________________ जिन सूत्र भागः असमर्थ होने से जल मरता है...और अंधा व्यक्ति दौड़ते हुए भी | न निकल सकेंगे। और जिनके पास ज्ञान है लेकिन चरित्र नहीं, वे देखने में असमर्थ होने से जल मरता है।' भी न निकल सकेंगे। तुम्हारे भीतर एक रसायन घटे, एक जंगल में आग लगी हो और एक अंधा आदमी हो जंगल में, अल्केमिकल परिवर्तन हो, एक कीमिया से तुम गुजर जाओ कि वह दौड़ सकता है; लेकिन उसे दिखायी नहीं पड़ता कि आग तुम्हारा ज्ञान दर्शन बने, तुम्हारी आंख बन जाये और तुम्हारा ज्ञान कहां है, लपटें कहां हैं। वह दौड़कर भी जल मरता है। और एक तुम्हारा चरित्र बन जाये। दो तरफ ज्ञान में घटनाएं घटें, एक तरफ लंगड़ा हो, उसे दिखायी पड़ता है कि आग कहां लगी है, कहां से ज्ञान दर्शन बने और दूसरी तरफ ज्ञान चरित्र बने, तो पक्षी के दोनों भागू, कहा से निकलूं; लेकिन पैर नहीं हैं, तो भी जल मरता है। / पंख उपलब्ध हो गए। अब तुम उड़ सकते हो इस विराट के जिस व्यक्ति के पास ज्ञान तो है, लेकिन आचरण नहीं, वह | आकाश में। जल मरेगा। वह लंगड़ा है। जिस व्यक्ति के पास आचरण तो है अंधेरी रात पर है, लेकिन बोध नहीं, वह भी जल मरेगा। उसके पास पैर तो थे, दीवा जलाना कब मना है? लेकिन आंख नहीं है। कल्पना के हाथ से 'कहा जाता है कि ज्ञान और क्रिया के संयोग से ही फल की कमनीय जो मंदिर बना था प्राप्ति होती है। जैसे कि वन में पंगु और अंधे के मिलने पर भावना के हाथ से जिसमें पारस्परिक संप्रयोग से वन से निकलकर दोनों नगर में प्रविष्ट हो वितानों को तना था, जाते हैं। एक पहिए से रथ नहीं चलता।' स्वप्न ने अपने करों से पासंतो पंगुलो दड्डो, धावमाणो य अंधओ। था जिसे रुचि से संवारा अंधा भी मर जाता है। पैर थे, बच सकता था। पंगु भी मर स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, जाता है। आंखें थीं, बच सकता था। रसों से जो सना था लेकिन दोनों का मिलन चाहिए। ढह गया वह तो जुटाकर संजो असिद्धीइ फलं वयंति, न ह एग चक्केण रहो पयाइ। ईंट, पत्थर, कंकड़ों को अंधो य पंगु य वणे समिच्चा, ते संपडत्ता नगरं पविट्ठा।। एक अपनी शांति की अगर दोनों साथ हो जाएं, अगर अंधा और लंगड़ा एक कुटिया बनाना कब मना है? समझौते पर आ जायें, एक मैत्री कर लें, एक संबंध बना है अंधेरी रात पर लें-संबंध कि लंगड़ा कहे कि मुझे तुम अपने कंधों पर बिठा दीवा जलाना कब मना है? लो, ताकि मैं तुम्हारी आंख का काम करने लगू; संबंध कि अंधा जिस दिन तुम दर्शन को उपलब्ध होओगे, उस दिन तुम्हारा कहे, तुम मेरे कंधों पर बैठ जाओ, ताकि मैं तुम्हारे पैर बन जाऊं। पुराना भवन-सपनों का, स्वर्ग के रंगों का, इंद्रधनुषों का अंधा और लंगड़ा उस वन में जहां आग लगी है, बचकर निकल गिरेगा-धूल में गिरेगा। खंडहर भी न बचेंगे। क्योंकि सपने के सकते हैं अगर एक व्यक्ति हो जायें, अगर दो न रहें। अगर कहीं कोई खंडहर बचते हैं। बस तिरोहित हो जायेगा, जैसे कभी लंगड़ा अंधे के कंधे पर बैठ जाये, अंधे के लिए देखे और अंधा न था। हाथ में राख भी न रह जायेगी। लंगड़े के लिए चले, दोनों जुड़ जायें, यह संयोग अगर बैठ जाये, दर्शन को उपलब्ध होते ही, जीवन को गौर से देखते ही एक तो बचकर निकल सकते हैं, तो सोने में सुगंध आ जाये। बात साफ हो जाती है कि जीवन है, तुम हो-और बीच में तुमने महावीर कहते हैं, एक पहिये से रथ नहीं चलता। और ऐसी ही जो सपने बनाए थे वे झूठे थे। वे तुम्हारी मूर्छा से उठे थे। वे व्यक्ति के जीवन की दशा है। जीवन में तो आग लगी है। यह तुम्हारी बंद आंखों से उठे थे। जैसे सुबह एक आदमी जागता है, जीवन का वन तो जल रहा है। इससे निकलने का उपाय? आंख खोलता है-सारे सपने तिरोहित हो गए। अकेला जिनके पास चरित्र है और जिनके पास बोध नहीं, वे भी दर्शन का अर्थ है, ऐसे ही तम जीवन के प्रति आंख खोलो, 548 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org