जब ऊर्जा जा उन्हीं तीन गालियों को बार-बार दोहराने लगते। गधा, चुकी, थक गये, हाथ-पैर कमजोर पड़ गये, उठते नहीं बनता, नालायक, उल्लू के पट्टे-बस तीन ही गालियां आती थीं। बैठते नहीं बनता-तब तुम त्याग का सोचने लगे। यह त्याग न किसी मित्र ने कहा कि अगर तुम्हें गालियां देने में ऐसा रस आता हुआ, यह तो अपने को धोखा देना हुआ। जिंदगी खुद ही तुम्हें / है और क्रोध के वक्त गालियां कम पड़ जाती हैं तो और क्यों नहीं त्यागे दे रही है। अब तुम्हारे त्याग का कोई अर्थ नहीं है। यह तो | सीख लेते? कोई गालियों की कमी है?...कि गधा, | ऐसे ही हआ कि जब दांत टट गये तब तमने बहत-सी चीजें खाने | नालायक, उल्ल के पट्टे फिर गधा, नालायक, उल्ल के का त्याग कर दिया। अब तुम उन्हें खा ही नहीं सकते। पढे-बार-बार वही दोहराने लगते हो, अच्छा भी नहीं मालूम ध्यान रखना, जो बीत रहा है अभी, आज, यहां, उसके प्रति | होता! जैसे टूटा हुआ रिकार्ड दोहराने लगता है। जागना! दर्शन की क्षमता को वहां सजग करना। जैसे-जैसे तो चंद्रशेखर आजाद ने कहा, 'चौथी गाली की जरूरत नहीं दर्शन जागता जायेगा-क्रोध में, काम में, लोभ में, मोह है।' कोट के खीसे से पिस्तौल निकाली और कहा, 'गाली, में वैसे-वैसे तुम पाओगे मोह, काम, क्रोध, लोभ गिरने लगे, फिर गोली। तीन गाली काफी हैं। फिर इसके बाद गोली।' और एक नयी ऊर्जा का भीतर आविर्भाव हुआ। क्योंकि जो कहा कि मैं इस सूत्र को मानकर चलता हूं कि विचार आचरण में ऊर्जा क्रोध में लगी है वही मुक्त होकर करुणा बन जाती है। लाने चाहिए। तो गाली तो केवल विचार है, गोली आचरण है। दर्शन के माध्यम से क्रोध करुणा बन जाता है। और काम की मगर मजा यह है कि अगर गाली है तो गोली अपने-आप आ यात्रा राम की यात्रा बन जाती है। जायेगी। गाली कब तक देते रहोगे? अगर क्रोध है तो हिंसा पैदा 'सम्यक दर्शन के बिना ज्ञान नहीं।' होगी। उससे बच न सकोगे। क्योंकि जिसको हम विचार में नांदसणिस्स नाणं। सम्हालते हैं, वह आज नहीं कल आचरण में झलक जाता है। 'ज्ञान के बिना चारित्र्य नहीं।' क्योंकि आचरण कुछ भी नहीं है—निरंतर विचार, पर्त-पर्त नाणेण विणा न हंति चरणगुणा। विचार का ही जम जाना है। विचार ही तो वस्तुएं बन जाते हैं। 'चरित्रगुण के बिना मोक्ष नहीं।' जो तुमने सोचा है, कल वही तुम्हारा आचरण बन जायेगा। जो अगुणिस्स नत्यि मोक्खो तुम्हारा आज विचार है वह कल आचरण होगा। और जो आज
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________________ दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष तुम्हारा आचरण है वह कल तुम्हारा विचार था। भी ज्यादा जल्दबाजी में हैं, वे चरित्र से शुरू कर देते हैं। जब भी विचार और आचरण एक ही यात्रा के हिस्से हैं। विचार पहला तुम्हें खयाल उठता है, तुम सोचने लगते हो चरित्र को कैसे कदम है; आचरण अंतिम। अगर कोई विचार आचरण न बनता | बदलें। तुम आखिरी बात पहले लाना चाहते हो? तुम भ्रांति में हो तो इस बात का एक ही अर्थ होता है कि वह विचार तुम्हारा पड़ रहे हो। तुम सिर के बल खड़े हो जाओगे। नहीं है। इसलिए कैसे आचरण बने? इसलिए मैं कहता हूं, जैन मुनि सौ में निन्यानबे सिर के बल चिकित्सकों से पूछो! अगर तुम्हारे शरीर में खून की कमी हो खड़े हैं। उन्होंने चरित्र से शुरुआत कर दी। और महावीर के बड़े जाये तो हर किसी का खून तुम्हारे काम न पड़ेगा। तुम्हारा ही | सीधे-साफ सूत्र हैं। इनको समझने के लिए कोई बहुत बुद्धिमत्ता टाइप चाहिए। मतलब हुआ कि तुम्हारा खून ही तुम्हारा शरीर नहीं चाहिए। इनमें उलझाव कुछ भी नहीं है। महावीर की स्वीकार करता है और किसी तरह का खून स्वीकार नहीं उलझाने की आदत नहीं है; चीजों को बिलकुल साफ-साफ रख करता। अगर तुम्हारे चेहरे पर प्लास्टिक सर्जन कुछ आपरेशन देने की आदत है। अब इससे ज्यादा साफ सूत्र क्या होगा: करे और चमड़ी बदलनी हो तो तुम्हारे ही पैर या जांघ की चमड़ी 'दर्शन के बिना ज्ञान नहीं! ज्ञान के बिना चरित्र नहीं। चरित्र के निकालकर लगानी पड़ती है। क्योंकि दूसरी किसी की चमड़ी बिना मोक्ष नहीं।' तुम्हारा शरीर स्वीकार नहीं करता। | लेकिन जैन मुनि क्या कर रहा है? वह चरित्र को साध रहा है। जो शरीर के संबंध में सही है वह आत्मा के संबंध में और भी वह कहता है, जब चरित्र शुद्ध होगा तो ज्ञान शुद्ध होगा। जब ज्यादा सही है। तुम्हारा ही हो अनुभव तो ही तुम्हारी आत्मा ज्ञान शुद्ध होगा तो दर्शन शुद्ध होगा। उसने सारी प्रक्रिया उलटी कार करती है, अन्यथा नहीं स्वीकार करती। तम्हारे ही प्राणों कर ली है। वह सिर के बल खड़ा हो गया है। इसलिए न तो में पगा हो तो ही तुम्हारी आत्मा उसे अपने भीतर लेती है, अन्यथा दर्शन उत्पन्न होता, न ज्ञान उत्पन्न होता, न चरित्र उत्पन्न होता। बाहर फेंक देती है। जैसे हर किसी के खून को तुम्हारे भीतर नहीं | सब बासा है। सब उधार है। सब मुर्दा और लाश की भांति है। डाला जा सकता और जैसे हर किसी की चमड़ी तुम्हारे पैर पर या / कोई उत्सव नहीं है सत्य का। कोई परमात्मा की जीवंत अनभति तुम्हारे चेहरे पर नहीं चिपकायी जा सकती–शरीर तो बाहर है, | नहीं है। आत्मा तो बहुत गहरे है, तुम्हारा आखिरी, आत्यंतिक अस्तित्व 'क्रिया-विहीन ज्ञान व्यर्थ है।' हयं नाणं कियाहीणं। और है। वहां तो केवल तुम ही तुम हो। तुम्हारा ही जो है, वही वहां अज्ञानियों की क्रिया भी व्यर्थ है।' पाएगा जगह; शेष सब अस्वीकृत हो जाता है। _ये सूत्र बड़े बहुमूल्य हैं! इसलिए महावीर कहते हैं, सम्यक दर्शन के बिना ज्ञान नहीं। 'हया अण्णाणओ किया।' ज्ञान के बिना चारित्र्य नहीं। चारित्र्य के बिना मोक्ष नहीं। __'क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है।' अगर ऐसा कोई ज्ञान तुम्हारे और जो अभी चरित्र में शुद्ध नहीं हुआ, उसकी मुक्ति कहां! पास है जो जीवन में आचरित नहीं हो रहा है, अपने-आप जीवन क्योंकि मोक्ष तो जो गलत है उससे छुट जाने का नाम है, बंधन के में उतर नहीं रहा है तो व्यर्थ है, गलत है। और अगर तुम अज्ञानी टूट जाने का नाम है। हो और क्रिया में लग गये हो, चरित्र बनाने में लग गये हो, तो और मोक्ष के बिना निर्वाण कहां, आनंद कहां? वह भी व्यर्थ है। तो तुम अगर दुखी हो तो आकस्मिक नहीं। तुम दुखी रहोगे क्रियाहीन ज्ञान तो व्यर्थ है; क्योंकि जानते तुम हो, लेकिन ही, क्योंकि आनंद तक जाने की तुम यात्रा नहीं कर रहे हो। और जीवन में काम में नहीं लाते हो। यह तो ऐसे ही है कि भोजन रखा अगर कभी तुम उत्सुक भी होते हो तो तुम जल्दबाजी में हो, है और तुम भूखे बैठे हो। यह भोजन व्यर्थ है। हो या न हो, अधैर्य है बहुत। तो तुम सोचते हो, दो-चार कदम एक साथ उठ | बराबर है। यह सर्दी पड़ रही है, कंबल सामने रखे बैठे हो, जायें कि दो-चार सीढ़ियां एक साथ छलांग लग जायें, कि जल्दी ओढ़ते नहीं हो—कि धूप निकली है, तुम सर्दी में कंप रहे हो, कुछ हो जाये। कुछ हैं जो ज्ञान से शुरू करते हैं। कुछ, जो और | जाकर धूप में नहीं बैठ जाते हो कि थोड़ा धूप का आनंद ले लो 545/
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________________ जिन सूत्र भागः1 4 और शरीर को गरमा लो। यह ज्ञान तो व्यर्थ है जो आचरण में न हूं, जब तक तुम ढोलपुर में न बोल सको, तक तक तुम्हारे उतर आये। इस भोजन का क्या करोगे? बोलपुर में बोलने का कोई मतलब नहीं है। शांति तो वहां जीसस के जीवन में उल्लेख है कि जीसस ने चमत्कार किया घनीभूत होनी चाहिए जहां चारों तरफ अशांति है। ढोलपुर! और पत्थरों को रोटी बना दिया। एक ईसाई मेरे पास आया था। | बीच बाजार में अगर तुम मुक्त न हो सको तो तुम्हारी मुक्ति दो वह कहने लगा, आप इसमें मानते हैं या नहीं? मैंने कहा, मैं | कौडी की है। अगर हिमालय की चोटियों पर बैठकर तुम मुक्त मानता हूं क्योंकि इससे भी बड़ा चमत्कार दूसरे लोग कर रहे हैं। हो जाओ तो उस मुक्ति का कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि उतरते ही उन्होंने रोटियों को पत्थर बना दिया है! तो यह कोई बड़ी बात पहाड़ से नीचे तुम पाओगे, वह मुक्ति पहाड़ पर ही छूट गयी। नहीं कि ईसा ने अगर पत्थर को रोटी बना दिया; यह तो मैं रोज | बाजार में खरोंचें लगेंगी। देख रहा हूं कि करोड़ों-करोड़ों लोगों ने रोटी को पत्थर बना दिया | तुम अपने मुनियों को थोड़ा बाजार में लाओ! वहां पता चल है। चमत्कार तो वही है। | जायेगा, क्योंकि वहां चारों तरफ धक्कम-धुक्की है। ज्ञान रखा है, किसी काम नहीं आता! तुमने ज्ञान का कभी मैंने सुना है, एक संन्यासी तीस वर्ष तक हिमालय में रहा। उपयोग किया है? तुम कर ही नहीं सकते उपयोग, क्योंकि वह उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। लोग उसकी पहाड़ी गुफा दर्शन से पैदा नहीं हुआ है। वह तुम्हारा है ही नहीं। भीतर गहरे तक आने लगे, उसके चरण छूने। आखिर कुंभ का मेला भरा मन में तुम जानते ही हो कि वह ठीक नहीं है। ऊपर-ऊपर से कहे था, तो लोगों ने कहा, 'महाराज! अब तो नीचे उतरो।' तो जाते हो, ठीक है। लोकोपचार, समाज, परंपरा! उसको भी अब तो भरोसा आ गया था। तीस साल! एक दफा तुम्हारा ज्ञान एक शिष्टाचार मात्र है। लेकिन भीतर तुम्हें उस क्रोध नहीं हुआ। एक दफा नाराज नहीं हुआ। एक दफा कोई पर भरोसा नहीं है। जिस पर भरोसा नहीं उसे तुम कैसे जीवन में विकृति नहीं उठी। उसने कहा, आता हूं। वह आया। अब कुंभ उतारोगे? जिस भोजन पर तुम्हें भरोसा नहीं है, उसे तुम कैसे | का मेला! वहां कौन किसकी फिक्र करता है! धक्कम-धुक्की! करोगे? उसे तुम कैसे पचाओगे? उसे तुम क्यों चबाओगे? वह नीचे उतरा तो धक्कम-धुक्की होने लगी। एक आदमी का ऊपर से तुम कहते हो, भोजन है; भीतर तो तुम्हें दिखायी पड़ता पैर उसके पैर पर पड़ गया। वह भूल ही गया तीस साल का है पत्थर, मिट्टी है। इसलिए ज्ञान पड़ा रह जाता है। हिमालय का वास, शांति, ध्यान! झपटकर उसकी गर्दन पकड़ _ 'क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानियों की क्रिया भी व्यर्थ ली और कहा, 'तूने समझा क्या है ? किसके ऊपर पैर रख रहा है।' और अगर अज्ञानी चरित्रवान होने की कोशिश में लग जाये है? होश से चल!' लेकिन तभी उसे खयाल आया, अरे! तीस तो वह भी व्यर्थ है; क्योंकि वह कितना ही आरोपित कर ले | साल मिट्टी हो गये! चरित्र, वह कभी उसके प्राणों का स्पंदन नहीं बनेगा। वह उसके पर हिमालय में तुम बैठे थे, एकांत में, न किसी का पैर पैर पर जीवन का गीत न होगा। वह बस ऊपर-ऊपर होगा। जरा पड़ता था, न मौके थे, न अवसर थे। खरोंच जरा-सी लग जाये, खरोंच दो-और असली मवाद बाहर निकल आएगा। मुश्किल में पड़ जाओगे। तो तुम तथाकथित चरित्रवानों को खरोंचना मत, अन्यथा साधु अगर सम्यक चरित्र को उपलब्ध हो तो भगोड़ा नहीं चमड़ी से भी कम गहरा उनका चरित्र है। बिना खरोंचा रहे तो होगा। भगोड़े होने की कोई जरूरत नहीं है। उसके होने में सब ठीक चल जाता है। जरा-सी खरोंच-और कठिनाई हो साधुता होगी। उसने कुछ छोड़ा नहीं है; जो गलत था वह छूट जाती है। इसलिए तो तुम्हारे चरित्रवान जीवन को छोड़कर भाग गया है। और उसने कुछ थोपा नहीं है; जो ठीक था वह प्रगट जाते हैं, क्योंकि जीवन में लगती हैं खरोंचें। हुआ है। उसका चरित्र उसकी आंतरिक आत्मा का ही प्रतिबिंब रवींद्रनाथ से किसी ने पूछा, 'आपने शांतिनिकेतन बोलपुर में होगा। उसके जीवन में तुम विरोध न पाओगे। उसके भीतर कोई क्यों बनाया?' तो उन्होंने कहा, 'क्या ढोलपुर में बनाऊं? यहां | दोहरी पर्ते नहीं हैं। उसके व्यक्तित्व में तुम डबल:माइंड न कम से कम बोल तो सकते हैं। बोलपुर!' और मैं तुमसे कहता पाओगे। ऐसा नहीं है कि वह कुछ भीतर है और कुछ होने की 546
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________________ दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष चेष्टा कर रहा है। वह जो भीतर है, वैसा ही बाहर प्रगट हो रहा | पहली मुलाकात में क्या तमाशा खड़ा करें? और भीड़ लगी है, है। इसलिए महावीर नग्न खड़े हुए। मौलवी है, समाज है, विवाह हो रहा है, गठबंधन डाला जा रहा नग्न खड़े होना बड़ा प्रतीकात्मक है, कि जैसा मैं भीतर हूं वैसा है-अब इसमें कहां तमाशा खड़ा करो बीच में—इसलिए! बाहर। कपड़े भी क्यों पहनं? मैं वैसा क्यों दिखलाऊं जैसा कि जिंदगी में तुम्हारी कसमें, तुम्हारे व्रत, तुम्हारे चरित्र, अगर मैं नहीं हूं? किसी कारण से हैं तो ऊपर-ऊपर होंगे। तुमने देखा! कपड़े के पीछे सिर्फ शरीर को ढांकने की ही पत्नी बहुत नाराज हो गयी–यह मौलवी की और विवाह की आकांक्षा थोड़े ही है। अगर सिर्फ शरीर को ढांकने की आकांक्षा बात उठते देखकर। और उसने कहा कि मेरे मन में कई दफे ऐसा हो तो ठीक। कपड़े के पीछे शरीर को वैसा दिखाने की आकांक्षा लगता है कि तुम बार-बार सोचते होओगे कि मैं अगर किसी है जैसा वह नहीं है। तो महावीर का नग्न खड़े हो जाना कपड़ों और को ब्याही गई होती तो अच्छा था। का विरोध नहीं है; लेकिन तुम्हारी गहरी आकांक्षा का विरोध है। मुल्ला ने कहा, 'नहीं, कभी नहीं! मैं किसी का भला...किसी देखा स्त्रियां या पुरुष! पुरुष कोट बनवाते हैं तो कंधों पर रुई का बुरा क्यों चाहने लगा! हां, यह भावना जरूर मन में भरवा लेते हैं, क्योंकि छाती उभरी हुई दिखायी पड़े। रुई सही; कभी-कभी उठती है कि तुम अगर जनम भर कुंवारी रहती तो मगर कौन देख रहा है भीतर आकर! बाहर से चलते तो छाती | बड़ा अच्छा होता।' उभरी दिखायी पड़ती है। हम छिपाये जाते हैं। जहां प्रेम नहीं है, वहां प्रेम दिखलाए जाते स्त्रियां स्तनों को हजार तरह से उभारकर दिखलाने की कोशिश हैं। जहां सदभाव नहीं है, वहां सदभाव दिखलाए चले जाते हैं। में लगी रहती हैं। न मालूम कितने तरह के इंतजाम कर रखे हैं। और जैसे हम नहीं हैं वैसा हम अपने चारों तरफ रूप खड़ा करते जैसा नहीं है वैसा दिखाने की चेष्टा चल रही है। रहते हैं। धीरे-धीरे दूसरे तो धोखे में आते ही हैं, हम भी धोखे में महावीर नग्न खड़े हुए—सिर्फ इस अर्थ में। यह प्रतीकात्मक आ जाते हैं। अपने ही प्रचारित असत्य अपने को ही सत्य मालूम है कि जैसा हूं, ठीक हूं। अब इसको अन्यथा दिखाने की क्या होने लगते हैं। तब एक बड़ी दुविधा पैदा होती है। उसी दुविधा जरूरत; अन्यथा दिखाने से अन्यथा हो तो न जाऊंगा। किसको | में लोग फंसे हैं। धोखा देना है और क्या सार है? महावीर कहते हैं, क्रियाविहीन ज्ञान व्यर्थ, अज्ञानियों की क्रिया दर्शन हो तो ज्ञान होता, ज्ञान हो तो एक चरित्र आना शुरू व्यर्थ। तो न तो आचरण करना जबर्दस्ती। क्योंकि जो तुम्हारे होता। लेकिन वह चरित्र बड़ा नैसर्गिक होता। उसमें आरोपण, ज्ञान में न उतरा हो वह तुम्हें पाखंडित करेगा, तुम्हें पाखंडी चेष्टा, श्रम जरा भी नहीं होता। एक नैसर्गिक दशा होती है। बनाएगा। और अगर कोई तुम्हारे ज्ञान में उतरा हो तो उसकी मुल्ला नसरुद्दीन के घर मैं मेहमान था। सुबह-सुबह उसकी परीक्षा यही है कि वह आचरण में उतरे। इससे तुम गलत अर्थ पत्नी से किसी बात पर झंझट हो गयी। तो मुझे देखकर उसने मत लेना, जैसा कि आमतौर से जैन अनुयायी लेते हैं। वे सोचते थोड़ा ज्यादा रौब बांधना चाहा पत्नी पर। और उसने कहा कि हैं कि जो ज्ञान में आ गया, अब इसको आचरण में उतारना है। देखो, मौलवी के सामने, समाज के सामने तुमने कसम नहीं नहीं, यह तो सिर्फ परीक्षा, कसौटी है। महावीर यह कह रहे हैं खायी थी कि सदा मेरी आज्ञा का पालन करोगी? कि जो ज्ञान में आ गया है, वह आचरण में आना ही चाहिए। मैं मौजूद था तो उसने सोचा कि शायद पत्नी थोड़ी झुकेगी और अगर ज्ञान में आ गया है तो आचरण में आने से बच नहीं झंझट ज्यादा न करेगी। सकता। लेकिन एक शर्त है कि ज्ञान में दर्शन के माध्यम से लेकिन पत्नी ने कहा, 'हां, खायी थी, मुझे याद है। लेकिन आया हो। अगर दर्शन के माध्यम से न आया हो तो ज्ञान की वह सिर्फ इसीलिए खायी थी कि मैं उस वक्त पहली-पहली | तरह पड़ा रहेगा—तुमसे दूर, संबंध न जुड़ेगा; तुम्हारे हृदय और मुलाकात में तमाशा खड़ा नहीं करना चाहती थी।' तुम्हारे ज्ञान में कोई सेतु न होगा। अब ऐसी कसम का क्या अर्थ, जो इसीलिए खायी गई हो कि 'जैसे पंगु व्यक्ति वन में लगी आग को देखते हुए भी भागने में 547
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________________ जिन सूत्र भागः असमर्थ होने से जल मरता है...और अंधा व्यक्ति दौड़ते हुए भी | न निकल सकेंगे। और जिनके पास ज्ञान है लेकिन चरित्र नहीं, वे देखने में असमर्थ होने से जल मरता है।' भी न निकल सकेंगे। तुम्हारे भीतर एक रसायन घटे, एक जंगल में आग लगी हो और एक अंधा आदमी हो जंगल में, अल्केमिकल परिवर्तन हो, एक कीमिया से तुम गुजर जाओ कि वह दौड़ सकता है; लेकिन उसे दिखायी नहीं पड़ता कि आग तुम्हारा ज्ञान दर्शन बने, तुम्हारी आंख बन जाये और तुम्हारा ज्ञान कहां है, लपटें कहां हैं। वह दौड़कर भी जल मरता है। और एक तुम्हारा चरित्र बन जाये। दो तरफ ज्ञान में घटनाएं घटें, एक तरफ लंगड़ा हो, उसे दिखायी पड़ता है कि आग कहां लगी है, कहां से ज्ञान दर्शन बने और दूसरी तरफ ज्ञान चरित्र बने, तो पक्षी के दोनों भागू, कहा से निकलूं; लेकिन पैर नहीं हैं, तो भी जल मरता है। / पंख उपलब्ध हो गए। अब तुम उड़ सकते हो इस विराट के जिस व्यक्ति के पास ज्ञान तो है, लेकिन आचरण नहीं, वह | आकाश में। जल मरेगा। वह लंगड़ा है। जिस व्यक्ति के पास आचरण तो है अंधेरी रात पर है, लेकिन बोध नहीं, वह भी जल मरेगा। उसके पास पैर तो थे, दीवा जलाना कब मना है? लेकिन आंख नहीं है। कल्पना के हाथ से 'कहा जाता है कि ज्ञान और क्रिया के संयोग से ही फल की कमनीय जो मंदिर बना था प्राप्ति होती है। जैसे कि वन में पंगु और अंधे के मिलने पर भावना के हाथ से जिसमें पारस्परिक संप्रयोग से वन से निकलकर दोनों नगर में प्रविष्ट हो वितानों को तना था, जाते हैं। एक पहिए से रथ नहीं चलता।' स्वप्न ने अपने करों से पासंतो पंगुलो दड्डो, धावमाणो य अंधओ। था जिसे रुचि से संवारा अंधा भी मर जाता है। पैर थे, बच सकता था। पंगु भी मर स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, जाता है। आंखें थीं, बच सकता था। रसों से जो सना था लेकिन दोनों का मिलन चाहिए। ढह गया वह तो जुटाकर संजो असिद्धीइ फलं वयंति, न ह एग चक्केण रहो पयाइ। ईंट, पत्थर, कंकड़ों को अंधो य पंगु य वणे समिच्चा, ते संपडत्ता नगरं पविट्ठा।। एक अपनी शांति की अगर दोनों साथ हो जाएं, अगर अंधा और लंगड़ा एक कुटिया बनाना कब मना है? समझौते पर आ जायें, एक मैत्री कर लें, एक संबंध बना है अंधेरी रात पर लें-संबंध कि लंगड़ा कहे कि मुझे तुम अपने कंधों पर बिठा दीवा जलाना कब मना है? लो, ताकि मैं तुम्हारी आंख का काम करने लगू; संबंध कि अंधा जिस दिन तुम दर्शन को उपलब्ध होओगे, उस दिन तुम्हारा कहे, तुम मेरे कंधों पर बैठ जाओ, ताकि मैं तुम्हारे पैर बन जाऊं। पुराना भवन-सपनों का, स्वर्ग के रंगों का, इंद्रधनुषों का अंधा और लंगड़ा उस वन में जहां आग लगी है, बचकर निकल गिरेगा-धूल में गिरेगा। खंडहर भी न बचेंगे। क्योंकि सपने के सकते हैं अगर एक व्यक्ति हो जायें, अगर दो न रहें। अगर कहीं कोई खंडहर बचते हैं। बस तिरोहित हो जायेगा, जैसे कभी लंगड़ा अंधे के कंधे पर बैठ जाये, अंधे के लिए देखे और अंधा न था। हाथ में राख भी न रह जायेगी। लंगड़े के लिए चले, दोनों जुड़ जायें, यह संयोग अगर बैठ जाये, दर्शन को उपलब्ध होते ही, जीवन को गौर से देखते ही एक तो बचकर निकल सकते हैं, तो सोने में सुगंध आ जाये। बात साफ हो जाती है कि जीवन है, तुम हो-और बीच में तुमने महावीर कहते हैं, एक पहिये से रथ नहीं चलता। और ऐसी ही जो सपने बनाए थे वे झूठे थे। वे तुम्हारी मूर्छा से उठे थे। वे व्यक्ति के जीवन की दशा है। जीवन में तो आग लगी है। यह तुम्हारी बंद आंखों से उठे थे। जैसे सुबह एक आदमी जागता है, जीवन का वन तो जल रहा है। इससे निकलने का उपाय? आंख खोलता है-सारे सपने तिरोहित हो गए। अकेला जिनके पास चरित्र है और जिनके पास बोध नहीं, वे भी दर्शन का अर्थ है, ऐसे ही तम जीवन के प्रति आंख खोलो, 548
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________________ दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष जागो और देखो! तो कितने-कितने तुमने सजाए हैं, संवारे हैं और दर्शन मूल भित्ति है। अगर दर्शन को न समझ पाए तो पूरे स्वप्न, कितने रंग भरे हैं ! वे सब अचानक तिरोहित हो जायेंगे। महावीर बेबूझ रह जायेंगे। दर्शन का अर्थ है : आंख स्वप्न से कितने ही रंगीन हों, सपने सपने हैं। उनके तिरोहित हो जाने से खाली हो; आंख में कोई सपना न हो, कोई चाह न हो, कोई घबड़ा मत जाना। ईंट-पत्थर से भी छोटी-सी कुटिया बनायी जा तृष्णा न हो। आंख उसको देखने को राजी हो जो है; आंख सकती है। सत्य से भी शांति की छोटी-सी कुटिया बनायी जा उसकी मांग न करे जो होना चाहिए। सकती है। झूठे सपनों के बड़े महलों से कुछ सार नहीं; उनमें फिर से दोहरा दूं। जब भी तुम कहते हो ऐसा होना चाहिए, कोई कभी रहा नहीं। लोगों ने सिर्फ सोचा है कि रहेंगे। वह सिर्फ तभी तुम उसे देखने में असमर्थ हो जाते हो-जो है। तब तुम बातचीत है। वह बातचीत कितनी ही सुंदर मालूम पड़े, वह सिर्फ उसे देखने लगते हो किसी गहरे तल पर-जो नहीं है और होना लफ्फाजी है। | चाहिए। तब तुमने सपना बनाना शुरू कर दिया। तुमने यथार्थ मैंने सुना है, मिर्जा गालिब के पास कोई आदमी रुपये उधार को न देखा। तुमने आदर्श को मांगा। तुमने वह न देखा जो मांगने आया। उन्होंने बड़ी मीठी बातें कहीं। कवि थे। जो मौजूद था। तुम उसकी चाह करने लगे जो होना चाहिए। तुम आदमी रुपये उधार मांगने आया था, उसने भी कविता में ही बात | आशा को बीच में ले आए। तुम कल्पना बीच में ले आए। फिर की। कहा कल्पना ने ताने-बाने बुने। फिर सब चीजें गलत हो गयीं। फिर काका! बड़े बे-वक्त आ गए कल्पना के माध्यम से तुम जो देखते हो वह सत्य नहीं है। ऐसा व्यर्थ ही रास्ता नापा तुम चाहते थे। और आपको देखके मेरा मन कांपा तुमने देखा, जब दो व्यक्ति एक-दूसरे के प्रेम में पड़ जाते हैं तो और आपने समय ठीक नहीं भांपा एक-दूसरे में ऐसी चीजें देखने लगते हैं जो हैं ही नहीं। स्त्री पुरुष मेरे शेर मारने गये हैं डाका में ऐसा देखने लगती है कि ऐसा महावीर कभी हुआ ही नहीं। अभी तो चल रहा है फाका पुरुष स्त्री में देखने लगता है जगत का सारा सौंदर्य! ऐसी बातें लौटकर आने दो मेरे काका करने लगते हैं कि जिसका हिसाब नहीं। चांद-तारों को देखने आपका बन जायेगा खाका लगते हैं-एक-दूसरे के चेहरों में, आंखों में। अनंत फूलों की अभी हाका करो, वर्ना गंध एक-दूसरे के पसीने से आने लगती है। ये सपने हैं! ऐसा वे बीबी बना देगी आपका साका चाहते हैं। फिर अगर सुहागरात पूरी होते-होते ये सब सपने टूट और मैं करूंगा ताका जाते हैं तो आश्चर्य नहीं। आश्चर्य तो यह था कि तुम इतनी देर मेरे आका! अभी न करना इधर नाका भी कैसे देख सके! नहीं तो बीबी न छोड़ेगी एक बाल बांका। फिर प्रेमी सोचते हैं कि दूसरे ने मझे धोखा दिया। कोई किसी इतनी लंबी कविता कही! लेकिन लेना-देना कुछ भी नहीं है। को धोखा नहीं दे रहा-तुम ही धोखा खा रहे हो। फिर प्रेमी वह आदमी कविता से ही घबड़ाकर भाग गया होगा। फिर दुबारा सोचता है, यह प्रेयसी तो गलत साबित हुई। यह तो मैंने जो फूल न आया होगा। की गंध देखी थी वह निकली न। यह क्या मुझे धोखा दे गई। यह तुम्हारे शब्द कितने ही रंगीन हों, और कितने ही काव्य के रंग तो बड़ी कर्कशा निकली। और मैंने तो सारे संगीत, सारा साज तुमने भरे हों, और कितनी ही तुकबंदी बांधी हो, कितने ही शब्दों इसके कंठ में सुना था। मैंने तो कोयल को कूकते सुना था। मैंने का सौंदर्य बिठाया हो लेकिन भुलावे हैंऔर जितने जल्दी तो कोकिला जानी थी। और यह तो घर आते-आते स्वर कर्कश जाग जाओ उतना अच्छा है। हो गया। तो क्या इसने मुझे धोखा दिया था? क्या उस क्षण दर्शन का क्या अर्थ? दर्शन का इतना ही अर्थ है : आंखें इसने बनावट की थी? वह जो माधुर्य इससे मैंने पाया था, तो सपनों से खाली हो जायें। वह सब प्रवंचना थी? तो वह जाल था? वह मुझे फंसाने के 549
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________________ जिन सूत्र भागः1 लिए था? और प्रेयसी भी यही सोचने लगती है कि इस आदमी ढह गया वह तो जुटाकर में जो भगवत्ता देखी थी वह कहां गई। इसके चरणों में सिर रखने ईंट, पत्थर, कंकड़ों को का मन हुआ था तो वे चरण सब बनावटी थे। वह सब एक अपनी शांति की पाखंड था? कुटिया बनाना कब मना है? जल्दी ही कांटे उभर आते हैं, फूल विदा हो जाते हैं। जल्दी ही शुद्ध दर्शन से जो दिखायी पड़ता है, यथार्थ, उस यथार्थ से ही यथार्थ प्रगट होता है और सपने हट जाते हैं। | अपनी जीवन की कुटिया को बना लेने का नाम चारित्र्य है। और ऐसा प्रेमी और प्रेयसी के बीच होता है, ऐसा नहीं—ऐसा | स्वप्न से जीवन को बनाना और सत्य से जीवन को हमारे हर संबंध में होता है। ऐसे जीवन के हर मोड़ पर हम उन बनाना-बस यही जीवन को बनाने के दो ढंग हैं। चीजों को देख लेते हैं जो हैं नहीं। हम उन इंद्रधनुषों को तान लेते ढह गया वह तो जुटाकर हैं जो कहीं भी नहीं हैं। और फिर जब इंद्रधनुष नहीं पाते हैं तो रोते ईंट, पत्थर, कंकड़ों को हैं, चीखते हैं, विषाद से भरते हैं, दुखी होते हैं, चिंतित होते हैं। एक अपनी शांति की दर्शन का अर्थ है : जो है उसे बिना किसी आशा से समिश्रित कुटिया बनाना कब मना है? किए, बिना किसी कल्पना में डुबाये, बिना कैसा होना चाहिए है अंधेरी रात पर उसको बीच में लाये, देख लेने की कला! दीवा जलाना कब मना है? आंख साफ हो तो तुम कभी उलझोगे न। आंख साफ हो तो लेकिन यह किसी बाहर के दीये के जलाने की बात नहीं यथार्थ से संबंध रहेगा; अयथार्थ तुम्हें बांधेगा न। और आंख है-भीतर के दीये को जलाने की बात है। और यह दीया जलने साफ हो, तो साफ आंख से जो बोध संग्रहीत होता है उसका नाम लगता है जैसे-जैसे तुम आंख को साफ करके देखने लगते हो। ज्ञान। साफ आंख से संगृहीत बोध का अंतिम जो परिणाम होता | तो क्या करो? है, उसका नाम चारित्र्य। और चारित्र्य का जो आत्यंतिक फल है | महावीर का शब्द है-सामायिक। पतंजलि का शब्द वह मोक्ष। है-ध्यान। बुद्ध का शब्द है-सम्यक स्मृति। जीवन को है अंधेरी रात पर जागरण से भरो! जो भी करते हो, करते समय स्मरण रखो कि दीवा जलाना कब मना है? सपनों को हटाते चलो। पुरानी आदतें हैं, वे बार-बार बीच में आ रात अंधेरी है। यथार्थ कठोर है। लेकिन दीये के जलाने की जायेंगी। उनको हटाते चलो।। कोई मनाही नहीं है। तेरी दुआ है कि हो तेरी आरजू पूरी है अंधेरी रात पर मेरी दुआ है कि तेरी आरजू बदल जाए। दीवा जलाना कब मना है? तुम तो चाहते हो कि तुम्हारी आकांक्षाएं पूरी हो जायें, लेकिन -आंख के दीये को जलाओ! दर्शन को जगाओ! महावीर, बुद्ध, कृष्ण चाहते हैं तुम्हारी आकांक्षाएं बदल जायें। कल्पना के हाथ से कमनीय आकांक्षाएं पूरी करना चाहोगे तो सपनों में रहोगे। आकांक्षा जो मंदिर बना था बदल जाए, आकांक्षा न हो जाए, शून्य हो जाए–तो आकांक्षा भावना के हाथ ने जिसमें के नीचे से जो शक्ति बचेगी, जो आकांक्षा में नियोजित थी, मुक्त वितानों को तना था होगी, वह तुम्हारे जीवन में विस्फोट हो जायेगा; जैसे अणु को स्वप्न ने अपने करों से हम तोड़ते हैं, तो छोटे-से अणु में जो आंख से भी दिखायी नहीं था जिसे रुचि से संवारा पड़ता, इतनी ऊर्जा प्रगट होती है। अणु के जो परमाणु हैं वह स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, एक-दूसरे को बांधे हुए हैं। जब उन्हें हम अलग करते हैं तो जो रसों से जो सना था शक्ति उनको बांधे थी, वह मुक्त होती है। उस मुक्त शक्ति का 550]
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________________ दर्शन, ज्ञान, चरित्र-और मोक्ष / Pain परिणाम हिरोशिमा में देखा, नागासाकी में देखा: एक लाख पचाओगे, पुष्ट होओगे, तो चारित्र्य उत्पन्न होगा। आदमी क्षणभर में राख हो गए। एक छोटे-से परमाणु को | और मोक्ष चारित्र्य की प्रभा है। चरित्रवान मुक्त है। चरित्रहीन जिसको अब तक किसी ने देखा नहीं है, इतने क्षुद्र के भीतर इतनी बंधा है। चरित्रवान की जंजीरें गिर गयीं। ऊर्जा छिपी है! तो आत्मा के भीतर कितनी ऊर्जा न छिपी होगी! | लेकिन अभी तो तुमने जो चरित्रवान देखे हैं, तुम उनको जरा आत्मा के बंधन को हटाना जरूरी है। जैसे अणु के बंधन को पाओगे कि उन्होंने नयी जंजीरें बना ली हैं। तो तुम्हारे चरित्रहीन हटाया तो इतनी विराट ऊर्जा प्रगट हुई-आत्मा के बंधन हट भी बंधे हैं, तुम्हारे चरित्रवान भी बंधे हैं। और अकसर तो बड़ा जायें तो जो परम ऊर्जा प्रगट होती है उसी का नाम महावीर ने व्यंग्य और बड़ी उलटी बात दिखायी पड़ती है: चरित्रहीनों से परमात्मा कहा है। वह आत्म-विस्फोट है। ज्यादा बंधे तुम्हारे चरित्रवान हैं। चरित्रहीनों से भी बंधे! बंधन हटाने हैं। बंधन आकांक्षाओं के, आशाओं के हैं। बंधन चरित्रहीन में भी थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता मालूम पड़ती है। मूर्छा के हैं। तो मूर्छा को तोड़ने में लग जाओ। चरित्रवान तो बैठा है मंदिर में, स्थानक में, पूजागृह में बंद! ऐसा सारे विचार का महावीर का एक संक्षिप्त भाव है : मूर्छा को घबड़ाया, डरा! लेकिन कहीं चूक हो गयी है। चरित्र की प्रभा तोड़ने में लग जाओ। जो भी करो अपने को जगाकर करो। राह मोक्ष है। जो मुक्त न कर जाये, वह चरित्र नहीं। पर चलो तो जागकर चलो। भोजन करो तो जागकर करो। तुम दर्शन से शुरू करना : किसी दिन मोक्ष की प्रभा उपलब्ध किसी का हाथ हाथ में लो तो जागकर लो। और सदा ध्यान रखो होती है। निश्चित होती है। यह जीवन का ठीक गणित है। कि बीच में सपना न आए। थोड़े दिन सपनों को ऐसे छांटते रहे, और महावीर जो भी कह रहे हैं, वह वैज्ञानिक संगति का सत्य हटाते रहे, हटाते रहे तो जल्दी ही तुम पाओगे कभी-कभी | है। उसमें एक-एक कदम वैज्ञानिक है। जैसे सौ डिग्री पानी क्षणभर को सपने नहीं होते और झलक मिलती है। वही झलक गरम करो, भाप बन जाता है-ऐसे महावीर के वचन हैं : दर्शन ज्ञान बनेगी। फिर उन झलकों को इकट्ठी करते जाना। वह अपने से ज्ञान, ज्ञान से चरित्र, चरित्र से मोक्ष! आप इकट्ठी होती चली जाती हैं। ज्ञान एक दफा हो तो कोई भूल नहीं सकता। वह तो हमें, दूसरों की बातें हैं, इसलिए याद रखनी आज इतना ही। पड़ती हैं। जो अपने में घटता है उसे विस्मरण करने का उपाय नहीं है। वह तो संगृहीत होता चला जाता है, सघन होता चला जाता है। और जैसे बूंद-बूंद गिरकर सागर बन जाता है, ऐसे बूंद-बूंद ज्ञान की गिरकर आचरण निर्मित होता है। नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे। चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई।। 'ज्ञान से जानना होता है; दर्शन से श्रद्धा, श्रद्धा से चरित्र, चरित्र से शुद्धि...' नादंसणिस्स नाणं-दर्शन के बिना ज्ञान नहीं। नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा-ज्ञान के बिना चरित्र नहीं। अगुणिस्स नत्थि मोक्खो-चरित्र के बिना मोक्ष कहां? नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं-और मोक्ष के बिना आनंद कहां? उस परमानंद को चाहते हो तो दर्शन के बीज बोओ। दर्शन के बीज बोओ-ज्ञान की फसल काटोगे। उस ज्ञान की फसल को 551